Jan 16, 2011

पहले प्याज रुलाती थी, अब सब रुलाते हैं....


रसोई में काम आने वाले सभी खाद्य पदार्थो की कीमतों में दोगुनी वृद्धि  के बावजूद सरकार को सिर्फ प्याज की ही चिन्ता क्यों सता रही है...

रघुवीर शर्मा

कोटा। अकेले प्याज की कमी को लेकर देश व प्रदेश की सरकार व प्रशासनिक हल्कों में इन दिनों तगड़ी हलचल है। पूरा मंत्री समूह बैठकर चिन्तन कर रहा है लेकिन कोई उपाय नहीं सूझ रहा। मंत्री मंहगाई का ठीकरा एक दूसरे के सिर फोड़ रहे है और प्रधानमंत्री असहाय होकर सारा नजारा देख रहे है। उनके पास करने को कुछ नहीं रह गया है।

कभी प्याज की कीमतों के बढ़ने का ठीकरा एनडीए सरकार के सिर पर फोड़कर सत्ता में आई कांग्रेस सरकार अब खुद प्याज को लेकर चिन्ता में डूबी हुई है, जबकि आज हालत यह है कि आम आदमी के रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले खाद्य पदार्थ गेहूं, चावल, दालें, मिर्च-मसाला, तेल आदि के भाव भी तो आसमान छू रहे हैं इन पर कोई चिन्ता नहीं की जा रही। जबकि प्याज की फसल खराब होने से अगर इसके दाम बढ़े है तो लोग इसका उपयोग कम कर सकते हैं। जिसकी हैसियत होगी वह खाएगा नहीं तो बिना प्याज के भी जिन्दगी चल सकती है।

वैसे भी बाजार में प्याज के उपयोग के विकल्प लोगों ने खोज  लिए है अब सलाद में प्याज कम व अन्य सामग्री की प्रयोग लोग कर रहे है। लेकिन रसोई में काम आने वाले सभी खाद्य पदार्थो की कीमतों में दोगुनी वृद्धि  के बावजूद सरकार को सिर्फ प्याज की ही चिन्ता क्यों सता रही है।जबकि बाकी तमाम खाद्य वस्तुए आम आदमी के दैनिक उपभोग से जुड़ी हुई है। सरकार अकेले प्याज का हो हल्ला कर अन्य वस्तुएं के बढे दामों से जनता का ध्यान बांटना चाहती है

देश में प्याज खाने वालों की संख्या इतनी अधिक नही जितनी चिन्ता  सरकार प्याज को लेकर कर रही है। जिन वस्तुओं के दाम बढ़े है उन सब पर चिन्ता सरकार को करनी चाहिए। क्या प्याज की तरह सभी चीजों पर प्राकृतिक आपदा का कहर टूटा है। मै कहता हूं कि सरकार को अपने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से सबक लेना चाहिए जिन्होंने विदेश से मंहगा गेंहूं मंगाने के बजाय यह कहा था कि मेरे देश का आदमी एक समय उपवास कर लेगा तो इतना गेहूं बच जाएगा कि हमें बाहर से आयात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

इस सरकार को भी चाहिए कि वह अगर सरकार देश की जनता को अपील जारी कर दें कि एक माह प्याज का उपयोग नहीं करें तो प्याज का स्टॉक कर रहे मुनाफाखोरों के हौसले पस्त हो सकते है। न डिमाण्ड रहेगी ना ही दाम बढ़ेगें मुनाफा खोर  कितने दिन प्याज का स्टॉक अपने पास रख सकते है।

यही इस समस्या का निदान काफी है लेकिन सरकार को रोजमर्रा की काम आने वाली गेहूं, चीनी, चावल,  तेल, दाल, मसाला, मिर्च, हल्दी आदि के भाव दोगुने होने पर भी चिन्ता करना चाहिए। जिनके दाम आसमान छूने के बावजूद भी सरकार इनके नियन्त्रण पर कोई चिन्ता व्यक्त नहीं  कर रही। पिछले दो वर्ष में शक्कर के भाव दोगुने हो गये। इसी प्रकार रसौई में काम आने वाली सभी चीजों के भाव दोगुने से कम  नहीं है इसलिए सरकार को प्याज पर से ध्यान हटाकर आम उपभोक्ता वस्तुओं की ओर अपना ध्यान जोड़ना चाहिए जिससे लोगों को दोगुने दाम पर मिल रही खाद्य सामग्री से राहत मिल सके और महंगाई पर लगाम लग सके।

सामान्य परिवार की कई गृहिणियों से जब प्याज की कीमतों के बारे में राय जानी तो उनका सटीक जवाब था प्याज-लहसुन जाए भाड़ में सभी चीजों के दाम बढ़े है आम आदमी प्याज खाना छोड़ सकता है खाने की थाली नहीं छोड़ सकता। इसलिए  सरकार को अन्य उपभोक्ता सामग्री के भावों में कमी लाने की कवायद करनी  चाहिए ताकि लोगों की रसोई में बढ़ रहे खर्चे पर अंकुश लग सके।



चम्बल तट पर बसे कोटा शहर में  जन्में रघुवीर शर्मा  एक दैनिक अखबार नवज्योति में आपरेटर के रूप में काम करते हैं और आम जनजीवन पर लिखना जरूरी समझते हैं. उनका आम लोगों के प्रति यह लगाव खुद के संघर्षमयी जीवन से भी जुदा है.  उनसे raghuveersharma71@gmail.com  पर  संपर्क किया जा सकता है.


शिकारियों के बीच फंसी एक लड़की


हिंदी विभाग के यौन उत्पीड़न के इस प्रकरण में वह करुणा ‘बड़ी और बड़े’स्त्रीवादियों में भी देखने को नहीं मिली। अलबत्ता दांव-पेच देखने को खूब मिले...

प्रेम सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा देश और दुनिया में है। राजधानी में स्थित होने के चलते आशा की जाती है कि वहां यौन उत्पीड़न का मामला होने पर समय से कार्रवाई होगी। अगर शिक्षकों द्वारा छात्रा के यौन उत्पीड़न का मामला हो तो विश्वविद्यालय प्रशासन जल्दी से जल्दी जांच और न्याय सुनिश्चित करेगा ताकि छात्रा की पढ़ाई और छवि पर असर न पड़े। आरोपियों को जांच पूरी होने तक सभी जिम्मेदारी के पदों से हटा दिया जाएगा ताकि वे अपनी हैसियत का दुरुपयोग करके जांच को प्रभावित न कर सकें। लेकिन अपफसोस की बात है कि हिंदी विभाग में दो साल पहले प्रकाश में आए तीन शिक्षकों द्वारा अपनी एक छात्रा के यौन-उत्पीड़न के मामले में छात्रा को अभी तक न्याय नहीं मिला है। विश्वविद्यालय प्रशासन से निराश होकर पीड़िता दिल्ली उच्च न्यायालय में न्याय पाने की आस में गई है।

हम पहली बार इस मामले पर अपनी बात रख रहे हैं। इससे पहले केवल एक बार ‘युवा संवाद’के अपने स्तंभ में प्रभाष जोशी के निधन पर लिखी श्रद्धांजलि में थोड़ा उल्लेख किया था। दरअसल,प्रभाष जी से हमारी अंतिम मुलाकात अगस्त के तीसरे या अंतिम सप्ताह में हिंदी अकादमी के पूर्व सचिव और मित्र नानकचंद के घर पर हुई थी। इस संस्मरण का जिक्र हम अंतिम मुलाकात के नाते उतना नहीं, प्रभाष जी के व्यक्तित्व के एक ऐसे गुण के नाते कर रहे हैं जो बुद्धिजीवियों में विरल होता जा रहा है। वे पहली बार हमारी कॉलानी में आए थे। उनकी बातचीत में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हुए यौन उत्पीड़न का जिक्र आ गया। प्रभाष जी ने कहा, ‘लेकिन वह महिला भी ....।’

तब हमने पहली बार अपने विभाग के उस प्रकरण में किसी सार्वजनिक चर्चा में जबान खोली और मजबूत स्वर में कहा, ‘प्रभाष जी वह महिला नहीं, विभाग की छात्रा है।’ प्रभाष जी आगे कुछ नहीं बोले। कई मिनट चुप्पी रही। उस बीच उनके चेहरे पर जो व्यंजना प्रकट हुई, वह शब्दों में बता पाना मुश्किल है। ऐसा लगा वे इस मामले में यौन उत्पीड़क के हिमायतियों के चलाए गए अभियान के फलस्वरूप बनी धारणा को ही सच मान बैठे थे और अब आहत और ठगा हुआ अनुभव कर रहे हैं। उस प्रकरण पर वहां आगे एक शब्द भी नहीं बोला गया। अलबत्ता प्रभाष जी के चेहरे से यह स्पष्ट हो गया कि उनका ह्दय पीड़िता के लिए करुणा से भर आया है। बुद्धिजीवियों में यह मानवीय करुणा अब विरल होती जा रही है।


आरोपी सुधीश पचौरी : दाग ही दाग

हिंदी विभाग के यौन उत्पीड़न के इस प्रकरण में वह करुणा ‘बड़ी और बड़े’ स्त्रीवादियों में भी देखने को नहीं मिली। अलबत्ता दांव-पेच देखने को खूब मिले। हमारी एक जुझारू साथी को जांच में पीड़िता की मदद करनी थी। उन्होंने की भी,लेकिन साथ में अपने पति का मित्र होने के नाते एक अन्य आरोपी को बरी करा लाईं। तीसरा आरोपी दूसरे आरोपी का मित्र होने के नाते बरी हो गया। इंसान अपना विवेक खोकर किस कदर अंधा हो जाता है,इसका पता हिंदी के एक अवकाश प्राप्त शिक्षक के व्यवहार से चला।

उन्हें छात्रा के यौन उत्पीड़न से कोई शिकायत थी ही नहीं। जैसा कि पहले के यौन उत्पीड़िनों से भी नहीं रही थी। गोया वह ब्राह्मणों का शास्त्र-सम्मत अधिकार है!उन्हें पीड़िता के शिकायत करने पर शिकायत थी। उन्होंने मामले को खतरनाक ढंग से पूर्व और पश्चिम का रंग देने की कोशिश की। इसके बावजूद कि पूरे विश्वविद्यालय में पीड़िता के पक्ष में डटने वाले दोनों साथी पूरब से ही आते हैं।

पीड़िता ने सितंबर 2008को हिंदी चिभाग के तीन शिक्षकों प्रोफेसर अजय तिवारी,प्रोफेसर सुधीश पचैरी और प्रोफेसर रमेश गौतम के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी। वह विश्वविद्यालय प्रशासन का होस्टाइल रुख देख कर महिला आयोग और तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह के पास भी गई। विश्वविद्यालय की सर्वोच्च एपेक्स समिति से जांच कराने की लड़ाई लड़ी।

धमकियों के बीच सुरक्षित वातावरण प्रदान करने और जांच पूरी होने तक तीनों आरोपियों को जिम्मेदारी के पदों से मुक्त रखने की बार-बार लिखित अपील कुलपति से की लेकिन सुनवाई नहीं हुई। तब से करीब अढ़ाई साल बीत चुके हैं और पीड़िता कोर्ट की शरण में गई है। कोर्ट ने उसका मामला स्वीकार कर लिया है। इसके पहले वह पीएचडी के दाखिले में की गई अनियमितता के खिलाफ भी कोर्ट में जा चुकी है। वह मामला भी कोर्ट ने स्वीकार कर लिया था और उस पर सुनवाई चल रही है।

इस लंबी अवधि का पूरा ब्यौरा यहां नहीं दिया जा सकता। पीड़िता ने अनेक प्रतिवेदन और पत्र कुलपति और जांच समिति को भेजे। सारा ब्योरा देख कर पता चलता है कि यह उसका पूर्णकालिक काम हो गया था। वह ब्योरा अगर प्रकाशित हो जाए तो भविष्य में दिल्ली विश्वविद्यालय में कोई छात्रा पद और संगठन के लिहाज से ताकतवर शिक्षकों के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करेगी। जिस एक आरोपी प्रोफेसर अजय तिवारी को बर्खास्त करने का निर्णय कार्यकारिणी समिति ने डेढ़ साल पहले लिया था वह भी अभी तक लागू नहीं किया गया है। उल्टे इस साल मई में एपेक्स समिति ने पीड़िता पर असहयोग करने का अरोप लगा कर मामले को बंद कर दिया।

विश्वविद्यालय प्रशासन,उत्पीड़कों और उनके समर्थकों ने आरोपियों को बचाने और पीड़िता को ध्वस्त करने के वे सभी हथकंडे अपनाए जिनका ऊपर जिक्र किया गया है। तीनों आरोपियों में पहले दो के विभाग में आने से पहले न दोस्ताना संबंध थे न विचारधारात्मक। तीनों में परिपक्व आयु में दांतकाटी रोटी होने का सबब स्वार्थ और भ्रष्टाचार था। उनमें किसका क्या स्वार्थ था और कौन यौन उत्पीड़क और कौन आर्थिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचारी,इससे इस सच्चाई पर फर्क नहीं पड़ता कि तीनों एकजुट होकर सब कर रहे थे।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पिछले कुलपति अपराधी दिमाग के शख्स हैं। बतौर कुलपति नियुक्ति से लेकर कोबाल्ट मामले तक कितने ही ऐसे प्रकरण हैं जो उनकी आपराधिक इतिहास का पता देते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संगठन (डूटा)ने भी उनके नियम-कायदों की ध्ज्जियां उड़ाने वाले कारनामों का बार-बार खुलासा किया है। हमने भी हिंदी विभाग में पीएचडी के दाखिलों में की गई अनियमितताओं के मामले में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर रमेश गौतम और प्रोफेसर सुधीश पचैरी को बचाने के कुलपति के कारनामों का खुलासा प्रेस के सामने किया था।


अजय तिवारी : अपराधी या आरोपी

कहने का आशय है यह है कि कुलपति जो मनमानी विश्वविद्यालय स्तर पर कर रहे थे,तीनों आरोपी विभागीय स्तर पर कर रहे हैं। कुलपति का उन्हें बचाना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने पूरी कीमत वसूली। सेमेस्टर प्रणाली के मुद्दे पर दोनों ने डूटा और शिक्षक समुदाय के खिलाफ जाकर कुलपति का समर्थन किया। इस बहती गंगा में विभाग के एक और शिक्षक ने हाथ धो लिए। पिछले विश्वविद्यालय में लगे आर्थिक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते यहां उनकी प्रोबेशन अवधि खत्म करके स्थायी नियुक्ति नहीं की गई थी। मामले का फायदा उठा कर वे प्रोफेसर रमेश गौतम और प्रोफेसर सुधीश पचैरी का झोला उठा कर कुलपति तक पहुंच गए।

बुद्धिजीवी,विशेषकर हिंदी समाज,हर तरह के उत्पीड़न के विरुद्ध और प्रगति के पक्ष में बढ़-चढ़ कर बोलता है। लेकिन हमारी जानकारी में केवल ‘समयांतर’ पत्रिका में छपा लेख अपवाद है, जिसने मामले का ब्योरा छापा और पीड़िता का पक्ष लिया। उसी में हिंदी विभाग में यौन उतपीड़न के खिलाफ संघर्ष समिति के एक सदस्य अंजनी का लेख पढ़ने को मिला, जिसमें समिति के पीड़िता को न्याय दिलाने के प्रयासों के अलावा वामपंथी छात्र संगठनों की ‘तटस्थता’के बारे में जानकारी थी। यह भी सुनने में आया कि लखनऊ के कथाक्रम कार्यक्रम में राजेंद्र यादव ने अजय तिवारी की उपस्थिति पर ऐतराज उठाया।

स्त्रीवाद का सबसे ऊंचा स्वर वहीं से आता है। करीब अढ़ाई साल होने के बावजूद किसी लेखक, संपादक, शिक्षक ने सहानुभूति दिखाने की बात दूर, मामले को समझने तक की कोशिश नहीं की। सुनने में आता है कि हिंदी विभाग के कुछ शिक्षकों ने आरोपियों की ‘सच्चरित्रता’के प्रमाणस्वरूप जांच समिति को लिखित गवाही दी। शिकायत दर्ज होने, अजय तिवारी पर ईसी का निर्णय आने और पीड़िता के अदालत जाने की खबरें कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुईं। लेकिन ‘जनसत्ता’ने अपने ‘सम्मानित’लेखकों के खिलाफ कोई खबर नहीं छापी। यह शायद नई ‘प्रभाष परंपरा’है!अलबत्ता आरोपियों के लेख छाप कर उनकी ताकत बढ़ाने का काम बखूबी किया है।

हिंदी की कई स्त्रीवादी लेखिकाएं समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में स्तंभ और लेख लिखती हैं। स्त्री-विमर्श में उनका बड़ा महत्व है। लेकिन उनमें किसी को पीड़िता के मामले को समझने और उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं हुई। लेखक-आलोचक बनने की दिशा में प्रयासरत युवा शिक्षकों और शोधार्थियों में से भी किसी ने मामले पर नहीं लिखा। अलबत्ता कई ने पीड़िता के खिलाफ लिखित गवाही जरूर दी। एक वरिष्ठ स्त्रीवादी शिक्षिका ने अपने ‘अच्छे व्यवहार’ का उपयोग पीड़िता से यह जानने के लिए किया कि उसने किसके कहने पर तीन नामधन्य प्रोफेसरों के खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत की है?

टिप्पणीकार राजकिशोर ने एकलेख पीड़िता के मामले पर लिख कर कुछ साहस का परिचय दिया,लेकिन अगले लेख में सामान्यीकरण करके,कि स्त्रियां चांद पाने के लिए पुरुषों से संबंध बनाती हैं,पिछला लिखा मिटा दिया। अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों से हिंदी की पीड़िता में रुचि लेने की आशा नहीं की जा सकती। उन्हें शायद पता भी नहीं होगा कि एक लड़की हाथी जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासन से न्याय पाने के लिए जूझ रही है। हिंदी के बड़े-छोटे ज्यादातर लेखकों-आलोचकों-शिक्षकों ने मामले पर गपशप मजा अलबत्ता खूब लूटा है। उसका ब्योरा देने लगें तो पतन की परतें और खुल कर सामने आ जाएंगी।

अजय तिवारी को फंसता देख उनके कई लेखक साथी सक्रिय हो उठे। एक्शन होने से पहले उन्हें कहीं अन्य जगह स्थापित करने की कोशिशें हुईं। पिछले दिनों स्त्री-विरोधी साक्षात्कार देने के चलते चर्चा में आए महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से अजय तिवारी को रिलीव करने को कहा ताकि वे उन्हें अपने यहां रख सकें। सुना है वे स्वयं चलकर आए थे। लेकिन तब तक सुधीश पचैरी और रमेश गौतम से कुलपति का सौदा हो चुका था। दोनों को पूरा बचाने के लिए अजय तिवारी को पूरा फंसाना जरूरी था। यहां बता दें, मामला प्रकाश में आने पर तीनों आरोपियों ने मिल कर बचाव की रणनीति बनाई थी। फिर अजय तिवारी को अकेला छोड़ दिया गया। अब रमेश गौतम की बारी है। पचैरी अपने गले में फंदा कसते देख उन्हें अकेला छोड़ देंगे। उत्तर-आधुनिक न्याय का यही तकाजा है!

यौन शोषण के आरोपी सुधीश पचैरी को डीन ऑफ कॉलेज बनाने के विरोध में हुए हिंदी विभाग में यौन उतपीड़न के खिलाफ संघर्ष समिति के प्रतिरोध मार्च के दौरान बांटे गए पर्चे में लिखा है कि एपेक्स समिति को यौन शोषण के मामले में स्त्री पक्ष के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। लेकिन समिति समाज से बाहर नहीं है। पीड़िता ने कुछ दिन पहले हमें कहा, ‘सर मुझे तो लगता है यहां ज्यादातर शिक्षक नहीं, शिकारी हैं। एपेक्स समिति, कुलपति, महिला आयोग, मंत्री, विजीटर सब मिल जाते हैं। मैं शिकारियों के बीच फंस गई हूं।’ वाकई, इन ‘ऊंचे खेलों’ में एक अदना पीड़िता क्या खाकर टिकेगी?थोड़े-से आदर्शवादी और निडर नवयुवतियों और नवयुवकों,जिनमें ज्यादातर छोटे वामपंथी समूहों से हैं,ने हिंदी विभाग में यौन उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष समिति बना कर उसका साथ न दिया होता तो वह कब की हार चुकी होती!

भला हो प्रशांत भूषण का। पीड़िता की गुहार उन तक पहुंची तो उन्होंने पीड़िता से बिना मिले,बिना उसकी जाति,इलाका,आर्थिक हैसियत जाने उसके द्वारा कोर्ट में दायर पीएचडी के प्रवेश में हुई अनियमितताओं का मामला देखना स्वीकार कर लिया है। अब विश्वविद्यालय प्रशासन और पूर्व विभागाध्यक्ष व वर्तमान डीन प्रोपफेसर सुधीश पचैरी के कान खड़े हैं कि कैसे बचा जाए। उन्होंने डीन का पद इसीलिए हथियाया है ताकि न्यायालय में उनके खिलाफ चलने वाले मुकद्दमों से पद की ताकत से निपट सकें। अगर प्रशांत भूषण ने छात्रा के यौन उत्पीड़न के मामले को देखना भी स्वीकार कर लिया तो संभावना है पीड़िता को लंबे संघर्ष के बाद न्याय और उत्पीड़िकों को दंड मिल जाए।