किसानों-आदिवासियों के प्रतिनिधियों के भागीदारी के बगैर जो प्रस्ताव तैयार हुआ है वह कोई ऐसा जमीन अधिग्रहण कानून कैसे बना सकता है,जिसके बनने के बाद इन तबकों में रोष न हो...
अजय प्रकाश
जमीन अधिग्रहण के खिलाफ देश में व्यापक होते विरोध के मद्देनजर सरकार,संसद के मानसून सत्र में 1894से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण विधेयक को नया प्रारूप देने की तैयारी में है। नये प्रारूप को लेकर सोनिया गांधी के अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) के कई सुझाव केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री को लगातार पहुंच रहे हैं,जिससे उन्हें लोककल्याणकारी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने में सहुलियत हो।
इन सुझावों में जमीन मालिकों को निलामी रेट से छह गुना कीमत दिये जाने,ग्राम सभा के निर्णायक होने और अधिग्रहण के लिए 75फीसदी प्रभावितों के हस्ताक्षर पर अधिग्रहण की अनुमति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है। भूमि अधिग्रहण मामलों में एनएसी कार्यसमूह के संयोजक हर्षमंदर के शब्दों में कहें तो ‘सरकार ने अधिग्रहण में अगर उपर्युक्त तीनों प्रावधान शामिल किये तो इस कानून में एक गुणात्मक परिवर्तन होगा।’
सरकार और उसके सहयोगी अधिग्रहण कानून को किस रूप में लागू करेंगे, यह तो आने वाले सत्र के बाद पता चलेगा,लेकिन पहले से मौजूद कानूनों में जनता की भागीदारी कितनी हो पा रही है,उसे देखें तो कुछ और ही कहानी सामने आती है। एक मामला झारखंड के पूर्व सिंहभूमि जिले का है, जहां 26मई को जादुगोड़ा इलाके में भाटिन यरेनियम माइंस के बीस साल पूरे होने पर एक्सटेंसन के लिए एक जनसुनवाई हुई।
यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल)के अधिकारियों ने क्षेत्र में माइक से प्रचार किया कि सुनवाई स्थानीय फुटबाल फील्ड में होगी,लेकिन जनसुनवाई कॉरपोरशन कर्मचारियों के कॉलोनी में हुई। सुनवाई के दौरान ग्रामीणों,मीडिया और जनांदोलनों से जुड़े लोगों ने जाने का प्रयास किया तो सुरक्षा बलों और निजी गार्डों ने उन्हें रोक दिया। राज्य प्रदुशण नियंत्रण बोर्ड की ओर से जनसुनवाई पूरी हो गयी और 29 वर्श और कंपनी के लीज को बढ़ाने का फैसला बैगर प्रभावितों की सहमति के ले लिया गया।’
गौरतलब है कि यह एकतरफा फैसला एजेंसी एरिया में लिया गया जो पहले से ही पेसा एक्ट के तहत आता है,जहां ग्राम सभा और लोगों की सहमति ही अधिग्रहण या कंपनी चलाने का अंतिम निर्णय होता है। झारखंड आर्गेनाइजेशन अगेंस्ट यूरेनियम के संयोजक जगत मांडी कहते हैं, ‘ये बर्ताव तब किया जब इस क्षेत्र में नयी कंपनी नहीं बनानी थी बल्कि एक्सटेंशन लेना था। अधिग्रहण और विस्थापन तो पहले ही हो चुका था।’
ये उदाहरण बताने के लिए काफी है कि पहले से बने कानूनों के अमल की क्या स्थिति है। सरकार अपनी जरूरतों के लिए किस तरह जमीन अधिग्रहण कर रही है इसका उदाहरण न्यूक्लीयर पॉवर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनसीपीआइएल)की ओर से हरियाणा के फतेहाबाद जिले के कुम्हारिया न्यूक्लीयर पॉवर प्रोजेक्ट के खातिर अधिगृहित की जा रही जमीन के मामले से समझा जा सकता है।
फतेहाबाद कलेक्ट्रट पर पिछले एक वर्श से किसान संघर्ष समिति जमीन न कब्जाई जाये,के खिलाफ धरना दे रही है। अबतक धरना स्थल पर आने वाले दो किसानों की मौत भी हो चुकी है। समिति के अध्यक्ष हंसराज सिवाच कहते हैं, ‘हमलोग हस्ताक्षर कर कितनी बार प्लांट के लिए जमीन नहीं देने की बात कह चुके हैं। जापान में आई सुनामी के बाद परमाणु संयंत्रों से रिसाव की घटना के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। फिर भी सरकार अपने नोटिस पर कायम है।’
हरियाणा की इस छवि के उलट फिक्की ने भूमि अधिग्रहण को लेकर हरियाणा मॉडल को आदर्ष के रूप में पेष किया है। पूंजीपतियों की संस्था फिक्की के नवनियुक्त महासचिव ने भूमि अधिग्रहण के बारे में राय है कि ‘हम प्राकृतिक संसाधनों की ऑनलाइन नीलामी और अधिग्रहण के हरियाणा मॉडल अपनाने के पक्ष में हैं।’महासचिव के मुताबिक हरियाणा में परियोजनाओं के लिए कंपनियां सीधे किसानों से 70फीसदी जमीन खरीदती हैं और सरकार मात्र 25प्रतिशत जमीन कब्जा कर परियोजना के लिए कंपनी को हस्तांरित करती है। इसके अलावा हरियाणा के वे जिले जो एनसीआर जोन में आते हैं वहां 33 साल तक प्रति एकड़ 15हजार रूपये के हिसाब से जमीन मालिक को देने और प्रभावित परिवारों को नौकरी देने का प्रावधान है।
फिक्की महासचिव के दावे के बरख्स किसानों के पक्ष को देखें तो वह मेल नहीं खाते। हरियाणा के अंबाला जिले में बन रहे ‘मॉडर्न इंडस्ट्रियल टाउनशिप’ के लिए अधिगृहित की जा रही 280एकड़ जमीन को लेकर जहां मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा का दावा है कि इस अधिग्रहण की मंजूरी एक लाख किसानों ने हस्ताक्षर के जरिये दी है,वहीं किसान संघर्श समिति बाखालसा ने इसे फर्जीवाड़ा करार दिया है।
अधिग्रहण को लेकर विवाद की दूसरी घटना सोनीपत राजीव गांधी एजुकेशन सिटी को लेकर है। 2006 में अधिगृहित की गयी इस इलाके की भूमि के बारे में सरपंच ओम सिंह कहते हैं, ‘सरकार को हमने पूरी जमीन देने का वायदा कभी नहीं किया था,इसलिए एक भी किसान ने अधिग्रहण के बदले आजतक मुआवजा नहीं लिया है।’
जमीन अधिग्रहण के विशालतम क्षेत्रों में खनन के वे क्षेत्र भी हैं जहां लोग लगातार अपनी जल, जंगल और जमीन से उजड़ने को मजबूर हैं। उजड़ने का खौफ और सरकार की पूंजीपतियों की सुविधापूर्ती वाले अधिग्रहण कानूनों की वजह के किसान-आदिवासी विद्रोह कर रहे हैं और माओवादी क्षेत्रों को मजबूती दे रहे हैं। बावजूद इसके सरकार अधिग्रहण नीतियों को बदलने को तैयार नहीं दिखती है। हाल ही में योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलवालिया ने खनन क्षेत्रों की रॉयल्टी बढ़ाये जाने के सवाल पर कहा है कि ‘खनन का धंधा बड़े निवेष और जोखिम का है। वैसे में खनन कंपनियों के मुनाफे में स्थानीय लोगों की भागीदारी से विदेशी निवेशक बिदक जायेंगे और निवेश के भविष्य पर भी खतरा उत्पन्न हो जायेगा।’
खनन क्षेत्र के विषेश जोन के रूप में ख्यात छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नया अतिक्रमण भारतीय सेना अपना ट्रेनिंग कैंप खोलकर करने जा रही है। एजेंसी एरिया का यह क्षेत्र जो कि पेसा एक्ट के तहत आता है, अबतक हुए इस क्षेत्र के अधिग्रहण की जरूरतों बेमेल हैं। सेना ट्रेनिंग स्कूल के लिए अबूझमाड़ के क्षेत्र में 4 हजार वर्ग मीटर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। हालांकि अधिग्रहण के लिये स्थानीय आदिवासियों से कोई सहमति नहीं ली गयी। अबूझमाड़ क्षेत्र में सेना के कैंप बनाये जाने का कारण माओवादी इलाका होना है, जहां सरकारी तंत्र काम नहीं करता है।
संसद के मानसून सत्र में पेश होने जा रहे अधिग्रहण कानून के मद्देनजर देखें तो इससे किसी को ऐतराज नहीं होगा कि अंग्रेजी शासन काल 1894से चले आ रहे अधिग्रहण कानून में लोकतंत्र की मूलभावना के मुताबिक बदलाव हो। लेकिन सवाल यह है कि किसानों-आदिवासियों के प्रतिनिधियों के भागीदारी के बगैर जो प्रस्ताव तैयार हुआ है वह कोई ऐसा जमीन अधिग्रहण कानून कैसे बना सकता है, जिसके बनने के बाद इन तबकों में रोष न हो।
No comments:
Post a Comment