अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल की बात ऐसे कर रहे हें,जैसे एक कानून पुरे सिस्टम को सुधार देगा.हमारे पास पहले से कानूनों का पहाड़ है,समस्या उसको लागु करवाने वाली मशीनरी की है...
पंकज चतुर्वेदी
कोई दो दशक पहले वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण ने :कालचक्र: के दिनों में एक बात कही थी - 'हर कोई चाहता है कि भगत सिंह पैदा हो, लेकिन मेरे घर में नहीं, पडोसी के यहाँ. मेरे घर तो अम्बानी ही आये.' उस दौर में हवाला पर बवाल था-- लग रहा था कि सार्वजानिक जीवन में सुचिता के दिन आ गए- कई की कुर्सियां गईं, कुछ नए सत्ता के दलाल उभरे.
फिर हालात पहले से भी बदतर हो गए, फिर आया राजा मांडा- वी पी सिंह का दौर- गाँव-गाँव शहर-शहर बोफोर्स तोप के खिलोनेनुमा मॉडल लेकर नेता घूमे- "तख़्त बदला, ताज बदला- बैमानों का राज बदला" या यों कहें कि केवल बेईमान ही बदले . हालात उससे भी अधिक बिगड़ गए.
आरक्षण, साम्प्रदायिकता की मारा-मार ने देश की सियासत की दिशा बदल दी और मंडल और कमंडल के छद्म दिखावे से लोगों को बरगला कर लोगों का सत्ता -आरोहन होने लगा-बात विकास, युवा, अर्थ जैसे विषयों पर आई और दलालों, बिचोलियों की पहुँच संसद तक बढ़ी. आज सांसदों का अधिसंख्यक वर्ग पूंजीपति है और चुनाव जीतना अब धंधा है.
अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल की बात ऐसे कर रहे हें,जैसे एक कानून पुरे सिस्टम को सुधार देगा,हमारे पास पहले से कानूनों का पहाड़ है,समस्या उसको लागु करवाने वाली मशीन की है. सीबीआई पर भरोसा है नहीं-पुलिस निकम्मी है.अदालतें अंग्रेजी कानूनों से चल रही हें और न्याय इतना महंगा है कि आम आदमी उससे दूर है. अब तो सुप्रीम कोर्ट पर भी घूस के छींटे हैं. रही बात पत्रकारों की रादिया मामले ने बड़े- बड़ों की लंगोट खोल दी है.
अन्ना की मुहिम को रंग देने वाले वे ही ज्यादा आगे हैं जिनके नाम २-जी स्पेक्ट्रम में दलाली में आये हैं. उस मुहिम में वे लोग सबसे आगे है जिन्होंने झारखण्ड में घोडा-खरीदी और सरकार बनवाने में अग्रणी भूमिका निभाई.जो येदुरप्पा और कलमाड़ी के भ्रष्टाचार को अलग-अलग चश्मे से देखते हैं.
बात घूम कर शुरू में आती है. हमारा मध्य वर्ग दिखावा करने में माहिर है.अपनी गाड़ी में खरोंच लग जाने पर सामने वाले के हाथ-पैर तोड़ देता है,अपने बच्चे का नामांकन सरकारी स्कुल की जगह पब्लिक स्कूल में करवाने के लिए घुस देता है, सिफारिश करवाता है. वह अपने अपार्टमेन्ट में गंदगी साफ़ करने में शर्म महसूस करता है. उसका सामाजिक कार्य भी दिखावा होता है.
अब उसे एक मसीहा मिल गया है. मोमबत्ती बटालियन को मुद्दा मिल गया. यह तो बताएं कि एक कानून कैसे दुनिया को बदलेगा? आखिर मुंबई हमले,मालेगांव,हैदराबादऔर समझौता जाँच धमाकों को लेकर रामदेव, रविशंकर, अन्ना या किरण बेदी क्यों चुप हैं.
उपवास के पीछे का खेल कुछ अलग है?हो सकता है कि कोई आदर्श सोसायटी की जाँच को प्रभावित कर रहा हो? हिन्दू उग्रवाद से लोगों का ध्यान हटा रहा हो? या सत्ता के कोई नए समीकरण बैठा रहा हो? जब मांग में ही दम नहीं है तो उसके परिणाम क्या होंगे?