एनजीओ सामाजिक जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन कर रहे हैं यह जगजाहिर है। ऐसे में इन औद्योगिक समूहों का लचर तर्क,टालू रवैया और खैरात बांटने का प्रस्ताव उनके मुनाफे की हवस एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति घोर संवेदनहीनता को ही उजागर करता है।
अंजनी कुमार
कई बार महत्वपूर्ण मुद्दे शोर में गुम हो जाते हैं। यह संयोग है या फिर जान-बूझकर, मगर एक बार फिर सामाजिक न्याय के मसले को राष्ट्रमंडल खेलों के शोरशराबे के बीच से चुपचाप गुजार दिया गया। देश के कारपोरेट जगत के तीन बड़े संगठनों फिक्की,एसोचेम और सीआईआई ने निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए उद्यम के चंद क्षेत्रों में महज 5प्रतिशत आरक्षण लागू करने से मना कर दिया।
दो सप्ताह पहले आयी इस खबर को ज्यादातर अखबारों ने या तो बहुत कम स्थान दिया या फिर तवज्जो ही नहीं दी। लेकिन इससे मुद्दे की प्रासंगिकता पर फर्क नहीं पडे़गा कि यह धार्मिक आस्था,पहचान से अधिक जीविका,जीवन और सामाजिक भागीदारी से जुड़ा बुनियादी प्रश्न है। लगभग सालभर पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने औद्योगिक समूहों के समक्ष भाषण में सामाजिक जिम्मेदारी निभाने,वेतनमान की स्थिति को दुरुस्त करने के साथ-साथ अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए न्यूनतम स्तर पर आरक्षण लागू करने का आग्रह किया था। उस समय इन सारे मसलों को लेकर कारपोरेट जगत ने काफी हो-हल्ला मचाया था। प्रधानमंत्री ने यह प्रस्ताव सामाजिक न्याय मंत्री मुकुल वासनिक की मई महीने में दी गयी एक रिपोर्ट और सलाह पर पेश किया था।
प्रधानमंत्री ऑफिस के सचिव ने भारतीय औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग ने आरक्षण के इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया। उपरोक्त विभाग उद्योग और व्यापार मंत्रालय के तहत काम करता है। उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने 2 अगस्त को इसके लिए औपचारिक पत्र कारपोरेट जगत को भेजा कि वे इस मुद्दे पर अपनी राय शीघ्र भेजें। इस केन्द्रीय स्तर के प्रयास में इन औद्योगिक समूहों से आग्रह किया गया कि यदि वे सरकारी प्रोत्साहन से लाभान्वित हो रहे हैं तो वे सरकार की सामाजिक जिम्मदारियों का भी निर्वहन करें।
इसके जबाब में उसी समय नाम न छापने की शर्त पर कारपोरेट जगत के तीन संगठनों के अधिकारियों ने यह कहा कि वे इस तरह के कदम नहीं उठा सकते और दावा किया कि कारपोरेट जगत के ये धुरधंर देश के एक दो जिलों में विकास कार्य में हिस्सेदारी कर रहे हैं। इसलिए वे मेधा के स्तर को नीचे नहीं गिराना चाहते और आरक्षण देकर किसी भी तरह का खामियाजा भुगतना नहीं चाहते।
औद्योगिक समूहों ने आरक्षण देने की जगह समाज के दमित तबकों को ‘योग्य’बनाने के लिए आर्थिक और शैक्षणिक सहयोग करने का प्रस्ताव दिया। टाटा,रिलायंस,अजीम प्रेमजी जैसे कई ग्रुप सामाजिक भागीदारी के नाम पर एनजीओ के सहयोग से इस दिशा में काम कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक उनके इस कार्यक्रम से लक्षित समूह को फायदा हो या न हो इन कंपनियों को सस्ता श्रम तथा बाजार जरूर उपलब्ध हो जाता है। सामाजिक भागीदारी में इनकी व्यय राशि से इन्हें एक तरफ सामाजिक समर्थन हासिल हो जाता है,वहीं इस राशि का एक बड़ा हिस्सा एनजीओकर्मी और संचालक डकार जाते हैं।
कुकुरमुत्तों की तरह उगे एनजीओ इन सामाजिक जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन कर रहे हैं और खुद कितना डकार जाते हैं, यह अब जगजाहिर हो चुका है। ऐसे में इन औद्योगिक समूहों का लचर तर्क, टालू रवैया और खैरात बांटने का प्रस्ताव उनके मुनाफे की हवस एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति घोर संवेदनहीनता को ही उजागर करता है। आरक्षण के मुद्दे पर खुद सरकार की ही नीति साफ नहीं होने के चलते न तो लक्षित समूह इससे ठीक से लाभान्वित हो पाया और न ही इसका प्रभावी प्रयोग हो पाने की स्थिति दिख रही है।
रद्द करें कारपोरेट जगत का आरक्षण
- कारपोरेट जगत को न केवल सरकारी आरक्षण,बल्कि भरपूर सरकारी सहयोग की जरूरत पड़ रही है।
- कारपोरेट जगतविभिन्न तरह की छूट हासिल कर वर्तमान योजना के तहत 5लाख करोड़ की देनदारी से मुक्त हुआ है।
- मुनाफा एवं निवेश टैक्स में छूट से इन्हें प्रतिवर्ष 80000 करोड़ रूपए का फायदा होता है।
शैक्षिक नीति को जिस तरह ढाला जा रहा है उससे दमित तबका तो दूर,एक आम परिवार से ‘योग्यता’ हासिल युवा शायद ही कुछ बन पाये। नरेगा जैसी योजनाओं में इस तरह के आरक्षण का अभाव यह बताता है कि सरकार किस तरह इस मुद्दे पर सोच रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय गवाह है कि वहां आज तक कोई भी दलित शिक्षक विभागाध्यक्ष नहीं बन सका। प्रोफेसर का तमगा भी उन्हें हासिल नहीं हो सका। दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल 10000 शिक्षक कार्यरत हैं। आरक्षण के तहत कुल 2250 शिक्षक एससी एसटी के होने चाहिए, लेकिन यह संख्या 650 है। पिछडा़ वर्ग के 2700 पदों पर कुल 100 भर्ती हो पाये। आज सरकारी कार्यालयों में 74008 बैकलॉग रिक्तियां हैं, जबकि रोजगार कार्यालय में 2004 तक 40457.7 एससी एसटी समुदाय से आने वाले लोग रोजगार की लाइन में खड़े भी थे। तीस अगस्त को पी.चिदम्बरम ने पिछली सरकार (यूपीए-1) के दौरान के 5400 बैकलाग को तुरंत भरने के लिए कड़े कदम उठाने की घोषणा की।
दलित आदिवासी समुदाय के खिलाफ अपराध की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है,जबकि सामाजिक क्षेत्र में हिस्सेदारी लगातार गिर रही है। चिदम्बरम की चिंता दलित और आदिवासी समुदाय के प्रति कितनी है,यह उनकी नीतियों में तो साफ नजर आता ही है,साथ ही कारपोरेट जगत के प्रति उनकी चुप्पी में भी साफ-साफ दिखायी देता है। कारपोरेट जगत के इस अगुआ से सामाजिक न्याय की उम्मीद करना कुछ वैसा ही होगा,जैसा पूंजीपति से मुनाफा छोड़ देने और मजदूरों का पक्षपात करने की आशा पालना।
आज जिन क्षेत्रों में लागू हो पाया वे ऐसे क्षेत्र सदियों से उनके पारंपरिक कार्य व्यवहार से जुड़े हुए हैं। सीवेज और चमड़ाकर्म,खेत मजदूरी इत्यादि इसी श्रेणी में आते हैं। इसमें सरकारी नीति प्रभावी रही है या पारंपरिक कार्यव्यापार,इसकी समीक्षा जरूर करनी चाहिए। दरअसल,उपरोक्त कर्म भारतीय समाज की सामंती व्यवस्था का ही विस्तार रहा है। अन्यथा यह कैसे संभव है कि प्रशासनिक, शैक्षिक, न्यायिक क्षेत्र में दलित समाज की भागीदारी न्यूनतम है या फिर नहीं है और इसकी शुचिता बचाये रखने के नाम पर समय-समय पर साफ सफाई चलती रहती है,योग्यता के नाम पर निष्कासन चलता रहता है।
औद्योगिक समूह जिस समय सामाजिक जिम्मेदारियों से मुकर जाने के लिए ‘योग्यता’और ‘उत्पादकता’का तर्क पेश कर रहे होते हैं,ठीक उसी समय यही अयोग्य और कम उत्पादक असंगठित मजदूर उनके मुनाफे का अधिकांश उत्पादित कर रहे होते हैं। आज देश में असंगठित मजदूरों का प्रतिशत 98 प्रतिशत पहुंच चुका है। उदाहरण के तौर पर यदि कॉमनवेल्थ खेल को ही लें, तो वहां सरकार ने निजी कंपनियों की मार्फत आये लगभग चार लाख मजदूूरों के बदौलत काम पूरा किया। ये सारे मजदूर दिहाड़ी पर काम कर रहे थे और अधिकांश दलित थे। करीब 80 हजार करोड़ के इस प्रोजेक्ट में लूट, भ्रष्टाचार पर ऊपरी तबके का संगठित आरक्षण था।
आज पूरा रियल स्टेट,कपड़ा और चमड़ा उद्योग, हीरे तथा आभूषण का उद्योग इत्यादि इन्हीं असंगठित मजदूरों पर टिका हुआ है। अकूत मुनाफा कमाने वाले ये व्यापारी और उद्योगपति एक बार भी इन मजदूरों का शोषण करते हुए उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा नहीं करते, बल्कि उनकी पीठ पर और मजबूती से बैठ जाते हैं। उनके सस्ते श्रम की बदौलत ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में वे निर्यात की कूबत पैदा कर रहे होते हैं। यही वह समुदाय है जिसके जल, जंगल, जमीन को औने-पौने दामों पर हड़पकर कच्चा माल बेचने और विदेशी निवेश आकर्षित कर पाने में उद्योगपति-व्यापारी सफल हो रहे हैं।
हम एक बार यह मान भी लें कि दलित समुदाय अयोग्य है, तब उनके मुनाफे की व्याख्या कैसे हो पाएगी? और तब क्या यह सवाल नहीं बनता है कि विश्व बाजार में इन्हें टिके रहने के लिए सरकारी सहयोग की जरूरत क्यों पड़ रही है?हर साल डेढ़ लाख करोड़ के सरकारी सहयोग और विभिन्न तरह की संरक्षण हासिल करने बावजूद इनकी गाड़ी हमेशा खतरे के रास्ते की ओर ही जा रही है और इससे देश को व्यापक घाटा हो रहा है। तब सवाल यह उठता है कि इनके वित्त और अन्य संरक्षण को छीन लेना चाहिए और इन योग्य लोगों को बाजार की खुली प्रतियोगिता में वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसा वे दूसरों के संदर्भ में तर्क दे रहे हैं।
पूंजी,बाजार,मुनाफा और रोजगार तथा मानवीय जीवन एक सामाजिक प्रक्रिया और राजनीतिक-सांस्कृतिक निर्णय होता है। उसी तरह सामाजिक अंर्तक्रियाएं भी इसका अभिन्न हिस्सा होती हैं। यदि औद्योगिक समूह सस्ते श्रम और मुनाफे के लिए आमजन,मजदूर-किसान एवं आदिवासी पर निर्भर हैं, तो यह निर्भरता एकतरफा होने के तर्क पर नहीं टिक सकती कि यह सामाजिक न्याय के मौलिक नियमों के खिलाफ है।