बाबरी मस्जिद मामले में मालिकाने को लेकर आये फैसले पर एक नज़्म...
मुकुल सरल
दिल तो टूटा है बारहा लेकिन
एक भरोसा था वो भी टूट गया
किससे शिकवा करें, शिकायत हम
जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया
ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें
गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून
इंतज़ामिया, एसेंबली सबकुछ
फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून
छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन
ये सितंबर तो चारागर था मगर
ऐसा सैलाब लेके आया उफ!
डूबा सच और यकीं, न्याय का घर
उस दिसंबर में चीख़ निकली थी
आह! ने आज तक सोने न दिया
ये सितंबर तो सितमगर निकला
इस सितंबर ने तो रोने न दिया
(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला,चिकित्सक)
(सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार और कवि मुकुल सरल से mukulsaral@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.)