Oct 15, 2010

नहीं देंगे दलितों को आरक्षण

 
एनजीओ सामाजिक जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन कर रहे हैं यह जगजाहिर है। ऐसे में इन औद्योगिक समूहों का लचर तर्क,टालू रवैया और खैरात बांटने का प्रस्ताव उनके मुनाफे की हवस एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति घोर संवेदनहीनता को ही उजागर करता है।

अंजनी कुमार

कई बार महत्वपूर्ण मुद्दे शोर में गुम हो जाते हैं। यह संयोग है या फिर जान-बूझकर, मगर एक बार फिर सामाजिक न्याय के मसले को राष्ट्रमंडल खेलों के शोरशराबे के बीच से चुपचाप गुजार दिया गया। देश के कारपोरेट जगत के तीन बड़े संगठनों फिक्की,एसोचेम और सीआईआई ने निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए उद्यम के चंद क्षेत्रों में महज 5प्रतिशत आरक्षण लागू करने से मना कर दिया।

दो सप्ताह पहले आयी इस खबर को ज्यादातर अखबारों ने या तो बहुत कम स्थान दिया या फिर तवज्जो ही नहीं दी। लेकिन इससे मुद्दे की प्रासंगिकता पर फर्क नहीं पडे़गा कि यह धार्मिक आस्था,पहचान से अधिक जीविका,जीवन और सामाजिक भागीदारी से जुड़ा बुनियादी प्रश्न है। लगभग सालभर पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने औद्योगिक समूहों के समक्ष भाषण में सामाजिक जिम्मेदारी निभाने,वेतनमान की स्थिति को दुरुस्त करने के साथ-साथ अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए न्यूनतम स्तर पर आरक्षण लागू करने का आग्रह किया था। उस समय इन सारे मसलों को लेकर कारपोरेट जगत ने काफी हो-हल्ला मचाया था। प्रधानमंत्री ने यह प्रस्ताव सामाजिक न्याय मंत्री मुकुल वासनिक की मई महीने में दी गयी एक रिपोर्ट और सलाह पर पेश किया था।

प्रधानमंत्री ऑफिस के सचिव ने भारतीय औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग ने आरक्षण के इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया। उपरोक्त विभाग उद्योग और व्यापार मंत्रालय के तहत काम करता है। उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने 2 अगस्त को इसके लिए औपचारिक पत्र कारपोरेट जगत को भेजा कि वे इस मुद्दे पर अपनी राय शीघ्र भेजें। इस केन्द्रीय स्तर के प्रयास में इन औद्योगिक समूहों से आग्रह किया गया कि यदि वे सरकारी प्रोत्साहन से लाभान्वित हो रहे हैं तो वे सरकार की सामाजिक जिम्मदारियों का भी निर्वहन करें।

इसके जबाब में उसी समय नाम न छापने की शर्त पर कारपोरेट जगत के तीन संगठनों के अधिकारियों ने यह कहा कि वे इस तरह के कदम नहीं उठा सकते और दावा किया कि कारपोरेट जगत के ये धुरधंर देश के एक दो जिलों में विकास कार्य में हिस्सेदारी कर रहे हैं। इसलिए वे मेधा के स्तर को नीचे नहीं गिराना चाहते और आरक्षण देकर किसी भी तरह का खामियाजा भुगतना नहीं चाहते।

औद्योगिक समूहों ने आरक्षण देने की जगह समाज के दमित तबकों को ‘योग्य’बनाने के लिए आर्थिक और शैक्षणिक सहयोग करने का प्रस्ताव दिया। टाटा,रिलायंस,अजीम प्रेमजी जैसे कई ग्रुप सामाजिक भागीदारी के नाम पर एनजीओ के सहयोग से इस दिशा में काम कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक उनके इस कार्यक्रम से लक्षित समूह को फायदा हो या न हो इन कंपनियों को सस्ता श्रम तथा बाजार जरूर उपलब्ध हो जाता है। सामाजिक भागीदारी में इनकी व्यय राशि से इन्हें एक तरफ सामाजिक समर्थन हासिल हो जाता है,वहीं इस राशि का एक बड़ा हिस्सा एनजीओकर्मी और संचालक डकार जाते हैं।

कुकुरमुत्तों की तरह उगे एनजीओ इन सामाजिक जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन कर रहे हैं और खुद कितना डकार जाते हैं, यह अब जगजाहिर हो चुका है। ऐसे में इन औद्योगिक समूहों का लचर तर्क, टालू रवैया और खैरात बांटने का प्रस्ताव उनके मुनाफे की हवस एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति घोर संवेदनहीनता को ही उजागर करता है। आरक्षण के मुद्दे पर खुद सरकार की ही नीति साफ नहीं होने के चलते न तो लक्षित समूह इससे ठीक से लाभान्वित हो पाया और न ही इसका प्रभावी प्रयोग हो पाने की स्थिति दिख रही है।


रद्द करें कारपोरेट जगत का आरक्षण
  • कारपोरेट जगत को न केवल सरकारी आरक्षण,बल्कि भरपूर सरकारी सहयोग की जरूरत पड़ रही है।
  • कारपोरेट जगतविभिन्न तरह की छूट हासिल कर वर्तमान योजना के तहत 5लाख करोड़ की देनदारी से मुक्त हुआ है।
  • मुनाफा एवं निवेश टैक्स में छूट से इन्हें प्रतिवर्ष 80000 करोड़ रूपए का फायदा होता है।


शैक्षिक नीति को जिस तरह ढाला जा रहा है उससे दमित तबका तो दूर,एक आम परिवार से ‘योग्यता’ हासिल युवा शायद ही कुछ बन पाये। नरेगा जैसी योजनाओं में इस तरह के आरक्षण का अभाव यह बताता है कि सरकार किस तरह इस मुद्दे पर सोच रही है।

दिल्ली विश्वविद्यालय गवाह है कि वहां आज तक कोई भी दलित शिक्षक विभागाध्यक्ष नहीं बन सका। प्रोफेसर का तमगा भी उन्हें हासिल नहीं हो सका। दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल 10000 शिक्षक कार्यरत हैं। आरक्षण के तहत कुल 2250 शिक्षक एससी एसटी के होने चाहिए, लेकिन यह संख्या 650 है। पिछडा़ वर्ग के 2700 पदों पर कुल 100 भर्ती हो पाये। आज सरकारी कार्यालयों में 74008 बैकलॉग रिक्तियां हैं, जबकि रोजगार कार्यालय में 2004 तक 40457.7 एससी एसटी समुदाय से आने वाले लोग रोजगार की लाइन में खड़े भी थे। तीस अगस्त को पी.चिदम्बरम ने पिछली सरकार (यूपीए-1) के दौरान के 5400 बैकलाग को तुरंत भरने के लिए कड़े कदम उठाने की घोषणा की।



दलित आदिवासी समुदाय के खिलाफ अपराध की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है,जबकि सामाजिक क्षेत्र में हिस्सेदारी लगातार गिर रही है। चिदम्बरम की चिंता दलित और आदिवासी समुदाय के प्रति कितनी है,यह उनकी नीतियों में तो साफ नजर आता ही है,साथ ही कारपोरेट जगत के प्रति उनकी चुप्पी में भी साफ-साफ दिखायी देता है। कारपोरेट जगत के इस अगुआ से सामाजिक न्याय की उम्मीद करना कुछ वैसा ही होगा,जैसा पूंजीपति से मुनाफा छोड़ देने और मजदूरों का पक्षपात करने की आशा पालना।

आज जिन क्षेत्रों में लागू हो पाया वे ऐसे क्षेत्र सदियों से उनके पारंपरिक कार्य व्यवहार से जुड़े हुए हैं। सीवेज और चमड़ाकर्म,खेत मजदूरी इत्यादि इसी श्रेणी में आते हैं। इसमें सरकारी नीति प्रभावी रही है या पारंपरिक कार्यव्यापार,इसकी समीक्षा जरूर करनी चाहिए। दरअसल,उपरोक्त कर्म भारतीय समाज की सामंती व्यवस्था का ही विस्तार रहा है। अन्यथा यह कैसे संभव है कि प्रशासनिक, शैक्षिक, न्यायिक क्षेत्र में दलित समाज की भागीदारी न्यूनतम है या फिर नहीं है और इसकी शुचिता बचाये रखने के नाम पर समय-समय पर साफ सफाई चलती रहती है,योग्यता के नाम पर निष्कासन चलता रहता है।
 

औद्योगिक समूह जिस समय सामाजिक जिम्मेदारियों से मुकर जाने के लिए ‘योग्यता’और ‘उत्पादकता’का तर्क पेश कर रहे होते हैं,ठीक उसी समय यही अयोग्य और कम उत्पादक असंगठित मजदूर उनके मुनाफे का अधिकांश उत्पादित कर रहे होते हैं। आज देश में असंगठित मजदूरों का प्रतिशत 98 प्रतिशत पहुंच चुका है। उदाहरण के तौर पर यदि कॉमनवेल्थ खेल को ही लें, तो वहां सरकार ने निजी कंपनियों की मार्फत आये लगभग चार लाख मजदूूरों के बदौलत काम पूरा किया। ये सारे मजदूर दिहाड़ी पर काम कर रहे थे और अधिकांश दलित थे। करीब 80 हजार करोड़ के इस प्रोजेक्ट में लूट, भ्रष्टाचार पर ऊपरी तबके का संगठित आरक्षण था।

आज पूरा रियल स्टेट,कपड़ा और चमड़ा उद्योग, हीरे तथा आभूषण का उद्योग इत्यादि इन्हीं असंगठित मजदूरों पर टिका हुआ है। अकूत मुनाफा कमाने वाले ये व्यापारी और उद्योगपति एक बार भी इन मजदूरों का शोषण करते हुए उनकी योग्यता पर सवाल खड़ा नहीं करते, बल्कि उनकी पीठ पर और मजबूती से बैठ जाते हैं। उनके सस्ते श्रम की बदौलत ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में वे निर्यात की कूबत पैदा कर रहे होते हैं। यही वह समुदाय है जिसके जल, जंगल, जमीन को औने-पौने दामों पर हड़पकर कच्चा माल बेचने और विदेशी निवेश आकर्षित कर पाने में उद्योगपति-व्यापारी सफल हो रहे हैं।
 
 हम एक बार यह मान भी लें कि दलित समुदाय अयोग्य है, तब उनके मुनाफे की व्याख्या कैसे हो पाएगी? और तब क्या यह सवाल नहीं बनता है कि विश्व बाजार में इन्हें टिके रहने के लिए सरकारी सहयोग की जरूरत क्यों पड़ रही है?हर साल डेढ़ लाख करोड़ के सरकारी सहयोग और विभिन्न तरह की संरक्षण हासिल करने बावजूद इनकी गाड़ी हमेशा खतरे के रास्ते की ओर ही जा रही है और इससे देश को व्यापक घाटा हो रहा है। तब सवाल यह उठता है कि इनके वित्त और अन्य संरक्षण को छीन लेना चाहिए और इन योग्य लोगों को बाजार की खुली प्रतियोगिता में वैसे ही छोड़ देना चाहिए जैसा वे दूसरों के संदर्भ में तर्क दे रहे हैं।

पूंजी,बाजार,मुनाफा और रोजगार तथा मानवीय जीवन एक सामाजिक प्रक्रिया और राजनीतिक-सांस्कृतिक निर्णय होता है। उसी तरह सामाजिक अंर्तक्रियाएं भी इसका अभिन्न हिस्सा होती हैं। यदि औद्योगिक समूह सस्ते श्रम और मुनाफे के लिए आमजन,मजदूर-किसान एवं आदिवासी पर निर्भर हैं, तो यह निर्भरता एकतरफा होने के तर्क पर नहीं टिक सकती कि यह सामाजिक न्याय के मौलिक नियमों के खिलाफ है।



लेखक राजनितिक कार्यकर्त्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. उनसे anjani.dost@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है.

हर मस्जिद की खिडकी जब मंदिर में खुलती


कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर 'धर्म के कारोबारियों' को आईना दिखा रहे हैं। मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का एक टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया था ,जहाँ आज मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है...

 
सत्यजीत चौधरी

बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा जब 6 दिसंबर 1992 को ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था।

'जयश्री राम' और 'अल्लाह ओ अकबर' के नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़  में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से 'छह दिसंबर' मेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तबसे शायद हाईबरनेशन में पड़ गया  था।

कांधला में अमन की मिसाल: मंदिर-मस्जिद एक साथ
इतने वर्षों  बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया।

 इसके बाद शुरू हुआ 'संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार,और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड,दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई।

मुजफ्फरनगर गर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। 'फैसले की घड़ी'जैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि 'तीस सितंबर'को क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा।

सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि 'छह दिसंबर'न दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा,आगजनी अंजाम दी जाएगी, अस्मत लुटेगी,खून बहेगा। खैर 'तीस सितंबर' भी आ गया । उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित 'एक कदम आगे'के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। 

जजों ने  फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे,जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ,इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।

ढहाए जाने से पहले बाबरी मस्जिद
 मैं घबराकर इंटरनेट की तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही,जब मैंने  पाया कि ट्वीटर,फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर 'जेनरेशन नेक्स्ट' अपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का 'फैसला'। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ,फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था-'न कोई जीता,न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।'

कहीं पढ़ा था कि पुणे में घोरपड़ी गांव है,जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है। अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है,तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे,पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं।

कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर 'धर्म के कारोबारियों' को आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया।

तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल।


लेखक  पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलने वाले हिंदी पाक्षिक  अखबार 'एक कदम आगे'के संपादक हैं और सामाजिक मसलों पर लिखते हैं.  उनसे satyajeetchaudhary@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.