Jul 31, 2011

बाजा बजाते दिग्गी राजा

मध्य प्रदेश के एक छोटे से इलाके राघोगढ़ के ठिकानेदार और चार -पांच सौ   घरों के मुखिया के रूप में जाने जानेवाले इस राजपूत नेता को आगे लाने में दिवंगत अर्जुन सिंह ने अहम भूमिका निभायी थी...

एस.के. सिन्हा  

उनकी निगाह में बाबा रामदेव एक ठग से ज्यादा कुछ नहीं हैं,भारतीय जनता पार्टी नचनियों का दल है,राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार  में फंसे सुरेश कलमाडी बेकसूर हैं,कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन ओसामा जी हैं,और राहुल गांधी अब इतने परिपक्व हो गये हैं कि अब उन्हें प्रधानमंत्री का पद संभाल लेना चाहिए। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह का ताजा कारनामा यह बयान है कि पुलिस द्वारा पकड़ा गया हर हिंदू आतंकवादी राष्ट्र स्वयंसेवक संघ से जुड़ा हुआ है।

उन्होंने मुंबई में हुए बंमकांड के तार भी  संघ से जुड़े होने की संभावना व्यक्त की जिसके बाद भारतीय जनता पार्टी और उनके बीच घटिया आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया। कुछ भाजपाई छात्रों ने जब दिग्विजय सिंह का घेराव कर लिया था उन्होंने एक छात्र को पकड़ कर तमाचे भी  जड़ दिये।

राहुल गांधी के खास सलाहकार के रूप में उभरे दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा को विवादास्पद बयानों के कारण एक अलग पहचान मिल रही है। उनके बयानों का निशाना भले ही विपक्ष रहता हो,लेकिन अक्सर जब-तब वे अपनी ही पार्टी और सरकार के लिए मुश्किले पैदा करने से नहीं चूकते। उनके बयान कभी-कभी इतना बखेड़ा खड़ा कर देते हैं कि बचाव में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन को बयान देना पड़ता है। यह और बात है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या राहुल की ओर से उन्हें बयानबाजी करने के अभी तक नहीं रोका गया है।

आज दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के मार्गदर्शक की तरह हैं। वे उन्हें राजनीति का ज्ञान दे रहे हैं। राहुल गांधी ने उन्हें उत्तर  प्रदेश की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी है। नोएडा में राहुल की यात्रा आयोजित करवाने में उनकी खास भूमिका रही। दिग्गी राजा का राजनीतिक एजेंडा भी काफी विशाल है। वे न केवल राहुल गांधी के माध्यम से पार्टी में अपनी जगह बनाने में जुटे हैं,बल्कि देश की राजपूत राजनीति में पैदा हुई नेतृत्व की शून्यता को भी  भरना चाहते हैं।

मध्य प्रदेश के एक छोटे से इलाके राघोगढ़ के ठिकानेदार और 400-500घरों के मुखिया के रूप में जाने जानेवाले इस राजपूत नेता को आगे लाने में दिवंगत अर्जुन सिंह ने अहम भूमिका निभायी थी। अर्जुन सिंह के खेमे के मुताबिक दिग्विजय सिंह उनके यहां आने वालों को पानी पिलवाने तक का काम करते थे। लेकिन एक समय ऐसा आया कि उन्होंने अपने गुरू से ही पानी भरवा कर उन्हें राज्य की राजनीति में बेसहारा छोड़ दिया। जो स्थिति कभी अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी के दरबार में हासिल की थी, वही आज राहुल गांधी के यहां दिग्विजय की है।

मध्य प्रदेश में लगातार दो बार सरकार बनाने के बाद जब इस इंजीनियर के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया तो उसकी सारी सोशल इंजीनियरिंग फेल हो गयी। कंप्यूटर नेटवर्क ही गांव तक को जोड़ देने वाले दिग्विजय शहरों तक को पानी,बिजली,सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने में असफल रहे और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सभा का छींका फूट गया। कांग्रेस 2003के विधानसभा चुनाव में 230 में से महज तीन दर्जन सीटे ही जीत पायी।

इस हार के बाद दिग्विजय सिंह ने दस साल तक कोई पद न लेने का ऐलान कर दिया और दिल्ली में डेरा डाल दिया। अंबिका सोनी और अशोक गहलोत की परिक्रमा करके केंद्र में महासचिव बने। अहमद पटेल ने पुराने रिश्तों को ध्यान में रखते हुए उनकी विशेष मदद की और असम का प्रभारी बना दिया। दिल्ली में आने के बाद दिग्विजय सिंह को यह भांपने  में देर नहीं लगी कि कांग्रेस का भविष्य तो राहुल गांधी के हाथों में है। वे हर रोज नोट बना कर भेजने लगे कि किस मसले पर पार्टी का क्या रुख होना चाहिए। राहुल गांधी ने उन्हें उत्तर  प्रदेश का प्रभारी बनवा दिया और संयोग से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में अच्छी खासी सीटें मिल गयी। इसका श्रेय दिग्विजय को मिला। फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

एक समय था जबकि देश में अनेक राजपूत नेता हुआ करते थे। इनमें चंद्रशेखर,  भैरोसिंह शेखावत,अर्जुन सिंह खासे अग्रणी थे। भैरोसिंह शेखावत की राजपूतों में लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा तो तमाम दलों के राजपूत सांसदों ने उन्हें दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर अपने वोट दिये और वे भाजपा और उनके सहयोगी दलों के अलावा 32 अतिरिक्त वोट हासिल करने में कामयाब हो गये। ये तीनों राजपूत नेता अब इस दुनिया में नहीं है।

भाजपा में राजनाथ सिंह राजपूत होने के बावजूद उत्तर प्रदेश तक में पार्टी का जनाधार बना पाने में नाकाम रहे। उन्होंने तो जानेमाने डॉन राजा भैया के  बारे में सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया था कि राजा भैया कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते। समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद अमर सिंह ने भी  खुद को राजपूतों का नेता साबित करने की कोशिश की, लेकिन वे दलालों के नेता होने की छवि से आज तक मुक्त नही हो पाये हैं। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने हर दल में अपने दुश्मन पैदा कर लिये हैं। ऐसे में दिग्विजय सिंह के लिए राजनीति का मैदान खाली पड़ा है।

कांग्रेस के बुजुर्ग नेता याद दिलाते हैं कि एक समय था जब पहले संजय गांधी और बाद में राजीव गांधी को राजपूत नेता अपने मोहपाश में जकड़ने में कामयाब हो गये थे। संजय गांधी के समय में संजय सिंह, वीरभद्र सिंह, वीर बहादुर सिंह, अर्जुन सिंह, वीपी सिंह सरीखे नेताओं का अभ्युदय हुआ। वीपी सिंह की राजीव गांधी से निकटता कितना ज्यादा थी,यह तथ्य भी किसी से छिपा नही है। यह बात अलग है कि बाद में उन्होंने ही राजीव गांधी की सरकार के पतन में अहम भूमिका अदा की। वीपी सिंह के बारे में राजीव गांधी ने वोट क्लब की रैली में कहा था कि उन्हें इस बात का खेद है कि पार्टी में ‘जयचंद’घुस गये हैं। अर्जुन सिंह को तो उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए पूरी पार्टी की ही जिम्मेदारी सौंप दी थी।

दिग्विजय सिंह को लगता है कि नेतृत्व-शून्यता वही भर सकते हैं। इसके साथ ही उनकी नजर मुस्लिम वोट बैंक पर भी  है। कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि दिग्विजय सिंह जो कुछ कर रहे हैं,उसके पीछे सोनिया और राहुल गांधी को पूरी सहमति है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कामकाज से नाखुश यह परिवार यूपीए सरकार के लगाता घोटालों में घिरते जाने के कारण बेहद परेशान है। उनका मानना है कि अगर समय रहते कदम नहीं उठाये गये तो कांग्रेस को बहुत ज्यादा नुकसान होगा। इसलिए वे उनकी निर्भरता  दिग्विजय सिंह पर बढ़ती जा रही है।

दिग्विजय सिंह के करीबियों के मुताबिक उन्होंने हाईकमान को यह सलाह दी है कि सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों से ध्यान हटाने के लिए जरूरी है कि विपक्ष का ध्यान और ऊर्जा कही और केंद्रित की जाये। असली मुद्दों से विपक्ष को भटकाने के लिए ही वे ऐसे बयान दे रहे हैं,जिनसे कि विपक्ष खंडन-मंडन में ही फंस कर रह जाये। उनका दावा है कि इस काम में दिग्गी राजा को महारत हासिल है। जिस नेता ने माधव राव सिंधिया, अर्जुन सिंह, विद्या चरण शुक्ल सरीखे धुरंधरों को मध्य प्रदेश की राजनीति में धूल चटाने में कामयाबी हासिल की हो,उसके लिए विपक्ष को उलझाना कोई मुश्किल काम नहीं है। वे बताते हैं कि इसके साथ ही उनका लक्ष्य अहमद पटेल हैं। उनका मानना है कि राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने में बड़ी उनके लिए अंतिम बाधा साबित हो सकते हैं।

द पब्लिक एजेंडा से साभार   

भगत सिंह मामले में खुशवंत सिंह की सफाई

आज दैनिक हिंदुस्तान अख़बार में खुशवंत सिंह ने अपने पिता पर लग रहे आरोपों का जवाब देने की कोशिश की है. पिछले दिनों जनज्वार ने यह मुद्दा तीसरा स्वतंत्रता आन्दोलन के नेता गोपाल राय के लेख 'भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले को सम्मान'  के जरिये प्रमुखता से उठाया था...

खुशवंत सिंह

कुछ वक्त पहले मैंने नई दिल्ली बनाने वालों पर लिखा था। उनमें पांच लोग खास थे। मेरी शिकायत थी कि उनमें से किसी के नाम पर दिल्ली में सड़क नहीं है। तब तक मुझे नहीं पता था कि मनमोहन सिंह ने शीला दीक्षित को इस सिलसिले में एक चिट्ठी लिखी है। उनकी गुजारिश थी कि विंडसर प्लेस को मेरे पिता शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।

उसके बाद एक किस्म का तूफान ही आ गया। कई लोगों ने विरोध जताया कि मेरे पिता तो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। मैंने उस पर कुछ भी नहीं कहा। जब कुछ अखबारों ने उनका नाम भगत सिंह की सजा से जोडा, तो मुझे तकलीफ हुई। सचमुच, उस खबर में कोई सच नहीं था।
दरअसल, शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने इंस्पेक्टर सांडर्स और हेड कांस्टेबल चन्नन सिंह की हत्या की थी। वे इन दोनों से लाला लाजपत राय का बदला लेना चाहते थे। लाहौर में लालाजी की हत्या में उनका हाथ था।

उसके बाद भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के आंदोलन को दुनिया की नजरों में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि संसद में हंगामा करेंगे। और फिर अपनी गिरफ्तारी दे देंगे। ठीक यही उन्होंने किया भी।

ये लोग दर्शक दीर्घा में जा बैठे। वहीं मेरे पिता भी बैठे थे। संसद में बहस चल रही थी। और वह खासा उबाऊ थी। सो मेरे पिता ने अखबार निकाला और उसे पढ़ने लगे। अचानक पिस्टल चलने और बम के धमाके की आवाज सुनी। वहां बैठे बाकी लोग भाग लिए। रह गए मेरे पिता और दो क्रांतिकारी।

जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। मेरे पिता का जुर्म यह था कि उन्होंने कोर्ट में दोनों की पहचान की थी। दरअसल, मेरे पिता ने सिर्फ सच कहा था। सच के सिवा कुछ नहीं। क्या सच कहना कोई जुर्म है? फिर भी मीडिया ने शहीदों की फांसी से उन्हें जोड़ दिया। सचमुच उनका क्रांतिकारियों की फांसी से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उछालना है, जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नहीं है।



 

प्रेमचंद को याद करने के मायने


आज कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की 131वीं जयंती है। आइए इस मौके पर कुछ ज़रूरी बातें कर लें... प्रेमचंद को याद करने का मतलब है अपने समय की सच्चाई से रूबरू होना, उनसे मुठभेड़ करना। आज के यथार्थ को उकेरना। लेकिन आज का लेखक इसी सच्चाई से मुंह चुरा रहा है। सत्ता से और ज़्यादा करीब होने की होड़ में अपना कलम गिरवी रख रहा है..

मुकुल सरल

मुंशी प्रेमचंद को याद करने का क्या मतलब है? क्या मायने हैं? क्या महज़ एक रस्म अदायगी...कुछ रोना-गाना कि हाय मुंशी जी को भुला दिया गया, कि हाय उनका स्मारक अधूरा रह गया...कि लमही में यूं न हुआ, कि गोरखपुर, प्रतापगढ़ या इलाहाबाद में यूं न हुआ। या इससे अलग कुछ और...क्या मतलब है प्रेमचंद के होने या न होने का, उन्हें याद करने का।
प्रेमचंद को याद करने का मतलब है उस ग्रामीण भारत को याद करना जो उनकी कहानियों और उपन्यासों के केंद्र में रहा। उस ग्रामीण भारत को जिसकी दशा आज भी नहीं बदली।

भूमंडलीयकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस गांव को बर्बाद करने की पूरी तैयारी है। उस ग्रामीण भारत को जानना, उसकी आवाज़ बनना...यही है प्रेमचंद को याद करना।

प्रेमचंद को याद करने का मतलब है अपने समय की सच्चाई से रूबरू होना, उनसे मुठभेड़ करना। आज के यथार्थ को उकेरना। लेकिन आज का लेखक इसी सच्चाई से मुंह चुरा रहा है। सत्ता से और ज़्यादा करीब होने की होड़ में अपना कलम गिरवी रख रहा है।

आज प्रेमचंद का होरी आत्महत्या कर रहा है। आज की ही ख़बर है कि बुंदेलखंड के हमीरपुर में कर्ज़ से परेशान एक किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। विदर्भ का उदाहरण हम सबके सामने है ही। कमोबेश पूरे देश में यही स्थिति है। कृषि प्रधान व्यवस्था बर्बाद की जा रही है।

किसान कर्ज़ के जाल में फंस गया है। कहीं सूखे ने उसे मार डाला है, कहीं बाढ़ ने। कहीं विकास के नाम पर उसकी ज़मीन सस्ते में छीनी जा रही है और बड़े-बड़े बिल्डरों और कंपनियों को कॉलोनी और मॉल बनाने के लिए दी जा रही है। जिससे वे भारी मुनाफा कमा सकें। भट्ठा-पारसौल से लेकर टप्पल तक यही हुआ। और ये सब कौन कर रहा है हमारी सरकारें। जो गांव और किसान के नाम पर सत्ता में आती हैं।

गोबर गांव से पलायन कर रहा है। धनिया की सुध लेने वाला कोई नहीं। ऐसे दौर में प्रेमचंद को याद करना इस स्थिति के खिलाफ कलम उठाना है, कदम बढ़ाना है।

प्रेमचंद को याद करना उस सांप्रदायिक एकता को भी याद करना है जिसकी उन्होंने पुरज़ोर वकालत की। उस उर्दू-हिन्दी के एका को याद करना है जिसने उनकी कलम को बेमिसाल बना दिया। लेकिन जिसके खिलाफ आज सांप्रदायिक ताकतें बंटवारे की राजनीति कर रही हैं।

दरअस्ल प्रेमचंद को याद करना साहित्य की उस प्रगतिशील धारा की मशाल को जलाए रखना है जिसकी रौशनी में ही नये भारत का निर्माण संभव है।




मीडिया मंडी का नया माल बन गया ‘बेशर्मी मोर्चा’

मन में सवाल उठ रहा था कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए स्लट वॉक कहीं मंडी में आया ताजा माल तो नहीं, जिसको बेचने के लिए एक-एक न्यूज चैनल से तीन-तीन पंसारी पहुंचे हुए हैं...

भूपेंद्र सिंह


महिलाओं के हक और समान अधिकार के लिए दुनिया के कई देशों में निकाली जा चुकी स्लट वॉक आज दिल्ली के जंतर-मंतर में आयोजित हुआ। पिछले कई महीनों से जिस स्लट वॉक या उसके भारतीय रूपांतरण ‘बेशर्मी मोर्चा’ को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में खबरें आ रही थीं, आज उस बेशर्मी मोर्चा में शामिल युवक-युवतियों ने जंतर-मंतर पर एकत्रित होकर पार्लियामेंट स्ट्रीट का चक्कर लगाया।

बमुश्किल 300 लोगों के झुंड को कवर करने के लिए 30 से ज्यादा न्यूज चैनलों की ओवी वैन आयोजकों से पहले जंतर-मंतर पहुंच चुकी थीं। भीड़ देखकर ऐसा लगा कि पत्रकारों और फोटोग्राफरों की संख्या भी 300 के आसपास ही रही होगी। मन में बस यही सवाल उठ रहा था कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए क्या यह इतना बड़ा आयोजन है कि एक-एक न्यूज चैनल से स्टल वॉक कवर करने के लिए तीन-तीन पत्रकार भेजे गये हैं। कम कपड़े में आयी लड़कियों के शरीर फोकस होते कैमरों को देख लगा कि यह मुद्दा है या मीडिया मंडी में आया ताजा माल, जिसमें मुनाफा बाइडिफाल्ट है।

आयोजक उमंग सबरवाल और एक प्रदर्शनकारी : अधिकार की लड़ाई  

यह बात परेशान करने वाली थी कि जब मीडिया के कैमरे लोगों के झुंड में उन लड़कियों को ढूंढ़ रहे हैं जिन्होंने कम कपड़े पहने हैं, तो हम ऐसे आयोजन करके समाज के लोगों की सोच में कैसे बदलाव की बात कैसे कर सकते हैं कि छोटे कपड़े पहनकर कोई लड़की सड़क पर गुजरेगी तो उसकी ओर कोई मुड़कर नहीं देखेगा या कमेंट नहीं करेगा। ऐसे में समाज में परिवर्तन की बात करना क्या बेमानी नहीं है? एक और बात जो मुझे यहां हैरान कर रही थी वह यह कि इस मोर्चे में भाग लेने के लिए लड़कियों से ज्यादा संख्या लड़कों की थी।

यह स्लट वॉक कई चैनलों के लिए अपनी ब्रांडिंग का जरिया भी था, जो जाहिर कर रहा था इनके लिए मामला तभी मुद्दा है जब वह मंडी के मुनाफे में चार चांद लगाता हो। और यह कूवततो बेशर्मी मोर्चा में है- तेज एंकरों, रिपोर्टरों और संपादकों ने ताड़ लिया है। एक न्यूज चैनल की वरिष्ठ एंकर तो बाकायदा जंतर-मंतर पर टॉक शो आयोजित करने के लिए घंटों से तैयारी में जुटी हुयी थीं और चैनल के नाम का होर्डिंग का एक घेरा बनाकर वॉक के आयोजकों का टाक शो में शामिल होने का इंतजार कर रही थी।

वहीं युवाओं के बीच यूथ चैनल के नाम से लोकप्रिय एक चैनल ने तो इस वाक में शामिल होने वाले युवक-युवतियों को टी-शर्ट पहनायी हुयी थी, जिसके पीछे बेशर्मी मोर्चा और चैनल का नाम लिखा था। एक एफएम चैनल के आरजे भी यहां पहुंचे हुए थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनका यहां आने का मकसद अपने-अपने चैनल या एफएम की ब्रांडिंग का अवसर हाथ से न जाने देने वाला अवसर था। अंग्रेजी बोलने वाले और आईफोन इस्तेमाल करने वाले इन युवक-युवतियों ने जब अपनी वाक शुरू की तो न्यूज चैनलों के कैमरे इनकी ओर ऐसे लपके जैसे कोई शिकारी शिकार के लिए झपटता है।

मीडिया ने बेशर्म मोर्चा की रैली को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया कि दिल्ली पुलिस के साथ-साथ सीआरपीएफ के जवान भी मौके पर तैनात करने पड़े। जिस तरह जंतर-मंतर पर मौजूद न्यूज चैनलों के रिपोर्टर कैमरे के सामने खबरें प्रस्तुत कर रहे थे उन्हें देखकर मैं यह सोचकर हैरान हो रहा था कि घर में बैठा एक आम दर्शक सोच रहा होगा कि पता नहीं कितना हुजूम उमड़ा होगा। लेकिन हकीकत में मुझे यह कुछ बड़े घरों के लड़के-लड़कियों द्वारा पश्चिमी देशों में निकाली गयी स्लट वाक से प्रभावित होकर कुछ अलग करने से ज्यादा नहीं लगा।

अब बात जरा इस मोर्चे की आयोजक की भी कर ली जाये। आयोजक उमंग सब्बरवाल सफेद टी-शर्ट और जींस में दिखीं, जबकि वाक में शामिल कुछ लड़कियां स्कर्ट और शार्ट्स पहनकर पहुंची थीं। कई दंपत्ति भी इस वाक का हिस्सा बनने पहुंचे थे। पूछने पर पता चला कि संडे का दिन था, सोचा कुछ अलग इवेंट हो रहा है तो इसमें शामिल हुआ जाये तो चले आये। दो महीने की जद्दोजहद के बाद मात्र कुछ सौ लोगों को देखकर मैं यह सोचने लगा कि यदि मीडिया ने इसे इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया होता तो शायद इतने लोग भी नहीं जुटते।

'खाप' का आईना देख बौखलाए चौधरी


अजय सिन्हा ने साहस करके खाप पंचायतों के क्रूर चेहरे और ऑनर किलिंग के ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाकर साहस का काम किय है। सिनेमा के व्याप्क प्रचार, प्रसार और असर से घबराई खाप पंचायते ये कभी नहीं चाहेंगी कि उनकी असलियत दुनिया के सामने आये...

आशीष वशिष्ठ

अजय सिन्हा निर्देशित फिल्म ‘खाप-ए स्टोरी ऑफ ऑनर किलिंग’ ने पिछले हफ्ते देश भर के सिनेमाघरों में दस्तक दी है। लेकिन हरियाणा में इस फिल्म को लेकर खासा विरोध चल रहा है। हरियाणा से भड़की विरोध की चिंगारी पष्चिमी उत्तर प्रदेश  के कई जिलों तक फैल चुकी है। अजय सिन्हा ने सिने दर्शकों के लिए एक मनोरंजन फिल्म बनायी है जिसमें, डांस है, ड्रामा है, रोमांस है, एक्शन है। इसमें  हर हिंदी फिल्म की तरह एक लवस्टोरी को दिखाया गया है जिसे समाज की स्वीकृति नहीं मिलती है और उस स्टोरी का दर्दनाक अंत हो जाता है।

ये तो हर प्रेम कहानी  में होता है। पिछले कई दशकों से ये ही होता आ रहा है लेकिन अजय सिन्हा की फिल्म में ऐसा क्या है जिससे हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायत एक दम से उखड़ गयी है। और वो इस फिल्म का विरोध और  फिल्म के षो रूकवाने पर उतारू है। लेकिन इस लो बजट की फिल्म के विरोध ने देश भर के सिनेमाघरों की सीटों को जरूर पहले शो के लिए हाउसफुल कर दिया है। फिल्म की पृष्ठभूमि दिल्ली व आसपास के इलाके पर आधारित है।

ऑनर किलिंग के विषय पर आधारित फिल्म खाप रुढ़िवादी पीढ़ियों द्वारा बनाई गयी एक प्रथा का विरोध करती है। फिल्म में दो प्रेमी दिखाये गये हैं। कहानी रिया (युविका चौधरी) ओर कुश(सरताज) के इर्द-गिर्द धूमती है जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं। रिया के पिता मधुर (मुनीश बहल) ने 16 साल पहले अपने दोस्त के ऑनर किलिंग के नाम पर की गई हत्या के बाद गांव छोड़ दिया था। वही दूसरी तरफ खाप पंचायत का मुखिया (ओम पुरी) रिया के दादा हैं और ओम पुरी इस बात से अनजान है।

कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब गांव में फिर ऑनर किलिंग के नाम पर एक प्रेमी जोड़े की हत्या हो जाती है और प्रशासन इसकी जांच के लिए रिया के पिता मधुर को ही गांव भेजता है। रिया की शादी कुश से हो जाती है लेकिन दोनों ही इस बात से अनजान होते हैं कि वे एक ही खाप से संबंध रखते हैं। यहां से उनके और परिवार वालों के लिए मुश्किलें शुरू हो जाती हैं। ढ़ी भला खाप पंचायत की बातों को क्यों माने? लेकिन इस बीच ऑनर किलिंग की भयावह घटनाएं दोनों को सहमा देती हैं। खैर, फिल्म का अंत सकारात्मक है। आखिर में जीत कुश और रिया की ही होती है।

फिल्म खाप में ऑनर किलिंग जैसे मुद्दे को केंद्र में जरूर रखा गया है, परंतु इसकी अहमियत एक मसाला फिल्म जितनी ही है। फिल्म में बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म के कथ्य के सरलीकृत स्वरूप ने दिक्कत पैदा कर दी है। हां खाप पंचायत के बारे में बहुत सारी जानकारी इससे मिल सकती है। हरियाणा, यूपी व अन्य राज्यों के गांवों में परंपरा और इज्जत के नाम पर होने वाली जघन्य हत्याओं की कहानी है फिल्म खाप। फिल्म ने गांवों में सदियों पुरानी परंपरा के नाम पर होने वाली ऑनर किलिंग को दिखाया गया है।


जिस तरह हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेष में फिल्क का व्याप्क तौर पर विरोध हो रहा है उससे  ये संकेत मिलते हैं कि खाप को भी इस बात का अंदेशा है कि उसके फैसले कहीं ना कहीं गलत होते हैं। उसके तुगलकी फरमान से लोग को काफी तकलीफ होती है। हरियाणा की खाप पंचायत ने फिल्म की रिलीज को रूकवाने के लिए एड़ी चोटी का दम लगाया था, लेकिन लाख कोषिषों के फिल्म रिलीज हो गई।

असल में खाप पंचायतों को कहीं ना कहीं ये डर सता रहा था क कि खाप फिल्म से उसका वो घिनौना सच लोगों के सामने ना आ जाये जिसे खाप पंचायत सही मानती है। और कहीं ऐसा न हो कि फिल्म देखने के बाद लोग खाप पंचायतों के विद्रोह पर उतर आयें। गौरतलब है कि पिछले साल के रिकार्ड के मुताबिक हरियाणा में सबसे ज्यादा ऑनर किलिंग के मामले सामने आये है। जिसके लिए काफी हद तक खाप पंचायत के तुगलकी फरमान जिम्मेदार है। लेकिन खाप पर इन बातों का कोई असर नहीं होता है।

अजय  सिन्हा ने साहस करके खाप पंचायतों के क्रूर चेहरे और ऑनर किलिंग के ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाकर साहस का काम किय है। सिनेमा के व्याप्क प्रचार, प्रसार और असर से घबराई खाप पंचायते ये कभी नहीं चाहेंगी कि उनकी असलियत दुनिया के सामने आए, ऐसे में आने वाले दिनों में ‘खाप’ का विरोध तेज होगा, आखिरकर सच का सामना करने की हिम्मत हर एक में नहीं होती है। खाप पंचायते अपनी सच्चाई सिल्वर स्क्रीन के बड़े पर्दे पर देखकर हैरान, परेशान और घबराई हुई है ।

 


प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल पुराना है !

 प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 - 8 अक्टू्बर, 1936)
  
 भीमसेन त्यागी

प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल पुराना है। अपने जीवन काल में ही वह और उनका साहित्य विवादों के घेरे में आ गए थे और उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्र चिह्न लगने शुरू हो गए थे। ठाकुर श्रीनाथ सिंह जैसे कई यश पीडि़त लोगों ने विवाद खड़े किए। तब से यह सिलसिला आज तक जारी है।

इस सवाल के कई चेहरे हैं। प्रेमचंद प्रासंगिक हैं या नहीं? हैं तो क्यों? किस हद तक? और नहीं तो क्यों नहीं?
प्रेमचंद के देहावसान के बाद उनके विरोध की नदी में बाढ़ आ गई। उस समय जो लेखक सृजनरत थे, उनमें से किसी का भी कद प्रेमचंद के निकट नहीं पहुंचता था। उस शिखर व्यक्तित्व के सामने खड़े रह सकने का एक ही विकल्प था यदि वे प्रेमचंद की ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकते तो उन्हें घसीट कर छोटा बना दें!

प्रेमचंद के परवर्ती उन लेखकों में प्रमुख थे जैनेंद्र कुमार और सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय। इन दोनों और इनकी शिष्य परंपरा के अन्य लेखकों तथा समीक्षकों ने कभी अप्रत्यक्ष तो कभी प्रत्यक्ष आरोप लगाये कि प्रेमचंद कलाकार नहीं, केवल मुंशी थे। ज्यादा से ज्यादा उन्हें समाज सुधारक माना जा सकता है। उनका लेखन तात्कालिक समस्याओं पर आधारित है। उसमें स्थायित्व नहीं, शाश्वतता नहीं। ऐसा लेखन अल्पजीवी होता है। समस्याओं के समाधान के साथ-साथ अप्रासंगिक हो जाता है।

प्रेमचंद नियोजित ढंग से लिखते थे। हर बड़ी रचना का आरंभ करने से पहले उसका विस्तृत प्रारूप तैयार करते थे। जैनेंद्र ने उनकी इस रचना प्रक्रिया पर भी टिप्पणी की- इस प्रकार की सायास चेष्टा से श्रेष्ठ साहित्य नहीं लिखा जा सकता। श्रेष्ठ साहित्य तो सहज तथा स्वत: स्फूर्त होता है!

एक तरफ प्रेमचंद के परवर्ती लेखक समीक्षक उनके खिलाफ जिहाद करके उनका कद छोटा करने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी तरफ उनकी सहज तथा आत्मीय रचनाएं विशाल पाठक समूह के गले का हार बनती जा रही थीं। परवर्ती लेखक तथा समीक्षक प्रेमचंद को खारिज करते रहे और पाठक स्वीकार करते गए। अंतत: साहित्य का निर्णायक और सृजेता का असली माई-बाप तो पाठक ही है। उनकी प्रासंगिकता पर बार-बार प्रश्रचिह्न लगाया जाना, स्वयं उनकी प्रासंगिकता का प्रमाण है। जो लेखक सचमुच प्रासंगिक नहीं बन पाता या नहीं रह जाता, समय उसे बिना किसी शोर शराबे के इतिहास के कूड़ेदान में ढकेल देता है। आज कोई यह सवाल नहीं उठाता कि जैनेंद्र प्रासंगिक हैं या नहीं ? अज्ञेय प्रासंगिक हैं या नहीं? इलाचंद्र जोशी प्रासंगिक हैं या नहीं? भगवती चरण वर्मा प्रासंगिक हैं या नहीं? मोहन राकेश प्रासंगिक हैं या नहीं? और इन सबके साथ चलने वाली समीक्षकों की कतार प्रासंगिक है या नहीं? सवाल उठता है तो सिर्फ एक प्रेमचंद प्रासंगिक हैं या नहीं?

प्रेमचंद बड़े लेखक थे। और बड़प्पन अपने साथ उदारता लाता है। प्रेमचंद ने कभी अपने विरोधियों को आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया, बल्कि उनके प्रति स्नेहभाव बनाये रखा। जैनेंद्र अपनी कूट शैली में प्रेमचंद का विरोध कर रहे थे और प्रेमचंद ने जैनेंद्र के बारे में घोषणा कर की थी कि वह भारत के भावी गोर्की हैं। लेकिन समय बहुत क्रूर है। वह सबको छान देता है। प्रेमचंद की उदारताजनित भविष्यवाणी जैनेंद्र के किसी काम न आयी। अंतत: समय ने सिद्ध कर दिया कि यदि भारत के गोर्की कोई है तो केवल प्रेमचंद।

प्रश्र किसी एक लेखक की व्यक्तिगत कुंठा अथवा वैमनस्य का नहीं। यह अंतर चेतना के सूक्ष्म धरातल पर होता है। वर्ग विभाजित समाज में हर वर्ग अपनी वाणी को मुखरित करने के लिए अनायास अपने लेखक तैयार कर लेता है। या यों कहें कि लेखक का मानसिक परिवेश जिस वर्ग से जुड़ा होता है, वह अपने लेखन के माध्यम से सहज रूप से उसी वर्ग का हित साधन करता है।

मोटे तौर पर समाज में दो वर्ग हैं। एक सुविधाभोगी अथवा सुविधाकामी वर्ग है, जो अपने लिए अधिकतम सुविधाएं जुटाना चाहता है और इस नेक काम के लिए वृहत्तर समाज को खाद की तरह इस्तेमाल करता है। इस वर्ग के लिए साहित्य दिमागी अय्याशी का मयखाना होता है। इसके लेखक अपने समय के समाज से कटे हुए एकांतभोगी और अंतर्मुख होते हैं। वे अ’छी खासी सुखद स्थितियों में भी दुख खोजते रहते हैं। उनका रचना संसार स्वयं उनके भीतर की कुंठा तथा आत्मश्लाधा पीडि़त दंभ तक सीमित रहता है। अपने समय के समाज से उनका विशेष सरोकार नहीं होता है। सरोकार होता है तो सिर्फ इतना कि वे उस समाज को कैसे इस्तेमाल कर सकें। समाज उनके लिए वह दीवार होता है, जिस पर वे अपनी आत्ममुग्ध तस्वीर टांग सकें।

इसके विपरीत समाज का दूसरा वर्ग सुविधा वंचित और जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए संघर्षरत होता है। कबीर ने कहा है- ‘सुखिया सब संसार है खावै और सोबै, दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।’ समाज का पहला वर्ग और उसके प्रतिनिधि लेखक सुखिया संसार है और दूसरा वर्ग तथा उसके लेखक दुखिया दास कबीर। प्रेमचंद कबीर की इसी औघड़ परंपरा के लेखक थे। उनका रचना संसार समाज के इस छोर से उस छोर तक फैला था। उस समाज के सारे दुख उनके अपने दुख थे। उनके भीतर न जाने कितने होरी और घीसू कुलबुला रहे थे। प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस दुख से साक्षात्कार का साहित्य है।

 साक्षात्कार के अतिरिक्त उस दुख के कारणों की गहरी खोजबीन समाज के विभिन्न वर्गों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अंतर्संबधों की परख और उन्हें बेहतर बना सकने की ललक- ये सब प्रेमचंद की चिंता का विषय थे। वह शाश्वतता के पीछे न भाग कर सार्थक साहित्य के सृजन के पक्षधर थे। शाश्वतता सायास नहीं जुटायी जा सकती। समय की कसौटी पर कसा जाकर ही साहित्य शाश्वत होता है। उपरोक्त दोनों धाराएं आधुनिक हिंदी साहित्य में आरंभ से चली आ रही हैं। पहली धारा के लेखक प्रसाद, जैनेंद्र, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, निर्मल वर्मा, प्रियंवद आदि हैं तो दूसरी धारा के प्रतिनिधि लेखक हैं- प्रेमचंद, यथपाल, निराला, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, अमरकांत, भीष्म साहनी, शेखर जोशी, संजीव आदि। प्रेमचंद की परंपरा के इन लेखकों ने साहित्य को नये तेवर और नई पहचान दी है।

प्रेमचंद की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह अपनी साहित्य यात्रा में निरंतर विकासमान रहे। ‘सेवासदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ जैसे सुधारवादी उपन्यासों से शुरू करके ‘गोदान’ जैसे यथार्थवादी, कालजयी उपन्यास तक पहुंचे। इसी तरह कहानियों में ‘नमक का दरोगा’ जैसी आदर्शवादी कहानियों से शुरू करके ‘नशा’, ‘पूस की रात’, ‘बड़े भाई साहब’ और ‘कफन’ तक का लंबा सफर तय किया।

इसके विपरीत जो शाश्वत साहित्य को सृजन का दंभ भरते रहे, वे अपनी साहित्य यात्रा में निरंतर अधोगति को प्राप्त होते रहे। जैनेंद्र तमाम कोशिशों के बावजूद ‘त्यागपत्र’ को नहीं लांघ सके, अज्ञेय का शिखर ‘शेखर’ बन कर रह गया और भगवतीचरण वर्मा ‘चित्रलेखा’ के मोहपाश में ऐसे बंधे कि उससे बेहतर सृजन के लिए मुक्त नहीं हो सके।

प्रेमचंद का देहावसान 1936 में हुआ। उसके बाद के 18 वर्ष लेखकों तथा समीक्षकों द्वारा प्रेमचंद की घोर उपेक्षा के वर्ष थे। ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास की विस्फोटक घटना था। इसने संपूर्ण साहित्य परिदृश्य को बदल दिया। कुंठित तथा दमित व्यक्ति-मन की रचनाएं पृष्ठभूमि में चली गयीं और सामाजिक यथार्थ अपनी संपूर्ण गरिमा के साथ चर्चा के केंद्र में आ गया। यह वह बिंदु था, जहां से प्रेमचंद की प्रासंगिकता की खोज एक नये कोण से आरंभ हुई। उसके पश्चात प्रेमचंद परंपरा के लेखक निरंतर अपने समय के जलते हुए सवालों से जूझते रहे और उन्हें साहित्य में अभिव्यलक्तर करते रहे।

प्रेमचंद आम आदमी के लेखक थे और आम आदमी की तरह ही जीते थे। उनकी अपेक्षा दाल-रोटी और तोला भर घी तक सीमित थी। उनकी सादगी में ही महानता थी। ऐसा नहीं कि प्रेमचंद के जीवन में ऐसे अवसर नहीं आये कि वे सुविधाओं का भरपूर उपयोग कर सकें। लेकिन उन्होंने उन अवसरों की तरफ से आंख फेर ली। प्रेमचंद फिल्में लिखने के लिए मुंबई आये तो अच्छान-खासा कमा रहे थे। लेकिन मायानगरी का व्यावसायिक माहौल उन्हें रास नहीं आया। वह वापस बनारस लौट आये और अपने लेखन में रत हो गये।

एक तरफ प्रेमचंद की यह जीवन शैली थी और दूसरी तरफ आज का अदना से अदना लेखक वे सब सुविधाएं प्राप्त करना चाहता है, जो अमरीकी लेखक को सुलभ है।

प्रेमचंद साहित्य में ऐसे कौन से तत्व हैं, जो उसे कालजयी और आज भी प्रासंगिक बनाये हुए हैं? इस प्रश्र के मूल तक पहुंचने के लिए उन तत्वों की परख करनी होगी, जो किसी भी साहित्य को कालजयी बनाते हैं। पहला तत्व है- अपने समय की सही पहचान और उसे कलात्मक ढंग से वाणी देना। विश्व के सभी महान लेखक अपने समय के प्रति सचेत रहे। उन्होंने अपनी जनता के दुख-सुख को समझा और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति दी। उनके समय को समझने के लिए इतिहास के शुष्क पन्ने उतनी मदद नहीं करते, जितनी कि उन महान लेखकों का साहित्य। वह साहित्य एक परंपरा के रूप में विकसित होता है और आने वाली पीढिय़ों को बीते समय से सबक लेकर अपने जीवन को ढालने और तराशने में मदद करता है। वह साहित्य शताब्दियों तक प्रासंगिक बना रहता है। इसी कारण वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, शेक्सपियर, टाल्सटाय, लू-शुन जैसे महान लेखक आज भी प्रासंगिक हैं। भारत में इस शताब्दी में वह काम जितने प्रभावी ढंग से प्रेमचंद ने किया, उतने प्रभावी ढंग से संभवत: और कोई लेखक नहीं कर सका।


(कथाकार और संपादक भीमसेन त्यागी का यह संपादकीय ‘भारतीय लेखक’ (जनवरी-मार्च, 2006) में प्रकाशित हुआ था। प्रेमचंद की प्रासंगिकता और उनके साहित्य‘ की विशेषताओं को समझने में यह सहायक है. उनका सम्पादकीय दुबारा अनुराग शर्मा के ब्लॉग 'लेखक मंच' पर प्रकाशित हुआ है. वहीँ से साभार लेकर उसका एक हिस्सा यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है. भीमसेन त्यागी अब हमारे बीच नहीं हैं.)


Jul 30, 2011

मांद में घुसकर लिया था बदला


क्रांतिकारी ऊधम सिंह की शहादत 31 जुलाई पर विशेष
ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे,लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाइ। उन्होंने 1919में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग ए आजादी के मैदान में कूद पड़े...

संजय स्वदेश

नई दिल्ली। भारत के महान क्रांतिकारियों की सूची में ऊधम सिंह का विशेष स्थान है,जिन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार के दोषी माइकल ओड्वायर को गोली से उड़ा दिया था । पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में 26 दिसंबर 1899 में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी जिसे उन्होंने गोरों की मांद में ही घुसकर 21 साल बाद पूरा कर दिखाया।

पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओड्वायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांति के साथ सभा कर रहे सैकड़ों भारतीयों को गोलीबारी कर मौत के घाट उतार दिया था। जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी।

ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे,लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाइ। उन्होंने 1919में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग ए आजादी के मैदान में कूद पड़े। जाने माने नेताओं डॉ.सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी थी,जिसमें ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओड्वायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध गोलीबारी कर दी।

अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए। सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी।

अमृतसरके तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी।ऊधम सिंह के मन पर इस घटना ने इतना गहरा प्रभाव डाला था कि उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओड्वायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे। ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओड्वायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए।

चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओड्वायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं । सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं मौत का शिकार हो गया। अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया। ब्रिटेन ने 1974 में ऊधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओड्वायर को जहां ऊधम सिंह ने मौत के घाट उतार दिया,वहीं जनरल डायर जिन्दगी की अंतिम घड़ी में बीमारियों से तड़प-तड़प कर 23जुलाई 1927को बुरी मौत मर गया।

घोटालेबाज गुरुजी


जनज्वार.तीन दशकों से भी अधिक समय का सफर तय कर चुके उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के एक मात्र प्रतिष्ठित महाविद्यालय जेएनपीजी की शाख पर बट्टा लगने को है। शिक्षा के गुरूकुल में भ्रष्टाचार को पनाह दी जा रही है। यूं तो साल दर साल महाविद्यालय में प्राचार्य आते और जाते रहे मगर वर्ष 2003 से 31 जुलाई 2011 तक के कार्यकाल में रहे प्राचार्य ने जिस तरह से यूजीसी ग्रान्ट कमीशन,विधायक सांसद निधि से प्राप्त बजट को कौड़ियों के भाव कागज के आंकड़ों में गर्त कर दिया है। इसके खिलाफ महाविद्यालय से जुड़े रहे कई पूर्व छात्र संघ नेता भी भ्रष्टाचार के मामले को लेकर अनशन और धरना प्रदर्शन कर चुके हैं।


वर्ष 1964 से महाविद्यालय में छात्र-छात्राओं से ली जाने वाली काशनमनी नियमित जमा होती रही है और महाविद्यालय के छात्रों को डिग्री लेने के बाद टीसी कटवाने के समय वापस कर दी जाती थी। वर्ष 2003से मई 2011के बीच छात्रों से वसूली गई लाखों रूपये की काशनमनी को न तो छात्र-छात्राओं को वापस किया गया और न ही इस धनराशि को महाविद्यालय के कोष मे जमा किया गया है। नाम नहीं लिखने की शर्त पर महाविद्यालय के एक लिपिक ने बताया कि नये भवन के खेल मैदान में जो इलाहाबाद ग्रामीण बैंक को किराये पर जो भवन और हाल दिया गया है,उससे मिलने वाले हजारों रूपये का किराया भी प्राचार्य के निजी खर्चा में चला जाता है।

वहीं करोड़ों रूपयों की लागत से महाविद्यालय में बने हुये टीटी हॉल, बाउण्ड्रीवाल, छात्र संघ अध्यक्ष भवन, क्रीड़ा विभाग की बिल्डिंगों और पुराने भवन के निर्माण कार्य में बड़े स्तर पर धांधली हुई है। निजी सूत्रों की माने तो महाविद्यालय के साईकिल स्टैण्ड से ही हर साल तकरीबन 20 से 25 लाख रूपये की वसूली की जाती है। साइकिल स्टैण्ड की फीस देने वालों में सभी छात्र छात्रायें शामिल होते हैं फिर चाहें वह विकलांग हो या आंख से अन्धा।

इधर महाविद्यालय के पुस्तकालय भवन के पीछे लगाये गये पूर्व प्राचार्यों द्वारा पुराने वृक्षों को तत्कालिक प्राचार्य ने वन विभाग की सांठ-गांठ से जिस तरह रातों रात ठिकाने लगा दिया उसकी ही एक बानगी महाविद्यालय के मैदान में लगाये गये 82 हजार के पौधे जो आज बीएड आवासीय भवन की बिल्डिंग की भेंट चढ़ चुके हैं।

महाविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष सुशील त्रिवेदी ने प्राचार्य नन्दलाल शुक्ला के खिलाफ कम्प्यूटर शुल्क के नाम पर कम्प्यूटर संचालक द्वारा की गयी तकरीबन 52लाख की वसूली पर मोर्चा खोल दिया है और कई दिनों से राजनीतिक दलों के साथ अनशन और धरना प्रदर्शन पर थे। इधर हाईकोर्ट इलाहाबाद के शासनादेश के बाद से पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के शासन में शिक्षा निदेशक द्वारा नियुक्त किये गये प्रदेश में 13महाविद्यालयों के प्राचार्यों को उच्च न्यायालय ने अवैध नियुक्ति करार देते हुये महाविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

मगर जेएनपीजी कालेज के प्राचार्य और अन्य प्राचार्यों ने उच्चतम न्यायालय की शरण में जाकर बड़ी ही साफगोई से जिला प्रशासन और महाविद्यालय स्टाफ की आंखों में धूल झोंकने   की तैयारी कर दी है। मिली जानकारी के अनुसार में 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अपने दिये एक अहम आदेश में 11 जुलाई को कार्य कर रहे प्राचार्य के मुताबिक ही महाविद्यालय की गतविधियां संचालित करने के आदेश दिये हैं। इस आदेश के मुताबिक प्राचार्य नन्दलाल शुक्ला के हटाये जाने के बाद प्राचार्य नियुक्त हुये डॉ0 एपी सक्सेना को ही उच्चतम न्यायालय के शासनादेश के मुताबिक प्राचार्य की कुर्सी पर होना चाहिए।

लेकिन सत्ता की दबंगई और अपने क्षेत्र प्रभाव के बल पर निलम्बित हुये प्राचार्य ने महाविद्यालय में  न ही पूर्व में हाईकोर्ट से निलम्बन के बाद प्राचार्य की कुर्सी छोड़ी और न ही अपना चार्ज किसी अन्य को लिखित रूप में हस्तांरित किया था,इसी बात का लाभ लेते हुये उन्होनें एक बार फिर जिला प्रशासन की शार्गिदी में प्राचार्य पद नही छोड़ने का पूरा प्रबन्ध कर लिया है।

इधर सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर ने जनसूचना अधिकार 2005के तहत महाविद्यालय में वर्ष 2003 से 31 जुलाई 2011 तक प्राचार्य के कार्यकाल में किये गये तमाम तरह के कामों और निर्माण कार्यों की सूचना मांगी थी। उनके अनुसार तीस दिवस गुजर जाने के बाद भी जनसूचना अधिकारी ने सूचना उपलब्ध नहीं करायी। उन्होनें जिला उपभोक्ता फोरम जनसूचना अधिकारी,प्राचार्य पर 90 हजार रू0 का मुकदमा दायर किया है।


ब्लॉगर को बारह साल की क़ैद




ब्रिटेन में पाकिस्तानी मूल के एक नौजवान बिलाल ज़हीर अहमद को उनके ब्लॉग के कारण बारह साल की क़ैद हो गई है.बिलाल ने अदालत के सामने स्वीकार किया था कि उन्होंने इंटरनेट पर एक ब्लॉग लिखकर इराक़ युद्ध का समर्थन करने वाले ब्रितानी सांसदों को मार डालने की वकालत की थी.

उन पर अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था कि 23वर्ष के बिलाल ने एक वेबसाइट में ब्लॉग लिखकर लोगों को सांसदों पर हमला करने के लिए उकसाया था.इस वेबसाइट को अब अमरीकी अधिकारियों ने बंद कर दिया गया है.
बिलाल ज़हीर अहमद को सज़ा सुनाते हुए न्यायाधीश ने उन्हें “हमारे बीच रहने वाला ज़हरीला साँप” बताया और कहा कि “वो हमारी व्यवस्था के दिल पर चोट करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.”

न्यायाधीश ने कहा, “इराक़ युद्ध पर हमारे जो भी विचार हों, लेकिन ये एक जनतांत्रिक देश है. आप ब्रिटिश नागरिक होने का दम भरते हैं लेकिन आपके सिद्धांत हमारे उन सिद्धांतों से एकदम उलट हैं जिन पर हम अपने देश में मानते हैं.”

बिलाल ने कंप्यूटर तकनॉलाजी की पढ़ाई की है और उनके पास ब्रितानी और पाकिस्तानी पासपोर्ट हैं.अभियोजन पक्ष ने कहा कि इस्लामी कट्टरवादी विचारों को फैलाने वाली वेबसाइट पर बिलाल ने लोगों को बताया था कि अपने इलाक़े के सांसद की जनता के साथ बैठकों के कार्यक्रम का पता कैसे लगाया जाए.

साथ ही उन्होंने एक ऐसी ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट का लिंक अपने ब्लॉग में दिया था जो चाक़ू बेचती है.मुझे अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाना चाहिए था. मेरी बातें पूरी तरह अतार्किक थीं. मैं किसी सेल का हिस्सा नहीं हूँ.इसके अलावा उनके पास एक किताब की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियाँ भी मिलीं जिसमें जिहाद में हिस्सा लेने के तरीक़े बताए गए हैं.

‘ज़ाद-ए-मुजाहिद: एक मुजाहिदीन के लिए ज़रूरी सामान’ नाम की किताब भी उनके पास से बरामद हुई.बिलाल ने ये ब्लॉग तब लिखा जब रोशनआरा चौधरी नाम की एक महिला को लेबर पार्टी के सांसद स्टीफ़न टिम्स की हत्या की कोशिश में सज़ा सुनाई गई थी.रोशनआरा चौधरी ने ईस्ट हैम क्षेत्र से सांसद टिम्स को एक मुलाक़ात के दौरान पेट में चाक़ू मार कर घायल कर दिया था.

बिलाल ने इस हमले के लिए रोशनआरा चौधरी की तारीफ़ की थी और कहा था कि इस उदाहरण का अनुसरण किया जाना चाहिए.इससे एक दिन पहले बिलाल अहमद ने फ़ेसबुक पर लिखा, “हमारी बहिन ने हम मर्दों को शर्मसार कर दिया है. हमें ये काम (सांसद पर हमला) करना चाहिए था.”


फिर उन्होंने मेट्रो अख़बार की वेबसाइट पर लिखा, “मैं मानता हूँ कि टिम्स सस्ते में छूट गए. जबकि जिस युद्ध के पक्ष में उन्होंने वोट दिया उसके कारण अनगिनत आम लोग मारे गए हैं.”गिरफ़्तारी के बाद उन्होने पुलिस अधिकारियों से कहा, “मुझे अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाना चाहिए था. मेरी बातें पूरी तरह अतार्किक थीं. मैं किसी सेल का हिस्सा नहीं हूँ.” बिलाल ज़हीर अहमद को 10 नवंबर, 2010 को गिरफ़्तार किया गया था.

(बीबीसी से साभार)

अधिग्रहण कानून : आशंकाएं और उम्मीदें

किसानों-आदिवासियों के प्रतिनिधियों के भागीदारी के बगैर जो प्रस्ताव तैयार हुआ है वह कोई ऐसा जमीन अधिग्रहण कानून कैसे बना सकता है,जिसके बनने के बाद इन तबकों में रोष न हो...


अजय प्रकाश

 जमीन अधिग्रहण के खिलाफ देश  में व्यापक होते विरोध के मद्देनजर सरकार,संसद के मानसून सत्र में 1894से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण विधेयक को नया प्रारूप देने की तैयारी में है। नये प्रारूप को लेकर सोनिया गांधी के अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय  सलाहकार परिषद्  (एनएसी) के कई सुझाव केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री को लगातार पहुंच रहे हैं,जिससे उन्हें लोककल्याणकारी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने में सहुलियत हो।

इन सुझावों में जमीन मालिकों को निलामी रेट से छह गुना कीमत दिये जाने,ग्राम सभा के निर्णायक होने और अधिग्रहण के लिए 75फीसदी प्रभावितों के हस्ताक्षर पर अधिग्रहण की अनुमति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है। भूमि अधिग्रहण मामलों में एनएसी कार्यसमूह के संयोजक हर्षमंदर के शब्दों में कहें तो ‘सरकार ने अधिग्रहण में अगर उपर्युक्त तीनों प्रावधान शामिल किये तो इस कानून में एक गुणात्मक परिवर्तन होगा।’

सरकार और उसके सहयोगी अधिग्रहण कानून को किस रूप में लागू करेंगे, यह तो आने वाले सत्र के बाद पता चलेगा,लेकिन पहले से मौजूद कानूनों में जनता की भागीदारी कितनी हो पा रही है,उसे देखें तो कुछ और ही कहानी सामने आती है। एक मामला झारखंड के पूर्व सिंहभूमि जिले का है, जहां 26मई को जादुगोड़ा इलाके में भाटिन यरेनियम माइंस के बीस साल पूरे होने पर एक्सटेंसन के लिए एक जनसुनवाई हुई।

यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल)के अधिकारियों ने क्षेत्र में माइक से प्रचार किया कि सुनवाई स्थानीय फुटबाल फील्ड में होगी,लेकिन जनसुनवाई कॉरपोरशन कर्मचारियों के कॉलोनी में हुई। सुनवाई के दौरान ग्रामीणों,मीडिया और जनांदोलनों से जुड़े लोगों ने जाने का प्रयास किया तो सुरक्षा बलों और निजी गार्डों ने उन्हें रोक दिया। राज्य प्रदुशण नियंत्रण बोर्ड की ओर से जनसुनवाई पूरी हो गयी और 29 वर्श और कंपनी के लीज को बढ़ाने का फैसला बैगर प्रभावितों की सहमति के ले लिया गया।’

गौरतलब है कि यह एकतरफा फैसला एजेंसी एरिया में लिया गया जो पहले से ही पेसा  एक्ट के तहत आता है,जहां ग्राम सभा और लोगों की सहमति ही अधिग्रहण या कंपनी चलाने का अंतिम निर्णय होता है। झारखंड आर्गेनाइजेशन अगेंस्ट यूरेनियम के संयोजक जगत मांडी कहते हैं, ‘ये बर्ताव तब किया जब इस क्षेत्र में नयी कंपनी नहीं बनानी थी बल्कि एक्सटेंशन लेना था। अधिग्रहण और विस्थापन तो पहले ही हो चुका था।’

ये उदाहरण बताने के लिए काफी है कि पहले से बने कानूनों के अमल की क्या स्थिति है। सरकार अपनी जरूरतों के लिए किस तरह जमीन अधिग्रहण कर रही है इसका उदाहरण न्यूक्लीयर पॉवर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनसीपीआइएल)की ओर से हरियाणा के फतेहाबाद जिले के कुम्हारिया न्यूक्लीयर पॉवर प्रोजेक्ट के खातिर अधिगृहित की जा रही जमीन के मामले से समझा जा सकता है।

फतेहाबाद कलेक्ट्रट पर पिछले एक वर्श से किसान संघर्ष समिति जमीन न कब्जाई जाये,के खिलाफ धरना दे रही है। अबतक धरना स्थल पर आने वाले दो किसानों की मौत भी हो चुकी है। समिति के अध्यक्ष हंसराज सिवाच कहते हैं, ‘हमलोग हस्ताक्षर कर कितनी बार प्लांट के लिए जमीन नहीं देने की बात कह चुके हैं। जापान में आई सुनामी के बाद परमाणु संयंत्रों से रिसाव की घटना के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। फिर भी सरकार अपने नोटिस पर कायम है।’

हरियाणा की इस छवि के उलट फिक्की ने भूमि अधिग्रहण को लेकर हरियाणा मॉडल को आदर्ष के रूप में पेष किया है। पूंजीपतियों की संस्था फिक्की के नवनियुक्त महासचिव ने भूमि अधिग्रहण के बारे में राय है कि ‘हम प्राकृतिक संसाधनों की ऑनलाइन नीलामी और अधिग्रहण के हरियाणा मॉडल अपनाने के पक्ष में हैं।’महासचिव के मुताबिक हरियाणा में परियोजनाओं के लिए कंपनियां सीधे किसानों से 70फीसदी जमीन खरीदती हैं और सरकार मात्र 25प्रतिशत जमीन कब्जा कर परियोजना के लिए कंपनी को हस्तांरित करती है। इसके अलावा हरियाणा के वे जिले जो एनसीआर जोन में आते हैं वहां 33 साल तक प्रति एकड़ 15हजार रूपये के हिसाब से जमीन मालिक को देने और प्रभावित परिवारों को नौकरी देने का प्रावधान है।

फिक्की महासचिव के दावे के बरख्स   किसानों के पक्ष को देखें तो वह मेल नहीं खाते। हरियाणा के अंबाला जिले में बन रहे ‘मॉडर्न इंडस्ट्रियल टाउनशिप’ के लिए अधिगृहित की जा रही 280एकड़ जमीन को लेकर जहां मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा का दावा है कि इस अधिग्रहण की मंजूरी एक लाख किसानों ने हस्ताक्षर के जरिये दी है,वहीं किसान संघर्श समिति बाखालसा ने इसे फर्जीवाड़ा करार दिया है।

अधिग्रहण को लेकर विवाद की दूसरी घटना सोनीपत राजीव गांधी एजुकेशन सिटी को लेकर है। 2006 में अधिगृहित की गयी इस इलाके की भूमि के बारे में सरपंच ओम सिंह कहते हैं, ‘सरकार को हमने पूरी जमीन देने का वायदा कभी नहीं किया था,इसलिए एक भी किसान ने अधिग्रहण के बदले आजतक मुआवजा नहीं लिया है।’

जमीन अधिग्रहण के विशालतम क्षेत्रों में खनन के वे क्षेत्र भी हैं जहां लोग लगातार अपनी जल, जंगल और जमीन से उजड़ने को मजबूर हैं। उजड़ने का खौफ और सरकार की पूंजीपतियों की सुविधापूर्ती वाले अधिग्रहण कानूनों की वजह के किसान-आदिवासी विद्रोह कर रहे हैं और माओवादी क्षेत्रों को मजबूती दे रहे हैं। बावजूद इसके सरकार अधिग्रहण नीतियों को बदलने को तैयार नहीं दिखती है। हाल ही में योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलवालिया ने खनन क्षेत्रों की रॉयल्टी बढ़ाये जाने के सवाल पर कहा है कि ‘खनन का धंधा बड़े निवेष और जोखिम का है। वैसे में खनन कंपनियों के मुनाफे में स्थानीय लोगों की भागीदारी से विदेशी  निवेशक बिदक जायेंगे और निवेश  के भविष्य  पर भी खतरा उत्पन्न हो जायेगा।’

खनन क्षेत्र के विषेश जोन के रूप में ख्यात छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नया अतिक्रमण भारतीय सेना अपना ट्रेनिंग कैंप खोलकर करने जा रही है। एजेंसी एरिया का यह क्षेत्र जो कि पेसा एक्ट के तहत आता है, अबतक हुए इस क्षेत्र के अधिग्रहण की जरूरतों बेमेल हैं। सेना ट्रेनिंग स्कूल के लिए अबूझमाड़ के क्षेत्र में 4 हजार वर्ग मीटर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। हालांकि अधिग्रहण के लिये स्थानीय आदिवासियों से कोई सहमति नहीं ली गयी। अबूझमाड़ क्षेत्र में सेना के कैंप बनाये जाने का कारण माओवादी इलाका होना है, जहां सरकारी तंत्र काम नहीं करता है।

संसद के मानसून सत्र में पेश होने जा रहे अधिग्रहण कानून के मद्देनजर देखें तो इससे किसी को ऐतराज नहीं होगा कि अंग्रेजी शासन काल 1894से चले आ रहे अधिग्रहण कानून में लोकतंत्र की मूलभावना के मुताबिक बदलाव हो। लेकिन सवाल यह है कि किसानों-आदिवासियों के प्रतिनिधियों के भागीदारी के बगैर जो प्रस्ताव तैयार हुआ है वह कोई ऐसा जमीन अधिग्रहण कानून कैसे बना सकता है, जिसके बनने के बाद इन तबकों में रोष  न हो।

Jul 29, 2011

दलित चिंतकों से डरते क्यों हैं मार्क्सवादी ?

दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है...

विष्णु शर्मा

सर्वहारा प्रकाशन के दस्तावेज ‘मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियां’ में सार्थक बहस कम और आत्ममुग्ध घोषणा अधिक है. यह दलित आंदोलन को सीधे तौर पर दलित बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की अवसरवादी राजनीति घोषित कर उसके पीछे के सामाजिक कारणों को नकारती है. इस तरह यह उसी ‘फतवेबाजी’ का शिकार हो जाती है, जिसके खिलाफ होने का दावा इस पुस्तिका के शुरू में है.
दलित बुद्धिजीवियों के लिए यह कहते हुए कि ये 'एक बार मुंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं’ यह किताब खुद इतने फतवे जारी करती है कि तर्क कब कुतर्क और कुतर्क कब गूढ़ अर्थों वाली लाल बुझक्कड़ की पहेली बन जाते हैं, समझना कठिन हो जाता है. खुद को ‘असल’ मार्क्सवादी होने की तमाम घोषणा के बावजूद दलित आंदोलन के सामाजिक कारकों को नज़रअंदाज़ कर दस्तावेज़ वैचारिक खोखलेपन का शानदार सबूत प्रस्तुत करता है. इससे आगे यह इस भूभाग के इतिहास को भी अपनी कल्पना के अनुसार ‘रचने’ की कोशिश करता है, गोया इतिहास इस संगठन की व्यक्तिगत संपत्ति है कि जब मन करे अपने अनुसार इसकी व्याख्या कर दी जाये.
दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन को यह किताब हास्यास्पद तौर पर बुर्जुआ दर्शन घोषित करती है, जिसका मतलब यह हो जाता है कि भारत के दलित एक तरह से नव उदयीमान पूंजीपति हैं जो भारतीय सामंतवाद के खिलाफ ‘सारतः’ उसी तरह है जैसा यूरोपी सामंतवाद के खिलाफ ‘फ़्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन’ यानी वे इस बात को मानकर चलते हैं कि भारत के दलित वर्ग के पास उत्पादन के संसाधन हैं और अब वह राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. फ्रांस में इसी तरह का संघर्ष बुर्जुआजी ने किया था. बिना सामाजिक स्थिति पर नज़र डाले इस तरह की प्रस्तावना को प्रकट करना इतिहास के साथ अन्याय है. इस तरह यहाँ उस महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी हो जाती है जिसके फलस्वरूप दलित राजनीति का विकास हुआ.  दलित आंदोलन मूलतः उत्पादन के संसाधनों वाले बुर्जुआजी का संघर्ष न होकर उत्पादन के संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष है.
दस्तावेज भारतीय समाज को आदिकाल  से ही एक इकाई के रूप में देखने की गंभीर भूल करता है और घोषणा करता है कि ‘यहाँ वर्गीय शोषण के लिए उस हद तक बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी जैसी यूनान और रोम में. इसके बदले वर्ण व्यवस्था से काम चल गया (पृष्ठ ९).' भारत केवल मध्य भारत नहीं है, बल्कि यहाँ रेतीले रेगिस्तान और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र भी हैं और मध्यकाल तक यह एक इकाई न होकर अलग-अलग राज्य में बंटा हुआ भूभाग था.
जहाँ तक गुलामी का सवाल है तो यह बात याद कर लेना अच्छा होगा कि बुद्धकालीन और महाभारतकालीन ‘भारत’ में गुलामी ठीक उसी रूप में थी जैसा कि रोम और यूनान में. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में थी’ और ‘जमीन उपजाऊ थी’ ऐतिहासिक साक्ष्य प्रमाणित करते हैं गुलामी की व्यवस्था एक लंबे समय तक इस उपमहादीप में स्थापित थी और इसका इतिहास में ठीक वैसा ही असर था जैसा अन्य क्षेत्रों में. वर्ण व्यवस्था गुलामी के विकल्प के रूप में विकसित नहीं हुई, बल्कि इसका आधार ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था थी. रही बात बल प्रयोग न करने की तो ऐतिहासिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि आदिकाल में उस वर्ग के पास, जिसका विकास दलित वर्ग के रूप में हुआ, उत्पादन से संसाधन थे और बलप्रयोग करके ही उन्हें संसाधनों से वंचित किया गया.
दस्तावेज सामंतवाद को वर्ण व्यवस्था का आधार मानने की जगह वर्ण व्यवस्था को सामंतवाद का आधार मानता है. शुरू में इस बात की घोषणा करने के बावजूद कि ‘मार्क्सवाद हर चीज़, हर परिघटना को उसके देशकाल में अवस्थित करके देखता है’ दस्तावेज भूल जाता है कि विचार का आधार व्यवस्था होती है, न कि व्यवस्था का विचार. मार्क्सवाद को स्वीकार करने के बावजूद सामंतवाद के आधार के तौर पर वर्ण व्यवस्था को देखना अत्यंत स्थूल विश्लेषण है. बिना सामंतवाद के मजबूत आधार के वर्ण व्यवस्था को बरकरार नहीं रखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसा पूंजीवादी आधार के बिना पूंजीवाद को और समाजवादी आधार के बिना समाजवाद को.
और जब दस्तावेज के रचियता को यह समझ आता है कि सामंतवाद ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति की समूची हैसियत उसके जन्म के साथ तय हो जाती है’ (पृष्ठ 10) तो भारत की वर्तमान व्यवस्था को बुर्जुआजी व्यवस्था मानने के पीछे का कारण क्या है? भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था क्या एक अर्धसामंती राज्य नहीं है? यदि दस्तावेज के प्रस्तावना को ठीक कह कर स्वीकार कर लिया जाए कि भारत एक पूंजीवादी राज्य है (पृष्ठ 4) तो फिर यह भी स्वीकार कर लेना ही पड़ेगा कि जाति, जिसका आधार सामंतवाद है, भी खत्म हो गई है. सच्चाई कुछ और ही बयां करती है.   
दस्तावेज की और एक कमी है बिना आधार के स्वीकार करना कि ‘आरक्षण के माध्यम से शासक वर्ग संपत्ति की व्यवस्था में कोई आमूल-चूल परिवर्तन किये बिना अपने आधार का विस्तार करता है और अपने खिलाफ शोषितों के असंतोष को विस्फोटक स्थिति तक जाने से रोकता है’ (पृष्ठ 5). यह उसी तरह का भौंडा तर्क है जो मार्क्स के समय वह लोग देते थे जो कहते थे कि यदि मजदूर वर्ग अधिक मजदूरी की मांग करेगा तो महंगाई बढ़ेगी. दस्तावेज यह क्यों नहीं देख पाता कि दलित बुद्धिजीवियों के विकास में आरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान है. यह सच है कि यह सम्पत्ति संबंधों पर परिवर्तन नहीं करता, लेकिन यह यह भी सही है कि यह सामाजिक संपत्ति में हिस्सेदारी को व्यापक बनाता है.
दस्तावेज को पढ़ने से पता चलता है कि अपनी तमाम बड़ी घोषणा के बावजूद ये मार्क्सवादी भी भारत के सभी मार्क्सवादियों की तरह क्रांति की आशा बुर्जुआजी से करते हैं. वे चाहते हैं कि बुर्जुआजी बिना कुछ किये बैठा रहे और स्थिति को विस्फोटक हो जाने दे, ताकि ये सब मिलकर क्रांति कर लें. क्रांति के बारे में जाने वाले लोग समझते हैं कि विस्फोटक स्थिति बनती नहीं है, बल्कि वर्ग संघर्ष के जरिये बनाई जाती है. क्या मार्क्सवाद इतना लचर है कि वह विस्फोटक स्थिति का इंतज़ार करे न कि उसका निर्माण. और यदि विस्फोटक स्थिति स्वत: निर्मित होती है तो मार्क्सवादी पार्टी की जरूरत क्या है? क्या एक क्रांतिकारी पार्टी का पहला काम स्थिति को विस्फोटक बनाना नहीं होना चाहिए?
दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है. बिना संघर्ष के क्या आरक्षण को हासिल किया जा सकता है? और आगे बढ़कर कहें तो क्या बिना संघर्ष के आरक्षण को बचाया जा सकता है?
इसलिए दलित विमर्श को बुर्जुआजी दर्शन कहकर नकारना उसे समझने की भूल है. भारतीय समाज में दलित विमर्श की उत्पत्ति सामंतवाद के खिलाफ तो है, लेकिन यह बुर्जुआजी दर्शन से उस रूप में अलग है जब वह समाज में बराबरी की बात करता है. सामाजिक और आर्थिक बराबरी को अलग-अलग करके देखना मार्क्सवाद की समझ में बुनियादी गलती है, जबकि मार्क्सवाद अंततः सामाजिक बराबरी का दर्शन है जिसका उत्कर्ष आर्थिक बराबरी में होगा. इतिहास में जितनी भी समाजवादी सत्ताओं का जन्म हुआ (मुख्यतः रूस और चीन में) वहां पहले सामाजिक बराबरी ही स्थापित हुई थी. इसलिए दलित राजनीति का विकास समाजवादी राजनीति के विकास के खिलाफ न होकर उसका आधार निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आत्मनिर्णय के सिद्धांत की लेनिनवादी मान्यता के अनुसार एक देश के सर्वहारा को सबसे पहले विश्वभर के सर्वहारा को बराबरी से देखना होगा. यानी लेनिन भी सामाजिक बराबरी को आर्थिक बराबरी के पहले के चरण के रूप में ही देखते हैं, न कि इसके उलट. 
जब दलित चिन्तक जाति व्यवस्था को ब्राह्मण का षड़यंत्र बताते हैं तो इसका अर्थ होता है सत्ता का षड़यंत्र, क्योंकि सत्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर उनके पास ही रही है. दलित राजनीति सामाजिक बराबरी के लिए ही अस्तित्व में आ सकती है, क्योंकि दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में हम देख सकते हैं कि आर्थिक बराबरी सामाजिक बराबरी का आधार तो है, परन्तु यह उसका मूल स्वभाव नहीं है. इस तरह उनका संघर्ष दो चरणों में सामने आता है -आर्थिक और सामाजिक.
सामाजिक बराबरी का उनका संघर्ष आर्थिक बराबरी के संघर्ष के साथ और कई मामलों में इससे पहले प्रकट होता है. इसका कारण है अभी संसदीय राजनीति में इसकी संभावना पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. ऐसे क्षेत्रों में जहाँ इससे सकारात्मक परिणाम की अब कोई संभावना नहीं है (आदिवासी क्षेत्रों में), वहां यह सशस्त्र संघर्ष के रूप में विकसित हो चुका है. यह दलित राजनीति का भविष्य भी है, क्योंकि सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष का विकास अंततः आर्थिक बराबरी के संघर्ष के रूप में विकसित होगा और ठीक यहीं से यह संसदीय राजनीति से ऊपर उठ जायेगा.
यदि आन्दोलन के इस रूप को पीछे धकेलकर सीधे अर्थ केंद्रित आंदोलन पर केंद्रित कर दिया जाये तो इसका असर मूलतः नुकसानदायक होगा. दलित आंदोलन को केवल बुद्धिजीवी ‘षड़यंत्र’ बताकर इसके प्रगतिशील प्रस्तावना को छोड देना वैचारिक स्तर पर आत्मघाती है.
लेकिन सवाल इससे अधिक का है, वह यह कि कौन किसे जोड़ेगा? क्या मजदूर वर्ग दलित को अपने साथ लेकर क्रांति करेगा या दलित मजदूर को अपने साथ लेकर भारतीय क्रांति को पूरा करेगा? या जिसे सर्वहारा माना जा रहा है वह दलित है? क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में सर्वहारा की परिभाषा के सबसे नजदीक दलित ही हो सकता है. इसलिए इस मायने में दलित वह शक्ति है जो इस उपमहादीप में क्रांति को अपने अंतिम चरण तक ले जा सकती है.
दस्तावेज मानता है कि अंग्रेजी शासन के कारण भारत में पूंजीवाद का उदय हुआ, जबकि तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी शासन ने न केवल टूटते सामंती समाज को जीवनदान दिया, बल्कि कई अवसरों में तो स्थापित किया और इसी के परिणामस्वरुप आज यह व्यवस्था बनी हुई है.  खुद मार्क्स ने भारत के बारे में लिखा है कि कच्चे माल को इंग्लैंड निर्यात कर और वहां के कारखानों में निर्मित सस्ते माल से भारतीय बाज़ार को भरकर अंग्रेजी शासन ने शुरू से ही यहाँ विकसित होते पूंजीवाद को रोकने का प्रयास किया. दस्तावेज एक ‘फ़तवा’ देकर भारत को पूंजीवादी देश घोषित कर देता है और कहीं भी यह बताने का प्रयास नहीं करता कि क्यों यह पूंजीवादी देश है न कि सामंतवादी जबकि भारत के सामाजिक ढांचे के बारे में जो कुछ भी, कम ज्यादा दस्तावेज में लिखा है उससे तो भारत पूंजीवादी कम और सामंतवादी देश अधिक दिखाई देता है. जबकि दस्तावेज में साफ़ लिखा है कि मार्क्सवाद ‘उन दलितों की मुक्ति का दर्शन है जो सर्वहारा बन चुके हैं... मार्क्सवाद उन दलितों को अपना दुश्मन मानता है जो बुर्जुआ बन चुके हैं (पृष्ठ 17).'
यहाँ सवाल है कि दलित सर्वहारा कैसे बनेगा? क्या आदिकाल से ही जबसे दलित वर्ग का उदय हुआ है दलित सर्वहारा नहीं है? उसके पास ऐसा क्या था जिसके न होने पर ही वह सर्वहारा बन जायेगा? यदि उत्पादन के संसाधन न होने पर कोई सर्वहारा कहलाता है तो भारत के दलित यकीनी तौर पर सर्वहारा हैं और भारत के सर्वहारा दलित. क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि भारत में सर्वहारा को दलित कहा जाये? यदि दस्तावेज लिखने वालों को ऐसा कहने में ‘संकोच’ है तो इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि वे भी जातिवाद के शिकार हैं. भारत में दलित ही ऐसा वर्ग है जो सर्वहारा की मार्क्सवादी परिभाषा में सही उतरता है.
दस्तावेज में आंबेडकरवादी चिंतकों पर ‘आरोप’ लगाया गया है कि उन्होंने जमीन जब्त करने, उसे पुनर्वितरण करने, किसानों और मेहनतकश जनता के सभी कर्ज को रद्द करने जैसी क्रांतिकारी योजना कभी प्रस्तुत नहीं की. लेकिन क्या लिखते वक्त कभी यह गौर किया गया कि संवैधानिक दायरे में रहकर आंबेडकरवादी चिन्तक ऐसा कर सकते हैं. उनके संवैधानिक आंदोलन से इस तरह कि आशा करना क्या बचकानी बात नहीं है. पहले यह तय कर लेना जरूरी है कि किस तरह के आंदोलन से क्या अपेक्षा की जाये. कोई अपने जूते में दूसरों का पैर डालने की कोशिश करे और साथ में यह भी कहता रहे कि पैर की गलती है कि वह अंदर नहीं जा रहा तो ऐसे में उसे क्या समझा जाए. आंबेडकरवादी चिंतकों को उनकी सीमा में समझने की जगह उन्हें अपने ढांचे में ठूस देना सैधांतिक दरिद्रता है.
दस्तावेज पढ़ने पर एक बार लगता है कि इसके प्रस्तावकों को मार्क्सवाद पर कम विश्वास है और ये दलित चिन्तक से अधिक डरे हुए हैं.

सम्बंधित लेख :
बहस- 2- किस दुनिया में रहते हो कॉमरेड?
बहस -1- 'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी'

किस दुनिया में रहते हो कॉमरेड?


वामपंथी समूह क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर सभा के नेता जाति के सवाल पर दलित बुद्धिजीवियों का क्या महत्व  मानते हैं,उन्होंने अपने लेख 'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी' में बताया है.  इस पर पहली प्रतिक्रिया सामाजिक कार्यकर्त्ता जेपी नरेला की आई है. उन्होंने पूरी पुस्तिका के सन्दर्भ  में बिन्दुवार यहाँ अपनी राय रखी है...

जेपी नरेला

सर्वहारा प्रकाशन ने पिछले दिनों मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्ति के नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की,जिसको लेकर यहाँ बहस आमंत्रित की गयी है.इस पुस्तिका को पढने के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे.उन सवालों के  मद्देनजर मैं यहाँ अपने मत व्यक्त कर रहा हूँ...
  • पुस्तिका में लिखा है,‘आज अपने देश में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद से सहानुभूति रखने वाले कहते हैं,वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं...’

यह बात तो सही है,लेकिन आपके पास सही मार्क्सवादी होने का कौन सा प्रमाण है,अभी तो इस मुल्क में पिछले कई दशकों में कोई बड़ा सामाजिक प्रयोग भी नहीं हुआ है. क्या आप भी उसी श्रेणी में तो नहीं आते जिन्होंने मार्क्सवाद को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उसकी (मार्क्सवादी दर्शन द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद की) आंखें धुंधली हैं. उन्हें नहीं पता है कि भारतीय क्रांति का सम्पूर्ण कार्यक्रम का सही लेखा-जोखा क्या है?उसका रास्ता कौन सा है?

क्या आप यह काम कर पाए,यदि नहीं तो आप यह दावा कैसे कर सकते हैं कि बाकी दुनिया में नकली मार्क्सवादी हैं और आप असली हैं?यह बात केवल बातों से नहीं बल्कि भारतीय जनता के तमाम शोषित, उत्पीड़ित हिस्सों की लड़ाइयों और आप के नेतृत्व से ही स्थापित हो पाएगी.तब तक आप अपने और दूसरे मार्क्सवादियों के लिए इस डिग्री के संबंध में देखें -परखें  का रास्ता अपनाए तो ज्यादा बेहतर होगा.खुद को पाक-साफ घोषित करने से कोई पाक-साफ नहीं हो जाता है.इससे व्यक्तिवाद का खतरा बढ़ता है.आप कहां-कहां पर मार्क्सवाद को खारिज करते जा रहे हैं,इसका आपको अंदाज भी नहीं है.

  • आप लिखते हैं,‘...हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास पर दो पृष्ठ की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं... हम इन्हें चुनौती देते हैं कि केवल जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं.’
कौन दलित बुद्धिजीवी आपकी बात सुन रहा है और आपके कहने से वे भारत में कम्युनिस्ट के इतिहास की दो पृष्ठ की रूपरेखा लिखकर दिखाएगा.आपकी कूवत क्या है? पूरे भारतीय समाज में और सामाजिक आंदोलनों में और जाति के सवाल पर आप आज कहां खड़े हैं, इसका आकलन यदि आप करेंगे तो आपका सारा दंभ निकल जाएगा,जो मार्क्सवाद की चार किताबें पढ़ लेने भर से पैदा हो गया है.यह आपके लेखन में भी दिख रहा है.जाति के सवाल पर आपकी समझ भी क्या है? इसका आपको अंदाजा नहीं है,इस सच्चाई को आप छू भी नहीं पाए हैं.इसके लिए कार्यक्रम के निर्माण की तो आप बात ही छोड़ दीजिए.

मैं यह पहले ही साफ कर देना चाहता हूँ कि न तो मैं कोई दलित बुद्धिजीवी हूं और न उनका समर्थक. मैं सिर्फ समस्याओं को मार्क्सवादी द्रष्टिकोण से पढ़ने और समझने का प्रयास कर रहा हूं. मैं आपके इस घमंड और व्यक्तिवादी नजरिए का घोर विरोधी हूं. आपके लेखन से जो झलक रहा है, वह अपने आप में कोई मार्क्सवादी नजरिया नहीं है. मार्क्सवाद सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन है और केवल आप ही उसके वाहक हैं, यह हम कैसे मान लें?

  • ‘...डीडी कोसाम्बी, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका जवाब देते हैं.जरा इनके जवाब की तुलना आंबेडकर की रचनाओं से करें, आपको अंतर तुरंत पचा चल जाएगा.’
मनुस्मृति का मजबूत भौतिक आधार सामाजिक उत्पादन संबंधों में मौजूद था.मनुस्मृति उसी का अधिरचना में विधान है.इससे मैं भी सहमत नहीं हूं कि महज मनुस्मृति के षड्यंत्र ने भारतीय समाज में जाति पैदा कर दी. हां, इसके बाद मनुस्मृति ने वैचारिक धरातल, उसको खाद-पानी देने का काम बखूबी किया और आज भी कर रहा है.

डीडी कोसाम्बी,रामशरण शर्मा,रोमिला थापर,इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका यही जवाब देते हैं कि जाति व्यवस्था उत्पादन संबंधों में मौजूद रही है.भारतीय समाज में आज भी उसका ठोस भौतिक आधार है इसलिए इतनी मजबूती से यह अधिरचना में भी मौजूद है.इसको समझिए कामरेड.हां,यह बात सही है कि इन सभी इतिहासकारों और डॉक्टर भीमराव आंबडेकर के द्रष्टिकोण में मूलभूत फर्क है,इतिहास को देखने और समझने का नजरिया.

अंबेडकर पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं में बचते हैं और उनका रास्ता संसदीय जनतंत्र के बाद बंद हो जाता है. यह बात भी सत्य है कि आंबेडकर मार्क्सवादी दर्शन और वैज्ञानिक समाजवाद के चैतन्य तौर पर विरोधी थे. इसलिए उन्होंने राजकीय समाजवाद की कल्पना पेश की, जो अपनी अंतर्वस्तु में पूंजीवादी राज्य है. यह निजी संपत्ति और शोषण की व्यवस्था की गारंटी देता है.

  • ‘...अंग्रेज भारत आए. वे अपने साथ सामंतवाद नहीं पूंजीवाद लाए. भारतीय सामंतवाद इस पूंजीवाद के सामने ठहर नहीं सकता था. वह ठहरा भी नहीं. वह ध्वस्त हो गया और उसी के साथ भारत की हजारों सालों की वर्ण-जाति व्यवस्था ध्वस्त हो गई.आज आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में वर्ण-जाति व्यवस्था समाप्त प्राय है...’
कॉमरेड,सूत्रीकरण से आप इस गंभीर समस्या के हल तक नहीं पहुंच सकते.आपको सूत्रीकरण से बाहर आकर आंखें खोलकर देखना होगा.आप कह रहे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के मुकाबले सामंतवाद टिक नहीं सकता, इसलिए अंग्रेजों ने जैसे ही भारत में पूंजी का विकास किया भारत में जाति व्यवस्था चरमरा गई और बाद में खत्म हो गई.आपको मेरी सलाह है कि शेखचिल्लियों की तरह दिन में सपने देखना छोड़ दें कॉमरेड.

क्या सन 1947में भारतीय राजसत्ता कांग्रेस के हाथ में आने के बाद यहां सामंतवाद खत्म और पूंजीवाद आ गया था.जाति प्रथा खत्म हो गई थी.यानी सामंती उत्पादन समन्वय क्या बुनियादी व प्रमुख तौर पर अस्तित्व में नहीं थे.क्या उसके बाद यहां कोई पूंजीवादी क्रांति हुई?या भारतीय राजसत्ता ने क्या जाति व्यवस्था के ढांचे और उसकी विचारधारा को जान-बूझकर नहीं बनाए रखा? इन सवालों का आपको संपूर्णता में जवाब देना होगा.

  • भारत में भी इस मामले में 1930-40 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम और आंबेडकर के कार्यक्रम की तुलना कर लेना पर्याप्त होगा.इस तरह देखा जाए तो कम्युनिस्ट ही भारत में दलित मुक्ति के सबसे बड़े चैम्पियन रहे हैं.
कम्युनिस्टों ने 1930-40 के दशक में जाति के सवाल पर कौन से राष्ट्रीय आन्दोलन खड़े किए.इसका कोई लिखित इतिहास मिलता नहीं है. यदि आपके पास है तो आप दीजिए, हम देखना चाहेंगे. फिर 50 के दशक से 2011 तक के लंबे अंतराल में क्या कम्युनिस्ट आंदोलन को सांप सूंघ गया था. यहां आप चुप क्यों हैं कॉमरेड? इस अंतराल का भी इतिहास बता दीजिए और जाति के सवाल पर पूरा का पूरा वाम आंदोलन कहां खड़ा है? इसका भी लेखा-जोखा आपको देना चाहिए.

  • ‘...जमींदारों की सारी जमीन को जब्त करना और जमीन जोतने वाले उसूल पर भूमिहीन गरीब किसानों के बीच इसका पुनर्वितरण जाति व्यवस्था को खत्म करना.’
जमीन के बंटवारे का सवाल किसानों के वर्ग की लड़ाई है, न की जाति के सवाल का केंद्रीय एजंडा. दूसरी बात, जाति व्यवस्था को खत्म करना कार्यक्रम में लिखा हुआ है, लेकिन जाति की समस्या के समाधान के लिए क्या कोई कार्यक्रम पेश किया और उसको जनता के विभिन्न हिस्सों में उसे लागू किया? नहीं. यह लिखा हुआ दिखा देने से कोई बात नहीं बनती. उस समय भी दलितों के बीच जो संगठन बने वे वर्गीय संगठन थे, जिनकी आप बात कर रहे हैं. वर्ग और जाति अलग है. आपस में इनका गहरा संबंध भी है.



इसलिए पूरी जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ जाति विरुद्ध संगठनों का निर्माण करना होगा जो टोटल सिस्टम के खिलाफ बनेंगे न कि किसी एक विशेष जाति के खिलाफ. शेष समाज में विभिन्न वर्गों की लड़ाइयों के साथ इसको जोड़ना होगा. इस रूप में यह लड़ाई वर्ग संघर्ष का हिस्सा है.इस काम को छोड़कर आप कहीं भी आगे नहीं जा सकते,न ही किसी व्यापक परिवर्तन या वर्ग संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.यह भी समाज का एक बड़ा हिस्सा है जिसे आप आज दरकिनार किए हुए हैं. इसको एजंडे में लाना होगा. कॉमरेड हमारा आपसे यही कहना है.


'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी'


किसी भी आंदोलन और संघर्ष के बीच बहस में जाति का प्रश्न  हमारे देश  में हमेशा महत्वपूर्ण होकर उभरता है। ज्यादातर संगठन और पार्टियां इसे सामाजिक और आर्थिक बराबरी में बड़ा रोड़ा मानती हैं। इस रोड़े को खत्म करने के लिए सभी संगठनों-पार्टियों के पास अपने तर्क और दर्शन  हैं। उसी तर्क और दर्शन  के आधार पर वह भारत के जाति आधारित समाज को खत्म करने की कोशिश में लगे  हैं। लेकिन इन कोशिशों  के बीच की सच्चाई यह है कि आधुनिक होते भारतीय समाज का जातिगत स्वरूप और संगठित व संस्थागत हुआ है, जहां नये सृजन के मुल्य भी हैं और सामंती-बर्बर सामाजिक संरचनाएं भी। वैसे में सवाल यह उठता है कि इसके मुकाबले नयी सामाजिक संरचना क्या होगी, उसके कार्यभार क्या होंगे और वह वंचित-शोषित  जातियों के मुक्ति के सवालों पर क्या रास्ता अपनायेगी, जिससे ये जाति समूह उन संघर्षों को अपना मानेंगे। ‘जनज्वार’ जाति के इस जटिल मसले पर सभी पक्षों के सरोकारी बहस को आमंत्रित करता है। दिल्ली के गांधी शान्ति  प्रतिष्ठान  में 24 जुलाई को जाति के सवाल पर आयोजित एक सेमीनार में बांटी गयी सर्वहारा प्रकाशन की एक पुस्तिका का पहला हिस्सा छापकर यहां बहस की शुरूआत की जा रही है। यह पुस्तिका वामपंथी समूह क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर सभा की ओर से वितरित की गयी थी। - मॉडरेटर



आज अपने देश  में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवादी, मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद की सहानुभूति रखने वाले कहते हैं वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं। इसके अलावा ऐसे लोगों की भारी तादाद है जो खुद को वंचितों-शोषितों  का मसीहा घोषित  करते हुए,मुक्ति के दर्शन  के तौर पर मार्क्सवाद को खारिज करते हैं। इन्होंने खुद का मुक्ति का दर्शन  गढ़ लिया है।

यह उपभोक्तावादी पूंजीवाद का जमाना है। इसमें हर चीज ‘मॉस’ स्वरूप ग्रहण कर लेती है। इसमें हर चीज को सरलीकृत करके ‘मॉस’के उपभोग के अनुरूप ढाल लिया जाता है और इसके परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति हर चीज का विशेषज्ञ  बन बैठता है। वह हर चीज चर चाहे वह कितनी विशिष्ट   और तकनीकी क्यों न हो उस पर मंतव्य देना अपना अधिकार समझ लेता है। जिन क्षेत्रों में फरिस्ते  भी पर मारने से घबराते हैं, उसमें यह बेहिचक अपनी राय ही नहीं, अंतिम निर्णय फौरन सुना देते हैं।

स्वनामधन्य बुद्धिजीवी,खासकर दलित बुद्धिजीवी इसी श्रेणी में आते हैं। ये अतीत की हर चीज, हर दर्शन और हर आंदोलन पर फतवा जारी करने में लगे हुए हैं। ये एक बार मूंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं। और ठीक तुरंत काफिर यानी ब्राम्हणवादी, मनुवादी घोषित  हो जाता है। यहां अतीत से असहमति की सारी गुहार वर्तमान में असहमति को निरस्त करने के लिए लगाई जाती है।

मार्क्सवाद और भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन इसके खास निशाने  पर है। बात कहीं की भी हो रही हो ये लपक कर चार लात इनको लगा देते हैं। इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भारत के नब्बे साल कम्युनिस्ट  आंदोलन के इतिहास की एक मोटा-मोटी रूपरेखा भी प्रस्तुत कर सके। फिर भी वे इस पर कुछ भी कह देने के लिए खुद को आजाद मानते हैं। हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की दो पृष्ठ  की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें। चलिये हम अपनी चुनौती को और हल्का कर देते हैं। ये अपने को जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें।

हम जानते हैं कि वे ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन तब भी वे समूचे मार्क्सवाद को और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को खारिज करने का दंभ रखते हैं। इसके निश्चित  कारण हैं। पिछले डेढ़ सौ सालों से और खासकर पिछले सौ सालों से मार्क्सवाद शोषित -उत्पीड़ित मानवता की मुक्ति का एकमात्र दर्शन रहा है। इसलिए जब भी कोई नया दर्शन या विचारधारा पैदा हुई है जिसने अपने को मुक्ति के दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है तब उसे सबसे पहले मार्क्सवाद को गलत या अधूरा घोषित  करना पड़ा है।

यह पिछले सौ सालों में कई बार हो चुका है- मार्क्सवाद के भीतर से भी बाहर से भी। सच तो यह है कि हर दस-बीस साल पर यह षोर उठता ही रहा है कि मार्क्सवाद असफल हो गया है, मार्क्सवाद पुराना पड़ गया है(उत्तर आधुनिकता उसकी आधुनिकतम कड़ी है)। लेकिन हर बार यह पाया गया है कि मार्क्सवाद से आगे जाने के नाम पर जो कुछ प्रस्तुत किया गया वह मार्क्सवाद के पैदा होने से पहले ही कहा जा चुका है। वह सारा कुछ रूप बदला हुआ मार्क्सवाद पूर्व दर्शन है। उत्तर आधुनिकता पर भी यही चीज लागू होती है।

दलित बुद्धिजीवी भी मार्क्सवाद को नकारते हैं। वे इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते। वे दलित की मुक्ति का अपना दर्शन प्रस्तुत करना चाहते हैं। दलित की मुक्ति का या ज्यादा ठीक कहें तो सभी सर्वहारा दलित सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन मार्क्सवाद के रूप में पहले से ही मौजूद है। ऐसे में यदि दलित बुद्धिजीवियों को अपना दर्शन स्थापित करना है तो खासकर दलित सर्वहारा को मार्क्सवाद के प्रभाव से बचाना है तो मार्क्सवाद को खारिज करना आवश्यक  है। वस्तुतः यह सारा कुछ दलित सर्वहारा के लिए दो दर्षनों के बीच जंग है। एक ओर मार्क्सवाद है तो दूसरी ओर दलित बुद्धिजीवियों का दर्शन।

लेकिन दलित बुद्धिजीवी का दर्शन है क्या? यह दर्शन  है -और यही हमारी इस आलोचना का केंद्रबिंदु- बुर्जुआ दर्शन, पूंजीपति का दर्शन। दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन का, उनकी विचारधारा का सारतत्व है पूंजीवादी दर्शन। हां,यह इक्कीसवीं सदी के शुरुआत के भारत के विशिष्ट दलित बुर्जुआ का दर्शन है। इस मायने में यह महान फ्रांसीसी क्रांति के फ्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन से सारतः एक होते हुए भी रूप में कई मायनों में भिन्न है।


नोट:यह लेख जिस पुस्तिका 'मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियाँ' का हिस्सा है, उसे दाहिनी तरफ फोटो पर क्लिक करके पूरा पढ़ा जा सकता है.