उत्तराखंड में महिलाओं को माहवारी होने पर किन परेशानिओं से से जूझना होता है, मां बनने पर समाज परम्पराओं और देवताओं के नाम पर उनसे कैसा अमानवीय बर्ताव करता है, "जहाँ मां बनना पाप है,"< b=""> लेख में हमने देखा. अब इस मुद्दे पर और तफशील में जाते हुए देश के पूर्वी राज्य बिहार में माहवारी के दिनों में महिलाओं से कैसा व्यवहार होता है, इसको जानने के लिए पढ़ें पत्रकार मृणाल वल्लरी को.
मृणाल वल्लरी
प्रेमा नेगी की पोस्ट ने विचलित कर दिया। ऐसा सच जानने, देखने, भोगने के बाद भी प्रेमा के लिखे ने दिमाग में एक हलचल सी मचा दी। कुदरत ने स्त्री की जिस देह को नेमतों से नवाजा उसे समाज ने विडंबनाओं का भंडार बना दिया।
दुनिया की सारी सभ्यताओं ने मातृत्व को आला दर्जा दिया। लेकिन मातृत्व के लिए सबसे जरूरी प्रक्रिया से जब वही स्त्री देह गुजर रही होती है तो उस दौरान वह एक ऐसी गंदगी का ढेर बन जाती है जिसे छूकर इंसान अपवित्र हो जाए। प्रेमा जी ने पहाड़ के एक गांव की कुरीतियों का जिक्र किया। लेकिन स्त्री देह की इस नैसर्गिक प्रक्रिया को हिकारत बनाने में पहाड़ और मैदान की संस्कृति हैरतअंगेज तरीके से कदमताल करती नजर आती है।
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बिहार के गांवों में भी उन पांच दिनों से गुजरने की प्रक्रिया के दौरान किशोरी से लेकर महिलाएं तक, एक नर्क की जिंदगी जीती हैं. बिहार के बिहटा के एक गांव की लड़की जो पटना में पढ़ रही थी उसने बताया कि जब से वह अपने परिवार से दूर हॉस्टल में रहने के लिए पटना आई है उसकी जिंदगी में हर महीने के पांच दिनों का और इजाफा हो गया है। गांव में उन पांच दिनों के दौरान उसे एक अलग कमरे में रहना पड़ता था। और मौसम चाहे जो भी हो पांच दिन नहाना मना है।
उस समय में जब शरीर को सफाई की सबसे ज्यादा जरूरत होती है,नहाने की मनाही कितने तरह के रोगों को बुलावा देती है यह अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन गांव तो गांव पटना जैसा शहर भी इस मसले पर कूपमंडूक बना हुआ है। मेरी पड़ोस की एक महिला जिसे हम भाभी कहते,वह कई पुरुषों के परिवार में अकेली महिला थी। उनके घर के एक पुरुष सदस्य की मौत हुई। मौत के बाद घर में हो रहे कर्म-कांड के दौरान उनके लिए शारीरिक रूप से अपवित्र होना वर्जित था। क्योंकि उस दौरान वो खाना बनातीं तो उसे कोई नहीं खाता।
उन्होंने मुझे पुर्जे पर एक दवा लिख के लाने को दी। मैंने पूछा कि यह किस चीज की दवा है। उन्होंने बताया कि इस दवा को खा लेने से उनका मासिक चक्र आगे बढ़ जाएगा, वो आराम से घर के काम कर सकेंगी। मैंने पूछा कि उन्हें इस दवा के विषय में कैसे पता चला। उन्होंने हंसते हुए कहा कि गांवों में तो छठ और अन्य पूजा-त्योहारों के समय महिलाएं धड़ल्ले से इस दवा का इस्तेमाल करती हैं। मैंने अचरज से पूछा कि गांवों में भी यह दवा आसानी से मिल जाती है, तो उन्होंने कहा कि जरूरत है तो मिलेगी ही। मैं आवश्यकता और पूर्ति के इस रिश्ते से हैरान हो गई। भाभी ने बताया कि घर में अकेली महिला होने के कारण वो अक्सर इस दवा का इस्तेमाल करती हैं। मैंने पूछा कि इस दवा का कोई साईड इफेक्ट नहीं है।
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उन्होंने कहा कि इस वजह से उनका पूरा मासिक चक्र अनियमित होने के साथ कुछ और भी शारीरिक समस्याएं होती हैं। लेकिन उन्हें इस बात की अब चिंता नहीं है क्योंकि वे दो बच्चों की मां बन चुकी हैं। यानी उनका शरीर एक मां बनने की मशीन है और मां बनने के बाद उनके शरीर के कल-पुर्जों की उपयोगिता उनके लिए खत्म हो गई और वे अंधविश्वास और कुरीतियों की रक्षा के लिए उन कल-पुर्जों के साथ मनमानी कर रही हैं। अंधविश्वास के नाम पर अपने शरीर के साथ इतना बड़ा खिलवाड़। अगर गांव के अनपढ़ लोग कुरीतियों को ढो रहे हैं तो उनके बारे में थोड़ा समझा जा सकता है। लेकिन शहरी महिलाएं भी इन परंपराओं को ढोती हैं, तो दुख होता है।
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अगर उन दिनों इम्तिहान और किसी तरह की प्रतियोगिता में भाग लेना हो तो फिर शरीर की मजबूरी आधा मनोबल पहले ही तोड़ देती है। गांवों में घर की बेटियों की शादी के लिए सोने के गहने और रेशमी साड़ियां तो जमा की जाती हैं लेकिन स्कूल जाती लड़कियों के लिए सेनेटरी नैपकिन पर खर्च करना उन्हें बेमानी लगता है।जो परिवार यह खर्च उठा सकते हैं वे तो नहीं उठाते लेकिन बहुत परिवार ऐसे भी हैं जो घर में चार-पांच बेटियों के लिए महीने में इतना खर्च नहीं कर सकते।
टाटा ने सस्ती कार और वाटरप्यूरिफायर तो ला दिया लेकिन कोई कंपनी क्या इन लड़कियों की मुसीबतों को कम करने के लिए आगे आएगी। आखिर अभी तक इसे लड़कियों की बुनियादी जरूरत की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा। क्या गांवों में सरकारी मदद से लड़कियों के लिए सस्ते सेनेटरी नैपकिन का इंतजाम नहीं किया जा सकता। आज के दौर में स्कूल और कॅरियर बनाने की चाह रखनेवाली लड़कियों के लिए यह रोटी,कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरत है।
अगर उन दिनों इम्तिहान और किसी तरह की प्रतियोगिता में भाग लेना हो तो फिर शरीर की मजबूरी आधा मनोबल पहले ही तोड़ देती है। गांवों में घर की बेटियों की शादी के लिए सोने के गहने और रेशमी साड़ियां तो जमा की जाती हैं लेकिन स्कूल जाती लड़कियों के लिए सेनेटरी नैपकिन पर खर्च करना उन्हें बेमानी लगता है- bilkul sahi baat, akhir yah sab khatm kaise hoga. mrinaal aur masale ko sarvjanik karne valon ko ek sath badhai.
ReplyDeletemrinal ne jo saval uthaye hain, uspar sarkaron ko sochna chahiye. sambhav ho to in lekhon ko mahila kalyan mantralay pahunchaya jaye...aap sabhi ko sarahniya prayas ke liye lakh lakh badhi.
ReplyDeleteऐसा न सिर्फ उत्तराखंड या बिहार में होता है बल्कि पंजाब जैसे विकसित और पढ़े-लिखे राज्यों में भी होता है। मैं पंजाब के सबसे ज्यादा शिक्षित क्षेत्र दोआबा की रहने वाली हूं जो कि एनआरआई बेल्ट भी है। हमारे यहां लड़कियां इन दिनों किसी पूजा-पाठ में शरीक नहीं हो सकती, अचार को हाथ नहीं लगा सकती,माना जाता है कि इन दिनों अचार को हाथ लगा दो तो वह खराब हो जाता है, चौके में किसी चीज को हाथ नहीं लगा सकती।
ReplyDeletesanitary napkin sasta karne kee mang uthe...akhir mardon ko kab samjh aayega ki auraton kee jarooraten kya hain.
ReplyDeleteaaplogon ka likha dekhkar man ho raha hai, main bhi aapbiti likhun.
ReplyDeleteस्त्री शरीर में हो रहे प्राकृतिक बदलाव को आज भी बीमारी के तौर पर देखा जाता है. समाज में वैज्ञानिक चेतना का अभाव है,जिसका खामियाजा सर्वाधिक महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है. स्कूल/कालेज,कार्यालयों/सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की विशेष जरूरतों के लिये प्रबंध किया जाना चाहिए.
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