Aug 11, 2010

चिदंबरम की इजाजत के बगैर आजाद की हत्या नहीं !



माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय  प्रवक्ता रहे आजाद की हत्या को लेकर कल भी संसद में सवालों का क्रम जारी रहा। वित्तमंत्री से गृहमंत्री बने पी चिदंबरम ने संसद में भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के सवाल पर कहा कि ‘मामला प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र का है,केंद्र कैसे जांच के आदेश  दे सकता है।’आजाद की हत्या के बाद देश में जारी गहमा-गहमी के मद्देनजर देखें तो इस मामले में तीन पक्ष उभरकर सामने आते हैं। पहला माओवादियों का,दूसरा सरकार का और तीसरा इन दोनों की कड़ी बने स्वामी अग्निवेश का। माओवादी कहते हैं-आजाद की हत्या सरकार ने की है,सरकार कहती है-उसने मुठभेड़ में मारा है और अग्निवेश  साफ संदेह व्यक्त करते हैं कि जिस दिन वे माओवादियों की ओर से 72 घंटे के युद्धविराम की तारीख घोषित  करने वाले थे, उससे पहले ही खुफिया एजेंसियों ने आजाद को ट्रैप कर लिया था और सरकार ने हत्या का मन।

सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश से अजय प्रकाश  की बातचीत


माओवादी प्रवक्ता आजाद और स्वतंत्र पत्रकार हेमचद्र पांडे की हत्या के बाद जब आप केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम से मिले तो शांतिवार्ता की क्या संभावना जान पड़ी?

कोई संभावना नहीं दिखी और निराषा हुई। मैंने उनसे पूछा कि माओवादियों की तरफ से शांतिवार्ता की अगुवाई कर रहे आजाद की हत्या क्यों की गयी तो,चिदंबरम साहब ने कहा कि यह सवाल आंध्र पुलिस से पूछिये। मामला राज्य सरकार का है इसलिए इस बारे में मैं कोई जवाब नहीं दे सकता। उनके व्यवहार से ऐसा लगा कि वे शांतिवार्ता  के लिए अब इच्छुक नहीं हैं।

आपको लगता है कि आजाद की हत्या केंद्रीय गृहमंत्री की इजाजत के बगैर पुलिस कर सकती है?

मुझे भी संदेह है। क्योंकि जब चिदंबरम ने कहा उस वक्त भी और अभी भी मुझे विश्वास  नहीं है कि बगैर उनकी इजाजत के आजाद की हत्या पुलिस ने की होगी।

आजाद पर इनाम था इसलिए सरकार ने मार डाला, पत्रकार हेमचंद्र की हत्या क्यों की गयी?

इसी सवाल पर चिदंबरम ने मुझे माओवादियों के उत्तरी क्षेत्र के नेता अजय का बयान दिखाया जिसमें लिखा था कि हेमचंद उनकी पार्टी का सदस्य था। मगर मैंने हेमचंद्र को लेकर गुड्सा उसेंडी के बयान की चर्चा की तो वह चुप हो गये। मुझे ऐसा लगता है कि हेमचंद्र की हत्या उस अपराध के अकेले चश्मदीद  होने की वजह से कर दी गयी ताकि कोई सबूत शेष  न रह जाये।

गृहमंत्री ने जांच के बारे में कोई आश्वासन  दिया?

जांच की मांग को स्पष्ट  रूप से इनकार कर गये। यह बताने में लगे रहे कि माओवादियों ने पिछले एक साल में मुखबीर होने के शक में 142 हत्याएं कीं, आपलोग इनकी जांच की मांग क्यों नहीं करते। मैंने कहा कि आप सरकार हैं, इसकी जांच कीजिए। हम तो हमेषा ही हिंसा के विरोधी रहे हैं। लेकिन इस बहाने आजाद और हेमचंद्र की हत्या की जांच की बात टरकाते रहे। अंत में उन्होंने कह दिया कि यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता,आंध्र प्रदेश की गृहमंत्री से मिलिये।

हेमचंद्र को आप किस आधार पर पत्रकार मानते हैं?

जैसे ही मुझे सूचना मिली की आंध्र प्रदेश के जंगलों में पुलिस की हत्या का शिकार एक उत्तराखंड का पत्रकार भी हुआ है तो मैंने तत्काल इसकी तस्दीक उत्तराखंड के जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता शाशेर सिंह बिष्ट से की। उन्होंने कहा कि ‘मैं उसे और उसकी पत्नी बबीता दोनों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और वह पत्रकार था।’इसी आधार पर मैंने चिदंबरम साहब से कहा कि पत्रकार हेमचंद्र माओवादी नहीं था।

माओवादियों और सरकार से वार्ता को लेकर कुछ बातें साझा करने के लिए 18जून को आपने प्रेस कांफ्रेंस रखी थी जिसे ऐन मौके पर टाल दिया गया?

हम माओवादियों से मिले पत्र के आधार पर 10,15और 20जुलाई को यानी इन तीन तारीखों में से किसी एक तारीख को 72घंटे के युद्धविराम के लिए घोशित करने वाले थे। उन्होंने मुझे इतनी छूट दी थी कि इन तीन में से जो भी तारीख मैं घोशित करूंगा,पार्टी उसे स्वीकार कर लेगी। मगर उसकी पूर्व शर्त थी कि सरकार भी कुछ कदम आगे बढ़े, जिसका बहुत साफ आश्वासन  चिदंबरम साहब ने दिया था। मगर बाद में हमें लगा कि माओवादी वार्ता के लिए इच्छुक हैं, पर सरकार कुछ चाहती ही नहीं है। ऐसे में मेरे लिए संकट हो गया कि मैं उस दिन प्रेस कांफ्रेंस में क्या कहूंगा और मुझे ऑस्ट्रेलिया जाना पड़ा।

क्या आपको लगता है कि सरकार आजाद को पकड़ने की पहले ही तैयारी कर चुकी थी और इसके लिए सरकार ने आपका उपयोग किया है?

इसका कोई प्रमाण तो नहीं है,लेकिन मुझे लगता है कि खुफिया एजेंसियां कांफ्रेंस की तारीख तक आजाद को ट्रैप कर चुकी थीं। इस संदेह का सबसे पुख्ता कारण उस कांफ्रेंस का टलना है जिसमें सरकार को भी वार्ता के लिए समान दिलचस्पी दिखानी थी। पहले इसकी भनक होती तो मैं यह गलती कभी नहीं करता। सरकार ने उपयोग तो किया ही, मुझे यह भी लगता है कि तैयारी भी कम थी। अब जबकि दोबारा मैं चिदंबरम से मिलकर आ चुका हूं, कह सकता हूं कि सरकार इस समस्या को सुलझाने के प्रति गंभीर नहीं है। वह उलझाये रखने में अपनी सफलता देख रही है।

इस सिलसिले में आपका अगला कदम क्या है?

हमें लग रहा है कि देश को सरकार के भरोसे छोड़ने के नागरिक शक्ति  जगानी चाहिए। यह नागरिक शक्ति  ही शासकों  को मुल्क की जरूरत बतायेगी। इसकी शुरूआत हमलोग क्रांति दिवस के मौके पर कलकत्ता से 9अगस्त पदयात्रा से कर रहे हैं। इसमें देषभर के गांधीवादी और शांति चाहने वाले लोग शामिल होंगे और लालगढ़ पहुंचकर 15 अगस्त को तिरंगा फहरायेंगे। यहां पिछले 2 वर्षों  से धारा 144 लगी हुई है। यह एक राश्ट्रीय स्तर का आंदोलन होगा जिसे इस विश्वास से खड़ा किया जायेगा कि सरकार की शर्तों पर नागरिक समाज नहीं,बल्कि समाज की जरूरतों से सरकार चलेगी।

(द पब्लिक एजेंडा में छपे साक्षात्कार  का संपादित अंश)  


शारीरिक परिवर्तन, सामाजिक विद्वेष


उन अपवित्र हाथों के छूने से अचार खराब हो जाता है।  फूल वाले पौधों और तुलसी को महिलाएं पानी नहीं देतीं और न ही उनके पास बैठती हैं। मुझे याद है कि तुलसी का गमला रास्ते से हटाकर ऐसी जगह रख लिया जाता था, जहां अपवित्र महिलाओं की परछाईं  न पड़े। माहवारी और बच्चा जनने के दौरान पंजाब-हरियाणा की महिलाओं को किन स्थितिओं से गुजरना होता है,बता रही हैं युवा  पत्रकार...

मनीषा भल्ला

मासिक धर्म जवान हो रही किसी भी लड़की के जीवन की ऐसी घटना है जिसके बाद फिर वह सभी की 'लाडली' नहीं रह जाती। मां का ही अपनी बेटी के प्रति नजरिया बदल जाता है। मां को लगता है कि आज के बाद से बेटी के प्रति समाज की नजरें बदल जाएंगी।

 मां अपनी बेटी को तरह-तरह की हिदायतें देने लगती है। उठने- बैठने के तरीके सिखाने लगती है। कई घरों में मांओं को दूसरे रिश्तेदारों से फुसफुसाते देखा जाता है। मां अचानक चिंतित हो जाती है। वह इसे शारीरिक परिवर्तन कम सामाजिक परिवर्तन ज्यादा मानती है। अबोध बच्ची को लगता है कि पता नहीं उसके साथ क्या हो गया है और अब न जाने क्या हो जाएगा। यहां तक कि मैंने मांओं को रोते देखा है कि बेटी अब जवान हो गई है।


 पंजाब और हरियाणा में घूमते दस साल बीत गए। बचपन में गांव (पंजाब में) काफी आना-जाना रहता था। इसलिए उस परिवेश का अहसास है। पंजाब और हरियाणा दोनों खेती के लिहाज से देश के विकसित राज्य हैं। प्रतिव्यक्ति आय, तकनीक, रुपया और डॉलर दोनों बरसते हैं यहां। गुड़गांव जैसे जिलों में आसमान छूती इमारतें विकास की इबारत लिख रही हैं, मगर यह अधूरा सच है। इन्हीं राज्यों के बाशिंदों को बेटियों का पैदा होना मंजूर नहीं। कन्या भ्रूणहत्या में सबसे आगे हैं ये दोनों राज्य। यानी महिलाओं के मामले में इस समाज के एक तबके की सोच अभी भी पुरानी और दकियानूसी है।

सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो इन राज्यों के ज्यादातर घरों में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अलग-थलग कर दिया जाता है। हरियाणा में इस दौरान महिलाएं घर, खेत और पशुओं का काम तो करती हैं, लेकिन कुछ कामों से उन्हें वंचित कर किया जाता है। हरियाणा और पंजाब दोनों राज्यों में महिलाएं मासिक धर्म के दौरान अचार को हाथ नहीं लगातीं,क्योंकि उस समयावधि में उन्हें पवित्र नहीं समझा जाता है और माना जाता है कि अपवित्र हाथों के छूने से अचार खराब हो जाता है। तब फूल वाले पौधों और तुलसी को महिलाएं पानी नहीं देतीं और न ही उनके पास बैठती हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से फूल मुरझा जाते हैं। मुझे याद है कि हमारी एक रिश्तेदार तुलसी का गमला रास्ते से हटाकर ऐसी जगह रख लेती थी जहां माहवारी के दौरान लड़कियों और महिलाओं की उस पर परछाईं भी न पड़े।

इन महिलाओं का पूजा-पाठ या किसी भी शुभ माने जाने वाले काम में शरीक होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। शादी के दौरान शगुन की रस्मों में वो शरीक तो होती हैं, लेकिन उनकी कोई भूमिका नहीं होती। मसलन, वह दूल्हे या दुल्हन को हल्दी नहीं लगा सकती, प्रसाद नहीं बना सकती। किसी ऐसी चीज को हाथ नहीं लगा सकती जो पूजा की हो। शादी के सामान को हाथ नहीं लगा सकती।


 मासिक धर्म के दौरान महिला किसी नवजात बच्चे को तक गोद में नहीं ले सकती। मुझे याद है कि जब मेरी बहन की बेटी हुई थी तो उसे देखने के लिए घर में जो भी महिला रिश्तेदार आती थी,मेरी नानी उससे बाकायदा पूछती थीं 'तुम ठीक हो न...'। नानी कहती हैं कि नवजात को ऐसी औरत गोद लेती है तो बच्चे पर भूत-प्रेत का साया आ जाता है।

परिवार के लिए मासिक धर्म न हुआ,हौवा हो गया। मां ही बेटी से इस बारे में बात नहीं करती तो पिता या भाई का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। खासकर ग्रामीण हरियाणा में ज्यादातर मांएं इस बारे में लड़कियों से बात करना सही नहीं समझती। सबसे ज्यादा दिक्कत उन बच्चियों को होती है जिन्हें पहली बार माहवारी होती है। ग्रामीण लडकियां नैपकिन इस्तेमाल नहीं करतीं,ऐसे में घर में उनके लिए अपने गंदे कपड़े धोना,बार-बार कपड़ा बदलना या गंदे कपड़े फेंकना मुश्किल हो जाता है। वह गंदे कपड़े छुपाकर रखती हैं और नजरें बचाकर उसे फेंकती हैं। यही नहीं,ज्यादातर लड़कियों को जब पेट दर्द और उल्टियां होती हैं तो मैंने खुद देखा है कि परिवार में कोई दवा कराना तो दूर, उनका हाल भी जानना मुनासिब नहीं समझता।

हरियाणा में माहवारी के दिनों में महिलाएं खाना तो बनाती हैं,लेकिन आज भी कुछ ब्राह्मण,राजपूत और बनिया जातियों  में महिलाओं को चौका करने की इजाजत नहीं है। ग्रामीण पंजाब में कई घरों में माहवारी से गुजर रही महिलाओं की जूठन नहीं खाई जाती,उनके बर्तन अलग होते हैं। इसे छूआछूत माना जाता है। इनके हाथ से कोई खाने की चीज नहीं ली जाती।

कमोबेश यही हालात तब होते हैं जब महिलाएं बच्चे को जन्म देती हैं। दोनों ही राज्यों में जच्चा-बच्चा को घर का सबसे पीछे का अंधियारा कमरा दिया जाता है। जो न तो हवादार होता है और न वहां कोई आ सकता है। हवादार इसलिए नहीं क्योंकि माना जाता है कि जच्चा को हवा नहीं लगनी चाहिए। इससे जच्चा का शरीर फूल सकता है या फिर उस पर कोई बाहरी हवा (भूत-प्रेत)लग सकती है। पंजाब में कहा जाता है कि छिले (बच्चा पैदा होने के बाद सवा महीने का समय)की एक अलग महक होती है, जो भूतों को आकर्षित करती है। इसलिए जच्चा के सिरहाने लहसुन बांधा जाता है, तो कभी कोई तावीज।

पंजाब में माना जाता है कि अंधेरे कमरे में जच्चा-बच्चा को इसलिए भी रखा जाता है क्योंकि बच्चे की लैटरीन और बच्चे के दूध को किसी की नजर न लग जाए। औरत के कच्चे शरीर में हवा न घुस जाए। हरियाणा में दस दिन तक जच्चा को रोटी नहीं दी जाती। कहते हैं कि महिला के रोटी खाने से जो दूध बच्चा पिएगा उससे बच्चा अंगड़ाईयां लेगा। ऐसे में महिला को छिओणी दी जाती है। जो गर्म पानी में देसी घी मिलाने से बनती है। पंजाब में भी महिला को कुछ दिनों तक खाने के लिए नहीं दिया जाता है। उसे सिर्फ पंजीरी और दूध दिया जाता है।