सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिनायक सेन को ज़मानत देने के फ़ैसले से ग्रामीण भारत की लूट और उसको रोकनेवालों को देशद्रोही कहने की सरकारी साज़िश को ज़ोर का झटका लगा है...
हिमांशु कुमार
सच तो यह है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद विकसित देशों के बड़े उद्योगपति विकासशील देशों के संसाधन लूटने के लिए टूट पड़े हैं। सरकार में बैठे नेता,अधिकारी और पुलिस की तिकड़ी इन उद्योगपतियों से पैसे खाकर पुलिस की हिंसा के सहारे आदिवासी और ग्रामीण भारत की जमीनें जबरन छीन रही है। आदिवासी ग्रामीण इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार इस विरोध को नक्सलवाद कहकर दबाना चाहती है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को देशद्रोही करार देकर आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी और उन्हें जेल में डाल दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत देते हुए अपने फैसले में जो टिप्पणियां की हैं,उसके दूरगामी और सकारात्मक परिणाम होंगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी भी विचारधारा से जुड़ी किताबें किसी के घर में मिलना देशद्रोह नहीं हो सकता। अगर किसी के घर से महात्मा गांधी की जीवनी मिलती है तो वह व्यक्ति गांधीवादी नहीं मान लिया जायेगा। इसी प्रकार नक्सल साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि नक्सलियों से सहानुभूति रखना भी राष्ट्रद्रोह नहीं हो सकता।
इस फैसले से ग्रामीण भारत की लूट और उसको रोकने वालों को देशद्रोही कहने की सरकारी साजिश को जोर का झटका लगा है। इस समय सरकारी विकास का विरोध करने वालों को देशद्रोही कहने का एक माहौल बना दिया गया है। सबूत के लिए छत्तीसगढ़ के नये बने छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम’ के प्रथम पैरे में ही लिखा है कि यह अधिनियम ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘विकास-विरोधी’ तत्वों पर रोक लगायेगा। ये विकास-विरोधी कौन हैं?
बिनायक सेन : जनता के हितैषी होने पर सजा |
जो कार्यकर्ता इस पूरी लूट के गणित को समझकर इसका विरोध करते हैं,उन्हें सरकार नक्सली-समर्थक कहकर इस लूट-क्षेत्र से बाहर रखना चाहती है। बिनायक सेन ने भी इसी लूट और हिंसा के खिलाफ आवाज उठायी, इसलिए उन्हें देशद्रोही कहकर जेल में डाला गया। छत्तीसगढ़ के राज्य स्तर तक तो सरकार इस सबको चलाने में सफल हो गयी, परंतु सर्वोच्च न्यायालय में पासा पलट गया।
इस समय सारा संघर्ष वहीं चल रहा है जहां ये प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं। इन क्षेत्रों में सरकारें सामाजिक कार्यकर्ताओं,पत्रकारों और निष्पक्ष जांचकर्ताओं को जाने नहीं दे रही हैं और आदिवासियों पर हमले करके, उनके घर जलाकर,उनकी बच्चियों से बलात्कार और युवकों की हत्याएं करके वहां की जमीनों को पूंजीपतियों के लिए खाली कराया जा रहा है। इस फैसले से न सिर्फ कार्यकर्ताओं को निर्भय होकर कार्य करने में मदद मिलेगी, बल्कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूट से बचाने की मुहिम को भी बल मिलेगा।
इस संघर्ष में भाग लेने के कारण जो ग्रामीण आदिवासी जेलों में सड़ रहे हैं,उन्हें मुक्त कराने का भी एक रास्ता इस फैसले ने खोल दिया है। सरकार ने छत्तीसगढ़ में जिस तरह आदिवासी समाज में विभाजन और एक हिस्से को हथियारबंद कर उसे समाज के ही दूसरे हिस्से को मारने का प्रयोग 'सलवा जुडूम' के नाम से किया, उसे रोकने में भी अब इस फैसले के बाद मदद मिलेगी।
वैसे भारत सरकार छत्तीसगढ़ के इस प्रयोग को दूसरे राज्यों में भी करने का प्रयत्न कर रही है। दुनिया के दूसरे देशों में भी पूंजीवादी शक्तियां इस प्रकार के प्रयोग पहले से ही सफलतापूर्वक करती आ रही हैं। एक आदिवासी समुदाय को हथियार देकर पूंजीपति लोग अपने साथ मिला लेते हैं और एक हिंसक गृहयुद्ध शुरू कर उस समुदाय की जमीन के नीचे दबे कीमती खनिजों को लूट कर चंपत हो जाते हैं। फिर वह समुदाय हमेशा के लिए हिंसक संघर्ष में उलझा रहता है।
चिंता की बात यह है की यह खेल ऐसे ही देशों में संभव होता है जहां के शासक कमजोर और लालची होते हैं। लेकिन भारत जैसी तथाकथित महाशक्ति में यह पूंजीवादी खेल कैसे संभव हुआ, इसकी शिकायत लोकतंत्र की चिंता करने वाले प्रत्येक नागरिक को है। सिवाय उनके,जो इसी तरह के हिंसक विकास के कारण बिना पसीना बहाये मिल गयी कारों में बैठकर डिग्गी में तिरंगा लेकर इंडिया गेट पर जाकर टीवी कैमरों के सामने देशप्रेम का गलाफाड़ इजहार करते हैं और जिन्हें ग्रामीण भारत की लूट की ज़रा भी परवाह नहीं है। बिनायक सेन का फैसला इस होशियार देशप्रेमी वर्ग को भी थोड़ा सतर्क करेगा।
दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे mailto:vcadantewada@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.