पिछले दिनों आपने लिखा था कि हमारी त्रासदी है कि हम दुख की भाषा भूल गये हैं, क्या समाज एक सुख-भ्रांति में जी रहा है?
अंग्रेजी में एक कहावत है-'देयर इज नो फ्री लंच'। यानी सब कुछ में कुछ कीमत भरनी होती है। हमारी सामाजिक स्थिति भी ऐसी ही हो चुकी है। यह जो आधुनिकता,तेज आर्थिक विकास,बडे शहरों का तेजी से विस्तार,उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार और बेहिसाब बढ़ते करोड़पतियों के बीच हमने जो कुछ खोया है,उसका कोई अफसोस हमारे समाज में नहीं दिख रहा है। प्रगति की चाहत में हम लगातार बेसुध होकर दौड़ रहे हैं, लेकिन कहां दौड़ रहे हैं, दौड़ने में किन चीजों को पीछे छोड़ दिये हैं, कौन लोग राह में रह गये हैं, इसे न देखते हैं और न ही उसके बारे में सोचना चाहते हैं। इसलिए कि उसका दुख या शोक हम अपने पर नहीं लेना चाहते। यह कुछ नयी परिघटना है।
किस रूप में नयी परिघटना है?
जैसे यूरोप आदि के देशों में जब आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण हुआ था तो वहां हर देश कई ख्यातिप्राप्त चिंतक, अर्थशास्त्री, कवि, दार्शनिक कलाकार पैदा हुए। कविता में विलियम ब्लैक, आलोचना में रस्किन, इतिहास में कॉर्ल पलानी, आधुनिकता के पिता कहे जाने वाले कॉर्ल वेबर जैसे विद्वानों की उन देशों में एक लंबी परंपरा रही है। मगर यह परंपरा और ऐसी पीढ़ी हिंदुस्तान में दिख नहीं रही। इसके उलट हम पिछले दौ सौ साल से यह सुन रहे हैं कि हमें यूरोप जैसा बनना पड़ेगा,हम यूरोप जैसा नहीं बन पा रहे हैं इसलिए वे लोग हम पर राज करते आ रहे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हम पीछे क्या खो रहे हैं,इसके बारे में हिंदुस्तानी समाज में कोई संवेदनशीलता नहीं दिख रही है।
तो हमारा समाज किस दिशा में आगे बढ़ रहा है?
सब कुछ बुरा ही नहीं हुआ है। बल्कि आजादी के बाद जिन बदलावों के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे,वे भी हमारे समाज में ही घटित हुए। कोई नहीं सोच सकता था कि हिंदुस्तान में एक दलित महिला मुख्यमंत्री बनेगी,वह भी उत्तर प'देश जैसे राज्य में। पूरे देश के पैमाने पर देखा जाये तो मुख्यमंत्रियों में बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों से हैं। इसे मैं भारतीय समाज में एक बड़े बदलाव के रूप देखता हूं।
लेकिन इसी के साथ सामाजिक विभाजन भी बढ़ा है?
ऐसा इसलिए हुआ है कि हमारे यहां लोकतंत्र के वास्तविक मूल्यों को मानने वाले कम और ढोंग या पाखंड करने वाले ज्यादा हैं। अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर पीठ थपथपाने वाले नेताओं का बड़ा सच यह है कि वोट के लोकतंत्र का इस्तेमाल वे जातीय विभाजन को बढ़ाने में कर रहे हैं। कई मामले में ऐसा हुआ है कि जहां जातीय फासले नहीं थे,वहां भी माहौल बना दिया गया। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन को देखिए तो बाकायदा उनके नेता कहते हैं कि वे चूंकि कबीलों में विश्वास करते हैं और पिछड़े हुए हैं इसलिए उन्हें आदिवासी का दर्जा दिया जाये। ऐसी मांग मैंने पहले नहीं सुनी थी। मगर इसके समानांतर परीधि और हाशिये के जो लोग मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं,उससे हमारे समाज की सर्जनात्मकता व्यापक होगी।
संसद में लगभग चार सौ सांसद करोड़पति हैं, जिनमें से कुछ अरबपति भी हैं। इसके उलट मुल्क की ४० करोड़ से अधिक आबादी को भरपेट अन्न नहीं मिलता। इस अंतर्विरोध को आप कैसे देखते हैं?
ये आंकड़े हम सभी भारतीयों को शर्मिंदा करने वाले हैं। कुछ शर्मिंदा होते भी हैं लेकिन बहुतेरे लोग इसको भूलना चाहते हैं,ढंकना चाहते हैं। हमारे यहां एक तरफ राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियां चल रही हैं और दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से झोपड़पट्टियों और गरीब बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है या पहले ही उजाड़ दिया गया है। मेरे लिए ये सब झकझोर देने वाली घटनाएं भी हैं। मैं सोचता हूं,यह कैसा देश है जहां दूसरों के स्वागत के लिए अपने लोगों को तबाह किया जा रहा है। न्यूयार्क, लंदन, शिकागो जैसी जगहों में भी स्लम हैं और हार्लेम तो दुनिया की मुख्य स्लम बस्तियों में से एक है। गौर करने वाली बात है कि अभी हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का दफ्तर स्लम की तरफ बनाया गया है। लेकिन क्या हमारा कोई अदना-सा सांसद भी ऐसी किसी बस्ती की तरफ रहना पसंद करेगा।
जाहिर है, हमारा शासक वर्ग सिर्फ स्लम को ही नहीं ऐसी हर समस्या को, जिसको वह नहीं चाहता है,भुला देना चाहता है नहीं तो ढंक देना चाहता है। यह हिंदुस्तानी शासक वर्ग की कार्यशैली की सामान्य आदत है कि जिसे वह नहीं चाहता है, मुख्य सामाजिक दायरे से उठाकर फेंक देता है। दूसरी बात यह कि जिन मुद्दों या मुल्कों को हम नहीं पसंद करते, पहले तो हम उन पर बात ही नहीं करते,अगर बात करने को तैयार भी हुए तो उनका अध्ययन तो कत्तई नहीं करना चाहते। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में विजिटिंग कार्ड पर इस्लाम लिखकर कोई शोध का काम आप पा सकते हैं,लेकिन हिंदुस्तान के शिक्षा संस्थानों में पाकिस्तान के अध्ययन के लिए एक अच्छा विभाग नहीं है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इसके लिए एक छोटा-मोटा विभाग था,वह अब और भी खराब हो गया है। हमेशा चिल्लाते हैं कि हमें सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान से ही है,मगर अभी तक उस मुल्क के बारे में सिलसिलेवार और व्यापक अध्ययन का एक भी केंद्र भारत में नहीं है। सिर्फ इसलिए कि हम उसे नहीं चाहते। हमारी एक मान्यता बन गयी कि वह मुल्क खराब है इसलिए पाकिस्तान के बारे में जानने को क्या रह गया है!
समाज विज्ञानी होने के नाते आपकी दृष्टि में भारतीय मध्यवर्ग की क्या भूमिका होने वाली है?
हर देश के मध्यवर्ग से कुछ ऐसे लोग निकलते हैं जो इन विषम स्थितियों में नये विकल्प और संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। यह वर्ग दिग्दर्शन भले ही न करे, मगर समाज को संकेत देता है, कुछ सूत्र बताता है। लेकिन हमारे मध्यवर्ग की यह क्षमता कमजोर हुई है। इसका कारण मुझे मध्यवर्ग में शामिल हुए वे नये लोग लगते हैं जो लोकतंत्र में सफलता के किस्सों की तरह हैं। लोकतंत्र की अपनी विशेषताओं की वजह से हमारे यहां इस वर्ग का दायरा बड़ा हो गया है। पिछले 40-45वर्षों से मध्यवर्ग में नब्बे प्रतिशत से अधिक उंची जातियां शामिल थीं,लेकिन इस वक्त मध्यवर्ग में आधी आबादी निम्न मध्यवर्ग की है। इसलिए इस तबके का समाजीकरण पूरा नहीं हो पाया है। नतीजा यह हुआ कि पुराने मध्यवर्ग का जो मानक था उसके हिसाब वे अब चलते नहीं हैं।
पहले मध्यवर्ग के घरों में जाने पर शास्त्रीय गायकों के भी कैसेट मिल जाया करते थे, दो-चार स्तरीय किताबें भी बुकशेल्फ में हुआ करती थीं,लोग सत्यजित राय का भी नाम जानते थे। बताने के लिए ही सही, उनके यहां मूल्यों को बचाने वाली ऐसी चीजें मिल जाया करती थीं। इस ढोंग में भी पुरानी अच्छी चीजों को बचाये रखने का एक मूल्य था। लेकिन अभी जो मध्यवर्ग आया है,इसमें वह लिहाज भी नहीं है। उपभोक्तावाद और चौबीस घंटे का मनोरंजन इसकी फितरत बन चुकी है। कहने का मतलब यह कि जो नया मध्यवर्ग उभरकर आया है उसके सांस्कृतिक मूल्य उस वर्ग के नहीं हैं, सिर्फ आर्थिक स्थिति बेहतर होने की वजह से वह मध्यवर्ग का हो गया है। एक संस्कृति-संपन्न मध्यवर्ग बनने के लिए कम से कम दो पीढ़ियों की जरूरत है। यही असल समस्या है भारतीय मध्यवर्ग की।
क्या संपन्न तबके के इस रवैये से समाज में वंचित तबकों का हिंसा में लगातार भरोसा बढ़ रहा है?
यह हो रहा है और आश्चर्यजनक ढंग से,तेजी से हो रहा है। पहले समाज का पढ़ा-लिखा आदमी सामाजिक समस्याओं पर सोचता था,गांव के गरीबों,वंचितों की भलाई हो इसमें अपनी ऊर्जा लगाता था। आज संपन्न तबके के बीच 'इन बातों को छोड़ो और भूल जाओ' का सामाजिक चलन बढ़ता जा रहा है। उन्हें लगता है कि बेजवह उनकी खुशहाल जिंदगी में वंचित लोगों के बारे बात कर बोझिल बनाया जा रहा है। वे उपभोक्तावादी जीवन में इतना रचबस गये हैं कि उन्हें और कुछ भी मंजूर नहीं।
कई स्तरों की समस्याओं से जूझ रहे हमारे देश के मध्यवर्गीय परिवारों में आम बात है कि वे बच्चों को अमेरिका-इंग्लैड भेजना चाहते हैं। लोग पहले भी विदेश जाते थे,मगर देश में वापस आकर कुछ करना है, इस बारे में भी सोचते थे। फिलहाल हालत यह है कि जो देश में भी है, वह विदेश के सपनों और साधनों में जीता है, जो चले गये हैं उनके वापस आने की बात कौन करे! मां-बाप को भी लगता है कि उनके बच्चों को संपूर्ण सुरक्षा मिल गयी है और उनका सामाजिक स्तर ऊपर उठ गया है।
मौजूदा सामाजिक स्थिति और मध्यवर्ग की बदलती सोच का दो टूक सच यह है कि भारत एक पिछड़ा हुआ अमेरिका या यूरोप बन चुका है। ऐसे में मध्यवर्ग बस इतने की तैयारी में लगा है कि जब तक भारत यूरोप या अमेरिका नहीं बनता, तब तक सिर्फ उन देशों में जाने वालों की पौध तैयार करते रहो।
द पब्लिक एजेंडा से साभार
अजय जी इस साक्षात्कार को कुठ सासंदों को फारवार्ड करें। अमेरिका की नकल करने वाले सांसद बिल क्लिंटन से सीख लें। मैं नंदी के उस जवाब की ओर इशारा कर रहा हूं जिसमें उन्होंने हमें स्लम इलाके में क्लिंटन द्वारा ऑफिस खोलने की सूचना दी है।
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