मोदी का कब्रिस्तान-श्मशान वाला जुमला सम्प्रेषण में कारगर रहा| अखिलेश ने इसकी काट के लिए प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस को ‘चौबीस घंटे बिजली’ जैसे तर्क का सहारा लिया| हिंदुत्व के अखाड़े में साख गंवा चुके विकास का यह अदना—सा तर्क मोदी की निर्बाध भावनात्मक अपील के सामने नहीं ठहर सका.....
विकास नारायण राय
जुमलेबाजी में गलत क्या है? प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू के अनुसार एक प्रभावी जुमला (rhetoric) तीन तत्वों के मिश्रण से बनेगा- एथोस, पथोस और लोगोस, यानी संवादकर्ता की साख, जुमले की भावनात्मक अपील और उसमें निहित तर्क| नरेंद्र मोदी की चुनावी सफलता ने सम्प्रेषण की इस कला को आज देश की सामयिक राजनीति में स्थापित कर दिया है| उत्तर प्रदेश के हालिया चुनाव में सभी ने देखा कि कैसे अखिलेश के ‘काम बोलता है’ पर मोदी का जवाबी जुमला ‘कारनामा बोलता है’ भारी पड़ा|
इस लिहाज से मायावती मैदान में कहीं थी ही नहीं| 2015 में स्वयं मोदी का ‘कितने लाख करोड़ दूँ’ जैसा नाटकीय जुमला बिहार में औंधे मुंह धराशायी गिरा था| बिहार चुनाव के समय मोदी हर बैंक खाते में विदेशों से लाया पंद्रह लाख काला धन जमा करने में चूक गए व्यक्ति हुआ करते थे, जबकि उत्तर प्रदेश संस्करण में विमुद्रीकरण के घोड़े पर सवार उस दिशा में बढ़ते एक योद्धा|
अरस्तू ने इसे ‘तकनीक’ कहा| हालाँकि, राजनीतिक जुमला एक तरह से भाषा के कलेवर में छिपी राजनेता की अविश्वसनीयता का भी सूचक है| भविष्य के वादे के दम पर वर्तमान को अपने साथ ले जा पाने का उसका व्यावहारिक कौशल! साध्य को पाने का साधन! उत्तर प्रदेश की अभूतपूर्व सफलता के समानंतर पंजाब की करारी हार में मोदी ने यह भी पाया होगा कि उनका जुमला कौशल बादल परिवार की शून्य बराबर साख से गुणा होकर शून्य ही रह गया| जब साख नहीं तो जुमला काम नहीं आता, नाकाफी सिद्ध होते हैं अकेले दम भावनाओं की अपील और तर्कों के फलसफे|
बेशक, लोगों को प्रभावित करने के लिए जरूरी नहीं कि साख सच्चाई या जवाबदेही के धरातल पर टिकी हो; जरूरी होता है लोगों का जुमले से तारतम्य| इंदिरा गाँधी के मशहूर, बेहद सफल राजनीतिक जुमले ‘गरीबी हटाओ’ की तरह| वैसे ही जैसे सदाबहार बन गया है परिवार नियोजन का सरकारी जुमला, ‘हम दो हमारे दो’|
मोदी ने ताजातरीन चुनावी दौर तक आते-आते महत्वपूर्ण ‘कोर्स करेक्शन’ किये हैं| बिहार चुनाव के समय उनकी छवि कृषि भूमि हड़पने पर उतारू, बुलेट ट्रेन और क्रोनी कॉर्पोरेट की संगत में दस लाख का नामधारी सूट पहन विदेशों में वक्त गुजारने वाले बड़बोले प्रधानमंत्री की बन रही थी| आज वे रसोई गैस, शौचालय, सकल आवास, बेटी बचाओ, कर्ज माफी, ईमानदार शासन और गुंडाराज से मुक्ति जैसे समावेशी मुद्दों की ब्रांडिंग को लालायित नेतृत्व के रूप में उभरते लग रहे हैं|
मोदी के विकास केन्द्रित जुमलों को साख यहाँ से मिली ईमानदारी की भावनात्मक अपील और सुशासन की तर्क शक्ति तो उनमें पहले भी कम न थी| ध्यान रहे कि एक भी मुस्लिम को उम्मीदवार बना पाने में असमर्थ भाजपा का मुख्य राजनीतिक जुमला, ‘सबका साथ सबका विकास’ साख और तर्क के मानदंड पर फिसड्डी रहा| मात्र एक भावना भर प्रेषित करने से यह पार्टी की कमजोर कड़ी सिद्ध हुआ| इसे मुस्लिमों, ईसाइयों और दलितों ने जैसे पहले नाकारा था वैसे ही अब भी| स्वीकारा तो दूसरों ने भी नहीं| हालाँकि भाजपा घाटे में नहीं रही क्योंकि पंजाब के बादलों की ही तरह उत्तर प्रदेश में यादवों की ब्रांड साख भी जीरो रही| लिहाजा, राहुल-अखिलेश के ‘यूपी को युवा साथ पसंद है’ वाली संयुक्त जुमलेबाजी का नतीजा कांग्रेस के लिए सिफर निकला|
सफल चुनावी जुमला और कुछ नहीं सही वोटर निशाने पर लगा शब्द बाण ही है| इस चुनावी दौर में हमने देखा कि इसका वाहक आशा, भय, घृणा, असुरक्षा, राष्ट्रवाद, विकास, कुछ भी हो सकते हैं| इसकी प्रभावी ताकत में संदेह नहीं| अपने हिंदुत्व वोट बैंक के चुनावी ध्रुवीकरण के लिए भाजपा पारंपरिक रूप से विरोधियों पर तुष्टीकरण का आरोप मढ़ती आयी है|
अब की बार उत्तर प्रदेश में इसे सिरे चढ़ाने के लिए पार्टी को राम मंदिर या मुजफ्फरनगर का ढोल पीटने की जरूरत नहीं पड़ी| मोदी का कब्रिस्तान-श्मशान और ईद-दीवाली वाला जुमला सम्प्रेषण में कारगर रहा| अखिलेश ने इसकी काट के लिए प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस को ‘चौबीस घंटे बिजली’ जैसे तर्क का सहारा लिया|हिंदुत्व के अखाड़े में साख गंवा चुके विकास का यह अदना—सा तर्क मोदी की निर्बाध भावनात्मक अपील के सामने नहीं ठहर सका|
भारत निर्माण में सकारात्मक राजनीतिक जुमलों की ताकत बखूबी महसूस की गयी है| स्वतंत्रता संग्राम में ‘आजादी हमारा जन्म सिद्ध अधिकार’, ‘बन्दे मातरम’, ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘भारत छोडो’ और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का सिलसिला स्वतंत्र भारत में ‘जय जवान जय किसान’ और ‘हर जोर जुल्म से टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ तक बना रहा | इस बीच ‘आपातकाल अनुशासन पर्व’, ‘हम मंदिर वहीं बनायेंगे’, ‘तिलक, तराजू और तलवार......’ और ‘उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण’ बेहद विवादग्रस्त राजनीतिक जुमले बनकर देश के राजनीतिक क्षितिज पर उभरे|
इस क्रम में देखें तो मोदी के जुमलों की चुनावी लय फिलहाल विकासवादी और विभाजक दोनों रही है| देर-सबेर वोटर को ही नहीं उन्हें भी इस घाल-मेल से निकलते दिखना होगा| अकेले गांधी जी ही यह जुमला बोल सकते थे- जो परिवर्तन दुनिया में देखना चाहते हो स्वयं में पैदा करो| यह था उनकी साख का राज! आज के दिन मोदी शायद देश में एकमात्र सक्रिय महत्वपूर्ण राजनेता हैं जो अपने श्रोताओं की आँख में आँख डाल कर कह सकते हैं, ‘न खाऊँगा न खाने दूंगा’| प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कितनी ही बार करतल ध्वनि के बीच यह जुमला दोहराया होगा|
हालाँकि, आपको बिना किसी अर्थशास्त्री के बताये भी पता है कि नोटबंदी ने काले धन पर कोई असर नहीं डाला | बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ता जा रहा है| विजय माल्या, मोदी सरकार की आँखों में आँखें डालकर हजारों करोड़ की देनदारी के साथ देश से उड़न छू हो गया| क्रोनी कॉर्पोरेट तंत्र पहले जैसा ही फल-फूल रहा है| मणिपुर और गोवा में भाजपा सरकारें वोट से नहीं खोट से बनी हैं| तो क्या, महत्वपूर्ण है कि ‘न खाऊँगा न खाने दूंगा’ की मोदी साख बरकरार है|
मनमोहन सिंह इस जुमले का सिर्फ पहला आधा भाग कह सकते थे, ‘न खाऊँगा’, और मायावती सिर्फ शेष आधा, ‘न खाने दूंगी’| क्या मोदी के जुमलों की अंतर्वस्तु और उनकी सार्वजनिक वक्तृता शैली की तुलना हिटलर से की जा सकती है, जैसा कि उनके कई विरोधी दावा करते रहे है| इसके समर्थन में मुख्यतः मोदी की विशाल भीड़ से एकाकार होने के क्रम में नाटकीय भंगिमाओं और उनके गुजरात दौर के सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का हवाला दिया जाता है|
जैसे हिटलर जर्मन श्रमिक से एकजुटता दिखाने के लिए अपने साढ़े चार वर्ष के एक साधारण सैनिक के जीवन का भावुक हवाला दिया करता था, क्या मोदी का चाय वाला अवतार भी वही मकसद हासिल करता नहीं लगता? शब्दों के दोनों चितेरे राष्ट्रवादी फासिस्ट अपील से अपने श्रोताओं पर जादुई असर छोड़ते नजर आते हैं| लेकिन, भिन्न कालखण्डों के भिन्न राजनीतिक सन्दर्भों की कोई भी तुलना अकादमिक हो सकती है, जरूरी नहीं व्यावहारिक भी हो| अरस्तू वर्णित राजनीतिक जुमलों की अपील के तत्व बेशक दोनों में हों, वे उसी गहन रूप में आज भी हम पर असर करते हों, तो भी देश-काल सापेक्षता के निर्णायक महत्व को नकारा नहीं जा सकता है| हिटलर युद्ध उन्माद की उपज था| मोदी का जमाना ट्वीट का जमाना है|
भारत में ऐसे विचारकों की भी कमी नहीं जो भारतीय प्रधानमंत्री के राजनीतिक सम्प्रेषण को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के खांचे में रखना चाहेंगे| लेकिन सच्चाई यह है कि जुमलेबाजी की कला में ट्रम्प बहुत पीछे छूट जाते हैं| उनकी शैली दो टूक बात कहने वाली रही है, लगभग जुमला-विरोधी| दरअसल, इस क्षेत्र में मोदी की तुलना ट्रम्प के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ओबामा से करनी अधिक दुरुस्त होगी, जो निर्विवाद रूप से शब्दों के कुशलतम चितेरे गिने जाते हैं| राष्ट्रपति चुनाव प्रचार में ओबामा को उनकी नीतियों से कहीं ज्यादा उनके नपे-तुले शब्दों के लिए विरोधियों की घोर आलोचना सुननी पड़ी थी|
उनके बारे में यहाँ तक कहा गया कि शब्द ही जिसके लिए सबकुछ हैं, उसका भरोसा कैसे किया जा सकता है| उत्तर प्रदेश में अखिलेश और राहुल ने भी लगातार मोदी के ‘मन की बात’ पर सवाल खड़ा किया कि वे ‘काम की बात’ कब शुरू करेंगे? यहाँ तक कि, याद कीजिये, 2014 में लोकसभा अभियान स्वयं मोदी ने भी ओबामा के मशहूर चुनावी जुमले ‘यस वी कैन’ से ही शुरू किया था|
राजनीतिक जुमलों के अध्ययनकर्ता संपादक सैम लीथ का सटीक निष्कर्ष है कि जुमला शब्दों को शक्ति देने का काम करता है| इसका सटीक ज्ञान नागरिक को भी सत्ता के इस्तेमाल और उसके विरोध दोनों की समझ देगा |