संजय स्वदेश
भगत सिंह का बलिदान दिवस 23 मार्च अब बीत चुका है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के श्रद्धांजलि की खबर भी छप चुकी होगी.शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण भी हो चुका होगा। कहीं संगोष्ठी हुई होगी तो कहीं भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही गयी होगी. फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा।
मगर भगत सिंह के विचारों से किसी का कोई लेना देना नहीं होगा. यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
बाएं से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव : मुल्क के लिए कुर्बानी |
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकतर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था-जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती हैं तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं का जवाब था - भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी दो साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इसलिए जानते थे,क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
दैनिक नवज्योति के कोटा संस्करण से जुड़े संजय स्वदेश देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व पोटर्ल से लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं.उनसे sanjayinmedia@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.