Jul 7, 2011

संतों-समाजसेवियों के संघर्षों पर सवाल क्यों?

विपक्षी दल मुंह बंद किए  हों, तथाकथित समाजसेवी, नौकरशाह, शिक्षक, वकील, प्रबुद्वजन और पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता और गुणगान में मगन हों  तो देश के आम आदमी  हक और हकूक की बात आखिरकर कौन करेगा...

आशीष वशिष्ठ

अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, निखलानंद, नागनाथ और जैन मुनि श्री मैत्रि सागर को विश्व  के सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र में अपनी बात सत्ता तक पहुंचाने के लिए आमरण अनशन का रास्ता क्यों चुनना पड़ता है। क्यों सत्ता को आम आदमी की आवाज और दुःख-दर्दे सुनाई नहीं देता है। क्यों ऐसे हालात बनाए जाते हैं कि किसी निगमानंद को राष्ट्रीय नदी गंगा को बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि देनी पड़ती है,ये सवाल इस देश  के प्रत्येक नागरिक के मनोमस्तिष्क उमड़-घुमड़ रहा है कि लोकतंत्र में आमरण अनशन क्यों?

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विश्व  की उत्तम व्यवस्थाओं में गिना जाता है, लेकिन हमारे यहां खाने और दिखाने के दांतों में फर्क है। हमारे तथाकथित नेताओं और प्रतिनिधियों की कथनी और करनी में  जमीन-आसमान का अंतर है। चुनावी बेला पर आश्वासनों  का लाली पॉप देने वाले नेता चुनाव जीतते ही वीआईपी हो जाते हैं। चुनाव से पूर्व देश और दुनिया की तकदीर बदलने के दावे और वायदे करने वाले वक्त पड़ने पर स्ट्रीट लाइट की एक टयूब बदलवाने के लिए भी आम आदमी से दस-बीस चक्कर लगवाते हैं।

जब देश में विपक्षी दल मुंह बंद किए बैठे हों, तथाकथित समाजसेवी, नौकरशाह, शिक्षक , वकील, प्रबुद्वजन और पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता और गुणगान में मगन हों,तो देश के आम आदमी, किसान, मजदूर, महिलाओं, बच्चों और निचले तबके के हक और हकूक की बात आखिरकर कौन करेगा। ऐसे निराष और भ्रष्ट माहौल में जब लाखों-करोड़ों की भीड़ में से कोई संत या समाजसेवी उठकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करता है, और सोयी हुई जनता को जगाने का पुनीत कर्म करता है तो व्यवस्था और सत्ता को उससे परेशानी होने लगती है।

आखिरकर रामदेव,अन्ना,निखलानंद,नागनाथ और जैन मुनिश्री मैत्रि सागर भी तो इसी देश के नागरिक हैं। उन्हें भी देश के संविधान ने वहीं अधिकार प्रदान कर रखे हैं, जो देश के अन्य करोड़ों नागरिकों को प्राप्त हैं। आखिरकर सत्ता उनकी बात क्यों नहीं सुनना चाहती। सत्ता को इनसे क्या वैर और दुष्मनी है। सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने वाले महानुभावों का भी इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संसदीय प्रणाली में पूर्ण विश्वास  और आस्था है। अगर सत्ता ने ये समझ लिया है कि वोट डालने और प्रतिनिधि चुनने तक ही आम आदमी के लिए लोकतंत्र की परिभाषा है तो इस परिभाषा का उल्लंघन गुनाह की श्रेणी में ही आएगा। 

रामदेव, अन्ना, निखलानंद, नागनाथ और जैन मुनि श्रीमैत्रि सागर ने यही अपराध किया है कि उन्होंने अपने द्वारा चुनी सरकार से काम-काज का हिसाब-किताब मांग लिया,लोकपाल कानून बनाने में सिविल सोसायटी की भागीदारी मांग ली या फिर सरकार को ये बताने का अपराध कर डाला कि देश के हजारों-करोड़ की ब्लैक मनी विदेशी  बैंकों में जमा है। लेकिन सत्ता को देश और जनहित की ये बात कतई बर्दाश्त   नहीं आयी कि कोई अन्ना या रामदेव उठकर उससे तर्क-वितर्क करे और उसे राज-काज के तौर तरीके बताएं।

हम सब मिलकर लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते तो जरूर हैं लेकिन असल में हमारे यहां लोकतंत्र नाममात्र का ही बचा है। प्रेस की आजादी सत्ता को सताने लगी है और समाज के भीतर से उठ रही विरोधी आवाजों को कुचलने-मसलने और दबाने की पुरजोर कोषिषें जारी हैं। कभी उस विरोधी स्वर को निखलानंद की भांति देशहित में प्राण गंवाने पड़ते हैं तो कभी रामदेव की तरह लाठी-डंडों की मार सहनी होती या फिर अन्ना की भांति धमकियों और मानसिक प्रताड़ना और तनाव का सामना करना पड़ता है। सत्ता की जनहित के मुद्दों और विरोधी स्वरों के विरूद्व रूखा,अड़ियल और अलोकतांत्रिक व्यवहार ही आज गहरी सोच और चिंतन का विषय है कि अगर एक लोकतान्त्रिक देश  में जनता की चुनी हुई सरकार अलोकतांत्रिक रीतियो, नीतियों और कारगुजारियों पर उतर आएगी तो फिर लोकतंत्र की रक्षा कैसी होगी।

सवाल लोकपाल बिल के निर्माण,गंगा के घाटों से अवैद्य खनन रोकने और विदेशों  में जमा काला धन वापिस लाने से बढ़कर यह है कि आखिकर जनता द्वारा चुनी हुई कोई सरकार प्रजातांत्रिक रीति-नीति और नियम छोड़कर तानाशाही पर उतारू क्यों है। आखिरकर क्यों देष और लोकहित से जुड़े मुद्दे और मांगे मनवाने के लिए संत और समाजसेवी आमरण अनषन के कठोर रास्ते पर चलने को मजबूर हैं?जब देश में आम आदमी की आवाज का कोई महत्व ही शेष  नहीं है तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा चुनी सरकार को गद्दी पर बैठने का क्या अधिकार है। सत्ता के नशे  में मदमस्त सरकार और व्यवस्था अपनी कमियों,दोषों और गुनाहों पर विचार किये बिना अपने खिलाफ उठ रही आवाज को सुनने और समझने के बजाए उसे दबाने,डराने,धमकाने और कुचलने पर आमादा हो रही है।

पिछले दो-तीन दशकों में इस लूट-खसोट की प्रवृत्ति ने खासा जोर पकड़ा है। ऐसा भी नहीं है कि कोई एक ही राजनीतिक दल और नेता ही गुनाहगार है असलियत यह है कि हमाम में सभी नंगे हैं। नेता सत्ता के नषे में मदमस्त है और विपक्ष पस्त है और अगर ऐसे वातावरण में अन्ना, रामदेव या फिर कोई दूसरा आदमी उठकर सरकार से सवाल-जवाब करता है तो इसमें बुराई ही क्या है। वो अपने लिए तो कुछ मांग नहीं रहे हैं, जनहित और देशहित के लिए सोचना और आवाज बुलंद करना अगर गुनाह है, तो अन्ना और रामदेव सत्ता की नजर में गुनाहगार हैं।

सोलह  अगस्त से अन्ना ने एक बार फिर अनशन का ऐलान किया है। ऐसे में सवाल है कि  क्या इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हमें और आपकों गर्व है। क्या यही है जनता की चुनी हुई सरकार जो हक मांगने पर आम आदमी पर को डंडे मारे और प्रताड़ित करे। अगर एक लोकतांत्रिक देश में अपनी बात मनवाने के और हक पाने के लिए आमरण अनशन की जरूरत है तो फिर काहे का लोकतंत्र और काहे की लोकतांत्रिक व्यवस्था।

स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक.