गोला देने में बीजेपी वालों की कोई सानी नहीं है। तीन दिन हो गए लेकिन जाकिर के खिलाफ एक एफआइआर तक दर्ज नहीं हो पाई। जाहिर है अबतक एफआइआर लायक भी अपराध साबित नहीं हो पाया। पर माहौल ऐसा बना दिया कि जाकिर मिल जाए या उसकी शक्लो—सूरत वाला कोई और भी मिल जाए तो लोग उसे मौके पर मार डालेंगे। सरेराह, सरेबाजार चौराहे पर फैसला सुना देंगे।
सोचिए, राजनीति की यह कैसी खतरनाक रवायत शुरू हो रही है। अबतक यह प्रैक्टिस आतंकवाद मामले में पकड़े गए लोगों को लेकर थी। धमाके हुए नहीं कि बिना सोचे—समझे जो मिले उसे उठा लो, आतंकी बना दो और जब झूठ बेपर्द हो जाए तो 10—20 साल बाद उस शख्स की जिंदगी जहन्नुम बनाकर बाइज्जत रिहा कर दो। बाद में अदालतें या खुद जांच एजेंसियां थोड़ी सख्त हुईं तो इस पर हल्की से रोक लग पाई है पर बीजेपी ने इसका दायरा बढ़ा दिया है।
कांग्रेस के काल में धमाकों में या विद्रोहियों को बिना सबूत अपराधी करार दिया जाता था पर अब बोलने वालों के खिलाफ भी वही बर्ताव होने लगा है। बीजेपी ने दो साल में इसे सरकार चलाने की परंपरा के तौर पर स्थापित किया है। लव जेहाद, घर वापसी से शुरू हुआ सफर अब नाइक तक पहुंचा है।
आप याद कीजिए तीन—चार महीने पहले जेएनयू में क्या हुआ? उससे पहले दादरी कांड में क्या हुआ। मतलब टेप आया नहीं, भाषण क्या हुआ पता नहीं, मांस की जांच हुई नहीं पर घर—घर में छात्रों के देशद्रोही होने के सर्टिफिकेट पहुंचा दिए गए और जन—जन जान गया कि अखलाक के घर में गाय का मांस ही था।
जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के मामले में इस कदर दुष्प्रचार कर नफरत फैलाई गयी कि वह आसानी से आज भी खुला नहीं घूमते, उनपर कोई सांप्रदायिक सनकी कभी भी हमला कर सकता है। बावजूद कि सभी रिपोर्ट्स में उनका कोई कसूर किसी भी तरह से साबित नहीं हो पाया है।
सवाल है कि पुलिस, जांच, अदालत या सरकार से पहले ये कौन सी नई ताकत है जो आपकी जुबान को अपने दिमाग का गुलाम बनाकर सांप्रदायिकों की एक ऐसी भीड़ खड़ी कर रही है जहां बहस—मुबाहिसा का कोई चांस ही नहीं है। आरोप लगता है और अपराधी करार दिया जाता है। तानाशाही विरोधी शब्दों लेकिन, किंतु, परंतु का स्पेस ही खत्म हुआ जा रहा है।
भाजपा के इस खास तरीके को समझना होगा। उसे लगता है कि वैचारिक स्तर पर हो या सांस्थानिक रूप से देश पर कब्जा करने का यही तरीका है— भले ही देश, देश ही न रह जाए, दंगाईयों और रक्त पिपासुओं की सनकी भीड़ ही क्यों न बन जाए। भाजपा और मोदी सरकार की इन जनविरोधी आदतों को ताकतपूर्वक रोकना होगा, अन्यथा देश की तबाही में ये हमें गवाह बनाके छोड़ेंगे।
सोचिए, राजनीति की यह कैसी खतरनाक रवायत शुरू हो रही है। अबतक यह प्रैक्टिस आतंकवाद मामले में पकड़े गए लोगों को लेकर थी। धमाके हुए नहीं कि बिना सोचे—समझे जो मिले उसे उठा लो, आतंकी बना दो और जब झूठ बेपर्द हो जाए तो 10—20 साल बाद उस शख्स की जिंदगी जहन्नुम बनाकर बाइज्जत रिहा कर दो। बाद में अदालतें या खुद जांच एजेंसियां थोड़ी सख्त हुईं तो इस पर हल्की से रोक लग पाई है पर बीजेपी ने इसका दायरा बढ़ा दिया है।
कांग्रेस के काल में धमाकों में या विद्रोहियों को बिना सबूत अपराधी करार दिया जाता था पर अब बोलने वालों के खिलाफ भी वही बर्ताव होने लगा है। बीजेपी ने दो साल में इसे सरकार चलाने की परंपरा के तौर पर स्थापित किया है। लव जेहाद, घर वापसी से शुरू हुआ सफर अब नाइक तक पहुंचा है।
आप याद कीजिए तीन—चार महीने पहले जेएनयू में क्या हुआ? उससे पहले दादरी कांड में क्या हुआ। मतलब टेप आया नहीं, भाषण क्या हुआ पता नहीं, मांस की जांच हुई नहीं पर घर—घर में छात्रों के देशद्रोही होने के सर्टिफिकेट पहुंचा दिए गए और जन—जन जान गया कि अखलाक के घर में गाय का मांस ही था।
जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के मामले में इस कदर दुष्प्रचार कर नफरत फैलाई गयी कि वह आसानी से आज भी खुला नहीं घूमते, उनपर कोई सांप्रदायिक सनकी कभी भी हमला कर सकता है। बावजूद कि सभी रिपोर्ट्स में उनका कोई कसूर किसी भी तरह से साबित नहीं हो पाया है।
सवाल है कि पुलिस, जांच, अदालत या सरकार से पहले ये कौन सी नई ताकत है जो आपकी जुबान को अपने दिमाग का गुलाम बनाकर सांप्रदायिकों की एक ऐसी भीड़ खड़ी कर रही है जहां बहस—मुबाहिसा का कोई चांस ही नहीं है। आरोप लगता है और अपराधी करार दिया जाता है। तानाशाही विरोधी शब्दों लेकिन, किंतु, परंतु का स्पेस ही खत्म हुआ जा रहा है।
भाजपा के इस खास तरीके को समझना होगा। उसे लगता है कि वैचारिक स्तर पर हो या सांस्थानिक रूप से देश पर कब्जा करने का यही तरीका है— भले ही देश, देश ही न रह जाए, दंगाईयों और रक्त पिपासुओं की सनकी भीड़ ही क्यों न बन जाए। भाजपा और मोदी सरकार की इन जनविरोधी आदतों को ताकतपूर्वक रोकना होगा, अन्यथा देश की तबाही में ये हमें गवाह बनाके छोड़ेंगे।