Aug 17, 2010

कात्यायिनी ने भिजवाया जवाब, विरोधियों को कहा 'हिज़डा'


पाठक जानते हैं कि पिछले दिनों हिंदी की कवयित्री कात्यायिनी अपने पति शाशिप्रकाश और बेटे अभिनव सिन्हा के संग मिलकर जिस रेवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत )नाम की क्रांतिकारी पार्टी चलातीहैं,उसपरइस  पार्टी सेजुड़े  रहे कार्यकर्ताओं  ने सवाल  उठाये  थे.उनके सवाल इसी वेब  की पिछली पोस्टों पर जाकर पढ़े जा सकते हैं.

 कार्यकर्ताओं ने साफ कहा था कि यह पार्टी एक पारिवारिक कुनबा है,जिसकाबुनियादी काम हर कीमत पर चंदा इकठ्ठा करना और किताबें छापना है.कार्यकर्ताओं ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि क्रांति और सामाजिक बदलाव के नाम पर कैसे यह संस्थाएं,निजी संपत्ति और पारिवारिक कुनबा खड़े कर रहे हैं.बातें बहुत तीखे अंदाज़ में कहीं गयीं थीं क्योंकि इनमें से ज्यादातर ने अपनी जवानी के महत्वपूर्ण साल शशिप्रकाश के चंगुल में बर्बाद किये थे.जाहिरा तौर पर एक के बाद एक लेखों के छपने से क्रांति की दुकान में खलबली मचनी ही थी,सो मची.इसके बाद हमें और शशिप्रकाश के कुनबे को  जानने वालों ने इनसे और हमसे पूछा कि यह कैसी गंध है.हमने जानने वालों से कहा" आपको इतने पर मिचली आती है,और हम हैं कि आदर्शवाद के नाम पर यह सच छुपाये हुए थे."कुछ ने मुखामुखी यह भी कहा कि इससे वामपंथ का नुकसान होगा, पर वह सामने नहीं आये.हालाँकि जिन्होंने शुरू में यह आशंका जाहिर कि थी कि इससे वामपंथ का नुकसान होगा,वह लेखों को देख हमारे साथ आये, कई वामपंथी संगठनों ने शुक्रिया कहा कि चलो दुकान की गन्दगी सामने तो आयी.

अपने पहले जवाबी लेख में कात्यायिनी के कुनबे के मुखिया शशिप्रकाश ने पहले जवाब में कवि नीलाभ को जिस तरह निशाना बनाया है,उसका मकसद सिर्फ साहित्यकारों को धमकाना है कि सामने आये तो 'प्रगतिशील' बना देंगे.

अब रहा हमारा सवाल तो उन्होंने हिजड़ा और बीबियों से डरने वाला कहा है.हमें उम्मीद है कि अगले जवाबों तक वह दो कदम आगे बढकर नैतिक चारित्रिक तौर पर पतित कहें क्योंकि इसके आलावा इनके पास कोई जवाब नहीं है.हम इन आरोपों से नहीं डिगने वाले हैं क्योंकि साहस  हमें समाज से मिल रहा है,जहाँ से हमारे काम और चरित्र दोनों पर कोई सवाल नहीं है. बहरहाल यह शशिप्रकाश की चौधराहट की  खीझ  से निकले  आरोप हैं. हमें याद है कि जब संगठन में हमलोग किसी कि संगठन छोड़ने पर पूछते  तो आरोप नैतिक ही लगाया जाता.जैसे फलां लाइन मारता  था, उसके पीछे पड़ा था, लड़कियों की सेवाटहल  ज्यादा करता था, लड़कीबाज था, किसी एक लड़की पर ठहरा ही नहीं और जब यह कहना नहीं बनता था तो शशिप्रकाश हंस कर कहतेकि 'उसकी ना पूछिए उसके  चारित्रिक पतन को यहाँ सह पाना अशंभव था...आदि.'

हमारी राय तो शशिप्रकाश को यह है कि वह आरोप नाम लेकर लगायें जिससे उनकी कलम को और ताकत मिलेगी.साथ ही उन्हें लड्किबाजों, गांडबाजों,पेटीकोट के भीतर घुसे रहने वालों कि गिनती में आसानी होगी और इसके लिए किसी को रातभर उनके साथ रूकना नहीं होगा.

पाठक माफ़ करेंगे.शशिप्रकाश ज्यादातर बार इसी तरह की पदवियों से नवाजते रहते हैं....प्रमाण की जरूरत होगी तो उसे भी हम प्रकाशित करेंगे.जनज्वार की कोशिश रहेगी कि यह बहस व्यापक परिप्रेक्ष्य में हो.

हालाँकि हमें कम उम्मीद है कि शशिप्रकाश,उनकी पत्नी कात्यायिनी,बेटा अभिनव,अभिनव के मौसा सत्यम वर्मा, मौसी रूबी, दूसरी मौसी मीनाक्षी (अरविन्द सिंह की पत्नी), तीसरी मौसी कविता और एक मौसी जिनका नाम याद  नहीं आ रहा है,यह लोग जवाब में यौन सुचिता के आरोप से आगे जायेंगे सम्भावना काम है.दरअसल रेवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग का (भारत ) में पार्टी विरोधियों से निपटने की  यही परंपरा है.


कात्यायिनी की ओर से जवाब

 जनज्‍वार पर पिछले दिनों एक कुत्सित बहस चलाई गई थी,उसमें 'प्रगतिशील' कवि नीलाभ ने भी अपने विचार प्रकट किए थे। उनकी बातों से मेरे मन में कुछ सवाल उठे,इसलिए  जनज्‍वार के संचालक को यह पोस्‍ट भेजी जा रही है ताकि वे अन्‍य प्रायोजित पोस्‍ट्स के साथ इस अप्रायोजित पोस्‍ट को भी स्‍थान दें।



कवयित्री कात्यायिनी
प्रिय नीलाभ जी,


जनज्‍वार के माध्‍यम से पता चला कि आप राजनीतिक दलों के न्‍यास आदि बनाने को सही नहीं मानते। आपने अपनी टिप्‍पणी में अपने इस विचार के पीछे कोई तर्क नहीं पेश किया है। यह जानने की बहुत इच्‍छा हो रही है कि राजनीतिक दलों को न्‍यास आदि क्‍यों नहीं बनाना चाहिए। क्‍या न्‍यास में ऐसे कीटाणु बसते हैं जो राजनीतिक दलों को भ्रष्‍ट कर देते हैं। क्‍या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि न्‍यास का उद्देश्‍य क्‍या है उसको कैसे संचालित किया जाता है और उसमें कौन लोग काम करते हैं। बस न्‍यास बना नहीं कि आप किसी राजनीतिक दल को विपथगामी घोषित कर देंगे। आपकी बात इतनी मजेदार है कि मेरी यह जानने की उत्‍सुकता बढ़ती ही जा रही है कि आप और किन-किन कामों को राजनीतिक दलों के करने योग्‍य नहीं समझते।

जहां तक मेरा राजनीतिक ज्ञान है मैं समझता हूं कि एक समूह उन सभी (या अधिकतर) कामों को ज़्यादा बेहतर ढंग से संचालित कर सकता है जिन्‍हें कोई व्‍यक्ति अकेला करता है। इन कामों में राजनीतिक काम भी आ सकते हैं और कला-संस्‍कृति के क्षेत्र के काम भी आ सकते हैं और अकादमिक काम भी।आज दिल्‍ली के अधिकतर प्रगतिशील कवि, लेखक, संस्‍कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी मध्‍य वर्ग या उच्‍च मध्‍यवर्ग की जीवनशैली जी रहे हैं। आज कितने लेखक, कवि,बुद्धिजीवी हैं जो बाल्‍जाक की तरह काली काफी पीकर पेरिस के अभिजात समाज को अपनी कलम से नंगा कर देने की चुनौती देने का माद्दा रखते हैं।

आज के प्रगतिशील लेखकों में से किसको आप भारत का टामस पेन और लू शुन कहेंगे। मां उपन्‍यास लिखने के बाद गोर्की ने जब लेनिन से मुलाकात की तो लेनिन ने कहा कि यह मजदूरों के लिए एक जरूरी किताब है और इसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाओ। क्‍या आपको लगता है कि अगर 'मां' जैसी कोई किताब आज लिखी जाती है तो आज के बुर्जुआ प्रकाशक उसे बड़ी मात्रा में छपवाकर मजदूरों के बीच वितरित करवाएंगे। निश्‍चय ही नहीं करवाएंगे। बुर्जुआ प्रकाशक तो क्‍या खुद को प्रगतिशील कहने वाले कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी यह काम नहीं करेंगे। सही बात तो यह है कि प्रतिष्‍ठा, पुरस्‍कार, रॉयल्‍टी अगर मिलती रहे तो हमारे लेखकों को इससे कोई मतलब नहीं कि उनकी किताबें वास्‍तव में पढ़ी भी जा रही हैं या नहीं। आज कितने ऐसे लेखक हैं जो 20 रुपये से कम पर जीने वाले भारत के 77 प्रतिशत लोगों की जिंदगी से करीबी से जुड़े हों या करीबी जुड़ाव महसूस करते हों। आज प्रगतिशील लेखकों/बुद्धिजीवियों और सर्वहारा जनता के बीच की खाई गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद के जमाने से कई गुना चौड़ी हो गई है।

 यह कहने में कोई अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि आज के हमारे प्रगतिशील लेखक,कवि और बुद्धिजीवी भारत की गरीब जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुके हैं। वास्‍तव में समाजवाद से उनका कुछ लेना-देना ही नहीं रह गया है,उनका समाजवाद तो कब का आ चुका है।और इसीलिए जो काम प्रगतिशील लेखकों, बुद्धिजीवियों, संस्‍कृतिकर्मियों को करना चाहिए था, यानी कि समाज में गंभीर राजनीतिक और गैर राजनीतिक साहित्‍य का एक सचेत पाठकवर्ग तैयार करने और ऐसे साहित्‍य के फलने-फूलने का माहौल तैयार करने का काम,उसे मजबूरी में क्रान्तिकारी दल (दलों) को करना पड़ रहा है। आप शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि यह राजनीतिक दलों की इच्‍छा नहीं बल्कि उनकी मजबूरी है। हालांकि अगर वे अपनी चाहत से भी ऐसा करते हैं तो इसमें गलत क्‍या है यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। शायद आप समझने में मेरी मदद करेंगे।आपने सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन घुमा फिराकर कुछ प्रकाशनों पर आरोप लगाया है कि उन्‍होंने साधन को साध्‍य बना लिया है। तो उपरोक्‍त बातों के मद्देनजर सबसे पहले तो यह आरोप प्रगतिशील लेखकों पर लगाया जाना चाहिए जिनमें आप स्‍वयं भी शामिल हैं। अपनी किताबें छपवाने में बहुतेरे लोग आगे रहते हैं लेकिन लू शुन की तरह किसी ने यह क्‍यों नहीं सोचा कि अपने देश के लोगों का परिचय विश्‍व की तमाम मूल्‍यवान साहित्यिक धरोहरों से कराया जाए। आज मार्क्‍सवाद की कितनी किताबें हैं जो सही और सटीक अनुवाद के साथ हिन्‍दी में उपलब्‍ध हैं। और यदि नहीं है तो यह काम कौन करेगा। क्‍या यह काम राजकमल और वाणी जैसे बुर्जुआ प्रकाशनों के भरोसे छोड़ दिया जाए या भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के भरोसे या नीलाभ प्रकाशन के भरोसे। मार्क्‍सवाद की जिन किताबों के हिंदी अनुवाद हैं भी उन्‍हें संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता है। और रामविलास शर्मा जी ने यूं तो किताबें लिखकर रैक भर दिये हैं लेकिन उनके माध्‍यम से मार्क्‍सवाद समझने वालों का खुदा ही मालिक हो सकता है।


ऐसे में अगर कोई राजनीतिक संगठन प्रकाशन तंत्र और न्‍यास संगठित करके हिंदी भाषी लोगों को अपनी भाषा में विश्‍वस्‍तरीय साहित्‍य और मार्क्‍सवाद की पुस्‍तकें उपलब्‍ध कराने के इन बेहद ज़रूरी कामों को करता है तो इसके लिए उसे साधुवाद दिया जाना चाहिए या गालियां?हालांकि आज भी बहुत बड़ी संख्‍या ऐसे लोगों की है जिनके लिए दुनिया माओ के बाद से आगे ही नहीं बढ़ी है और निश्चित ही उन्‍हें किताबों की और बहस-मुबाहिसे की उतनी जरूरत भी नहीं है। वैसे मजेदार बात तो यह भी है कि हथियार खरीदने के लिए चंदा मांगने को बुद्धिजीवी लोग जायज समझते हैं लेकिन पुस्‍तकें छापने के लिए चंदा मांगने को वे गलत समझते हैं और कोई तर्क पेश किए बिना साधन और साध्‍य जैसे बौधिक जुमलों के द्वारा अपना काम चला लेते हैं। वैसे 21वीं सदी की प्रौद्योगिकी और नव जनवादी क्रांति (एनडीआर) की लाइन ने भी तमाम बौद्धिकों की पौ बारह कर दी है। आज कोई भी व्‍यक्ति ब्‍लॉग पर गरमागरम बातें लिखकर और पैसिव रैडिकलिज्‍म की लीद फैलाकर क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी होने का तमगा हासिल कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे कम्‍युनिज्‍म की समझदारी है भी या नहीं या कम्‍युनिज्‍म के प्रति उसका समर्पण है भी या नहीं। मध्‍यवर्गीय रूमानी फिलिस्‍टाइन को इससे कोई मतलब भी नहीं है। वह स्‍वयं को एक नायक की तरह देखना पसंद करता है और निजी जीवन में क्रान्ति से भले ही उसका कभी साबका न पड़ा हो और सामाजिक कामों के लिए चंदा देते समय भी बीवी से डरता हो लेकिन बौद्धिक जगत में हल्‍ला मचाने का साधन उसकी पहुंच में आ गया है और वह शहीदाना अंदाज में पोस्‍ट पर पोस्‍ट लिखे जाता है। हो सकता है कि उसने वह चौराहा भी देख रहा हो जहां ''मुक्‍त क्षेत्र'' बनने के बाद उसकी मूर्ति लगाई जाएगी। स्‍तालिन ने यों ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियां झूठ-फरेब,मक्‍कारी,चुगली और षडयंत्रों से भरी होंगी।

जनज्‍वार पर आकर आपने और आपके सहयोगियों ने न सिर्फ स्‍तालिन की बात को पुष्‍ट कर दिया बल्कि अपने ही कृत्‍यों से न्‍यास और प्रकाशन संगठित करने की जरूरत को बल प्रदान कर दिया है। आपने भी बस यही साबित किया है कि आज के पके पकाये बुद्धिजीवियों से रैडिकल चिंतन और व्‍यवहार की उम्‍मीद करना वैसा ही है जैसे जरसी गाय से युद्धाश्‍व के कारनामों की उम्‍मीद पालना। इसीलिए नये साहसी, रैडिकल, युवा, कर्मठ बौद्धिक तत्‍वों की तैयारी का काम और भी ज़रूरी है। जनज्‍वार के अपने जिन साथियों की बातों का आपने समर्थन किया है (हालांकि यह समर्थन आपने नसीहतों की आड़ में किया है) उनके साथ मैं पिछले 10-12 सालों से जमीनी स्‍तर पर काम कर चुका हूं। अपने राजनीतिक और निजी जीवन में इन लोगों की पतनशीलता का मुझे प्रत्‍यक्ष अनुभव है और ये सारे के सारे जमीनी कार्यों में एकदम फिसड्डी साबित हो चुके हैं। जो इस बात से भी साबित होता है कि संगठन से निकाले जाने के बाद इनमें से किसी भी शख्‍स की जमीनी कार्रवाइयों में किसी प्रकार की कोई भागीदारी नहीं रही है। अपनी हर असफलता को दूसरों के मत्‍थे मढ़ने की इनकी आदत और नीयत जनज्‍वार पर लिखे इनके ही पोस्‍टों से जाहिर हो जाती है। आज आपको इन हिजड़ों की संगत पसंद आ रही है तो आपको सोचना चाहिए कि आप कहां पहुंच गये हैं। जनज्‍वार ने अपनी नंगई के द्वारा साबित कर दिया है कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन की पश्‍चगति अभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंची है और इसमें तमाम तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी और (आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए)विरोधी लाइन वाले कतिपय संगठनों के कुछ लोग अपनी तरफ से पूरा सहयोग दे रहे हैं। चलिये देखते हैं कि यह पश्‍चगति कहां जाकर थमती है।

आपने साधन के साध्‍य बन जाने की बात अपनी पोस्‍ट में उठाई है। मेरे ख्‍याल से साधन के साध्‍य बना जाने की बात तब लागू होती है अगर किसी के सिद्धांत और व्‍यवहार में अंतर हो। जहां तक परिकल्‍पना और राहुल फाउण्‍डेशन की बात है,तो अगर आप कविताएं लिखने से फुरसत लेकर इनके प्रकाशनों को पढ़ेंगे तो आपको स्‍पष्‍ट पता चल जाएगा कि ये किन अर्थों में नये सर्वहारा नवजागरण और प्रबोधन की बात करते हैं और इनका व्‍यवहार इनके सिद्धांत की पूर्णत: संगति में है। यदि इन्‍होंने अपने वास्‍तविक विचारों को स्‍पष्‍ट रूप से जाहिर किए बिना लोगों से सहयोग लिया हो और केवल यही करते रहे हों तो आप यह कह सकते हैं कि साधन ही हमारा साध्‍य बन गया है। अगर साधन ही हमारा साध्‍य है तो करावलनगर, गोरखपुर और लुधियाना के मजदूरों के आन्‍दोलनों में हमारी भूमिका के बारे में आपके क्‍या विचार हैं।

कवि महोदय आप शायद जानते होंगे कि न्‍यास बनाना और किताबें छापना ऐसे काम हैं जो शुरू से ही नजर आते हैं। वहीं लोगों को संगठित करना एक ऐसा काम है जिसका आउटपुट तत्‍काल नजर नहीं आता। वर्तमान परिस्थितियों का हमारा मूल्‍यांकन और इसलिए हमारे काम का तरीका भी थोड़ा अलग है जो महानगरों के बुद्धिजीवियों को समझ में नहीं आता है। चूंकि हम समय-समय पर ''ऐक्‍शन'' नहीं करते रहते और थोड़ा काम करके बहुत गाते नहीं, इसलिए जमीन से कटे बुद्धिजीवियों को लगता है कि हम बस किताबें ही छाप रहे हैं। वैसे क्‍या ये सरासर बेईमानी और बदनीयती नहीं है कि जानबूझकर किसी संगठन के कामों के एक हिस्से को अपने झूठे आरोपों का निशाना बनाया जाए और उसके कामों के बड़े और मुख्‍य पहलू की चर्चा ही न की जाए! तो कविवर ऐसी स्थिति में अत्‍यावश्‍यक है कि आंखें फाड़कर घूरती सच्‍चाईयों को समझने और उनके अनुरूप अपने सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में परिवर्तन करने के लिए कम्‍युनिस्‍टों को प्रेरित करने हेतु ज़रूरी कामों के लिए मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान और प्रकाशन जैसी संस्‍थाएं स्‍थापित की जाएं। आज जबकि ''भूतपूर्व'' और स्‍वनामधन्‍य कम्‍युनिस्‍टों की जमात बढ़ती जा रही है जिसने कम्‍युनिज्‍म के बुनियादी उसूलों, मर्यादाओं और गुणों का परित्‍याग कर दिया है तो ऐसी संस्‍थाएं बेहद ज़रूरी हैं जो कम्‍युनिज्‍म के आदर्शों को बचाए रखने और नई पीढ़ियों को इस विरासत से शिक्षित-दीक्षित करने का काम करें। बेशक जिन्‍हें लगता है कि परिस्थितियां बदली ही नहीं हैं और जो कुछ लिखना पढ़ना था सब लिखा पढ़ा और कहा जा चुका है और बस आंख मूंदकर लकीर पर लाठी पीटते रहना है उन्‍हें न्‍यास और प्रकाशन की जरूरत न तो है और न समझ में आयेगी।

नीलाभ जी आप भोलेपन की मिसाल कायम करते हुए लिखते हैं कि कात्‍यायनी,सत्‍यम और शशिप्रकाश के खिलाफ उनके ही कुछ पुराने साथियों ने आरोप लगाए हैं। इससे आप हतप्रभ भी हैं और उदास भी। जाहिर है आप हतप्रभ और उदास इसलिए हैं क्‍योंकि आप इन आरोपों को जायज और ईमानदारी की जमीन से उठाया गया समझते हैं। पर आप ऐसा क्यों समझते हैं। क्‍या आपने जानना चाहा कि इन लोगों के खिलाफ दूसरे पक्ष के क्‍या आरोप हैं। क्‍या आपने कभी जानना चाहा कि ये लोग जिन कार्यकर्ताओं के साथ काम करते थे उनके इनके बारे में क्‍या विचार हैं। आपने तो भोलेपन की इंतहा ही कर दी और आपने मान लिया कि जनज्‍वार के टिप्‍पणीकार ही सही हैं और दूसरा पक्ष गलत है। इस एकांगीपन की वजह क्‍या है नीलाभ जी। क्‍यों आपको लगता है कि संगठन/समूह ही हमेशा गलत होता है और आरोप लगाने वाला कार्यकर्ता हमेशा सही होता है। और क्‍या आपको लगता है कि इन सब बातों का फैसला करने का सबसे उपयुक्‍त मंच ब्‍लॉग ही है। क्‍या ब्‍लॉग जैसे सशक्‍त टूल ने नीलाभ को गैरजिम्‍मेदार बना दिया है या यह पुरानी खुन्‍नस निकालने का एक जरिया है। --

एक नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ता, दिल्‍ली




बाघों के लिए इंसानों का शिकार


आदिवासिओं के लिए आधुनिकता छुछुन्दर हो गयी है और जनजातीय पंरपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है.

मेलघाट से लौटकर शिरीष खरे

मेलघाट सतपुड़ा पर्वतमाला की पश्चिमी पहाड़ी है जो महाराष्ट्र के जिला अमरावती की दो तहसील से जुड़कर बनी है. दो लाख 19 हजार हेक्टेयर यानी मुंबई से 4 गुना बड़ी जगह पर यहाँ कुल 319 गांव मिलते हैं. यहां करीब 3 लाख आबादी में से 80फीसदी कोरकू जनजाति है.

समुद्र तल से 1118मीटर की ऊंचाई पर बसा यह हरा-भरा भाग `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ कहलाता है. वर्ष  1974 में `एम टी आर´ के नाम से शुरू हुए  इस प्रोजेक्ट से तब 62 गांव प्रभावित हुए थे, दुबारा  27 गांव के करीब 16 हजार लोगों को फिर विस्थापित किया जा रहा है, फिर उनकी सभ्यताएं नष्ट की जा रही हैं. 1947 से पूरे देश में विभिन्न परियोजनाओं से अब तक 2करोड़ से अधिक आदिवासियों को विस्थापित किया जा चुका है.

सरकार के मुताबिक बाघों को बचाने के लिए यहां विस्थापन जरूरी है लेकिन `राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण´की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि सत्तर के दशक में शुरू हुआ `प्रोजेक्ट टाइगर´अपने लक्ष्य से काफी दूर रहा. देश में बाघों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंच चुकी है. 2002 को देश में जहां 3642 बाघ थे वहीं अब 1411 बाघ बचे हैं.

कोकरू जनजाति के लिए उजड़ना नियति बन चुका है.
राज्यसभा के सांसद ज्ञानप्रकाश पिलानियामानते कहते हैं कि -``बाघों की संख्या को बढ़ाने के लिए बने रिजर्व एरिया अब उन्हें मारने की मुनासिब जगह बन गए हैं.इसके लिए अवैध शिकार  करके उनके अंगों की तश्करी करने वाले व्यापारी जिम्मेदार हैं.बाहरी ताकतों की मिलीभगत से ही इतने बड़े गिरोह पनप सकते हैं.

´दूसरी तरफ विकास की तेज आंधी ने जंगलों का भविष्य खत्म कर दिया है. `भारतीय वन सर्वेक्षण´ की रिपोर्ट बताती है कि 2003 से 2005 के बीच 728 किलोमीटर जंगल कम हुआ. फिलहाल सघन जंगल का हिस्सा महज 1.6 फीसदी ही बचा है. इसी प्रकार 11 रिजर्व एरिया में जंगल घटा है. जाहिर है कि जनजाति को लगातार विस्थापित किए जाने के बावजूद न तो बाघ बच पाए हैं और न जंगल.

मेलघाट में कोरकू जनजाति का अतीत देखा जाए तो 1860-1900के बीच प्लेग और हैजा से पहाड़ियां खाली हो गई थी. तब ये लोग मध्यप्रदेश के मोवारगढ़, बेतूल, शाहपुरा भवरा और चिंचोली में जाकर बस गए. उसके एक दशक बाद अंग्रेजों की नजर यहां के जंगल पर पड़ी. उन्हें फर्नीचर की खातिर पेड़ काटवाना और उसके लिए पहुंच मार्ग बनवाना था. इसलिए कोरकू जनजाति को वापिस बुलाया गया. आजादी के 25 सालों तक उनका जीवन जंगल से जुड़ा रहा. उन्होंने जंगल से जीवन जीना सीखा था. लेकिन जैसे-जैसे जंगल से जीवन को अलग-थलग किया जाने लगा वैसे-वैसे उनका जीना दूभर होता चला गया.

अनिल जेम्स कहते हैं कि-`बीते 34 सालों से `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ में जनजातियों का शिकार जारी है.जैसे जैसे टाईगर रिजर्व सुरक्षित हो रहा है यहां रोटी का संकट गहराता जा रहा है.जनजातीय पंरपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है.यहां सामाजिक ऊथल-पुथल अपने विकराल रुप में हाजिर है.राहत के तौर पर तैयार सरकारी योजनाओं का असर,बेअसर ही रहा.हर योजना ने लोगों को कागजों में उलझाए रखा और अब लोग भी उलझकर जंगल की मांग ही भूल गए हैं.

परम्पराओं पर बाज़ार का रोगन चढ़ रहा है.
बांगलिंगा गांव में 85साल के झोलेमुक्का धाण्डेकर ने जंगल की बातों के बारे में बताया कि-`पहले हम समूह में रहने के आदी थे.अपनी बस्ती को पंचायत मानते और हर परेशानी को यही सुलझाते. `भवई´ त्यौहार पर साल भर का कामकाज और कायदा बनाते. इन मामलों में औरत भी साथ होती. वह अपना हर फैसला खुद ही लेती.चाहे जिसे दूल्हा चुने और पति से अनबन या उसके मरने पर दूसरी शादी करे.शादी में लेन-देन और बच्ची को मारने जैसी बातें नहीं सुनी थी. संख्या के हिसाब से भी मर्द और औरत बराबर ही बैठते.

हमारी बस्ती सागौन, हलदू, साजड़, बेहड़ा, तेंदू, कोसिम, सबय, मोहिम, धावड़ा, तीवस और कोहा के पेड़ों से घिरी थी. जंगल में आग लगती तो हम अपनी बस्तियां बचाने के लिए उसे बुझा देते.तभी तो हमें अंग्रेजों ने जंगलों में ही रहने दिया.वहां से सालगिटी, गालंगा और आरा की भाजियां मिलती.बेचंदी को चावल की तरह उबालकर खाते.कच्चा खाने की चीजों में काला गदालू, बैलकंद, गोगदू और बबरा मिल जाते.ज्वस नाम की बूटी को उबलती सब्जी में मिला दो तो वह तेल का काम करती.

 इसके अलावा तेंदू, आंवला, महुआ, हिरडा, बेहड़ा, लाख और गोद भी खूब थी. फल, छाल और बीजों की कई किस्मों से दवा-दारू बनाते. खेती के लिए कोदो, कुटकी, जगनी, भल्ली, राठी, बडा़ आमतरी,गड़मल और सुकड़ी के बीज थे.ऐसे बीज बंजर जमीन में भी लहलहाते और साल में दो बार फसल देते. इसलिए अनाज का एक हिस्सा खाने और एक हिस्सा खेती के लिए बचा पाते थे.

यह  सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया. 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया.फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा.इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए. 1980 के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका.

मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया. जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई.इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा.अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी.नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा. बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया. आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´

यह तब की सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया.1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया.फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए.

इन्हें तो बचा नहीं सके, अब इंसानों की बारी
 वर्ष 1980के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली,जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया.जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई.इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा.अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी. नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा.

बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया.आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´

पसतलई गांव के एक युवक ने नाम छिपाने की शर्त पर बताया कि-`जंगली जानवरों का शिकार करने वाली कई टोलियां यहां घूम रही हैं.कमला पारधन नाम की औरत इसी धंधे में लिप्त थी.बाद में पुलिस ने उसे धारणी में गिरफ्तार कर लिया.´ यहां जानवरों के हमलों की घटनाएं भी बढ़ रही हैं.

कुंड गांव की बूढ़ी औरत मानु डाण्डेकर ने जानवरों से बचने के लिए तब की झोपड़ी को याद किया-`वह लकड़ियों और पत्तों की बनी होती,ऊंचाई हमसे 2-3हाथ ज्यादा रहती.छत आधी गोल होती जो पूरी झोपड़ी को ढ़क लेती.उसमें घुसने के लिए दरवाजा उठाकर जाते.दरवाजे की हद इतनी छोटी रखते कि रेंगकर घुसा जाए. झोपड़ी के चारों तरफ 2-3 फीट लंबी पत्थरों की दीवार बनाते. रात को झोपड़ी के बाहर आग सुलगाते.

पूरी बस्ती प्यार, तकरार, शादी, शिकार, जुदाई और पूजन से जुड़े किस्सों पर गाती-थिरकती रकती. जैसे प्यार के गीत में लड़की से मिलने के लिए रास्ता पूछने,शादी के गीत में दूल्हा-दुल्हन बनकर आपस में बतियाने और जुदाई के गीत में शिकार पर गए पति के न लौटने की चर्चा होती.´´

यह बस्तियां अपनी पंरपरा और आधुनिक मापदण्डों के बीच फसी हैं.घरों की दीवारों पर रोमन केलेण्डर और रात में जलती लालटन लटकती हैं. बाहरियों के आने से इनके भीतर हीनता बस गई.यह खुद को बदलने में जुटे हैं. यहां के मोहल्लों ने कस्बों की नकल करके अपनी शक्लों को बिगाड़ रखा है.अब कोरकू बोली की जगह विदर्भ की हिन्दी का असर बढ़ रहा है. जबकि कार्यालय की भाषा मराठी है. इसलिए कोरकू जुबान फिसलती रहती है. खासकर स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को जानने और बोलने में मुश्किल आती है.

कोरकू लोग कहते हैं कि सबकुछ खोने के बाद हमें कुछ नहीं मिला.स्कूल के टीचर और अस्पताल के डॉक्टर मैदानी इलाकों में बने हुए हैं. लेकिन हमारे हिस्से में न मैदान आया, न पहाड़. हम कहां जाए?