Aug 7, 2010

कालकोठरी के पांच दिन


उत्तराखंड  में महिलाओं  को माहवारी होने पर किन परेशानिओं  से से जूझना होता है, मां बनने पर समाज परम्पराओं और देवताओं के नाम पर  उनसे कैसा अमानवीय बर्ताव करता है, "जहाँ मां बनना पाप है," लेख में हमने देखा. अब इस मुद्दे पर और तफशील में जाते हुए देश के पूर्वी राज्य  बिहार में माहवारी के दिनों में महिलाओं से कैसा व्यवहार होता है, इसको जानने के लिए  पढ़ें पत्रकार मृणाल वल्लरी को.

मृणाल वल्लरी

प्रेमा नेगी की पोस्ट ने विचलित कर दिया। ऐसा सच जानने, देखने, भोगने के बाद भी प्रेमा के लिखे ने दिमाग में एक हलचल सी मचा दी। कुदरत ने स्त्री की जिस देह को नेमतों से नवाजा उसे समाज ने विडंबनाओं का भंडार बना दिया।

दुनिया की सारी सभ्यताओं ने मातृत्व को आला दर्जा दिया। लेकिन मातृत्व के लिए सबसे जरूरी प्रक्रिया से जब वही स्त्री देह गुजर रही होती है तो उस दौरान वह एक ऐसी गंदगी का ढेर बन जाती है जिसे छूकर इंसान अपवित्र हो जाए। प्रेमा जी ने पहाड़ के एक गांव की कुरीतियों का जिक्र किया। लेकिन स्त्री देह की इस नैसर्गिक प्रक्रिया को हिकारत बनाने में पहाड़ और मैदान की संस्कृति हैरतअंगेज तरीके से कदमताल करती नजर आती है।

सामाजिक जड़ता के खिलाफ एक नयी दुनिया की उम्मीद
बिहार के गांवों में भी उन पांच दिनों से गुजरने की प्रक्रिया के दौरान  किशोरी से लेकर महिलाएं तक, एक नर्क की जिंदगी जीती हैं. बिहार के बिहटा के एक गांव की लड़की जो पटना में पढ़ रही थी उसने बताया कि जब से वह अपने परिवार से दूर हॉस्टल में रहने के लिए पटना आई है उसकी जिंदगी में हर महीने के पांच दिनों का और इजाफा हो गया है। गांव में उन पांच दिनों के दौरान उसे एक अलग कमरे में रहना पड़ता था। और मौसम चाहे जो भी हो पांच दिन नहाना मना है।
उस समय में जब शरीर को सफाई की सबसे ज्यादा जरूरत होती है,नहाने की मनाही कितने तरह के रोगों को बुलावा देती है यह अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन गांव तो गांव पटना जैसा शहर भी इस मसले पर कूपमंडूक बना हुआ है। मेरी पड़ोस की एक महिला जिसे हम भाभी कहते,वह कई  पुरुषों के परिवार में अकेली महिला थी। उनके घर के एक पुरुष सदस्य की मौत हुई। मौत के बाद घर में हो रहे कर्म-कांड के दौरान उनके लिए शारीरिक रूप से अपवित्र होना वर्जित था। क्योंकि उस दौरान वो खाना बनातीं तो उसे कोई नहीं खाता।

उन्होंने मुझे पुर्जे पर एक दवा लिख के लाने को दी। मैंने पूछा कि यह किस चीज की दवा है। उन्होंने बताया कि इस दवा को खा लेने से उनका मासिक चक्र आगे बढ़ जाएगा, वो आराम से घर के काम कर सकेंगी। मैंने पूछा कि उन्हें इस दवा के विषय में कैसे पता चला। उन्होंने हंसते हुए कहा कि गांवों में तो छठ और अन्य पूजा-त्योहारों के समय महिलाएं धड़ल्ले से इस दवा का इस्तेमाल करती हैं। मैंने अचरज से पूछा कि गांवों में भी यह दवा आसानी से मिल जाती है,  तो उन्होंने कहा कि जरूरत है तो मिलेगी ही। मैं आवश्यकता और पूर्ति के इस रिश्ते से हैरान हो गई। भाभी ने बताया कि घर में अकेली महिला होने के कारण वो अक्सर इस दवा का इस्तेमाल करती हैं। मैंने पूछा कि इस दवा का कोई साईड इफेक्ट नहीं है।

 शिक्षा का अधिकार  : अब सामाजिक बराबरी की तैयारी
उन्होंने कहा कि इस वजह से उनका पूरा मासिक चक्र अनियमित होने के साथ कुछ और भी शारीरिक समस्याएं होती हैं। लेकिन उन्हें इस बात की अब चिंता नहीं है क्योंकि वे दो बच्चों की मां बन चुकी हैं। यानी उनका शरीर एक मां बनने की मशीन है और मां बनने के बाद उनके शरीर के कल-पुर्जों की उपयोगिता उनके लिए खत्म हो गई और वे अंधविश्वास और कुरीतियों की रक्षा के लिए उन कल-पुर्जों के साथ मनमानी कर रही हैं। अंधविश्वास के नाम पर अपने शरीर के साथ इतना बड़ा खिलवाड़। अगर गांव के अनपढ़ लोग कुरीतियों को ढो रहे हैं तो उनके बारे में थोड़ा समझा जा सकता है। लेकिन शहरी  महिलाएं भी इन परंपराओं को ढोती हैं, तो दुख होता है।

सस्ता सैनिटरी नैपकिन :   बंदिशों से मुक्ति की एक सार्थक पहल
आज भी गांवों और कस्बों में इन परंपराओं के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई आगे नहीं आता। सरकार भी परिवार नियोजन और जच्चा-बच्चा की रक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार तक ही सीमित रहती  है। इन कुरीतियों के खिलाफ कोई पहल नहीं दिखती। शहरों में तो सेनेटरी नैपकिन ने लड़कियों की आजादी के थोड़े रास्ते खोले हैं लेकिन गांवों की किशोरियों को तो उन पांच दिनों के लिए कालकोठरी में बंद होने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है। घरेलू उपायों पर निर्भरता के कारण स्कूल-कॉलेज जाना बंद हो जाता है।

अगर उन दिनों इम्तिहान और किसी तरह की प्रतियोगिता में भाग लेना हो तो फिर शरीर की मजबूरी आधा मनोबल पहले ही तोड़ देती है। गांवों में घर की बेटियों की शादी के लिए सोने के गहने और रेशमी साड़ियां तो जमा की जाती हैं लेकिन स्कूल जाती लड़कियों के लिए सेनेटरी नैपकिन पर खर्च करना उन्हें बेमानी लगता है।जो परिवार यह खर्च उठा सकते हैं वे तो नहीं उठाते लेकिन बहुत परिवार ऐसे भी हैं जो घर में चार-पांच बेटियों के लिए महीने में इतना खर्च नहीं कर सकते।

टाटा ने सस्ती कार और वाटरप्यूरिफायर तो ला दिया लेकिन कोई कंपनी क्या इन लड़कियों की मुसीबतों को कम करने के लिए आगे आएगी। आखिर अभी तक इसे लड़कियों की बुनियादी जरूरत की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा। क्या गांवों में सरकारी मदद से लड़कियों के लिए सस्ते सेनेटरी नैपकिन का इंतजाम नहीं किया जा सकता। आज के दौर में स्कूल  और कॅरियर बनाने की चाह रखनेवाली लड़कियों के लिए यह रोटी,कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरत है।