Dec 31, 2010

दगा दे गयी माओवादी दाग छुड़ाने की तरकीब

बिनायक सेन की जेल से रिहाई के लिए चलाए गए आंदोलन में इसी बात पर जोर दिया गया कि वह माओवादी नहीं है,अहिंसावादी हैं। जज शायद इन तर्कों में छिपे फांफड़ को देख लिया था और बिना साक्ष्य के भी यह सिद्ध कर दिया कि बिनायक सेन माओवादी हैं...

अंजनी कुमार


विनायक  सेन  के समर्थन में चंडीगढ़ में प्रदर्शन
‘यह न्याय नहीं है बल्कि द्वेष से भरी एक अन्यायपूर्ण सजा है। यह सजा एक ऐसे अहिंसावादी मानवाधिकार कार्यकर्ता को दी गयी है जिसने जनता के अधिकारों के हनन को चुनौती दी....फैसला देश की लोकतांत्रिक बुनावट पर एक क्रूर हमला है।’ मेधा पाटकर के इस बयान से क्या यह निष्कर्ष निकाला जाय कि अहिंसावादी सरकार के लिए अपराधी नहीं होते हैं? क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाय कि माओवादी अपराधी इसलिए हैं कि वे हिंसावादी हैं?

तब क्या अपराध का प्रश्न हिंसा-अहिंसा से जुड़ा हुआ है?तब यह इस बात को याद कर लेना जरूरी है कि ब्रिटिश हुकुमत वाले भारत में गांधी जी व शहीद भगत सिंह दोनों ही बहुत से मामलों में अपराधी ठहराए गए। आज हम दोनों को ही महात्मा व शहीद ए आजम के रूप में याद करते हैं। ठीक ऐसा 1857 के गदर को याद करते हुए करते हैं। तब क्या यह माना जाय कि अपराध का प्रश्न व्यवस्था से जुड़ा हुआ है? निजाम ए कोहना से जुड़ा हुआ है? न्याय की पीठ पर बैठे सैययादों से जुड़ा है?

अनुभव तों यही बता रहे हैं,विश्लेषण हमें वहीं पहुंचा रहे हैं,विमर्श का निष्कर्ष यहीं पहुंच रहा है। लेकिन कॉमन सेंस अभी भी कुछ और बना है। जिसके चलते बिनायक सेन को रायपुर की स्पेशल कोर्ट द्वारा दिये गए आजीवन कारावास की सजा के खिलाफत में इस तरह के हजारों बयान,लेख लगातार छपते ही जा रहे हैं।

बिनायक सेन के साथ नारायण सान्याल व पीयूष गुहा को भी आजीवन कारावास की सजा दी गई। बल्कि इस बात को यूं कहना ठीक होगा कि बिनायक सेन को सजा ही इस बात से हुई कि वह नारायण सान्याल व पीयूष गुहा के साथ उनके संबंध एक गवाह के बयान के आधार पर सिद्ध हुए और जज के अनुसार यह स्वयंभू साक्ष्य था कि वे दोनों सीपीआई-माओवादी पार्टी के सदस्य थे। इस कारण से स्वभावतः गुनहगार थे।

ऐसा लगता है कि इन दोनों की गुनहगारी को अपने देश की बुद्धिजीवियों की सोसायटी की बहुसंख्या पहले से ही स्वीकार कर चुकी थी। शायद यही कारण था जिसके चलते बिनायक सेन की जेल से रिहाई के लिए चलाए गए आंदोलन में इसी बात पर जोर दिया गया कि वह माओवादी नहीं है,अहिंसावादी हैं,आदि आदि। जज शायद इन तर्कों में छिपे फांफड़ को देख लिया था और बिना साक्ष्य के भी यह सिद्ध कर दिया कि बिनायक सेन माओवादी हैं। उसने दो ‘हार्डकोर नक्सलाइटों’शंकर सिंह व अमिता श्रीवास्तव का जिक्रकर बिना मुकदमा ही उनका अपराध घोषित कर दिया। जाहिर है एक संकरे रास्ते को जज ने हाइवे बना दिया जिस पर से देशद्रोही,अपराधियों को सरपट दौड़ाया जा सकता है।

प्रतिरोध के हर स्वर को आंतकवादी,नक्सलाइट, माओवादी घोषित कर लैंड ऑफ रूल पर अब लाखों लोगों का मार्च पास्ट करा देने के लिए शासक वर्ग के पास एक नायाब रास्ता हासिल हो चुका है। जबकि सिविल सोसायटी की बहुसंख्या अभी भी साक्ष्य की लकीर पीटने में मशगूल है। सच्चाई यह है कि न्यायपालिका में साक्ष्य के संवैधानिक व दंड संहिता के प्रावधान को अनगिनत बार धज्जी उड़ाते हुए बाहर फेंक दिया गया और जज ने ‘संप्रभु साक्ष्य’गढ़े और न्याय वही सुनाया जिसे प्रभुत्वशाली वर्ग सुनना चाहता था। मसलन, राम का जन्म व जन्म स्थान संप्रभु साक्ष्य है, सवर्ण दलित स्त्री को नहीं छू सकता यह संप्रभु साक्ष्य है, बारा हत्याकांड में रात के अंधेरे में 16 दलित लोगों को पुलिस कांस्टेबल द्वारा पहचान लेना स्वभाविक साक्ष्य है और व्यापारी अनिल कुमार सिंह द्वारा दिया गया बयान 1872 अधिनियम के तहत साक्ष्य है।

दरअसल न्याय ने अपने पाठ का अर्थ बदल दिया है। उसने शब्दों के निहितार्थ बदल दिए हैं। इसने अपने क्षेत्र को इतना विस्तारित किया है कि उसका चौखटा हमारे घरों के भीतर घुस आया है और उसका हथौड़ा सीधा हमारे सिर के उपर गिर रहा है ---सजा की तरह और धमकी की तरह भी। 1947 से आज तक देश की सुरक्षा के नाम केन्द्रिय स्तर पर 16 वैधानिक प्रावधान पारित हो चुके हैं। इसमें राज्य स्तरीय विधानों को जोड़ दिया जाय तो गिनती सैकड़ा पार कर जाएगी। मीसा,टाडा, पोटा, यूएपीए व राज्य स्तरीय छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, मोकोका जैसों से हम ज्यादा रूबरू हुए।

यही वे कानून हैं जिसके तहत कम्युनिस्टों,मुसलमानों,दलित-आदिवासीयों,कश्मीर व उत्तर-पूर्व की राष्ट्रीयताओं और यहां तक कि समय समय पर अपने राज्य व भाषा की पहचान की मांग करने वालो के खिलाफ राज्य की सुरक्षा की बंदूक से बच रहे लोगों के खिलाफ न्याय के विशेष अभियान के तहत प्रयोग किया गया।पत्रकारों,मानवाधिकार-सामाजिक कार्यकर्ताओं,असहमत राजनीतिक व बौद्धिक लोगों के खिलाफ इन्हीं के तहत बूट की नकेल का प्रयोग किया गया। आज बहुत से सयाने बन गए लोग इन्हीं क्रूरताओं से होकर-भोगकर निकले हैं। इसी के तहत ही अंतराष्ट्रीय स्तर की वामपंथी पत्रिका ‘ए वर्ल्ड टू विन’के हिन्दी संस्करण के संपादक असित सेन गुप्ता को गुनहगार ठहराकर आठ साल की सजा सुनाई गई। उन्हें भी बिनायक सेन की तरह के साक्ष्यों के आधार पर जज ने सजा मुकर्रर कर दी।

जिन साक्ष्यों के आधार पर असिल सेन गुप्ता को सजा दी गई उससे इस देश की हजारों पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अकादमिशियन आदि सैकड़ों बार जेल की हवा खाने और जजों के न्याय के हथौड़े की मार सहने के लिए तैयार रहना होगा। यही वे कानून हैं जिनके अस्तित्व में आने के साथ ही इस देश की संघीय समाजवादी लोतांत्रिक जनवादी संवैधानिक व कानून आधारित न्यायपूर्ण जीवन के पाठ का अर्थ बदल गया। राजनीति में ‘जन’ एक ऐसी वैधानिक शब्दावली में बदल गया जिसका वास्तविक अर्थ ‘अभिजन’ ही निकलता है। ‘देश’ पाश के शब्दों में जांघिए का नाड़े का पर्यायवाची में बदल गया जिसके प्रयोग प्रतिरोध व अभिव्यक्ति का गला घोंट देने किया जाने लगा। और ‘भारत’ फासिस्ट हिन्दुत्ववादियों के लिए ढाल व तलवार और आग में बदल गया। ‘धर्म निरपेक्षता’से चिरायंध गंध आने लगी और कानून-व्यवस्था का अर्थ लोमड़ों का आशियाना बन गया जहां से गैरबिरादरों को साबूत नहीं लौटना है।

मेधा  पाटेकर बिनायक सेन के पक्ष में सोलहो आने ठीक दलील देती हैं कि बिनायक सेन अहिंसावादी हैं। लेकिन बिनायक सेन हिंसक हैं यह कहकर उन्हें सजा नहीं दी गई। उन्हें तो इस देश की वर्तमान व्यवस्था को पलट देने व इसके खिलाफ षडयंत्र करने के लिए सजा ए आजीवन कारावास दिया गया। इसी के तहत पीयूष गुहा,असित सेनगुप्ता व नारायण सान्याल को सजा दी गई। अब तक हजारों लोग इसी के तहत सजा भुगतते जा रहे हैं। तब क्या यहां मसला हिंसक-अहिंसक होने का है? क्या हिंसक हो जाने से ही अपराध तय हो जाता है और अहिंसक अपराधी ही नहीं होते?अपने देश में राजनीतिक हिंसा में मरने वालों की संख्या प्रतिवर्ष सैकड़ा के उपर है और इसके लिए संसदीय राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार होती हैं। तब क्या इसके लिए इन पार्टियों के नेतृत्व प्रकाश करात,बुद्धदेव भट्टाचार्य, ममता बनर्जी, जय ललिता, सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाडी, मुलायम सिंह, चंद्रबाबू नायडू, आदि आदि जिम्मेदार ठहराए जाते हैं? यह दिगर बात है कि बुद्धिजीवी  सोसायटी का एक बड़ा हिस्सा मोदी को छोड़ किसी को भी इस दायरे में घसीटने से बचता हैं।

इसी तरह किसी भी संसदीय पार्टी का कार्यक्रम वर्तमान व्यवस्था के संविधान व कानून के अनुरूप नहीं है। इनके बीच एका सिर्फ इस विदेशी पूंजी व देश के पूंजीपतियों, जमींदारों, बड़ी जमीन के मालिकों, व्यापारियों आदि के पक्ष में खड़ा होने को लेकर है। कई इससे भी सहमत नहीं हैं। एक बार फिर यह सवाल बनता है कि चल रही व्यवस्था की खिलाफत भी अपराध नहीं है तब अपराध क्या है!अपने देश में बहुत पहले से ही सीविल सोसायटी ने न्याय व्यवस्था को अस्वीकार करते हुए सामांनांतर जन सुनवाई व न्याय की प्रक्रिया को अपना लिया था और अब तो यह एक रोजमर्रा की बात है। यह भी माओवादियों की इजाद व्यवस्था नहीं। ठेठ दिल्ली में कांस्टीट्यूशनल क्लब के भवन में न्याय की जन व्यवस्था यानी जनसुनवाई की जाती है।

यदि सामानांतर व्यवस्था की बात करना ही नहीं बल्कि व्यवहार में एक हद तक उसे उतारना भी अपराध नहीं है तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आंतरिक सुरक्षा के राग का वास्तविक अर्थ क्या है?भगवा फासिस्टों की देश की अखंडता का निहितार्थ क्या है? और सीपीएम के हिंसक अराजकतावादियों के खिलाफ अभियान के पीछे की सोच क्या है? क्या इसलिए कि ‘आतंकवादियों’ व नक्सलाइटों के पास सेना या गुरिल्ला है?यह बात भी सच् नहीं लगती क्योंकि यह सब कुछ तो संसदीय राजनीतिक पार्टियों के पास है और और तो और इन धर्म के पुजारियों, निरंकारियों के पास भी यह सब कुछ खुलेआम है। रही बात इस व्यवस्था से असहमत होने व इसे बदल देने की तो यह मांग आम हो चुकी है और संसद के भीतर व बाहर,अकादमी से भीतर व बाहर, हर जगह चल रही है।ऐसे में बुद्धिजीवी सोसायटी की बहुसंख्या जब बिनायक सेन माओवादी नहीं है, के आधार पर संघर्ष शुरू करती है तो इससे स्वभावतः यह साबित हो जाता है कि जेलों में बंद माओवादी-नक्सलवादी अपराधी ही हैं।

न्याय के विमर्श में यह एक अद्भुत परिघटना है जो कोर्ट के भीतर ही नहीं हमारे बीच भी तय किया जा रहा है कि माओवादी अपराधी हैं और यही बात तो अदालत भी कह रही है। विनायक की सजा का आधार भी यही है। यह बहस कि एक नागरिक समाज में यूएपीए जैसा कानून वैध है या नहीं,राजनीतिक सामाजिक परिघटनाओं का कोई ऐतिहासिक, तात्कालिक कारण व उसकी प्रासंगिकता है या नहीं, आदि आदि सवालों से टकराए बिना ही कॉमन सेंस के आधार पर बुद्धिजीवी सोसायटी के विमर्श का नतीजा एक खतरनाक निष्कर्ष तक जा रहा है कि दरअसल, विनायक सेन माओवादी नहीं है।

हिंसा सामानांतर व्यवस्था की बात करना, सामानांतर कोर्ट खड़ा करना,सेना बना लेना, अपराध नहीं है तब इस व्यवस्था में अपराध क्या है?या यूं कहें कि बिनायक सेन व माओवादियों का और यहां तक कि गांधीवादियों का अपराध क्या है?बिनायक सेन एक ऐसी अस्पताल व्यवस्था से जुड़े जो आदिवासियों व मजदूरों के लिए बनाई गई थी। जिसकी स्थापना मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी ने की थी। एक डाक्टर के पेशे के तहत वे आदिवासियों की रिहाइशों की तरफ बढ़े और उनके जीवन के भौतिक उत्पादन व रहन सहन की बदहालियों को समझते हुए रोग व जीवन को दुरूस्त करने के प्रयास में लग गए।

विनायक सेन ने आदिवासियों की संपदा की लूटपाट और उन्हें उजाड़ने के षडयंत्रों को समाज के सामने रखना शुरू किया। खनिज, जमीन, बीज, जल और उनके श्रम की लूट की खिलाफत का अर्थ बहुराष्ट्रीय-राष्ट्रीय पूंजीपतियों की लूट को रोकना था। बिनायक सेन मानवीय जीवन के मौलिक अधिकारों के सवालों को एक संदर्भ देकर उसे न केवल हमारे बीच, सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों के बीच बल्कि आदिवासियों के बीच एक बहस को केन्द्र में ला रहे थे कि इस कथित विकास की नीति में मनुष्य कहां है।

इसलिए यहां सवाल बिनायक सेन या वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख हिमांशु के हिंसक होने या न होने का नहीं है बल्कि उस प्रक्रिया का है जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों का विश्वस्तर पर पर्दाफाश हो रहा है। इस प्रक्रिया में हजारों बुद्धिजीवी शामिल थे जिनके प्रभाव से सूदूरवर्ती क्षेत्रों के साथ-साथ शहरों में भी प्रतिरोध की चेतना तेजी से एक रूप ले रही थी। गांव व आदिवासी जीवन,शहरों में मजदूरों के प्रति युवा वर्ग का बढ़ता आकर्षण ही वह पक्ष था जिसके चलते चिदम्बरम को घबड़हाहट है।

अदालत में सरकारी वकील ने बिनायक सेन को और पीयूसीएल को सीपीआई-माओवादी का घटक सिद्ध करने की इस आधार पर कोशिश की गयी कि दोनों ही छत्तीसगढ़ के माओवाद वाले क्षेत्रों से सीआरपीएफ के वापसी की मांग करते हैं।

कुछ साल पहले राजस्थान के किसानों के हिंसक आंदोलन,गुर्जरों के आरक्षण की मांग में उठा हिंसक संघर्ष, हाल ही में अलीगढ़ के किसानों के आंदोलन में माओवादियों के हाथ होने की शंका जाहिर की गई। किसी भी जगह जनता द्वारा रेडिकल बात करने का अर्थ माओवादी होना हो गया। हजारों लोगों को इसी आरोप के तहत यूएपीए,विशेष सुरक्षा अधिनियमों के तहत जेलों में बंद करने की प्रक्रिया अभी भी जारी है। इसलिए यहां मूल सवाल एक ऐसी परिघटना से है जिससे वर्तमान साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था वैधानिकता खोने लगती है,साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के चल रहे सामाजिक ढ़ांचे को अंदर से तोड़ने लगती है।

ऐसे में यह बात उठाना बहुत जरूरी है कि क्या साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की वैधानिकता पर सवाल ही अपराध है? क्या साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विकास की नीति व कारपोरेट प्रबंधन की राजनीति के सामने समर्पण ही एक मात्र विकल्प है?क्या यह देश चंद दस करोड़ लोगों का है जिसमें शामिल होने के लिए भेड़ियाधसान किया जाय? जाहिरा तौर पर देश का संविधान भी यह बात नहीं कहता है। न्याय की व्याख्या भी इसकी अनुमति नहीं देती। इसलिए जरूरी है कि न्याय की तराजू में तय किए गए अपराध के पाठ का पुनर्पाठ किया जाय,उसके विमर्शों को बदला जाय और सवाल उठाया जाय कि नक्सलाइट, माओवादी का पर्याय अपराध कैसे है?


(लेखक  स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक-राजनितिक कार्यकर्त्ता हैं. उनसे anjani.dost@yahoo.co.in   पर संपर्क किया जा सकता है.)