May 30, 2010

पिछवाड़े में पेट्रोल लगाने से बाज आयें सरकार

अजय प्रकाश

सरकार,जानते हैं मेरा एक कुत्ता था शेरू। गांव में बाकियों की तरह उसका भी जीवन शांति और आनंद से गुजर रहा था, मगर गांव के दो लोगों को शेरू  पसंद नहीं था। वह लोग जब भी दरवाजे के सामने से गुजरते शेरू  गुर्राते हुए ओसारे में चला जाता। शेरू का इतना ऐतराज उनके लिए असहनीय हो गया। हालांकि गांव के लोग भी उन दोनों को पसंद नहीं करते और बातचीत में कहते कि ''देखो जानवर भी आदमी को पहचानता है।''

फिर दोनों ने मिलकर कुत्ते को सबक सिखाने की तरकीब सोची। तय प्रोग्राम के मुताबिक वे सो रहे कुत्ते के पास आहिस्ता से पहुंचे और उसके पिछवाड़े में पेट्रोल लगी लकड़ी घुसेड़ दी। पेट्रोल लगते ही शेरू  पवनपुत्र हो गया और कई घंटे तक यहां-वहां झुरमुट देख पिछवाड़ा रगड़ता रहा। बाद में गढ़ही में घुसा तो राहत मिली।

घटना के अगले दिन से लेकर जब तक शेरू जिया,तब तक पेट्रोल लगाने वाले लोग डर के मारे मेरा दरवाजा तो भूल ही गये, पंद्रह घरों के टोले में भी उनका आना-जाना छूट गया। जानते हैं सरकार, ऐसा इसलिए नहीं था कि शेरू  उन्हें देखते ही काटने को दौड़ता और वह शेरू से शेर हो गया था। हुआ इसलिए कि उन दोनों ने शेरू  के साथ जो रवैया अपनाया वह हमें,हमारे गांव और समाज को मंजूर नहीं था। जाहिरा तौर पर यह बात शेरू  के पक्ष में जाती थी। किसी एक ने भी गांव में कभी नहीं कहा कि वह शेरू के समर्थन में है और उन दोनों के विरोध में। मगर सरकार सच मानिये गुनहगारों की छठी इंद्रिय ने अहसास दिला दिया था कि समाज उनके पाप का भागीदार नहीं बनेगा।

सरकार,असभ्य शब्दों में लिप्त इस  किस्से को सुनाने का एक गूढ़ अर्थ था। हम बस इतना बताना चाह रहे थे कि जिस समाज में कुत्तों के जीने के अधिकार की इतनी जबर्दस्त रक्षा होती है वह समाज नरसंहारों, हादसों और हत्याओं पर आपके बयानों की बाजीगरी से बहकेगा,यह मुगालता छोड़ दीजिए। समाज किसी के हित की रक्षा में घोषणाएं नहीं करता,जिंदगी बदल देने की तारीखें नहीं देता और न ही वह वादे का मोहताज होता है। यह शगल आपका है क्योंकि इससे सरकार चलती है, समाज नहीं। परसों के उदाहरण को लीजिये तो फिर एक बार आपने वही खेल खेला है जिसके आप उस्ताद हैं।

पश्चिम बंगाल में खड़गपुर के नजदीक दिल दहला देने वाली ट्रेन दुर्घटना के बाद बगैर तथ्यगत पुष्टि के लाखों पेज, सैकड़ों घंटे सिर्फ प्रशासनिक और राजकीय लापरवाही को छुपाने में इस बहाने बर्बाद कर दिये गये कि हमला माओवादियों ने किया है। चंद अखबारों को छोड़ किसी ने भी माओवादियों या पीसीपीए का पक्ष हाशिये पर भी दर्ज करने की जहमत नहीं उठायी। माओवादियों को हत्यारा, रक्तपिपासु, देशद्रोही, आतंकी जैसे शब्दों से नवाजने वाला मीडिया इतना नैतिक साहस भी नहीं कर पाया कि वह देश को बताये कि माओवादी बकायदा इस दुर्घटना की स्वतंत्र एजेंसी से जांच की मांग कर रहे हैं.  जिसमें इंजीनियर, विशेषज्ञ, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक शामिल हों। इतना ही नहीं, माओवादी नेता और पीसीपीए संयोजक का बयान आने पर भी जगह देने में वही कोताही बरती गयी जिसके आप पक्षधर हैं सरकार। वैसे में हम पूछते हैं और अधिकार चाहते हैं कि ''क्या इसका भी कोई कन्टेम्ट, कहीं दर्ज हो पायेगा सरकार?''

अगर आपका जवाब हां में है तो दर्ज कीजिये और पिछवाड़े में पेट्रोल लगाने की आदत से बाज आइये। हमारी इन जायज शिकायतों को दर्ज किये बगैर आप उम्मीद करें कि हम आपको मक्कार,झूठा और पूंजीपति घरानों का दलाल न कहें तो इसकी चाहत बेमानी है। काहे कि दर्जनों की भीड़ में हर रोज देश की अदालतों में पेशकारों के अंग विशेष के ठीक ऊपर  जो न्याय का वारा-न्यारा होता है, उस पर एक हरफ चलायें तो ‘कन्टेम्ट ऑफ़ कोर्ट’हो जाता है। देश के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश  अपनी परंपरा को ताक पर रख सेवानिवृति से चंद रोज पहले विवादित व्यायसायिक बंधुओं पर फैसला देता है और हम न्यायाधीश के जाने की बधाई लिखते हैं। हम बखूबी जानते हैं कि देश का प्रधानमंत्री बनने की पहली तस्दीक अमेरिका करता है, बावजूद इसके हम संप्रभुता को कलम की गहराई देते हैं। और भी बहुतेरे सच की बारीकियां बड़े करीब से जानते हैं। मगर सरकार हमारी मजबूरी तो देखिये। आपसे थोड़ा कहने के लिए 60 साल का अनुभव कम पड़ता है, जबकि आपकी हर बात अंतिम बात की तरह हमारे कागज पर उतरने और टीवी में बोलने लगती है।

 सरकार आपके इस शगल से हमें कोई ऐतराज है, तो भी आप महान देशभक्त हैं और हम माओवादियों के पैराकार ‘देशद्रोही।’ मगर पूछना है कि ‘आपकी बात, अंतिम बात’ इस पर आपका ही आरक्षण क्यों है। थोड़ी जगह दूसरों को भी दीजिए। जगह देना तो लोकतंत्र की बुनियादी परंपरा है और आपको सफदर हाशमी के नाटक ‘राजा का बाजा’ का डॉयलॉग तो याद होगा ही- ‘थोड़ी जगह बनाइये, हमें भी आने दीजिए सरकार।’ गर आप इतना भी देने में कोताही बरतते हैं तो हमें माफी दीजिए क्योंकि देश को अभी तय करना बाकी है कि कौन देशभक्त है और कौन देशद्राही।


May 27, 2010

विकास का आतंक और दंडकारण्य की दास्ताँ


 हथियार बंद संघर्ष और हथियार बंद विकास की लड़ाई में आदिवासी संघर्षों का रास्ता आगे बढ़कर चुन रहे हैं। वे लड़ रहे हैं,इसलिए हमसे बेहतर जानते हैं कि जिंदगी संघर्षों के बीच कितनी दुर्गम होती है। आदिवासियों की भलाई को आतुर सरकार सलवा जुडूम शुरू  होने के एक साल बाद ही दण्डकारण्य के जंगलों में रहने वालों के साथ क्या कर रही थी,माओवादियों के सफाये में लगे हजारों की संख्या में सुरक्षाबल किस तरह वहां की जनता के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना कर रहे थे,इन पहलुओं की पड़ताल करती-  अजय प्रकाश की रिपोर्ट

छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुडूम’ अभियान, आदिवासियों की व्यथा और नक्सली जीवन के सच से बावास्ता होने, हम जब रायपुर में अपने मिलने की जगह पर पहुंचे तो पहली बार लाल मिट्टी पैरों में लगी थी और उसी मिट्टी का जन्मा एक लाल ‘लाल सलाम’ बोला था। उसी ने कहा रायपुर में लाल सलाम बोलने वाला हर आदमी नक्सली है या सरकार की नजर में नक्सलियों का एजेंट है। इसलिए जो उनके बारे में लिखेगा, उनसे मिलेगा, साक्षात्कार लेगा वह ‘जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत छत्तीसगढ़ सरकार के जेलखाने में होगा।

पिरिया गाँव में आदिवासी परिवार:  उजडेगा तो स्टील गलेगा.  फोटो- अजय प्रकाश
मगर हम डिगे नहीं। कलम की नोक को संगीनों से टकराने चल पड़े। एक ठिगने कद का गोंड नौजवान जो थोड़ी-बहुत हिंदी जानता था उससे हमें पता चला कि रायपुर से हमारी मंजिल काफी दूर है। ग्यारह घंटे के रास्ते में ड्राइवर ने वह ढेर सारी जानकारियां हमें दे दीं जो किसी क्षेत्र की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति को जानने-समझने की बुनियादी शर्त होती है। हमारा ड्राइवर एक बुजुर्ग सरदार था जो क्षेत्र का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया था। उसने बताया कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का कहते हैं - राज्य के 32 प्रतिशत थाने नक्सल प्रभावित हैं। फिर खुश होते हुए कहा -‘अपन लोगों को नक्सली कभी नहीं छेड़ते। वे तो बांस,तेंदूपत्ता के ठेकेदारों से वसूली करते हैं। मगर उनका एक काम गड़बड़ है,सड़क नहीं बनाने देते। बारूदी सुरंग से उड़ा देते हैं। पुलिस वालों से तो उनकी दुश्मनी जन्मजात है। अपन,जहां आप लोगों को छोड़ेगा वहां तो एक पुलिस वाला भी नहीं दिखता। सिर्फ सीआईएसएफ। वैसे सीआईएसएफ भी क्या कर लेती है। इसी साल फरवरी महीने में सीईएसएफ के बैलाडिला कैंप पर हमला कर नक्सलियों ने हथियार लूट लिये और कई टन विस्फोटक साथ ले गये।’ हमारी गाड़ी दंतेवाड़ा की तरफ बढ़ी तो बीच में गीदम पुलिस चौकी  के पास हम चाय-पानी के लिए रुके. वहां ड्राइवर ने बताया कि दो महीने पहले इस थाने को नक्सलियों ने लूट लिया था।

अब रात के आठ बज रहे थे। बुजुर्ग सरदार हमें किरंदुल छोड़कर जा चुका था। किरंदुल जिसे बैलाडिला के नाम से भी लोग जानते हैं वहां हम एक रात और दिन रहे। रात में उतरने के साथ ही पहली निगाह छत्तीसगढ़ के समृधि का पर्याय कहे जाने वाले 'नेशनल मिनरल्स डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएमडीसी)'पर पड़ी जिसके बारे में कुछ बातें हमें सरदार ने भी  बताईं थीं। जैसे यह कंपनी जापान सरकार के मदद से बनी है और भारत में इससे बड़ा कोई खदान नहीं है। यह पूरा क्षेत्र आदिवासी है लेकिन एनएमडीसी में आदिवासियों को काम पर नहीं रखा जाता । कंपनी के बाहर माल ढोने के लिए ठेकेदार इनका इस्तेमाल बस कूली के रूप में करते हैं। कंपनी के कामगार बाहर से आते हैं।

एनएमडीसी  : आदिवासियों को काम नहीं
 गहराती रात की तेज हवाएं,मौसम में अचानक बढ़ी ठंड,सड़कों पर घूम रहे कुत्ते और गश्त लगा रही सीआईएसएफ की गाड़ियां, ये सब मिलकर दहशतनुमा माहौल रच रहे थे। रात कटी, दिन गुजरा और फिर रात को हम चल पड़े। हम अपनी मंजिल के नजदीक पहुंच रहे थे। मगर अब अगल-बगल गाड़ियां,बिजली के पोल, इमारतें नहीं थीं। पहाड़,नदियां,जंगलों का असीम फैला मैदान ही अपना था और हम उनके लिए बेगाने। सहसा जंगलों के पास पहुंची हमारी टीम को देखकर गांव में अफरातफरी मच गयी। लोग घरों को छोड़ जंगलों में भागने लगे तो हमारे ‘कुरियर’ने गोंडी में चिल्लाकर बताया कि यह पुलिस- एसपीओ के लोग नहीं हैं, सलवा जुडूम की सच्चाई जानने-समझने आये हैं।

इतना सुनने के बाद परछाइयां हम लोगों की तरफ बढ़ती दिखायी दीं। उन्होंने आगे बढ़कर हाथ मिलाया,लाल सलाम बोला और राहत की सांस ली। टॉर्च की मद्धिम पड़ रही रोशनी में भी उनके चेहरे पर उभरा सुकून किसी बीते भय की तरफ इशारा कर रहा था। बहरहाल,हम लंबी दूरी तय करने चल पड़े। जहां हम पहुंचे वह पुरनगिल था और नजदीक ही कहीं नदी के बहने की आवाज आ रही थी। कुशल-क्षेम होने के बाद ग्रामीण लकमा ने बताया कि स्कूल-अस्पताल तो इस इलाके में एक भी नहीं हैं। दसियों गांवों के बीच सड़क की तरफ कहीं-कहीं स्कूल हैं,लेकिन जब से सलवा जुडूम अभियान शुरू हुआ है तब से कोई मास्टर नहीं आया है। जुडूम वालों ने सुकलु नाम के एक शिक्षक की भी हत्या कर दी, जिसके बाद मास्टर आने से डरते हैं। हां, गंगकोट की तरफ एक आश्रम जरूर है जहां पांचवी कक्षा तक बच्चे पढ़ते हैं। दवा भी कभी-कभार सड़क की तरफ मिल जाती थी, लेकिन सालभर से वह भी बंद है। गंगलूर प्रखंड के पालनार गांव का नौजवान लक्खु 2001 से गांव में 4-14 वर्ष तक के बच्चों को पांचवीं कक्षा की शिक्षा दिया करता था,परंतु सलवा जुडूम गुंडों ने उसे इस कदर पीटा कि वह दुबारा बच्चों को पढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। दूसरा पढ़ने का विकल्प तोरका गांव का आश्रम था जिसे सलवा जुडूम ने तहस-नहस कर दिया।

दलम सदस्य: हर वक्त मुस्तैद.                         फोटो- अजय प्रकाश
रात के लगभग दस बजे हमें पता चला कि पत्रकारों की एक और टीम आयी है और थोड़ी दूरी पर ठहरी हुई है। हमारी टीम को इस बात की खुशी हुई कि चलो इस बियावान में अपनी बात समझने वाले कुछ लोग और आ गये हैं। थोड़ी देर की बातचीत के बाद हमें दाल-चावल खाने को मिला और जमीन पर झिल्लियों का बिस्तर बिछा दिया गया। गद्दों पर नींद लेने के आदी हम ‘शहरी मानुष’ सोने का प्रयास ही कर रहे थे कि कुत्ते तेज आवाज में भौंकने लगे। सामने से चार-पांच टॉर्च लाइटें आगे बढ़ती दिखीं। जब वे लोग झोपड़ियों के नजदीक पहुंचे तो कुत्ते दुम हिलाने लगे। उन्होंने हम सबको लाल सलाम किया। पांचों के कंधों पर बंदूकें लटकी हुई थीं। आते ही उन्होंने हमें एक चिट्ठी थमायी जो राज्य सचिव गणेश की थी। उस पत्र में कामरेड गणेश ने हमारा दण्डकारण्य के विशाल वन क्षेत्र में आने का स्वागत किया था और आगे लिखा था कि हम लोगों से उनकी मुलाकात अगले दिन संभव होगी। चिट्ठी लेकर आये चारों नौजवानों की बातचीत से पता चला कि वे दलम के सदस्य हैं। दलम यानी पार्टी का पूर्णकालिक हथियारबंद दस्ता, जिसे गुरिल्ला आर्मी के रूप में भी जाना जाता है। दलम ने बताया कि वे हमें अगली सुबह पांच बजे एक दूसरी जगह पर ले जायेंगे। हम लोगों को इन्हीं की सुरक्षा में चलना पड़ेगा।

अगले सफ़र से पहले : चूल्हा- चौकी में फर्क नहीं.                  फोटो- अजय प्रकाश
हमें पहाड़ों और जंगलों में चलने की आदत नहीं थी। इससे भी बढ़कर ये कि पैदल चलना सबसे अधिक भारी पड़ रहा था। हम पुरनगिल पांच घंटे पैदल चलकर पहुंचे थे। जब हमें यह पता चला कि पांच घंटे और चलकर मुख्य स्थान पर पहुंचना है तो हम पत्रकारों के पैरों की थकावट और बढ़ गयी। जहां हम पहुंचे वह क्षेत्र नक्सली आंदोलन के मुख्य आधार वाले इलाकों में से एक था। बावजूद उसके गुरिल्ले बेहद सतर्क थे और हथियारबंद जनमिलीशिया को पहरे पर लगा दिया गया था। बताया गया कि हर डेढ़ घंटे में ड्यूटी बदलती रहती है। सोमलु,जिसके घर पर हम रात को ठहरे उसने बताया कि यह सुरक्षा हम पुलिस से निपटने के लिए करते हैं। दूसरा यह कि आप लोग हमारे मेहमान हैं और उन चंद पत्रकारों में से हैं जिन्होंने तमाम खतरों को मोल लेते हुए यहां तक की दूरी तय की। इसलिए भी हमें सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना पड़ रहा है। भौगोलिक तौर पर समझने के लिए बताया गया कि बस्तर का यह दक्षिणी क्षेत्र है। बस्तर को उनकी पार्टी ने आधार इलाके खड़ा करने की दृष्टि से दो और इलाकों उत्तरी और पश्चिमी बस्तर में विभाजित किया है। खासकर 2001में संपन्न तत्कालीन पीडब्ल्यूजी की नौंवी कांग्रेस में दण्डकारण्य को आधार इलाके में तब्दील करने का कार्यभार अपनाये जाने के बाद से आंदोलन की रफ्तार और बढ़ गयी।

सुबह उठने में हम लोगों ने थोड़ी हिला-हवाली की। गुरिल्ले पांच बजे से पहले उठकर नित्य कर्म से निवृत हो हमें उठाने लगे। हम लोग भी साढ़े पांच बजे तक अपना-अपना किट लेकर चल पड़े। पुरनगिल गांव के ठीक पीछे कोटरी नदी मिली जो हमारे लिए अद्भुत थी। सुबह के शांत  माहौल में उसकी ध्वनि किसी हरकारे जैसी थी। दलम सदस्य शुकु  ने बताया कि यह नदी छह महीने गेरूए रंग की रहती है और छह महीने इसका पानी स्वच्छ रहता है, मगर ऐसा पिछले सात-आठ सालों से ही हो रहा है। ऐसा किस कंपनी की वजह से हो रहा है वह यह तो नहीं जानते, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि यह नदी बैलाडिला के पहाड़ों की तरफ से आती है।

 एनएमडीसी  के  कचड़े से कोटरी नदी का रंग छह महीने लाल. फोटो- अजय प्रकाश  
हमने पहली चलायी में तीन छोटी नदियां पार कीं और चार घंटे में एकाध हाल्ट लेकर पीरिया गांव पहुंचे। दलम  ने बताया -'यह  गांव पांच किलोमीटर में फैला हुआ है । पहले यह नक्सलियों का सुरक्षित इलाका नहीं था। सलवा जुडूम अभियान के बाद यहाँ   आधार बना है।' साथ चलने वालों से पता चला कि रास्ते में पड़ने वाले सभी टोले और घर पीरिया गांव के तहत आते हैं। इस गांव के सरपंच को माओवादी पार्टी की जन अदालत ने गोली मारने का फैसला दिया था। गांव के ही मंगु ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में बताया कि वह सरपंच एसपीओ हो गया था और पुलिस की मुखबिरी करता था। उसने यह भी बताया कि सरपंच को पार्टी ने गलतियां सुधारने के तीन मौके दिये,मगर वह अपने आदतों से बाज नहीं आया और थोड़े से पैसे के लालच में तेरह घरों को जलवा दिया। उस घटना के बाद गांव के लोगों ने तय किया कि उसे गोली मार दी जाये। एसपीओ माने स्पेशन पुलिस अफसर। एसपीओ की खास बात यह है कि इनकी भर्ती आदिवासियों के ही बीच से होती है। इस समुदाय का मानना है कि यदि एसपीओ नहीं होते तो सीआरपीएफ और नगा बटालियन जंगलों के अंदर नहीं घुस पाते। सरकार ने सलवा जुडूम को सफल बनाने के लिए 3500लोगों को एसपीओ बनाया जिसके बदले उन्हें 1500 रुपये महीने दिये जाते हैं।

इसी गांव के दसवीं पास बुद्धराम के अनुसार पैसे का लालच आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ भड़का रहा है। यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’जैसा है। जब सरकार को अपने तमाम प्रयासों से साफ हो गया कि वह नक्सली आधार को नेस्तनाबूद नहीं कर पायेगी तो छत्तीसगढ़ सरकार ने इजरायली सरकार की तर्ज पर ‘सलवा जुडूम’ का गठन किया। छत्तीगढ़ के बस्तर इलाके में सलवा जुडूम अभियान का नेतृत्व कर रहे कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा ने इस तरह के जन जागरण अभियान पहले भी चलाये हैं। वर्ष 1991 और 1997 में जन जागरण के नाम पर चलाये गये इन अभियानों को कोई खास सफलता नहीं मिल पायी थी। सफलता तो इस बार भी हाथ नहीं लगी है,मगर इस बार के जन जागरण अभियान में जो बर्बरता आदिवासियों पर ढायी गयी वह ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है। ‘आपरेशन रक्षक’ और ‘आपरेशन ग्रीन हंट’के नाम से दमन अभियान चलाये गये। इसके साथ ही गांवों में ‘ग्राम सुरक्षा समिति’का निर्माण कर सरकार की ओर हथियार देने की भी घोषणा की गयी। दरअसल,एसपीओ का प्रयोग कश्मीर की तर्ज पर किया गया और दंतेवाड़ा में इसकी ट्रेनिंग भी दी गयी।

खाना खाती गुरिल्ला बुधिया और आराम करते कुछ पत्रकार
फोटो - अजय प्रकाश  
ये तमाम बातें करते हुए वे लोग हम लोगों को एक खुले मैदान में ले गये जहां एक साफ-सुथरी झोपड़ी में तीन-चार चारपाइयां बिछी हुई थीं। इस समय घड़ी ने दिन के ग्यारह बजा दिया था। वहां आधे दर्जन महिला दलम ने हमारा स्वागत किया। हमें विशेष व्यवस्था के तहत दूध की चाय पिलायी गयी। विशेष व्यवस्था इसलिए कि वे लोग लाल चाय ही पीते हैं। चाय पीने या खाना खाने के दौरान गिलासों और थालियों की समस्या को वे पत्तों के दोने से दूर करते थे। गांव वालों को छोड़ सबके लिए एक चीज समान थी,वह था गर्म पानी। चूंकि दलम सदस्य हमेशा क्षे़त्रों का भ्रमण करते,जन समस्याओं को निपटाते,पार्टी मीटिंगें करते हुए आगे बढ़ते रहते इसलिए उनके किट का अहम हिस्सा,गर्म पानी था। सभी दलम कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के पास फौजी किट मौजूद रहती है। किट में कुछ दवाएं, घड़ी, टॉर्च, एक खाली पाउच, दो बाई दो मीटर की एक पॉलीथीन और इन सबसे बढ़कर एक हथियार हमेशा साथ रहता है।

साये के माफिक संगीनें इन गुरिल्लों के साथ लगी रहती हैं,फिर  चाहे गुरिल्ला सो रहा हो या नित्य कर्म से निवृत ही क्यों न हो रहा हो। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सहज-स्वाभाविक जिंदगी बसर करने वाले इन आदिवासियों के बीच बीस से तीस हजार के आसपास गुरिल्ले हैं जिनकी सुबह और रात संगीनों के साये के बीच होती है।वैसेतोभारतीयकम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी),दण्डकारण्य इकाई   आदिवासी मजदूर किसान संगठन,आदिवासी महिला संगठन,दण्डकारण्य आदिवासी बाल संगठन,संघम आदि संगठनों के माध्यम से आम जनता के बीच व्यापक पैठ रखती है,लेकिन पार्टी को मजबूत बनाने और दीर्घकालिक लोकयुद्ध को जारी रखने में मिलीशिया, जनमिलीशिया और दलम का महत्वपूर्ण योगदान है। जहां डीकेएमएस,केएएमएस,बलल (बाल संगठन)जनता के बीच काम करने वाले जनसंगठन हैं,वहीं दलम जैसी शाखाएं पार्टी संगठन हैं। यह जानकारी हमें बुन्नू ने दी जो तीन साल पहले दलम से जुड़ा है। इसी बीच लक्की नाम की एक महिला कामरेड आकर बताती है कि दोपहर का भोजन तैयार हो चुका है। खाने पर जाते हुए महिला कामरेड बद्री से बातचीत के दौरान पता चला कि पीपुल्स वार का नाम बदल चुका है और भाकपा (माओवादी) हो गया है। पार्टी का नाम परिवर्तन 2004 के सितंबर माह में हुआ था जब पीपुल्स वार की एकता माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसीआई) से हुई थी।

कमांडर हरेराम:  ट्रेनिंग से पहले कुछ जरूरी निर्देश. फोटो- अजय प्रकाश
 इस एकता को सरकार ने नक्सलियों की सफलता के रूप में स्वीकारा था। हमारी बातचीत और आगे बढ़ पाती कि उसी वक्त सामने से गुरिल्ला का एक दल आता दिखायी दिया। उस दल में से दो लोगों के पास लाइट मशीनगन और एसएलआर थी। बंदूकों की चर्चा इसलिए कि हमने बंदूकों को ही देखकर नेता का अंदाजा लगाया। दल के बाकी लोग‘लाल सलाम’बोलकर हमसे अलग हो गये। सिर्फ वही दो लोग हम लोगों की तरफ बढ़े। उनमें एक पुरुष था जो ठिगने कद का दुबला-पतला गोरा गोंड आदिवासी था। वह भाकपा (माओवादी) का स्टेट सेक्रेटरी गणेश था, जिस पर सरकार ने पांच लाख का इनाम रखा है। दूसरी दलम सदस्य एक महिला थी जिसका परिचय डिवीजनल संयोजक के रूप में हुआ। उसके बाद गणेश से जो सवाल-जवाब का दौर शुरू हुआ वह रात के नौ बजे खत्म हो पाया। पार्टी की गतिविधियों की सामान्य चर्चा के बाद स्टेट सेक्रेटरी ने अपनी पूरी बातचीत ‘सलवा जुडूम’ अभियान जिसे वे सरकारी गुंडों का जुल्म नाम देते हैं,पर केंद्रित की। सलवा जुडूम शब्द  का गोंडी भाषा में संधि विच्छेद कर सचिव ने बताया कि इसका अर्थ ‘ठंडा शिकार’ होता है।

सेक्रेटरी की नजर में यह नक्सलियों के खिलाफ चलाया गया पहला सरकारी अभियान नहीं है। गणेश बताते हैं कि माओवादी संगठनों के पचीस साल के राजनीतिक सफर में (एकता से पहले भी)अलग-अलग सरकारों ने केंद्र सरकार की मदद से दर्जनों बार दमन अभियान चलाये हैं। नीजि सेनाओं का गठन,जनता के एक तबके को राज्य प्रायोजित हिंसा से जुड़ने के लिए बाध्य करना,माओवादियों के खिलाफ खड़ा कर देना और एक बड़ा झूठ गढ़ना कि आदिवासी खुद ही माओवादियों के खिलाफ खड़े हो गये हैं जैसे कई अभियान हमें उखाड़ फेंकने के लिए सरकार ने सिलसिलेवार सत्ता ने प्रायोजित किये। दण्डकारण्य में ‘जन जागरण’ अथवा ‘सलवा जुडूम’ के नाम से, झारखण्ड में ‘संदेश’ कहकर, महाराष्ट्र में ‘गांवबंदी’ का नाम देकर, उड़ीसा में ‘शांति सेना’ के नाम पर नक्सली दमन की योजना अमल में लायी गयी। इतना ही नहीं, आंध्र प्रदेश में ‘कोबरा’ तथा ‘टाइगर्स’ के नाम से निजी हथियारबंद गिरोहों का भी गठन किया गया है।

राज्य सचिव गणेश: अपना पक्ष  रखते हुए. फोटो- अजय प्रकाश
सेक्रेटरी के मुताबिक सरकार ने दण्डकारण्य में जो जुल्मी अभियान छेड़ा है उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव तथा स्थानीय सामंती ताकतों की पैरोकारी रही है। मई 2005में हुई मुख्यमंत्री रमन सिंह की कनाडा और अमेरिका यात्रा के मद्देनजर भी समझा जा सकता है क्योंकि ‘सलवा जुडूम’ने अपना पहला निशाना पांच जून और दूसरा 18जून को साधा। इसके बाद जो तांडव भैरमगढ़, बीजापुर, उसर वमेत कई और विकासखंडों में हुआ वह अभूतपूर्व था। ‘सलवा जुडूम’के शुरू  होने के बाद से बस्तर में हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला जारी है। इसने सैकड़ों गांवों के हजारों लोगों को उनके रैन-बसेरों से उजाड़कर सड़क पर पटक दिया है। जिन गांवों की तरफ नगा बटालियन और सीआरपीएफ के जवान जाते,उन रास्तों में पड़ने वाले सारे गांव जनविहीन हो जाते,लेकिन जिन गांवों पर चोरी से हमला बोल दिया जाता है वे लोग बलि का बकरा बन जाते हैं। 28अगस्त को नगा बटालियन ने अरियल (चेरली)गांव में हमला बोल दस लोगों को खड़ा कर गोली मार दी जिसमें दस साल का एक बच्चा भी शामिल था।

हमारे सफर का अगला पड़ाव गांव मूकाबेल्ली था। इस गांव में दो महिलाओं का बलात्कार किया गया और एक गर्भवती के पेट को चीर डाला। गंगलुर क्षेत्र के सीपीआई (माओवादी)एरिया कमांडर संतोष ने बताया कि सरकारी गुंडों ने महिलाओं पर अत्याचार और बच्चों की हत्या को अपने अभियान का प्रमुख हिस्सा बनाया है। इसी क्षेत्र के कर्रेमाका गांव में आदिवासी महिला संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता सरिता के साथ 15अगस्त 2005 को नगा पुलिस और सलवा जुडूम के गुंडों ने सामूहिक बलात्कार किया। इसके बाद खून से लथपथ सरिता को भैरमगढ़ थाने ले गये और यातनायें देते रहे। ऐसी घटनाओं की पूरी फेहरिस्त है जो दिल दहला देने वाली है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले एक वर्ष में कम से कम डेढ़ सौ महिलाओं के साथ सलवा जुडूम अभियान से जुड़े लोगों ने बलात्कार किया। औरतों पर ढाये गये जुल्मों की सबसे अधिक शिकार आदिवासी महिला संगठन की कार्यकर्ता हुईं।

एसपीओ ने किया बलात्कार
मगर दिलचस्प तथ्य यह है कि नक्सलियों को जड़मूल से समाप्त करने के लिए आयी फौजें उनके मात्र दो दलम कार्यकर्ताओं को मार पायीं। डिवीजनल संयोजक निर्मला बेहिचक स्वीकार करती हैं कि माओवादी पार्टी को इस जुल्मी अभियान से कुछ खास नुकसान नहीं हुआ है। बड़ा नुकसान जनता का हुआ है जो जंगलों की ओर भागकर खूंखार जानवरों के बीच रहने के लिए मजबूर है। निर्मला कहती है कि सलवा जुडूम अभियान से हमारी ताकत दुगुनी से ज्यादा बढ़ी है,जबकि इस तथाकथित जनजागरण अभियान से आतंकित हो 600 गांवों के 50 हजार आदिवासी अपने आशियानों को छोड़कर भागने के लिए मजबूर हुए। अभी भी लगभग एक हजार आदिवासी राज्य की विभिन्न जेलों में बंद हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि एक भी पुलिसिया जवान के खिलाफ किसी भी थाने में मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है। जो आदिवासी कुछ महीनों तक हमारे प्रति उदासीन रहते थे अब उनमें से हजारों की तादाद में हमारे तमाम जनसंगठनों में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। जहां अभी हम प्लाटून बना रहे थे,वहीं सलवा जुडूम के बाद हमने अब मिलिट्री कंपनियां खड़ी कर ली हैं। स्थानीय युवक सुराजा ने बताया कि जब से पार्टी (नक्सली) आयी है तब से कोई न तो भूखा मरता है और न ही किसी लड़की की इच्छा के बगैर शादी  होती है। यह दो बातें आदिवासी जनता के लिए विशेष महत्व की हैं। कबीलाई सभ्यता से धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे आदिवासियों में पटेल,सरपंच जमींदारों जैसी स्थिति में हैं। लेकिन जिन इलाकों में माओवादी हैं वहां उन्होंने जमीनों का वितरण पारिवारिक जरूरत और परिवार में मौजूद सदस्यों के आधार पर कर दिया है।

हथियार बंद संघर्ष: क्या बदलेगा समाज.          फोटो- अजय प्रकाश
 इस पूरे मामले में एक और महत्वपूर्ण चीज है,कैंपों की जिंदगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कैंपों में पैंतालीस हजार शरणार्थी रह रहे हैं। हालाँकि  भैरमगढ़ इलाके के माओवादी एरिया कमांडर हरेराम मानते हैं कि अब सिर्फ शिविरों में चार हजार लोग बचे हैं। उसमें बड़ी संख्या उनकी है जो पुलिस के मुखबिर हैं या जनविरोधी लोग। हिंसा के शुरूरुआती महीनों में पुलिस बल जबर्दस्ती लोगों को शिविरों में ले गये और लोगों को बंदियों के माफिक रखा। कारण कि वहां से मीडिया को बताना था कि यह जनता माओवादियों के जुल्मों से तंग आकर शिविरों में रह रही है। इसका फायदा सरकारों को मिला भी। मीडिया ने मौका मुआयना किये बगैर ही सरकारी जानकारी को छापा। अब तक हजारों लोग कैंप से भागकर वापस गांवों में आ गये हैं। इतना ही नहीं,कुल एसपीओ में से 50अपने गांवों में वापस आ गये हैं। भैरमगढ़ ब्लॉक के एक राहत शिविर से भागकर आयी सुबकी ने बताया कि उसकी वहां जबरन ‘शादी  कर दी गयी और कई दिनों तक उसके तथाकथित पति ने बलात्कार किया।

घर से किलोमीटर दूर, सलवा जुडूम कैम्पों में रहने को मजबूर  
 सावनार,पालनार गांवों के सैकड़ों लोग जो कि अपनी आपबीती सुनाने के लिए आये थे,उनके अनुभवों से स्पष्ट हो गया कि राहत शिविरों की जिंदगी बदतर है। वहीं जो सरपंच,पटेल या पार्टियों के नेता शिविरों का नेतृत्व कर रहे हैं, मालामाल हुए हैं।गुदमा,जांगला,भाटवाड़ा, बैरंगढ़, बादेली, पिंडकोंडा, मिप्तुल, करडेली, वंगा आदि गांवों में राहत शिविर बनाये गये हैं। बैरंगढ़ कैंप से भागकर आये लच्छु ने बताया कि एसपीओ ने गांव में घोषणा की है कि जो आदिवासी अपना गांव छोड़ शिविरों में नहीं आयेगा उनके घर जला दिये जायेंगे।

माओवादी कार्यकर्ता बुद्धराम के मुताबिक जनता को राहत शिविरों में रख सरकार ने हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। बाकायदा धमकी दी गयी कि यदि माओवादी फौजों पर हमला करेंगे तो फौजें शिविरों में रह रहे लोगों को भून डालेंगी।




('द संडे पोस्ट' में प्रकाशित रिपोर्ट का संपादित अंश)

May 15, 2010

हम माओवादियों पर लिखेंगे मिस्टर सी !

अजय प्रकाश

चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलता  है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है, का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है।


माओवादियों पर सरकारी कार्रवाई की बौद्धिक स्वीकृति लेने जेएनयू गये चिदंबरम को 5मई की रात काफी तेज झटका लगा जब छात्रों ने सरकार विरोधी नारे लगाये और भाषण देकर जाते गृहमंत्री की सफेद गाड़ी पर काला झंडा फेंक असहमति को तिखाई से स्पष्ट कर दिया। सफेदी पहनने-ओढ़ने के आदी हमारे गृहमंत्री काले झंडे को देख ऐसे खुन्नस में आये कि अगले ही दिन आव देखा न ताव,देश के सजग नागरिकों पर आतंकी कानून लागू किये जाने का फतवा सुना दिया।


गौर से देखिये मिस्टर सी : यह बंदूकों वाले बच्चे कभी बीजापुर
ब्लाक के आश्रम में पढ़ने वाले छात्र थे.  फोटो- अजय प्रकाश   
गृह मंत्रालय से जारी बयान में कहा गया कि ‘बहुतेरे ऐसे बुद्धिजीवी,एनजीओ या संगठन हैं जो माओवादियों के सीधे प्रचारतंत्र का काम कर रहे हैं। वैसे लोगों और संस्थानों के खिलाफ आतंकवादी संगठनों के खिलाफ बनाये गये ‘आतंकवाद निरोधक गतिविधि कानून (यूएपीए 1967)’के तहत दस साल की कैद और आर्थिक दंड की सजा हो सकती है।’इस कानून का प्रोमो करते हुए कर्नाटक पुलिस ने कन्नड़ अखबार ‘प्रजा वाणी’में काम करने वाले राहुल बेलागली को एक माओवादी नेता के साक्षात्कार लिये जाने के अपराध में आरोपित किया है। शिमोगा जिले की पुलिस बेलागली को धमका रही है कि अगर उन्होंने स्रोत का खुलासा नहीं किया तो उनके खिलाफ यूएपीए के तहत कार्यवाही की जायेगी। पुलिस ने बेलागली के अलावा अखबार के एसोसिएट संपादक पदमराज को भी नोटिस जारी कर कहा है कि ‘अगर पुलिसिया जांच में सहयोग नहीं दिया तो इंडियन आम्र्स एक्ट,राष्ट्रीय संपंत्ति की क्षति समेत यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया जायेगा।’

बहरहाल,यह तो प्रोमो के दौरान का क्लाइमेक्स भर है। नहीं तो माओवाद प्रभावित राज्यों में लंबे समय से यही हालात बने हुए हैं। ऐसे राज्यों में वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, डॉक्टरों, ट्रेड यूनियन नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से लेकर जिला बदर किये जाने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। इससे जाहिर होता है कि सरकार बिना बोले ही संविधान के उन तमाम बुनियादी सिद्धांतों को लंगोटी बना चुकी है जो हमारे अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भारतीय कानून संहिता के उपबंधों में दर्ज हैं। इसलिए सरकार का नया शिकार क्षेत्र मेट्रो शहर हैं,जहां माओवाद का कोई असर तो नहीं है,मगर उसे जानने-समझने वालों की एक तादाद है। इस दृष्टि से गृह मंत्रालय का यह हालिया बयान एकदम से कहीं दूसरी ओर इशारा करता है जिसका अंदाजा लगाने में  हम चूक रहे हैं।


कौन लाकर देगा बेटे- पति को
इसे साजिश न कहा जाये तो और क्या है कि जाने-माने पत्रकार और पीयूडीआर से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा का नाम पहले दिल्ली से गिरफ्तार माओवादी नेता की चार्जशीट में दाखिल किया जाता है,फिर गृह मंत्रालय खबर देता है कि माओवादी क्षेत्रों में प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार जॉन म्रिडल के साथ 15दिनी दौरे पर बस्तर के रास्ते दंतेवाड़ा के जंगलों में गये गौतम नवलखा एक पत्रकार की हैसियत से नहीं,बल्कि विदेशी पत्रकार के कूरियर के तौर पर गये थे। अगर सरकार साबित करने में सफल होती है कि गौतम कूरियर बनकर गये थे,तो उन पर उसी आतंकी कानूनी दायरे में कार्यवाही होगी जो पोटा को हटाये जाने के बाद यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में बनाया था। दूसरी घटना लेखिका अरूंधति राय को लेकर हुई। आतंकवाद के खिलाफ छत्तीसगढ़ राज्य के बनाये गये कानून ‘छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम’के तहत राज्य ने प्रायोजित ढंग से छत्तीसगढ़ में अरूंधति पर मुकदमा दायर कराया। इसकी प्रतिक्रिया में अरूंधति ने कहा कि ‘वे हमें गिरफ्तार कर सकते हैं,लेकिन मैं देश छोड़कर नहीं जाऊंगी।’
जाहिर है सरकार की इन गीदड़ भभकियों का न सिर्फ अरूंधति,बल्कि माओवादियों को लेकर सरकार की सैन्य और रणनीतिक गलतियों पर बिना रुके लगातार लिखने वालों पर कोई असर नहीं होना है। लेकिन हमारी चिंता पत्रकारिता के व्यावसायिक दायरे पर चिदंबरम के सीधे शुरू किये गये निर्देशों को लेकर है। पत्रकारिता के व्यावसायिक मानदंडों को तार-तार करने वाली पुलिसिया दबिश का लगातार बढ़ता यह तरीका साफ कर देता है कि गृह मंत्रालय अब हमें एक व्यावसायिक पत्रकार भी नहीं बने रहने देना चाहता, जो कि चैथे स्तंभ का बुनियादी मूल्य है। बेलागली का ताजा मामला समझने के लिए काफी है कि इन प्रत्यक्ष-परोक्ष धमकियों के जरिये हमें भविष्य में मजबूर किया जायेगा कि माओवाद को लेकर गृह मंत्रालय से जारी सरकारी विज्ञप्तियों और बयानों से लेकर मंत्रालय के बाबुओं और अधिकारियों की कानाफूसी को ही हम पत्रकारिता मानें।

वैसे तो पहले से ही जनविरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ आलोचनात्मक रवैया रखने वाले पत्रकारों-लेखकों को पुलिस और खुफिया ने रडार पर लगा रखा है। मगर मुंह पर जाबी लगाने की हिदायत देता यह बयान तो अब उस व्यापक मीडिया दायरे को अपने चपेट में लेने की फिराक में है,जो सिर्फ अपनी रोटी के लिए खबरों को हासिल करता है। कौन नहीं जानता कि जो भी पत्रकार जिस पार्टी या मसले को कवर करता है वह उससे जुड़े लोगों से बेहतरीन खबरें पाने की चाह में (जो मूलतः व्यावसायिक तरीका है), थोड़ा नजदीक होता है। क्या चिदंबरम यह नहीं जानते कि जिस पार्टी से वह ताल्लुक रखते हैं, वहां जाने वाले कई पत्रकार आज कांग्रेस के नेता हो गये। इससे बड़ी तादात ऐसे पत्रकारों की है जो अघोषित कांग्रेसी हैं। कांग्रेस से उन पत्रकारों का रिश्ता बड़ा साफ है कि उसको माहौल बनाने के लिए अपने पत्रकार चाहिए और उन पत्रकारों को अपने संस्थान में जमे रहने के लिए मालिक और संपादक की निगाह में जरूरत।

माओवाद से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले ज्यादातर पत्रकारों का भी यही रवैया और नजरिया है। दूसरी तरफ मैं यह भी मानता हूं समाज में जो कुछ भी घट रहा है उसके बारे में लिखने, सोचने और करने के बारे में पत्रकार खुद ही सोचता है,जो उसकी वैयक्तिक आजादी भी है। रही बात लिखने और छपने के दौरान उसके माओवाद के प्रति झुकाव, लगाव या जुड़ाव की तो अगर उसे प्रतिबंधित करने की कोई सोच चिदंबरम रखते हैं तो इस मुगालते से बाहर आ जायें। फिर भी अगर सरकार इस मसले पर धमकियों, गिरफ्तारियों, फॉलोअप आदि के रास्ते डंडे के जोर पर निपट लेने के मूड में है, तो करके देख ले।


चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलती है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है,का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है। हमारे बाबा सुनाया करते थे-‘अपराधी से बड़ा गुनहगार अपराध देखने वाला,उससे बड़ा गुनहगार देखकर नजरें हटा लेने वाला और सबसे बड़ा गुनहगार देखकर चुप्पी साध लेने वाला होता है।’ गृहमंत्री, आप चुप्पी साधने के लिए कह रहे हैं जो हो नहीं सकता।

आपको पता नहीं,तब मैं छठवीं  का छात्र था जब बाबरी मस्जिद ढहने के जश्न की खुशी को अपने गांव में देखा। पूरा गांव अयोध्या की मस्जिद से उखाड़कर लायी गयी एक ईंट के पीछे पागल हुआ जा रहा था और मैं कुछ न कर सका। उसके बाद जब विश्वविद्यालय आया तो गोधरा-गुजरात होते सुना और नहीं सह पाने की स्थिति में उन खबरों से नजरें हटा लीं। छठवीं में पूरी एक इमारत ढही,विश्वविद्यालय के दौरान पूरा एक समुदाय छिन्न-भिन्न हुआ और अब जबकि मैं समाज को समझने लगा हूं तो आप पूरा एक देश तबाह करने पर आमादा हैं और चाहते हैं कि हम बोलें भी नहीं। यह कैसे संभव हैं!

इससे भी महत्वपूर्ण यह कि आज आप मंत्री बने हैं,कल पता नहीं आपका क्या होगा। लेकिन संघर्षों की कथाएं सुनाने वाले,जीवन में यह बातें लागू कराने वाले लोग तो हमारे घर,स्कूल और समाज के हैं जहां मैंने उंगली थामकर ककहरा सीखा है और आपकी भी जमीन वहीं से देखी है। सच बताऊ गृहमंत्री, हम इन सब जीवन मूल्यों को अगर आपके बूटों-संगिनों के डर से छोड़ भी दें, तो भी नहीं जी पायेंगे। हम जिस समाज में रहते हैं वह इतनी समस्याओं और मजबूरियों से त्रस्त है कि हम किसी एक ऐसे व्यक्ति की बात मान ही नहीं सकते जिसे एक लोकसभा क्षेत्र जीतने के लिए दो बार गणना करानी पड़ती है  और तबाही का फैसला देने में चंद सेकेंड।


May 11, 2010

प्रेम की कोटियाँ


विस्यारियन ग्रिगोरीयेविच बेलिंस्की.   बेलिंस्की (1811-1848) उन्नीसवीं शताब्दी में जन्में रूस के उन महान लेखकों में से एक रहे जिनकी प्रतिष्ठा जनता के लेखक और जारशाही  की किरकिरी के रूप में  रही. उनके लेखों ने रूसी समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों को हमेशा उत्साहित किया. जबकि इसके उलट 'शाही विज्ञान अकादमी' के एक सदस्य फ्योदोरोव ने ओतेचेस्त्वेंनिये जापिस्की में छपे उनके सभी लेखों को काटकर सात टोकरियों में भरा और प्रत्येक पर 'ईश्वर  के विरुद्ध', 'सरकार के विरुद्ध', 'नैतिकता के विरुद्ध' आदि लिखकर ख़ुफ़िया पुलिस में पहुंचा दिया था. 



बेलिंस्की के इस संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी  'प्रेम की कोटियाँ'  टिप्पणी पढ़िये.



 प्रेम को आमतौर पर अनेक कोटियों और खानों में विभाजित किया जाता है, लेकिन ये विभाजन अधिकांशतः बेहूदा होते हैं. कारण  कि यह सब कोटियाँ और खाने उन लोगों के बनाये हुए हैं जो प्रेम के सपने देखने या प्रेम के बारे में बातें बघारने में जितने कुशल होते हैं, उतने  प्रेम करने में नहीं.

सर्वप्रथम वे प्रेम को  दुनियावी या वासनाजन्य और आध्यात्मिक  में विभाजित करते हैं. इनमें पहले  -वासनाजन्य से वे घृणा करते हैं और दूसरे -आध्यात्मिक  से प्रेम करते हैं। बिला शक, ऐसे जंगली लोग भी हैं जो प्रेम के केवल पाशविक आनंद पर मरते हैं। न उन्हें सौंदर्य की चिंता होती है, न यौवन की। लेकिन प्रेम का यह रूप-अपने पाशविक रूप के बावजूद-आध्यात्मिक प्रेम से फिर भी अच्छा है। कम से कम यह प्राकृतिक तो है।

 आध्यात्मिक प्रेम  तो केवल पूरबी रनिवासों-हमसाराओं के रक्षकों के लिए ही मौजूं हो सकता है।..... मानव न तो वहशी है और न देवता। उसे न तो पशुवत प्रेम करना चाहिए,न आध्यात्मिक। उसे प्रेम करना चाहिए मानव की तरह। प्रेम का चाहे आप  कितना ही दिव्यीकरण करें, मगर साफ है कि प्रकृति ने मानव को इस अद्भुत भावना में जितना अधिक उसके आनंद के लिए सज्जित किया है, उतना ही अधिक प्रजनन तथा मानव जाति को बनाये रखने के लिए भी। और प्रेम की किस्में- उनकी संख्या उतनी ही है जितने कि इस दुनिया में आदमी हैं। हर आदमी अपने अलग ढंग से- अपने स्वभाव, चरित्र और कल्पना आदि के हिसाब से- प्रेम करता है। हर किस्म का प्रेम, अपने ढंग से सच्चा और सुंदर होता है।



लेकिन रोमांटिस्ट- हमारे चिरंतन प्रेमी-दिमाग से प्रेम करना ज्यादा पसंद करते हैं। पहले वे अपने प्रेम का नक्शा बनाते हैं, फिर उस स्त्री की खोज में निकलते हैं जो उस नक्शे में फिट बैठ सके। जब वह नहीं मिलती तो शार्टकट अपनाते हुए कहीं अस्थायी जुगाड़ लगाते हैं। इस तरह कुछ लगता भी नहीं, कोई दिक्कत भी नहीं होती, क्योंकि उनका  मस्तिष्क ही सब करता है, हृदय नहीं।



वे प्रेम की खोज करते हैं, खुशहाली या आनंद के लिए नहीं, बल्कि प्रेम संबंधी अपनी दिव्य धारणा को अमल में पुष्ट करने के लिए। ऐसे लोग किताबी प्रेम करते हैं,अपने प्रोग्राम से जौ भर भी इधर-उधर नहीं होते। उन्हें एक ही चिंता होती है कि प्रेम में महान दिखाई दें, कोई भी चीज उनमें ऐसी न हो, जिससे साधारण लोगों में उनका शुमार किया जा सके।



May 8, 2010

मंगलेश डबराल की कविता

टॉर्च


मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाईट में होते हैं
हमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी.

एक सुबह मेरी पड़ोस की  दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दो

पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैं

दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की जरूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस खामोश रहे देर तक.

इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक.

May 7, 2010

आखिर चिदंबरम का क्या दोष

अजय प्रकाश

कुछ नेताओं, सुरक्षा विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों को छोड़ दें तो सरकार क्या यह नैतिक साहस कभी कर पायेगी कि मारे गये सुरक्षाबलों की जिम्मेदारी चिंदबरम पर सुनिश्चित करे ?

दंतेवाड़ा के चिंतलनार में मारे गये 76सुरक्षाबलों की जांच के लिए गृह मंत्रालय ने ईएन राममोहन कमेटी गठित की थी। बीएसएफ के पूर्व डीजी राममोहन के नेतृत्व में गठित यह कमेटी अप्रैल के अंतिम सप्ताह में सरकार को रिपोर्ट सौंप चुकी है। लेकिन जो जानकारियां आ चुकी थीं उससे अधिक के तथ्य कमेटी मुहैया नहीं करा सकी। लेकिन गृहमंत्रालय को कुछ तो करना है। सो मंत्रालय निचले स्तर के कुछ अधिकारियों-कर्मचारियों पर कार्यवाही कर साल-दो साल में चिदंबरम के नेतृत्व में माओवादियों के सफाये का फिर एक बार दंभ भरेगा।

पी चिदंबरम :  काम से सीइओ और पद से गृहमंत्री 

इसके लिए माहौल भी बनना शुरू  हो गया है। जैसे सीआरपीएफ कर्मियों की जीवन स्थिति बदहाल है, रहने-खाने की उचित व्यवस्था नहीं है, जबकि अधिकारी मौज मारते हैं। साथ ही चिदंबरम छत्तीसगढ़ पुलिस के उच्चाधिकारियों पर एक के बाद एक तीखी टिप्पणियां लगातार कर रहे हैं, जो यूं ही नहीं हैं। हालांकि चिदंबरम के इन सवालों से हमारा कोई इनकार नहीं है। लेकिन इतने बड़े घटनाक्रम के बाद क्या सीधे नीति पर बात नहीं होनी चाहिए थी? उसी नीति पर जिसके परिणाम के तौर पर हम सुरक्षाबलों की मौत और आदिवासियों की तबाही से रोज दो-चार हो रहे हैं। साथ ही माओवादियों और उनके समर्थकों की गिरफ्तारियों और हत्याओं का भी सवाल है.  

तो  क्या चिदंबरम को इस बात का थोडा भी अहसास है कि मध्य भारत के इस हिस्से को वह अपनी साम्राज्यवादी  चाहत  और चन्द व्यावसायिक घरानों के  लिए कहाँ पहुँचाने जा रहे हैं.  हत्याओं के भरोसे  जंगलों में स्वराज लाने की चाहत से ओतप्रोत चिदंबरमवाद अगर जंगलों के भीतर सैन्य छावनी बना ले तो  संघर्ष रूक जायेगा ? अगर इस खामखयाली से गृहमंत्री नहीं उबर पाए हैं तो यह देश के लिए सदमा ही होगा. 
  
यह लड़ाई आदिवासिओं की है, वहां के वाशिंदों की है. कल को वहां माओवादी नहीं होंगे कोई और होगा. लेकिन लोग कभी नहीं स्वीकारेंगे कि विकास के बहाने तबाही की बुनियाद पर  दुनिया का कोई भी सत्ताधारी  उनका इस्तेमाल करे.न ही  अपने अंतिम समय तक वह यह स्वीकार कर पाएंगे कि सरकार सुरक्षा के नाम पर उन्हें अपने गावों-घरों से उजाड़कर कैम्पों में बसाये.अगर सरकार का रवैया यही  रहा तो, हो सकता है कि आदिवासी लड़ाके दो कदम पीछे हटें और मज़बूरन उन्हें जंगलों में भागना पड़े. मगर उसके बाद सैन्य छावनियों और वहां के वाशिंदों के  बीच जो युद्ध शुरू होगा वह भारतीय संघीय प्रणाली की चूलें हिला देगा.जिसका हल सरकार को फिर एक बार  बंदूकों में ही नज़र आएगा.

ऐसे में  प्रश्न है कि इन सवालों पर अभी खुलकर बात क्यों नहीं हो रही है, जबकि सुरक्षाबलों के घरों में मातम का माहौल  बिलकुल ताज़ा है. बात सुरक्षाबलों की बदहाली पर हो रही है। सेना,पुलिस और सुरक्षाबलों में भर्ष्टाचार का मामला न तो नायाब  है और न ही नया. नया है तो इतनी बड़ी संख्या में एक साथ मारे गए सुरक्षाबल. हालाँकि अगर यह सुरक्षाबल मारे नहीं गए होते तो माओवादियों  के बहाने आदिवासियों को मार कर आते.यानी एक बात सपष्ट है कि सरकार की नीतियों के चलते सुरक्षाबलों और स्थानीय लोगों के बीच का सम्बन्ध दुश्मनाना बन चुका है जिसका  लक्ष्य जीत हासिल करना है.

इन्हें पहचाने   : आदिवासी या माओवादी
मीडिया मैनेज में माहिर और मनोवैज्ञानिक युद्ध के महारथी चिदंबरम जानते हैं कि असल मुद्दे पर अगर जोर जारी रहा तो इस्तीफा देने का दिखावा जो उन्होंने पिछले दिनों किया था वह हकीकत में बदल जायेगा.वित्तमंत्री से गृहमंत्री बने पी चिदंबरम के बदलते बयानों को इकट्ठा कर लिया जाये तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि आदेश और आरोप ही उनकी काबीलियत का सार है। इस काबीलियत से तंग आकर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने सुझाव दिया ‘जबान संभाले’तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा ‘थम के बोलिये और काम से बरसिये।’रही बात झारखंड के मुख्यमंत्री शिबु सोरेन की तो उनके बारे में चिदंबरम साहब के अधिकारी ही माओवादियों के मामले में संदेह व्यक्त करने वाले बयान देते हैं। सरकार के इस रवैये पर समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘गृहमंत्री और गृहसचिव जीके पिल्लई को कौन समझाये कि सरकार युद्ध की तारीख तो तय कर सकती है लेकिन खात्मे की नहीं। युद्ध की अमेरिकी रणनीति आजमा रही सरकार को इसका अनुभव तो अफगानिस्तान, वियतनाम और इराक से लेना चाहिए।’

माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी व्यवस्था अमल में लाने के लिए सफाया,कब्जा और निर्माण की अमेरिकी युद्ध नीति के तहत सरकार कार्यवाही कर रही है। चिंतलनार में मारे गये अर्धसैनिक  बल के 62वीं बटालियन के 75 सुरक्षाबल  समेत  ७६ जवान उसी नीति के तहत की जा रही कार्यवाही के दौरान माओवादियों और समर्थकों के हाथों मारे गये। ऐसी रणनीति का प्रयोग सरकार १९९० के दशक में उल्फा के सफाये के लिए उत्तर-पूर्व के राज्यों में कर चुकी है। इस युद्ध रणनीति के तहत सबसे पहले सुरक्षाबलों को अतिवादियों को मटियामेट कर एक निश्चित क्षेत्र में कब्जा करना होता है। जिसके बाद वहां फौजी नियंत्रण कायम कर सुरक्षाबल कब्जे के लिए आगे बढ़ते हैं। सफाये और कब्जे की लंबी प्रक्रिया के बाद सरकारी मशीनरी वहां निर्माण काम अपने हाथों में लेती है।

 छत्तीसगढ़ में मारे गये जवानों की हत्या के बाद पहली बार  है कि सत्ताधारी यूपीए की मुख्य पार्टी कांग्रेस के भीतर से कई बड़े नेताओं ने चिदंबरम की सफाया नीति का खुलकर विरोध किया है। कांग्रेस महासचिव दिग्वीजय सिंह ने तो बकायदा एक आर्थिक अंग्रेजी दैनिक में लंबे लेख के जरिये चिंतलनार समेत पूरी नीति को लेकर गृहमंत्री की समझ पर सवाल खड़े किये। इस सवाल का पुरजोर समर्थन वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री मणिशंकर ने इस टिप्पणी के साथ किया कि ‘दिग्वीजय एक लाख प्रतिशत सही कह रहे हैं।’सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी दो टूक मानते हैं कि ‘यह चिदंबरम की रणनीतिक गलती का परिणाम है। ऐसे अभियान केंद्र सरकार आधारित कर संचालित करने पर भविष्य में इससे भी बुरे परिणाम हो सकते हैं।’



May 4, 2010

मुकम्मिल इनसानियत की धार थी

 यादें
 हैनसन टी के

स्मृतियों  का कोठार है मेरा हृदय
मैंने कुछ वैसे ही सहेज रखी है
प्रियजनों  की यादें
जैसे कोई अमीर व्यापारी  तिजोरी में
बंद किये रखता है सोना-चांदी


पसलियों के पिंजरे में कैद
मेरी प्रिय यादों को
न तेज हवाएं उड़ा सकती हैं
न सैलाब बहा सकता  है
न चोर  चुरा सकता है

सफेद कपड़े पहनती थीं मेरी मां
मेरी सांसों  में अब भी  बसी हुई है उनकी खुशबू
नारियल तेल, तुलसी के पत्ते  और
चंदनलेप की मिली-जुली खुशबू

मैं पड़ोस  की उस स्त्री को  याद करता हूं
जो संत थॉमस चर्च में प्रार्थना करती थी
और  जिसने मां के बीमार होने पर
स्तनपान कराया था मुझे
मेरे नन्हें होठों को स्पर्श करती वह
दूध की चंद बूंदें नहीं
मुकम्मिल इनसानियत की धार थी

हवा की धुन पर नाच रहा था लालझंडा
आगे-आगे थे मेरे पिता नारे लगाते हुए
शाम को  हमारे लिए वह
कागज के नन्हें-नन्हें झंडे लेकर आये थे
तब हमने भी झंडों के साथ मार्च किया था
आज भी लहरा रहा है लाल परचम

मैंने देखी थी दो कजरारी आंखें
पतले होंठ  लथपथ चेहरा
विद्यालय की वर्षगांठ पर
मेरे साथ नृत्य  किया था उसने
मैं अब भी  महसूस करता हूं   उसकी हथेलियों  की गरमाहट
भला मैं कैसे भूल सकता हूं   अपना पहला प्यार

स्मृतियों  का कोठार है मेरा हृदय
प्रियजनों और मधुर क्षणों  की यादों का घर

वैसे ज्वार के दौरान  फूलने लगती है नदी
पानीपर रूपहली चांदनी उड़ेल देता है चांद
अकेला नाविक रात के सन्नाटे को चीरते हुए
गाता है कोई लोकगीत

बारिश की शुरुआती बूंदों  में  स्पर्श पाकर
भाव विभोर  झूमते हैं नारियल वृक्ष
जैसे घटाओं  को  देखकर नाचता है मोर

सुबह की ठंडी हवा चलती है
फूलों  की खुशबू से सराबोर
घास   पर टिकी ओस की बूंदों
हजार-हजार सूरज चमकते हैं

सागर की लहरें किनारों  को
अपने रेशमी रूपहले फेन से संवारती हैं
मैं हृदयस्थ करता हूं
पहाड़ों और हरी घास के मैदानों को

अतीत के प्रहरी की तरह खड़े हैं पथरीले टेकरे
विशाल पत्रों  में खुदी मूर्तियों ने
बीते युगों की  यादों को  सहेज रखा है

माथे पर चंदनलेप लगाते हुए तुमने
अपनी अँगुलियों  के स्पर्श से अनुप्राणित किया था मुझे
तब तुम्हारी आँखों  में चमक रहे थे वे सितारे
जिन्हें स्वर्ग से चुरा लायी थी तुम
मैंने वह सबकुछ सहेज रखा है
जो बहुत-बहुत प्यारा है मुझे

मेरा हृदय स्मृतियों का कोठार  है
प्रियजनों और  मधुर क्षणों  की यादों का घर
                                                                        अनुवाद-  मदन कश्यप





May 3, 2010

काम पर परिवार


खुदाई  के  लिए  अभिसप्त  शहर दिल्ली का  यह आम दृश्य है.सरकार के मुताबिक ये सब  विकास के लिए हो रहा है और   विकास राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के लिए.शहर की सहूलियत और सुविधाओं के मार्फ़त खेलों के आयोजन का तो इतिहास रहा है,मगर दिल्ली को पहले ऐसे शहर कि ख्याति मिलेगी जो खेलों के मार्फ़त बदली  है, विकसित हुई  है.हो यह रहा है कि यहाँ  नागरिकों का ख्याल कर खेल और आयोजन के इंतजामात नहीं किये जा रहे बल्कि खेलों के हिसाब से लोगों के नागरिक अधिकार तय हो रहे हैं.


इस बारे में समाजशात्री आशीष नंदी ने एक साक्षात्कार  में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं -'हमारे यहां एक तरफ राष्ट्र मंडल खेलों की तैयारियां चल रही हैं और दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से झोपड़पट्टियों और गरीब बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है या पहले ही उजाड़ दिया गया है। मेरे लिए ये सब झकझोर देने वाली घटनाएं भी हैं। मैं सोचता हूं,यह कैसा देश है जहां दूसरों के स्वागत के लिए अपने लोगों को तबाह किया जा रहा है। न्यूयार्क, लंदन, शिकागो जैसी जगहों में भी स्लम हैं और हार्लेम तो दुनिया की मुख्य स्लम बस्तियों में से एक है। गौर करने वाली बात है कि अभी हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का दफ्तर स्लम की तरफ बनाया गया है। लेकिन क्या हमारा कोई अदना-सा सांसद भी ऐसी किसी बस्ती की तरफ रहना पसंद करेगा। जाहिर है,हमारा शासक वर्ग सिर्फ स्लम को ही नहीं ऐसी हर समस्या को,जिसको वह नहीं चाहता है,भुला देना चाहता है नहीं तो ढंक देना चाहता है। यह हिंदुस्तानी शासक वर्ग की कार्यशैली की सामान्य आदत है कि जिसे वह नहीं चाहता है,मुख्य सामाजिक दायरे से उठाकर फेंक देता है।


आइये इस हालात को हम  फोटोग्राफर आरबी यादव की नज़रों से देखें -




नज़र न लगे लल्ला को : विकास की  नज़र से कैसे बचाओगी माई

का फोटो खींचत हौ चचा : रीअल्टी शो होगा का




काम पर परिवार : विकास के लिए जरूरी कहती सरकार



तापमान साक्षरता का विषय है : और काम कामगारों का



May 1, 2010

स्वदेश वापसी का रास्ता बंद है

राजशाही के खिलाफ लोकतंत्र की स्थापना के लिए लड़े नेपाली भाषी भूटानी नागरिकों को भूटान की राजशाही ने खदेड़ दिया था. ये  लोग  पिछले 18  वर्षों  से नेपाल के सात कैम्पों में शरणार्थियों का जीवन बीता रहे हैं. 

संयुक्त राष्ट्र संघ समेत अन्य  दानदाता एजेंसियों के सहारे गुजर-बसर कर रहे शरणार्थियों की आबादी भूटान की कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा है.पराये देश में इनकी तीसरी पीढी नौजवान हो रही है. शरणार्थियों ने भूटान जाने का जब भी प्रयास किया तो भारतीय फौजों ने दखलंदाजी की.कारण कि नेपाल से भूटान जाने का रास्ता भारत (पश्चिम बंगाल)  होकर ही जाता है. ऐसे में सवाल है कि क्या भूटान में हो रहे दक्षेस देशों के 16वें शिखर सम्मेलन में 'शरणार्थियों',जिनकी संख्या डेढ़ लाख से अधिक है, उनपर भी कोई बात होगी.


टेकनाथ रिजाल नेपाल में रहने वाले भूटानी शरणार्थियों के लोकप्रिय नेता हैं. भूटानी राजशाही ने १९८९ में लोकतांत्रिक आंदोलन खडा करने के आरोप में रिज़ाल को १० साल  कैद की सज़ा दे डाली थी. १८ दिसम्बर १९९९ को जेल से रिहा  होने के बाद से वह नेपाल में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं
राजशाही की देखरेख में लोकतन्त्र की स्थापना की कवायद से शणार्थियों को क्या उम्मीदें हैं, भारत से वे क्या चाहते हैं जैसे मसलों पर काठमांडू में हुई टेकनाथ रिज़ाल से अजय प्रकाश  की  बातचीत

टेकनाथ रिजाल : दक्षेश सम्मलेन से उम्मीद नहीं

भूटानी नागरिक भारतीयों के साथ कैसा रिश्ता महसूस करते हैं

भारत के आजादी से पहले का कहें या बाद का दक्षिणी भूटान के नेपाली भाषी लोंगों से भारतीयों का गहरा आत्मीय रिश्ता है. भारतीय फौजों में हमारे इतने लोग थे कि जब राजा ने देश निकाला किया तो उसमें सैकडों वीर चक्रों को हमसे छीन लिया.ये वीर चक्र हमारे लोगों को भारतीय सेना में काम करते हुये दिये गये थे.इतना ही नहीं भारत की आजादी की लडाई में शामिल हुये तीन-चार भूटानी नागरिक तो बहुत बाद तक पटना जेल में बंद रहे. मगर हमें अफ़सोस है कि जिस देश के साथ हम लोगों का इस तरह का रिश्ता रहा था वही देश आज हमें अपने देश जाने के लिए रास्ता नहीं दे रहा है.

भूटान-भारत के साथ मौजूदा और पूर्ववर्त्ती संबंधों के बीच आप लोग क्या फर्क देखते हैं .

१९६० के बाद भूटान में जिस स्तर पर नागरिक सुविधायें लागू कि गयीं उसमें भारत का अहम योगदान हैं
भूटान को इससे पहले एट्टियों यानी जंगली लोगों का देश कहा जाता था. किन योजनाओं में कितना खर्च होगा के हिसाब से लेकर मलेरिया तक के ईलाज का भार भारत ही उठाता था.मौजू़दा दौर में भारत सरकार का झुकाव और पक्षधरता भूटानी नागरिकों के प्रति होने के बजाय राजा के प्रति है.दक्षिण एशिया का सबसे ताकतवर और जनतांत्रिक देश होने के नाते न सिर्फ भूटान बल्कि इस क्षेत्र के हर देश की जनता बहुत उम्मीद से भारत की तरफ देखती हैं.हमारा स्पष्ट मानना भारत सरकार की मदद के बगैर न तो नेपाल में शांति प्रक्रिया को स्थिरता मिल सकती है और न भूटानी शरणार्थी सम्मानपूर्वक स्वदेश वापसी कर सकते हैं

खुफिया एजेंसियों के मुताबिक नेपाल के शिविरों में रहने वाले भूटानी युवा आतंकवादी  गतिविधियों में संलिप्त है?

यह तथ्यजनक नहीं है.यह राजा प्रायोजित प्रचार है,जिसे हिन्दुस्तानी मीडिया हवा देता रहता है. जाहिर है कि राजा तथा उसकी मददगार शक्तियां नेपाल के कैम्पों में रह रहे डेढ लाख शरणार्थियों पर किसी बहाने तोहमत लगाती रहेंगी जिससे स्वदेश वापसी संभव न हो

दक्षिणी भूटान के नेपाली भाषियों को भूटानी राजा ने देशनिकाला क्यों किया?

उसके दो मुख्य कारण थे.एक तो यह कि भारत के साथ दक्षिणी भूटान के नागरिकों की नजदीकी बढती जा रही थी
दूसरा यह कि भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को देखकर भूटानियों ने भी जनतांत्रिक हकों के लिए पहल करना शुरू किया.लेकिन राजा को यह मंजूर नहीं था. प्रतिक्रिया में उसने नेपाली भाषी लोगों की संस्कृति, भाषा तथा जीवन जीने के तरीके तक पर हमले शुरू कर दिये
राजशाही के जुल्म इस कदर बढे कि राज्य की तथाकथित संसद में बैठे सांसदों,अदालत के जजों तक को राज्य निकाला कर दिया गया.फरवरी १९८५ में जब राजा ने हमारी नागरिकता को रद्द कर दिया तो हमें भरोसा था कि पडोसी देश भारत राजशाही की तानाशाही के खिलाफ ऐतराज करेगा. मगर यहां उल्टा हुआ. आज हम न भारत में हैं न भूटान में, हमें तीसरे देश की शरण लेनी पडी.
भारत,राजा के साथ अपने हित साध रहा है.कौन नहीं जानता कि भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मरीं तो राजा ने देश में जश्न मनाये.भारत की अखण्डता के लिये खतरा बन चुके उल्फा और बोडो उग्रवादियों की प्रमुख शरणस्थली तथा ट्रेनिंग कैम्प आज भी भूटान में है.
हमारे ऊपर आतंकवादी गतिविधियों के संचालित करने का आरोप लगाने वाली भारतीय मीडिया  को ये तथ्य क्यों नहीं दिखते?साथ ही भारतीय सरकार भूटान में भारत के लिए काम करने वाली स्थानीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका की जांच क्यों नहीं करती कि तैनात अधिकारी भारत के प्रति कितने ईमानदार हैं

शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी : नेपाल में चोरी-छुपे मिलता है काम

क्या यह सच है कि शिविर के युवाओं में भारत के खिलाफ नफरत बढ रही ?

पिछले कुछ सालों में भारत के प्रति नफरत बढी है. 17-18 वर्षों में हमने स्वदेश वापसी का सात-आठ बार शांतिपूर्वक प्रयास किया. मगर जाने में असफल रहे हैं. इन प्रयासों के खिलाफ भारतीय फौजें बार-बार रोडा बनकर खडी हुयी हैं



भूटान से भारत की नजदीकी की वजहें?

भूटान की कुल साढे छह लाख की आबादी में भारतीयों की संख्या ६० हजार है.भूटानी बाजार और व्यापार पर भारतीयों का ही कब्जा है.इसके अलावा भारत सरकार को यह भी डर है कि लोकतंत्र कायम होते ही वह भूटान में अपने कठपुतली राजा का उपयोग नहीं कर सकेगा.मतलब यह कि एक तरफ जहां भारत सीधे आर्थिक लाभ के कारण स्थानीय राजनीति पर अपना दबदबा बनाये रखना चाहता है वहीं विस्तारवादी नीति के मद्देनजर कमजोर देशों में सामंती राजसत्ताओं को बनाये भी रखना चाहता है.

अमेरिका ने प्रस्ताव दिया है वह शरणार्थियों को कनाडा और दूसरे देशों में पुनर्वासित करेगा ?

मीडिया में आयी खबरों के आधार पर हमने नेपाली सरकार से बातचीत की तो पता चला कि अमेरिका की तरफ से इस बारे में कोई आधिकारिक सूचना नहीं हैं.हालांकि सांस्कृतिक,भौगोलिक विविधता की वजह से ऐसा होना संभव नही है.हुआ भी तो इसे स्थायी हल नही कहा जा सकता.अगर भूटानी शरणार्थियों का अमेरिका शुभचिंतक है तो भारत पर दबाव डाले कि वह शरणार्थियों को स्वदेश वापसी का रास्ता दे.
दूसरा यह कि भारत के लिये भी यह बेहतर नहीं कि हम अमेरिका में जाकर बसें.कैम्पों में भारत के खिलाफ बढ रही नफरत का कभी भी कोई साम्राज्यवादी देश इस्तेमाल कर सकता है

अमेरिकी प्रस्ताव पर शरणार्थियों का क्या विचार है?

मिला-जुला असर है.शगूफा उठा कि अमेरिका जाने वाले फार्म पर दस्तख्त करने से १७,००० लाख नेपाली रुपये मिलेंगे.इस लालच में तमाम शरणार्थियों ने फार्म भरे लेकिन पिछले दिनों जब स्वदेश वापसी की पहल हुई  तो सभी भारत की सीमाओं की तरफ जुटने लगे.किसी ने नहीं कहा कि वह अमेरिका जायेगा.इसलिये कहा जा सकता है कि शरणार्थी अब इस कदर त्रस्त हो चुके हैं कि वह कहीं भी सम्मान और बराबरी की जिन्दगी चाहते हैं चाहे वह कनाडा हो या भूटान.

पश्चिम बंगाल  की वामपंथी सरकार का रूख कैसा रहा है?

लंबे समय बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य ने २००७ के जून माह में आश्वासन दिया कि भूटानियों की समस्या का हल किया जायेगा.हालांकि इस वादे से हफ्ते भर पहले बंगाल पुलिस, असम पुलिस और सीआरपीएफ ने हमारे लोगों को गोलियों से भून डाला था.आखिरकार हम करें तो क्या करें.सच का एक बडा हिस्सा है कि समाधान भी उत्पीडक ही करेगा.

नेपाल का रुख?
सरकार चाहे किसी की रही हो नेपाल ने हमेशा आश्रय दिया है. कहना अतिरेक नहीं होगा कि नेपाली माओवादी
इस मसले को लेकर अन्य पार्टियों से हमेशा गंभीर रहे हैं.


 नोट- यह साक्षात्कार पुराना है, मगर मसले जस के तस बने हुए हैं