उद्योगों और विशाल कारोबारी घरानों के विकास के लिए जहां सरकार की एक दीर्घकालिक रणनीति है,वैसी ही रणनीति लोगों के विकास के लिए वह नहीं अपनाती। लोगों का विकास करने के क्रम में वह अल्पकालिक तरीके अपनाती है-गरीबी दूर करने के उपाय,जैसे कि यह अग्निशमन जैसा कोई काम हो।
कोबाड गांधी
एक देश किससे बनता है?मूलत: अपनी जमीन और अपने लोगों से मिल कर। जाहिर है, देश के विकास का अर्थ इन दो चीजों का विकास होना चाहिए। इन दो तत्वों का विकास नहीं होने या धीमा होने से देश पीछे चला जाता है। इन दो तत्वों में दूसरा,यानी लोग प्राथमिक हैं लेकिन उनका विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं किया जा सकता। दोनों को समानांतर तरीके से,करीबी अंतरसंबंध कायम रखते हुए विकसित होना चाहिए, और ऐसा संभव है।
जब मैं लोगों की बात करता हूं,तो मेरा आशय देश के विशाल मानव संसाधन से होता है। हम कुछ लोगों के विकास की नहीं,बल्कि विशाल बहुसंख्य आबादी की कामना करते हैं क्योंकि यही वह तबका है जिससे मिल कर हमारा देश वास्तव में बनता है। उन्हीं का विकास भारत का विकास है।
जब मैं जमीन की बात करता हूं,तो सामान्य तौर पर देश के कुल प्राकृतिक संसाधनों से मेरा आशय होता है- जमीन, उसकी उर्वरता, जंगल, जल, जमीन के नीचे दबी संपदा, हवा, इत्यादि। इस तरह हम देखते हैं कि मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन दोनों मिल कर हमारे देश का निर्माण करते हैं। हमारी यह समझ बहुत पुराने समय से रही है। यहां तक कि वेदों में भी यही बात कही गई थी (अथर्ववेद 12.1.6)। विकास के पर्याय के रूप में जीडीपी दर, उच्च प्रौद्योगिकीय ‘विकास’ इत्यादि को तो अब प्रचारित किया जाने लगा है।
जब मैं जमीन की बात करता हूं,तो सामान्य तौर पर देश के कुल प्राकृतिक संसाधनों से मेरा आशय होता है- जमीन, उसकी उर्वरता, जंगल, जल, जमीन के नीचे दबी संपदा, हवा, इत्यादि। इस तरह हम देखते हैं कि मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन दोनों मिल कर हमारे देश का निर्माण करते हैं। हमारी यह समझ बहुत पुराने समय से रही है। यहां तक कि वेदों में भी यही बात कही गई थी (अथर्ववेद 12.1.6)। विकास के पर्याय के रूप में जीडीपी दर, उच्च प्रौद्योगिकीय ‘विकास’ इत्यादि को तो अब प्रचारित किया जाने लगा है।
जब मैं विकास की बात करता हूं,तो उसे महज आर्थिक संदर्भ में नहीं,बल्कि उसके आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदर्भों में भी देखता हूं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मनुष्य को जीवन की बुनियादी सुविधाएं मिलनी ही चाहिए- भोजन,पानी, कपड़ा, आश्रय और शिक्षा- लेकिन ये चीजें एक संपूर्ण मनुष्य के रूप में उसके विकास की दिशा में सिर्फ प्रस्थान बिंदु हैं।
भोजन और पानी तो पशुओं को भी मिलतेहैं। लेकिन सभी मनुष्यों की वैयक्तिकता के उनके आध्यात्मिक, सांस्कृति और सामाजिक-राजनीतिक विकास के माध्यम से फलने-फूलने से ही हम देश के मानव संसाधनों कावास्तविक विकास हासिल कर सकते हैं। आध्यात्मिकता से मेरा आशय धर्म नहीं है (हालांकि यह उसमें शामिल हो सकता है,यह निजी प्राथमिकताओं पर निर्भर है) बल्कि उन मूल्यों का समुच्चय है जो परस्पर सम्मान और समझ के आधार पर लोगों के बीच सर्वश्रेष्ठ सहकारितापूर्ण संवाद की स्थिति बनने दे।
उद्योगों और विशाल कारोबारी घरानों के विकास के लिए जहां सरकार की एक दीर्घकालिक रणनीति है,वैसी ही रणनीति लोगों के विकास के लिए वह नहीं अपनाती। लोगों का विकास करने के क्रम में वह अल्पकालिक तरीके अपनाती है-गरीबी दूर करने के उपाय,जैसे कि यह अग्निशमन जैसा कोई काम हो। नीति में यह बदलाव चौथी योजना के बाद आया है और ग्रामीण विकास जैसे मदों के लिए आवंटित की जाने वाली राशि तेजी से घटती गई है।
हालांकि सरकार गरीबी खत्म करने के उपायों पर भारी राशि खर्च करती है,लेकिन इससे कुछ भी टिकाऊ या ठोस पैदा नहीं होता। हजारों करोड़ इस ब्लैकहोल में चले जाते हैं और मामूली हिस्सा ही लोगों तक पहुंच पाता है। यहां मैं भ्रष्टाचार की तो बात ही नहीं कर रहा-वह दूसरा मसला है। मैं लोगों के कल्याण को लेकर अपनाए जाने वाले नजरिए की बात कर रहा हूं। क्या हमें लोगों को साल भर छिटपुट लाभ ही देते रहना चाहिए या फिर उनके लिए एक आधार भी तैयार करना चाहिए जिस पर खड़े होकर वे अपनी आजीविका कमा सकें और देश के लिए कुछ ठोस निर्मित कर सकें? असल मसला यही है।
दूसरा मसला भ्रष्टाचार का है,जो इन पोली योजनाओं को संक्रमित कर देता है। उदाहरण के लिए बहुप्रचारित नरेगा को ही लें जिसके लिए मौजूदा वर्ष के बजट में 40,000करोड़ दिए गए हैं। मणिशंकर अय्यर के मुताबिक त्रिपुरा में नरेगा के तहत कुल योग्य परिवारों में सिर्फ 36.6फीसदी परिवार ही जोड़े गए।
उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 14फीसदी है। छत्तीसगढ़,झारखंड और बिहार में यह सिर्फ आठ फीसदी है जबकि उड़ीसा और उत्तराखंड में छह फीसदी से भी कम परिवार इसके दायरे में लाए गए। तो फिर सारा पैसा गया कहां? विडंबना है कि योजना आयोग ने 2004 में खुद यह स्वीकार किया था कि सब्सिडीयुक्त 58 फीसदी खाद्यान्न बीपीएल परिवारों तक नहीं पहुंच पाया और 36 फीसदी की कालाबाजारी हुई।
दूसरी ओर हमारी विकास नीतियों ने ऐसे अमीरों को जन्म दिया है जिनमें शीर्ष सौ की संपत्ति 300अरब या भारत के जीडीपी का 25फीसदी है। भारत में अरबपतियों के बढऩे की दर दुनिया में सबसे ज्यादा रही है। 2009 में 3134 एक्जीक्यूटिव थे जो 50लाख सालाना से ज्यादा कमाते थे और हजार ऐसे थे जो सालाना एक करोड़ से ज्यादा वेतन पाते थे। इसमें काली कमाई शामिल नहीं है,जो जीडीपी के 40 से 50 फीसदी के बीच है। यह 25लाख करोड़ की भारी-भरकम राशि बड़े कारोबारी घरानों,नेताओं और अफसरों में बंट जाती है। इसके कुछ टुकड़े उन लाखों लोगों तक रिस कर नीचे पहुंचते हैं जो हमारे समाज के समूचे नैतिक ताने-बाने को भ्रष्ट बना रहे हैं।
कहने का अर्थ यह है कि इस देश में जो थोड़ा-बहुत भी विकास हो रहा है,समाज के एक सूक्ष्म से हिस्से का ही ग्रास बन जा रहा है और इससे देश के निर्माण में कोई खास योगदान नहीं हो पा रहा है। असल समस्या इस देश की यही है, जिसका उपचार किए जाने की जरूरत है।
दैनिक भास्कर से साभार.
(नई दिल्ली में १८-१९ अक्टूबर को आयोजित विकास विषयक दो दिवसीय सम्मलेन में पाठ के लिए तिहाड़ जेल से लेखक द्वारा भेजे गए पर्चे का संपादित अंश. लेखक प्रतिबंधित पार्टी सीपीआइ (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं. उन्हें दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर आतंकवाद निरोधक गतिविधि निवारक कानून (यूएपीए) के तहत आरोपित किया है.)