देश के आखिरी आदमी के नेता आंबेडकर की इतनी ऊँची बोली पहली बार लगी है।
जिसे देखो वही आंबेडकर को अपनी ओर घसीट रहा है। समझ में नहीं आ रहा कि
राजनीतिक पार्टियों का यह ह्रदय परिवर्तन उनको बाजार में नीलाम करने लिए है
या फिर मंशा कुछ और है।
ऐसे में मैं इस आशंका से उबरने के लिए एक जानकारी
चाहता हूँ कि क्या आप 6 लाख गावों के इस देश में छह गांव भी ऐसा सवर्णों
का जानते हैं जहाँ दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत नहीं होती। छह छोड़िये एक
ही बता दीजिये। अगर नहीं तो आंबेडकर को अपने-अपने पाले में घसीटना छोड़कर
पहले एक ऐसा गांव बनाइये और भरोसा रखिये वहां आंबेडकर खुद चलकर आ जायेंगे,
आपको ईंट पर खड़ा होकर खुद को आंबेडकरवादी होने की बांग नहीं देनी पड़ेगी।
तीन दिन पहले दिल्ली के कॉफी हाउस में मिले एक मित्र आंबेडकर जयंती से
जुड़ा एक किस्सा सुनाने लगे। बताया कि तीन—चार साल पहले इलाहाबाद में
आंबेडकर जयंती पर एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम खत्म हो गया तो हमलोग
कार्यक्रम के आयोजक के घर चाय—पानी और समीक्षा बैठक के लिए पहुंचे। हमलोग
कमरे में अंदर बैठे थे और आयोजक का ड्राईवर बाहर ओसारे में था।
पर उसे हम
कमरे से साफ देख सकते थे। हमने देखा कि आयोजक का नौकर जैसे ही चाय लेकर
ड्राईवर के पास आया, ड्राईवर तत्काल खड़ा हुआ, ड्राईवर ने दिवार के बीच बने
झरोखों में हाथ डाला, एक कप निकाली, नौकर को रूकने को बोला, दौड़कर नल पर
पहुंचा, कप धोई, चाय लिया, चाय पी और फिर कप धोकर वापस झरोखों में रख दिया।
किस्सा सुनाने वाले मित्र थोड़ा रूककर बोले, 'यह कमरे के बाहर का
सीन था और अंदर आयोजक लगातार हमलोगों को आंबेडकर दृष्टि अपनाने पर जोर दे
रहे थे।'