नई पीढ़ी के पास किसानी को लेकर कोई व्यवस्थित सोच और तैयारी नहीं है. वे जमीन के बदले पैसे को सही प्रबंधन मानते हैं. कल तक जो किसान अपने परिवार के साथ-साथ बाकी समाज की भूख को संभालता था, कहीं ऐसा न हो कि उसे खुद का पेट भरने के लिए बाजार पर निर्भर होना पड़े ...
गायत्री आर्य
दुनिया के सबसे बड़े कृषि प्रधान देश भारत में दुनिया के एक चौथाई भूखे लोग रहते हैं। निश्चित तौर पर यह तथ्य 1894 के भूमिअधिग्रहण कानून में बदलाव लाते वक्त किसी भी मंत्री के दिमाग में नहीं होगा। हाल ही में ऑॅक्सफैम ने ‘घटते संसाधनों के बीच बेहतर भविष्य के लिए खाद्यन्नों का न्यायसंगत इस्तेमाल‘ नामक एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अगले बीस सालों में दुनिया में खाद्य वस्तुओं की मांग 70 गुना बढने से इनकी कीमतों में दोगुना इजाफा होगा और पूरी दुनिया में भुखमरी विकराल रुप ले लेगी। खाद्यन्न पैदा करने के साथ-साथ 1990 से 2005 तक हमने फ्रांस की आबादी से ज्यादा यानी 6.5 करोड़ भूखे लोग भी पैदा किये हैं। लेकिन अफसोस की अभी भी भूमि अधिग्रहण मुद्दे को सिर्फ मुआवजे, उद्योग और विकास के जुड़ा हुआ मुद्दा ही माना जा रहा है।
नयी पीढ़ी के खेतिहरों को खोजते खेत फोटो - अजय प्रकाश |
किसानों की पहली चाहत है कि जमीन उनसे ना छिने और छिने भी तो बाजार भाव के हिसाब से उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुआवजा मिले। दूसरी तरफ निवेशकों और उद्योगपतियों की पहली चाहत है कि हर हाल में जमीन उन्हें मिले और कम से कम कीमत पर मिले। सरकार बनाने में जितने जरुरी वोट हैं उससे भी ज्यादा जरुरी पैसा है इसलिए जाहिर है कि सरकारें निवेशकों और उद्योगपतियों की तरफदारी करती हैं। लेकिन बाजार और पैसे की चकाचौंध अब गांवों तक भी पहुंच गई है, इसलिए किसान सस्ते में निबटने को तैयार नहीं। यदि किसानों को जमीन के मनचाहे पैसे मिल जाते तब शायद जमीन अधिग्रहण कोई मुद्दा बनता ही नहीं। तब जमीन बचाने के लिए धरना, प्रदर्शन और विरोध करने की नौबत संभवतः नहीं आती। खेती की जमीन कम होने का सीधा असर खाद्दान्न पैदावार पर भी होगा । खाने वाले पेट उतने ही रहेंगे, लेकिन उगाने वले हाथ और जमीन कम से कमतर होते जा रहे हैं, क्योंकि सारी उपजाऊ जमीन पर तो विकास की नजर है।
हाल-फिलहाल में किसानों द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध में हुए आंदोलनों को देखें तो एक बात साफतौर पर सामने आती है। किसानों की पहली प्राथमिकता जमीन ना देने के बदले ज्यादा से ज्यादा मुआवजा पाना है। इसका कारण ये है कि किसानों की नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी खेती को अपने व्यवसाय के तौर पर नहीं देखती, बल्कि बिना मेहनत के लाभ देने वाली पूंजी के तौर पर देखती है। क्योंकि सिर्फ खेती ही ऐसा काम है जो हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद भी ज्यादा लाभ की कोई निश्चित गारंटी नहीं देता। अच्छी फसल भी रातों-रात बारिश, आंधी, तूफान, ओलावृष्टि की भेंट चढ सकती है या फिर बाजार के गिरते-चढ़ते मूल्य के बीच फंस सकती है, ऐसे में कैसी भी नौकरी उनकी पहली पसंद है क्योंकि वहां उन्हे पता है कि महीने के अंत में उन्हें कितना मिलेगा या साल भर में कितना बचा पाएंगे। गांवों में जो युवक प्रत्यक्ष रुप से खेती नहीं करते ना ही नौकरी करते हैं शादी कराने के लिए उन्हें किसान के तौर पर प्रचारित किया जाता है। असल में वे ‘अदृश्य बेरोजगार‘ हैं जिन्हें हम किसानों में ही गिनने की गलती करते हैं।
भूमि अधिग्रहण की खबर किसान परिवारों में मोटा-मोटी दो तरह की प्रतिक्रिया लाती है। पुरानी पीढ़ी के लोग जो सही मायने में किसान हैं वे अपनी आजीविका को छिनता हुआ देखते हैं। पुश्तैनी जमीन का जाना उन्हें भावनात्मक और आर्थिक दोनों तरह से असुरक्षित करता है। दूसरी तरफ युवा (झूठ-मूठ के किसान) ना तो भावनात्मक स्तर पर ही जमीन से जुड़े होते हैं ना ही सीधे तौर पर उन्हें जमीन आर्थिक आत्मनिर्भरता देती है। उन्हें जमीन का अधिग्रहण एकमुश्त पैसा कमाने का सुनहरा मौका लगता है। हालाँकि जमीनी यर्थाथ यह है कि जमीन के बदले मिलने वाली बड़ी रकम का अक्सर सदुपयोग नहीं हो पाता।
नए-पुराने किसानों के पास पूंजी के सही निवेश के लिए ना तो कोई सोच होती है, ना ही योजना, ना ही कोई उस तरह का अनुभव और ना ही ऐसा कोई विचार । असली किसान खेती से अलग दूसरे किसी भी काम को शुरु करने की बात सोच भी नहीं सकते। दूसरी तरफ युवकों ने ऐसी कोई तकनीकी या प्रबंध शिक्षा नहीं ली होती कि वे अपना कोई व्यवसाय करने का सोच सकें। खेती करने वाला किसान अचानक से बेरोजगार हो जाता है और नई पीढ़ी के पास कोई व्यवस्थित सोच और तैयारी नहीं होती, जिस कारण अधिकांशतः जमीन के बदले मिले पैसे का सही प्रबंधन नहीं होता। कल तक जो किसान अपने परिवार के साथ-साथ बाकी समाज की भूख का भी इलाज करता था, आज वह खुद अपना पेट भरने के लिए दूसरे पर निर्भर होगा।
अमेरिका जैसी महाशक्ति जहां विज्ञान और तकनीक ने अविश्वसनीय चीजें, सुविधाएं और हालात पैदा किये हैं, वहां भी आज भी लोग खाना ही खाते हैं। ऐसी किसी गोली, इंजेक्शन, या टीके की खोज आज भी नहीं हुई जिसे खाने का नियमित विकल्प बनाया गया हो। ऐसी कोई कोशिश भी कहीं नजर नहीं आ रही। बड़े से बड़ा वैज्ञानिक, डॅाक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, उद्योगपति या फिर राष्ट्रपति भी अंततः खाना ही खाता है। यानि के विकास के चरम बिंदू पर भी हम खाने का ना तो कोई विकल्प ढ़ूंढ पाए हैं और ना ही ढूंढना चाहते हैं। फिर हम विकास के नाम पर खाना पैदा करने वाली जमीनों और हाथों को क्यों काट रहे हैं?
यह कैसा कृषि प्रधान देश है जो अपने 6.5 करोड़ लोगों को खाना नहीं दे पा रहा है? यह कैसा खेतीहर देश है जो किसानों की नई पीढ़ी तैयार ना कर पाने के बावजूद भी खुद को कृषि प्रधान देश ही कहलवा रहा है? क्यों हम 6 दशकों में भी ऐसे हालात नहीं पैदा कर पाए कि नई पीढ़ी सिर्फ विज्ञान, वाणिज्य, प्रबंधन को ही नहीं खेती को भी कैरियर के तौर पर चुने? क्यों सेज से लेकर तमाम ओद्यौगिक इकाइयां उत्पादक जमीन पर खड़ी की जा रही हैं? क्या हम खेती की जमीन जरुरत से ज्यादा होने से त्रस्त है? फिर अनुत्पादक (‘बंजर‘ नहीं क्योंकि जमीन हमेशा कुछ ना कुछ देती है)जमीनों को क्यों उद्योगिकरण के लिए नहीं चुना जा रहा?
जिस उपजाऊ मिट्टी को ऊंचे दाम चुकाकर कंक्रीट में बदला जा रहा है, उससे पैदा होने वाले खाद्यान्न की भरपाई कौन करेगा? मिट्टी की एक परत बनने में एक हजार साल लगते हैं और उसे कंक्रीट बनाने में 100 दिन भी नहीं। लेकिन अभी भी जमीन अधिग्रहण का मुद्दा ज्यादा से ज्यादा दाम लेने और कम से कम दाम में खरीदने के बीच ही झूल रहा है। क्या नई जमीन अधिग्रहण नीति में सरकार जमीन से जुड़े मूल मुद्दे खाद्यान्न उत्पादन और भूख नियंत्रण को ध्यान में रखेगी या फिर वोट बैंक और नोट बैंक के वर्तमान हितों को ही पोसने की कोशिश करेगी? केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाने जा रही है। इस कानून को लागू करने की पहली शर्त पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन, तत्पश्चात सही भंडारण और न्यायसंगत वितरण है। एक तरफ खाद्यान्न सुरक्षा का लोक लुभावन कानून दूसरी तरफ उपजाऊ जमीन पर गिद्ध दृष्टि!
भूख के भयानक स्तर पर पहुँचने से पैदा होने वाले भयानक हालातों को ध्यान में रखकर भूमि अधिग्रहण का नया कानून बनाना चाहिए। यह तय है कि सरकारें, उद्योगपति, निवेशक और विकास अंततः भूखे लोगों का शिकार होंगे। आम आदमी तो हर हाल में शिकार होने का अभिशप्त है ही। क्या हमें इतनी मुश्किलों से और इतनी कीमत चुकाकर होने वाले विकास को भूखे लोगों का शिकार होने से नहीं बचाना चाहिए? भूख को दबाकर और भूख की कीमत पर विकास कभी नहीं जीत सकता। हां भूख को जीतकर, सामाजिक शान्ति, सौहार्द स्थापित करके फिर भी स्थाई विकास की प्रबल संभावनाएं पैदा होती हैं।
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय से शोध और मजदूरों -किसानों से जुड़े मामलों पर लिखती हैं .