वे रोती हैं,बिसरती हैं मगर सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं होता.यह न कोठे पर हैं,न बाजार में. घर और परिवार के बीच बेबसी की बुत बनी इन औरतों की पीडा और इस क्रम में टूटते जातीय-सामंती दुर्ग को चित्रित करती यह रिपोर्ट...
अजय प्रकाश
नब्बे के दशक के उतरार्द्ध में इस तरह की शादियों का चलन शुरू हुआ। हरियाणा के मेवात क्षेत्र में खरीदकर ब्याही गयी दुल्हनों को 'पारो' कहा जाता है। बेशक इस इलाके की हर पारो का चन्द्रमुखी के एहसास से गुजरना नियती है। यहां कौन अपना, कौन पराया वे किसको कहें। यहां के रिवाज नये हैं, बोली और माहौल नया है। पति है मगर उससे वह दो बात नहीं कर सकती।
करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है। हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है।
वह खरीदी गयी पुजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पुजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पुजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पुजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे।
करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है। हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है।
वह खरीदी गयी पुजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पुजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पुजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पुजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे।
हरियाणा,पंजाब,राजस्थान तथा पश्चिमी उतर-प्रदेश के सैकडों गांवों में देश निकाला का जीवन बसर कर रही हजारों महिलाओं की यह पीडा शब्द किस तरह बयां कर पायेंगे। जब वह पानी भरती है तो गांव के युवक ऐसे घुरते हैं जैसे वह सबकी रखैल हो। सच कहा जाये तो 'नानजात के मेहरारू गांव भर की भौजाई'वाली हालत में रहना भी इनके नारकीय जीवन के दैनन्दिन में शामिल है। पानी के लिए कुंए पर जमा महिलाएं बातों-बातों में कितने तरीके से बेइज्जत करती हैं उसका अहसास जीते जी पारो को मार डालता है। फिर भी जीती है।
'बबीता' अपने गांव का हनुमान मंदिर पार करते वक्त मन्नत मांगी थी कि बच्चा लेकर वापस आयेगी तो लडडू चढायेगी। इस बीच बबीता को दो बच्चे हुए मगर उसे याद नहीं कि जी भर कर कभी उन बच्चों को देख पायी हो। होठों को भींचते हुए बबीता कहती है 'दूध पिलवाकर सास उठा ले जाती है,सास को डर है कि मेरे साथ रहकर बच्चा काला हो जायेगा।'पूछने पर कि क्या वह गांव वापस जायेगी। वह कहती है,'क्या करूंगी घर जाकर चाय बागान बंद हो गये, दूसरा मेहनत-मजदूरी का कुछ रहा नहीं। वहां मैं भूखों मर जाउंगी और यहां जीते जी मर रही हूं।'
यह कहना गलत बयानी होगी कि पूजा को इस बीच कुछ नहीं मिला। हर नये घर में उसे लोग मिले,पानी की जगह दूध और साथ में बख्शीश के तौर पर दो से तीन साल तक पति का प्यार। वह इसलिए क्योंकि इतना वक्त एक बच्चे को पैदा होने और उसे छोड्कर जाने में लग ही जाता है। ऐसे में दी जाने वाली कठोर यातना तथा यंत्रणा कई बार दिमागी रूप से असंतुलित भी बना देती है।
यह सब कुछ हरियाणा के दर्जनों गांवों का नया यथार्थ है। आखिरकर ताउ ने खरीदा भी इसीलिए था कि सूने घर में किलकारी गूंजे, न कि खरीदी गयी औरत की अटखेलियां और हंसी की खनखनाहट। 'उसकी' हंसी की खनखनाहट ताउ के कानों को बर्दाश्त नहीं है क्योंकि वह अपनी कुल बिरादरी की नहीं है। ताउ की नाक फनफना उठती है जब वह बंगाल के न्यू जलपाईगुडी में बहू के खोज का संस्मरण सुनाता है।
माछभात की गंध,कालेठिगने लोगों के सामने दयनीय सा चेहरा बनाकर ताउ को यह कहना कि 'हम तुम्हारी बेटी के साथ ब्याह करने के बाद जीवन भर रहेंगे ताऊ को बेहद नागवर गुजरा था।'अब नागवार गुजर रही है दीपा। शादी के दो साल बाद भी वह मां नहीं बन सकी है। घरूंडा गांव का कुलवीर इस फिराक में है कि अब कोई बंगाली,बिहारी या असमिया लड्की सस्ते रेट में मिले कि वह दूसरी को ले आये और दीपा को खदेडे। 16वर्ष की दीपा की शादी 40 वर्षीय कुलवीर से 2004 में हुई थी।
कुछ वर्षों से घटित हो रही सामाजिक परिघटना का मुख्य कारण हरियाणा,पंजाब में घटता लिंगानुपात है। आंकडों की माने तो हरियाणा में एक हजार में एक सौ तीस बिना शादी के रह जाते हैं। विशेष तौर पर हरियाणा के हिसार जिले में एक हजार लडकों के मुकाबले 851लडकियां ही हैं। लडकियों की यह संख्या दलित जातियों में लिंगानुपात एक तक सुतुलित होने के चलते है। नहीं तो सिर्फ हरियाणा के सवर्ण और पिछडी जातियों के लिंगानुपात के औसत आनुमानित से भी काफी कम होंगे।
दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि टैफिकिंग की गिरफत में आने वाली ज्यादातर लडकियां दलित समुदाय की होती हैं। 2004में बिहार की 'भूमिका'नामक स्वयं सेवी संस्था ने 173मामलों का अध्ययन किया। अपनी जारी रिपोर्ट में संस्था ने लिखा कि टैफिकिंग में जहां 85प्रतिशत किशोरी हैं वहीं इतना ही प्रतिशत दलित लडकियों का भी है।
कुलवीर कहता है 'म्हारी जाति में बंगाली से ब्याह जात्ते हैं। पांच दस हजार देवे हैं और बहू घर मैं। अपणी जाति की छोरी रही कहां। जो थोडी हैं वे भी जमींदारों की बहू हौवे हैं। म्हारी हरियाणा की तो तस्वीर बदलै है, छोरियों के बाप्पों को दुल्हा वाला पैसा देवै हैं।
हरियाणवी में कुलवार की कही ये बातें न सिर्फ उसकी कहानी बयां करती हैं बल्कि इसका भी प्रमाण हैं कि भ्रूण हत्याओं के बाद शादी के लिये लड्कियों की कमी ने बहुत हद तक हरियाणा के सामाजिक'सांस्क2तिक परिवेश की संरचना को तोडा है और समाज पहले के मुकाबले और स्ृी विरोधी हुआ है। पूरे हरियाणा में टैफिकिंग करके ब्याहने का पिछले कुछ सालों में चलन बढा है। शुरू के वर्षों में काम्बोज, रोर, डोबर गडरिया और ब्राहमण युवक ही बहका के लायी गयी लडकियों को खरीदकर ब्याहते थे। अब जाटों में भी यह चलन तेजी के साथ फैल रहा है।
हरियाणा के जिला जींद का सण्डील गांव जहां ऐ जाट को गांव से बाहर बसना पडा था,क्योंकि उसने उपयुक्त गोतर में शादी नहीं की थी। आमतौर पर जाति को लेकर कटटरता बघारने वाले हरियाणवी जाटों के यहां मातर दो'तीन वर्षों के दौरान इतना परिवर्तन हुआ कि सण्डील गांव के ही तीन जाट परिवारों के यहां झारखण्ड के पलामू और गुमला जिले से लायी गयी आदिवासी लडकियों की शादी हुई है।
सण्डील गांव में जब 'दि संडे पोस्ट संवाददाता'ने जाटों से ब्याही आदिवासी लडकियों से बातचीत करनी चाही तो घर वालों ने मना किया। बताते हैं कि इस गांव के बगल वाले गांव में किसी ने बहकाकर लायी गयी नाबालिग लनडकी से शादी की थी। बाद में असम के डिग्रूगढ जिले से आये उसके मां'बाप अपने साथ ले गये। उल्लेखनीय है कि गांव वाले जब इस घटना को सुना रहे थे तो उन्हें अफसोस इस बात का नहीं था कि फलां गांव की इज्जत चली गयी बल्कि उनकी चिंता का विषय वह पैसा था जो उसके घर वालों ने शादी से पहले लडकी के बदले दलालों को दिया था।
सरकार द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा के बाद से उजी बहुमंडी का प्रमुख क्षेतर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों असम, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और आंध प्रदेश का भी है। इक्कसवीं सदी की इस नयी मानव मंडी के खरीददार देश के समद राज्य पंजाब,हरियाणा और पश्िचमी उत्तर प्रदेश के क्षेतर हैं। ऐसा नहीं है कि यह तीन ही क्षेतर हैं बल्कि बहू मंडी के नये बाजार में राजस्थान का हनुमाननगर और श्रीगंगानगर जिला भी शामिल है। पाकिस्तान की सीमा से लगा श्रींगंगानगर राजस्थान का वह जिला है जहां लैंगिक अनुपात सबसे कम है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 2003में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर वर्ष दर्ज किये गुमशुदा लोगों में ग्यारह हजार महिलाएं तथा पांच हजार बच्चे शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में शामिल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पीएम नायर ने यह भी कहा था कि सह संख्या तब है जबकि ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते। रिपोर्ट के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मातर 7 प्रतिशत पुलिसकर्मी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेते हैं।
गंडगांव के मेवात गांव के बारे में यह नहीं बताया जा सकता कि वहां टरेफिकिंग करके लायी गयी लडकियों की ठीक'ठीक संख्या कितनी है। हजारों की संख्या में बहू के तौर पर दर्जा पायी औरतें इस गांव में रह रही हैं। इस गांव में ही तीन बच्चों की मां बन चुकी रेहाना झारखण्ड की है। शारीरिक बनावट से आदिवासी लगी रेहाना ने बताया कि वह संथाल आदिवासी है। नाम इसलिए रेहाना हुआ कि शादी मुस्लिम परिवार में हुई। अपने हालात पर बोलने के लिए उसके पास कुछ नहीं है।
वह कहती है कि बताने वाली क्या बात है। पूरे मेवात में हर दो घर छोड आदिवासी ही तो बहू हैा मेरा शौहर अच्छा है वरना कई तो बच्चे होने के बाद छोड देते हैं। छोडने के बाद वे औरतें कहां जाती हैं,के जवाब में वह कहती है कि वहीं जायेंगी जहां एक अबला की जगह होती है। औरत बाप की है,पति की है अगर इन दोनों की नहीं है तो कोठे की है।
एक आंकडे के अनुसार देश में चल रहे देह व्यापार के धंधे में 80प्रतिशत बहकाकर लायी गयी महिलाओं को भरा जाता है। कहा जाता है कि टरेफिकिंग एक भूमंडलीय समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने महिलाओं को देह की नयी मंडी में ला खडा किया है। संगठित अपराध और डरग के धंधे को बढाने में टरेपिफकिंग तीसरे सबसे बडे सहयोगी की भूमिका निभाता है।बकरियों व गायों के रेट पर खरीदी जाने वाली इन लडकियों की कीमत चार हजार से बीस हजार के बीच है।
पूर्वोतर के राज्यों तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र में जहां असम बडी मंडी है वहीं देश की राजधानी दिल्ली वितरण का प्रमुख केन्द्र है। जगजाहिर तथ्य है कि दिल्ली में हजारों की संख्या में कुकुरमुत्तों जैसी प्लेसमेंट एजेंसियां मुख्य तौर पर टरेफिकिंग का ही काम करती है। शारीरिक बनावट और सुंदरता के हिसाब से दिल्ली में उनकी कीमत लगती है और वे खरीददारों के घर रवाना कर दी जाती है।द्य वैसे एक बडी संख्या खरीददारों की ऐसी भी है जो सीधे आदिवासी क्षेतरों में पहुंचते हैं,नाबालिगों से शादी करते हैं,मां'बाप को कुछ हजार रुपये देते हैं और ले आते हैं एक बच्चा पैदा करने की मशीन।
जब दलाल उन्हें दो'तीन हजार किलोमीटर दूर से दिल्ली तक लेकर आते हैं,उस बीच कम से कम चार'पांच बार उनका बलात्कार हो चुका होता है। इस बात को उन मर्दों की निगाहें जानती हैं जो खरीदने के बाद उन लडकियों से शादी करते हैं। इसलिए कभी वे उन्हें मानसिक तौर पर अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देते।
उदाहरण के लिए हरियाणा के शाहाबाद गांव का अविवाहित बीए पास युवक जब यह कहता है कि उन्हें हम पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो औरत बिन मां'बाप के इतनी दूर लायी गयी हो जिसकी न मिटद्यटी अपनी हो न भाषा। वह पता नहीं पहले कितनों की पत्नी रह चुकी है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में वेश्यावरति की इस नयी मंडी ने सामाजिक जकडबंदी को और ज्यादा बल दिया है। औरत धंधे में अपने को बचाने के लिए तो आजाद है। मगर यह बाजार तो बंधुआ देह व्यापार के चलन को पैदा कर रहा है।दिल्ली के जीबी रोड स्थित कोठा नम्बर इकतालिस पर कुछ महीने पहले आयी मोना कभी पंजाब के मंसा गांव की बहू रही थी जो शादी के बाद अपने तथाकिाित पति के अलावा देवरों और ससुर के हवस का शिकार होती रही। वह इस कोठे पर भाग कर आयी है.
इन सभी मामलों से एक अलग ही मामला आया जिसमें घर वाले पुलिस को खरीदकर लायी गयी लडकी को सौंपने के लिए तैयार नहीं थे। हरियाणा के पोपडा गांव में ब्याही गयी नाबालिग लडकी ने मां'बाप के साथ पुलिस ने दबिश दी थी। घर वालों ने कहा कि हम क्यूं दें। हमने इसका पैसा अदा किया है। सासू तो रोने लगी और कहती है कि हमारा तो एक ही लडका है और हमने जमीन बेचकर बारह हजार में लडकी खरीदी है। अब तो यही हमारी संपत्ति है। हमने तो इसलिए ब्याहा था कि इससे एक लडका हो जायेगा,पीढी चल पडेगी।
यह हालात अकेले किसी लडकी की नहीं बल्कि मेवात क्षेतर में ब्याहने वालों की गैंग इतनी सकीरय है कि वे मीडिया की भनक लगते ही सावधान हो जाते हैं। पुलिस वाले भी इन क्षेतरों में घुसने से हिचकते हैं। शक्तिशालिनी के निदेशक ऋषिकांत ने बताया कि सिर्फ चुनौती इतनी नहीं है कि उन लडकियों को चिन्हित किया जाये जो नाबालिग हैं तथा टरेफीकिंग के लिए लायी गयी हैं। बडी चुनौती है उन्हें मुक्त कराने की है। kshetra की पुलिस भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती कारण कि कई बार तो आरोपी पुलिसवालों का रिश्तेदार निकलता है।
यातना की जिंदा लाशें
यातना की जिंदा लाशें
करनाल जिले के सदर क्षेत्र में उपलों से भरी सडकों के बीच एक बडे अहाते वाली इमारत घर जैसी थी। वहां बच्चों की धमाचौकडी के बीच लडके सिलाई करते दिखे और लडकियां अपने कामों में व्यस्त। यह फैक्टरी नहीं थी और न ही किसी बडे परिवार का अहाता ही। वह एमडीडी अनाथाश्रम था जहां भूले-भटके, बेठिकाना बच्चे पनाह पाते हैं।
'लाओ-दे दो---छिपाओ नहीं। मैं जानती हूं तुम लाये हो और उसने भेजा है।' यह कहते हुये एक 15वर्षीय लडकी ने संवाददाता का बैग छीन लिया। अजनबी के साथ की गयी हरकत को देख छोटे बच्चे हंसने लगे और थोडे बडे बच्चे संजीदा हो गये। संचालक पीआर नाथ बैग सुरक्षित वापस ले आये और कहा कि मुमताज,बदला हुआ नाम के इस व्यवहार के लिये माफी चाहूंगा।
जब भी कोई नया आदमी आता है वह उसके साथ इसी तरह करती है। बच्चा मांगती है। नाथ ने बताया कि मुमताज को पुलिस छह महीने पहले सौंप गयी थी। मुमताज की शादी सोनीपत में किसी शुक्ला से हुयी। शादी होने के लगभग सालभर बाद एक रात वह बच्चा लेकर भाग गया। वहां मुमताज शुक्ला के साथ बतौर पत्नी किराये के मकान में रहती थी।
मुमताज से पता चला कि वह असल के सुपली जिला के पानपरी गांव के वाशिंदा मजीद की लडकी है। उसे नहीं पता कि उसे कब और क्यों लाया गया। इतना मालूम है कि जिस अपरिचित के साथ आयी उसने अब्बा को कुछ रूपये दिये और अम्मी उसका पल्ला नहीं छोड रही थी। शायद अम्मी जानती रही हो कि बेटी कहां जा रही है।
आश्रम में कुल चार नाबालिग लडकियां हैं,जिसमें से एक गर्भवती है। ठीक से बातचीत करने की स्थिति में मात्र 11वर्षीय रेखा ही थी। मध्य प्रदेश के रतलाम स्टेशन पर छोडकर वह व्यक्ति चला गया जो रेखा को मामा के घर ले जा रहा था। रेखा एक बुजुर्ग व्यक्ति के हाथ लगी जिसके चलते अभी वह आम लडकियों जैसी हालत में है।
रेखा गांव जाना चाहती है। वह हाथ जोडती हुयी कहती है 'मुझे रतनाम ले चलो।'रेखा की त्रासदी यह है कि घर का पता भूल गयी है। लेकिन खडगिया की गुंजनियां घर जाने के नाम पर रोनी सूरत बना लेती है। संचालक ने बताया कि जब यह आश्रम में तीन महीने पहले आयी थी तो इसकी हालत बेहद खराब थी। गुंजनियां भी अर्द्धविक्षिप्त जैसी है और उसे बच्चों से बेहद लगाव है। मानो उसका भी बच्चा किसी ने छीन लिया हो।
महिला वार्डन के सामने अकेले में की गयी बातचीत के दौरान गुंजनियां ने इशारे में बताया कि सात लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। उसे याद है कि पहली बार उसका बलात्कार बिहार के खडगिया जिले के एक चौराहे पर ठहरने के दौरान दलाल ने किया था। फिर दिल्ली आयी तो हरियाणा के करनाल जिले केकिसी गांव में पत्नी के रूप में रही। भाषायी समस्या के चलते उस व्यति का नाम भी नहीं जानती कि किसके साथ शादी हुई थी।