Sep 6, 2010

शांति दूत की जगह चुनावी एजेंट बने अग्निवेश !


छत्तीसगढ़ के चिंतलनार क्षेत्र में माओवादियों और पुलिस के बीच संघर्ष में 6अप्रैल को अर्धसैनिक बलों के 76 जवान मारे गये थे। माओवादियों के हाथों सरकार के सबसे काबिल और सुसज्जित सुरक्षा बलों का इतनी बड़ी संख्या में मारा जाना जहां राज्य मशीनरी के लिए एक नयी चुनौती बना,वहीं ऐसी स्थिति न चाहने वालों के लिए सरोकार का गंभीर प्रश्न। सरोकार की इसी चाहत से शांति चाहने वालों ने एक समूह बनाकर चिंतलनार वारदात के ठीक एक महीने बाद 5से 8मई के बीच रायपुर से दंतेवाड़ा तक एक शांतियात्रा की। यात्रा का असर रहा और सरकार एवं माओवादियों से बातचीत की एक सुगबुगाहट भी शुरू हुई,लेकिन सुगबुगाहट से उपजी उम्मीदें आंध्र पुलिस द्वारा माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद और उनके साथ पत्रकार हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या किये जाने के बाद हाशिये पर चली गयीं।
आजाद की हत्या उस समय हुई थी जब शांति यात्रा करने वालों के समूह के सदस्य स्वामी अग्निवेश सरकार और माओवादियों के बीच वार्ता के मंच को अंतिम रूप देने का दावा कर रहे थे। उसी बीच हुई आजाद ही हत्या ने न सिर्फ शांति को लेकर सरकार की चाहत पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये,बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का भी तमाम तीखे सवालों से साबका हुआ। स्वामी अग्निवेश की पहलकदमी पर सवाल तो बहुतेरे उठे, लेकिन शांति यात्रा के सदस्यों ने जो सवाल एक पत्र के माध्यम से खड़े किये हैं वह कुछ नये भटकावों,मौकापरस्ती और नेतृत्व करने की आतुरता को पाठकों के सामने सरेआम कर देते हैं। पत्र इस मायने में महत्वपूर्ण है कि सवाल करने वाले उनके अपने साथी हैं जिसका जवाब स्वामी अग्निवेश को अब उन्हीं सार्वजनिक मंचों पर आकर देना चाहिए जहां वह शांतिवार्ता के नायक के तौर पर अब तक स्थापित होते रहे हैं।
शांति और न्याय के लिए एक अभियान में शामिल पदयात्रियों का अग्निवेश के नाम  पत्र...

प्रिय अग्निवेश जी,
                                                                                                                             
हमलोग यह पत्र मई 2010में छत्तीसगढ़ शांति और न्याय यात्रा के उन सदस्यों की ओर से लिख रहे हैं जो इस अभियान में शामिल थे। हमलोग इस मसले पर अपना मत सार्वजनिक नहीं करना चाह रहे थे,लेकिन शांतिवार्ता में शामिल सदस्यों का दबाव था कि सच्चाई सामने आनी चाहिए। इसलिए हमें लगता है कि यह सही वक्त है जब बात कह दी जानी चाहिए। अब हम सीधे मुद्दे पर आते हैं और साफ-साफ कहना चाहते हैं कि आपने पूरे मामले को हथियाने की कोशिश की। विभिन्न क्षेत्रों में महारत प्राप्त वैज्ञानिक,शिक्षाविद,गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा शुरू की गयी इस पहल को आपने न सिर्फ रास्ते से भटकाया (आजाद और हेमचंद्र पांडे के संदर्भ में)बल्कि अंततः ममता बनर्जी जैसे नेताओं की राजनीतिक झोली में डाल दिया।

कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना : राजनीति में यही उसूल  
इतना ही नहीं आपने खुद को शांति और न्याय यात्रा का स्वघोषित नेता मान लिया और गृहमंत्री पी.चिदंबरम से सांठगांठ में  लगे रहे। हम सभी जानते हैं कि शांति और न्याय यात्रा के बाद 11मई को गृहमंत्री ने आपको संबोधित एक पत्र में लिखा था  कि ‘मुझे पता चला  है रायपुर   से  दंतेवाड़ा   तक सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का शांति यात्रा में नेतृत्व करते हुए आप रायपुर से दंतेवाड़ा गये...’

आप नेता कैसे बन सकते हैं जबकि आप शांति यात्रा के ऐसे पहले सदस्य थे जिन्होंने जगदलपुर के एक लॉन में बैठकर 6मई को बीजेपी और कांग्रेस के गुंडों के प्रदर्शन के बाद कहा था कि 'हम लोग यहां शहीद होने के लिए नहीं आए हैं. विरोध–प्रदर्शन बंद कर देना चाहिए और कल ही यहां से वापस चले जाना चाहिए.'


हमारे एक सदस्य डॉ. बनवारी लाल शर्मा के फोन करने और चेतावनी देने के बावजूद आपने गुपचुप तरीके से कदम उठाते रहे.उदाहरण के तौर पर थॉमस कोचरी ने एक सलाह दी थी कि इस अभियान से जुड़े कुछ सदस्यों को जेल में बंद माओवादी नेताओं से मुलाकात करनी चाहिए. कई दूसरे सदस्यों समेत नारायण देसाई ने इसका समर्थन किया था. डॉ शर्मा ने आपसे अनुरोध किया था कि आपको इस बाबत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी चाहिए क्योंकि आप वहां जा चुके थे.


अभियान के प्रमुख लोग: उभरे अग्निवेश
बजाय इसके कि आप हमारे अभियान के लिए इसकी इजाजत लेते,आपने गुपचुप तरीके से रायपुर और दिल्ली के  तिहाड़ जेल में जाकर माओवादी नेताओं से मुलाकात कर ली.इसके अलावा आपने राजगोपाल के साथ मिलकर दिल्ली में 9जुलाई को एक राउंड टेबल आयोजित करने का ऐलान कर दिया,जबकि राजगोपाल हमारे ग्रुप में पहले से नहीं शामिल थे.


जब हमें ये पता चला तब हम लोगों ने इसमें हस्तक्षेप किया.इस मीटिंग में वरिष्ठ गांधीवादी नेता राधा भट्ट और डॉ शर्मा मौजूद थे.इसी मीटिंग में आपने खुलासा किया कि आपके पास आजाद (माओवादी प्रवक्ता)का भेजा गया वो पत्र है जिसे उन्होंने चिदंबरम के पत्र के जवाब में भेजा था.हालांकि आपने ये पत्र हमें दिखाने से इंकार कर दिया था,जबकि ये पत्र पहले ही सार्वजनिक हो चुका था और हमारे पास भी मौजूद था.जब आप पर अभियान के सदस्यों ने ये जानने के लिए दबाव डाला कि 'आजाद ने बातचीत के लिए क्या शर्ते रखी हैं?'तब आपने केवल कुछ संकेत दिए.

हमने तब जोर देकर कहा कि जब तक सरकार माओवादियों की कुछ मांगों को स्वीकार करके गंभीरता का परिचय नहीं देती,तब तक माओवादियों से राउंड टेबल बातचीत का कोई मतलब नहीं.डॉ शर्मा के साथ लंबी बातचीत के दौरान आपने उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की कि सबकुछ ठीक है, लेकिन ये साफ हो चुका है कि कुछ भी ठीक नहीं था.आपने खुद स्वीकार किया था कि चीजें ठीक दिशा में नहीं जा रही और आप इस प्रक्रिया से बाहर होना चाहते हैं.(हालांकि किसी ने आपसे इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए कहा भी नहीं था).चिदंबरम और कुछ दोस्त जिनके साथ आप माओवादियों के प्रतिनिधि के तौर पर व्यवहार कर रहे थे,से झटका खाने के बाद आपने उनसे 25 जून को फोन पर हुई बातचीत के दौरान ये बात कही थी.


इन साथियों ने आपसे आजाद के पत्र को सार्वजनिक करने का दवाब डाला.जबकि आप चिदंबरम के पत्र को पहले ही सार्वजनिक कर चुके थे. (आपने इस पत्र की स्कैन कॉपी ई-मेल से भेजी थी). आपने 19 जून को दोपहर तीन बजे दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर आजाद के खत को सार्वजनिक करने का फैसला लिया था और इसका ऐलान भी कर दिया था,लेकिन चिदंबरम के आदेश पर आपने आखिरी वक्त में प्रेस कांफ्रेंस को स्थगित कर दिया.


शांतिवार्ता की प्रक्रिया में यह लोग क्यों नहीं रहे?
बातचीत की प्रक्रिया से अलग होने के बाद भी आपने आजाद को पत्र लिखा और इसका भयानक परिणाम सबके सामने है.केवल आजाद ही नहीं, हेमचंद्र भी मारे गए. और इसी के साथ शांति प्रकिया की भी हत्या हो गई.


आप हमें ये कहने की इजाजत दें कि आप इस देश के स्वतंत्र नागरिक हैं और अपनी मनमर्जी के मुताबिक काम करने के लिए स्वतंत्र हैं.लेकिन हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सचेत नागरिकों के कठिन प्रयास से निकला एक ‘शांति दूत’चुनावी एजेंट में बदल चुका है,जिसने 9अगस्त को लालगढ़ में एक जोरदार चुनावी भाषण दिया है.आपकी उस बहुप्रचारित ‘शांति यात्रा’का क्या हुआ जिसे 9से 15 अगस्त के दौरान कोलकाता से लालगढ़ जाना था और जिसमें मेधा पाटकर समेत कई सामाजिक संगठनों को शामिल होना था?जिसके नेता आप और मेधा थे और धारा144 को तोड़ते हुए लालगढ़ में आपको 15 अगस्त के दिन तिरंगा फहराना था?


आपने ‘शांति प्रक्रिया’को राजनीति की विषयवस्तु बना दिया है.हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने निजी राजनीतिक महत्वाकाक्षांओं के लिए शांति-न्याय मार्च के 60सदस्यों के साथ धोखा किया है. हम कहना चाहते हैं कि आपकी गलतियों के लिए हम कहीं से भी जिम्मेदार नहीं हैं.

शांति  मार्च  के भागीदारों का मूल अंग्रेजी में लिखा पत्र  

आपने शांति प्रकिया का बहुत नुकसान किया है.बावजूद इसके,शांति और न्याय के लिए हमारी मुहिम जारी है.हमारा प्रयास है कि देश में हिंसा की समाप्ति और हिंसा के लिए जिम्मेदार मूलभूत कारणों को समाप्त करने के लिए जनमत बनाया जा सके.

भवदीय
अगस्त 19, 2010
थॉमस कोचरी अमरनाथ भाई,राधा भट्ट, डॉ वी एन शर्मा, गौतम बंदोपाध्याय, जनक लाल ठाकुर, राजीव लोचन शाह, नीरच जैन, विवेकानंद माथने, डॉ बनवारी लाल शर्मा, मनोज त्यागी, डॉ मिथिलेश डांगी की ओर से जारी पत्र...


अनुवाद : विडी




माओवादी कहलाना पसंद करूँगा !


जनज्वार  में छपे  लेख ‘लखीसराय फिल्म की सफलता और टीवी शो के बुद्धिजीवी' के कुछ अंशों  पर जीएन साईबाबा ने ऐतराज करते हुए एक टिप्पणी लिखी है,जो इस प्रकार से है...
जनज्वार के प्रिय साथियों,

जनज्वार ने मुझ पर आरोप लगाया गया है कि बिहार में माओवादियों द्वारा बंधक बनाए गए पुलिसकर्मियों में से एक  लोकस टेटे की हत्या पर मैंने अरुंधती  राय,स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटेकर के खेद जताने के बाद खेद जताया.मेरे ऊपर लगाया गया यह आरोप आधारहीन है.मैंने दो सितंबर को लोकस टेटे की हत्या से पहले ही बीबीसी (हिंदी)और कुछ टीवी चैनलों से हुई बातचीत में माओवादियों से बंधक बनाए गए चारों पुलिसकर्मियों की हत्या न करने की अपील की थी.

मैंने इस बात पर अपनी राय जाहिर की थी कि माओवादियों को उनकी हत्या क्यों नहीं करनी चाहिए.

लोकस टेटे की हत्या की खबर मिलने के दो घंटे बाद ही मैंने बयान जारी करना शुरू कर दिया था,मुझे जो भी मिला मैंने उसे अपना बयान दिया.

‘जनज्वार’ ने मुझे माओवादियों का एक समर्थक बताने की कोशिश की है, लेकिन मुझे समर्थक शब्द से नफरत है. पत्रकार अर्नव  गोस्वामी को भी मुझे और बहुत से अन्य लोगों को माओवादियों को समर्थक बताना  अच्छा लगता है. लेकिन मैं एक ‘समर्थक’ होने की जगह ‘माओवादी’ होना ज्यादा पसंद करुंगा है.  समर्थक कहने से ऐसा लगता है कि कोई मुझे दलाल, टहलुआ या बिचौलिया कहकर बुला रहा है.

मुझे उदारवादी बुद्धिजीवियों से  जो कि आज के समाज के बारे में अच्छी समझ रखते हैं,उनकी अपील से भाकपा (माओवादी) अगर सबक लेती है तो  इसमें कोई समस्या नजर नहीं आती है. खासकर उन बुद्धिजिवियों की तुलना में जो कि महान मार्क्सवादी होने का दंभ तो भरते हैं लेकिन आज के समय की समस्याओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाते हैं.

शुभकामनाओं के साथ

जीएन साईबाबा