Mar 10, 2011

डाका डालती मोबाइल कम्पनियां


कमोबेश  सभी मोबाईल कंपनियों  के उपभोक्ता अपनी-अपनी मोबाईल फ़ोन कंपनी द्वारा की जाने वाली  नाजायज़ वसूली तथा लालच परोसने के तरीकों से अत्यंत दु:खी हैं...

निर्मल रानी

एक दशक पूर्व जब भारत में मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों ने कदम रखा उस समय भारतीय उपभोक्ताओं को यह सेवा किसी चमत्कार से कम नहीं लगी। शुरु-शुरु में मोबाईल फोन सेट बेचने वाली कंपनियों ने जहां अपने पुराने मॉडल के भारी-भरकम मोबाईल सेट मंहगे व मुंह मांगे दामों पर भारतीय उपभोक्ताओं के हाथों बेच डाले वहीं मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली संचार कंपनियों ने भी आऊट गोइंग व इनकमिंग कॉल्स के अलग-अलग मोटे पैसे वसूल कर भारतीय उपभोक्ताओं की जेबे खूब खाली कीं।

अब इन दस वर्षों में चूंकि संचार क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा देखी जा रही है तथा एक से बढ़ कर एक स्वदेशी तथा विदेशी कंपनियां भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाज़ार में अपने  जाल फैला रही हैं इसलिए जनता को इस प्रतिस्पर्धा का लाभ ज़रूर प्राप्त हो रहा है। अब मोबाईल सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों में शुल्क घटाने को लेकर प्रतिस्पर्धा मची देखी जा सकती है। मोबाईल फोन सेट भी पहले की तुलना में कहां अधिक सस्ते हो गए हैं।

लेकिन   मोबाईल सेवाएं उपलब्ध कराने वाली इन निजी संचार कंपनियों को शायद उपभोक्ताओं को मिलने वाली यह रियायत अच्छी नहीं लग रही है। तमाम निजी कंपनियां मोबाईल उपभोक्ताओं की जेबें खाली करने के नाना प्रकार के हथकंडे अपनाने से बाज़ नहीं आ रही हैं। तमाम निजी संचार कंपनियों ने अपने कार्यालय में ऐसे 'बुद्धिमान योजनाकारों'की नियुक्ति की हुई है जो कंपनियों को यह सलाह देते हैं कि किन-किन हथकंडों के द्वारा ग्राहकों की जेबों पर डाका डाला जाए। इस बारे में काफी समय से तमाम उपभोक्ता इन निजी संचार कंपनियों द्वारा उन्हें ठगे जाने के तमाम तरीके अक्सर बताते रहे हैं।

पिछले दिनों मेरा एक परिचित भी निजी मोबाईल सेवा प्रदान करने वाली कंपनी द्वारा की जाने वाली ठगी का शिकार हुआ। सर्वप्रथम तो मोबाईल फोन से प्रतिदिन कभी एक रुपया,कभी दो तो कभी-कभी तीन रुपये कटने लगे। जब उसने इस प्रकार पैसों की अकारण कटौती पर गौर किया तब तक उसके प्रीपेड मोबाईल खाते से काफी पैसे कट चुके थे।

तंग आकर उसने कनेक्शन   कस्टमर केयर सेंटर से संपर्क किया। पूछने पर यह पता चला कि 'आपने जॉब अलर्ट लगा रखा है इसीलिए आपके पैसे काटे जा रहे हैं। उसने जवाब दिया कि 'न तो मैंने कोई ऐसा जॉब अलर्ट लगाया है, न ही मुझे इसकी ज़रूरत है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक मुझे जॉब संबंधी कोई सूचना या एस एम एस भी कंपनी ने नहीं भेजा,फिर पैसा क्यों और किस बात के लिए काटा जा रहा है'।

इस पर भी कस्टमर केयर सेंटर का 'तोता रटंत' कर्मी अपनी ही बात पर कहता रहा 'नहीं' जी आपने जॉब अलर्ट लगाया है और आपको जॉब अलर्ट भेजा जा रहा है। मेरे मना करने के बाद जॉब अलर्ट के नाम पर पैसे कटने का सिलसिला बंद हुआ। अभी यह सिलसिला बंद ही हुआ था कि उसके इसी मोबाईल खाते से पुन:पैसे कटने शुरु हो गए। फिर उसी तरह कभी दो तो कभी तीन रुपये। वह उपभोक्ता फिर विचलित हुआ। क्योंकि वह कोई व्यापारी या धनाढ्य व्यक्ति नहीं जोकि 1-2रुपये की कोई कीमत ही न समझे। उसने पुन:कस्टमर केयर से संपर्क साधा।

इस बार तो उसे बड़ा आश्चर्यचकित करने वाला जवाब सुनने का मिला। उसे बताया गया कि आपने 'करीना कपूर अलर्ट' लगा रखा है। अब ज़रा आप ही बताईए कि देश-दुनिया की उथल-पुथल की चिंताओं को छोड़कर आज के ज़माने में कोई हर पल क्यों यह जानना चाहेगा कि करीना कपूर कब, क्या कर रही है?करीना अलर्ट के नाम पर भी उसके काफी पैसे काट लिए गए।

इस घटना से उसका मन खट्टा हो गया। अब उसने पहली बार यह सोचा कि नंबर पोर्टेब्लिटी सेवा का लाभ उठा कर किसी अन्य कंपनी की सेवाएं ली जाएं। जब उसने इस संबंध में कार्रवाई शुरु की फिर एयरटेल कस्टमर केयर सेंटर से फोन आया कि आप क्यों कंपनी छोड़ रहे हैं। उसने कारण बताए, फिर उसे समझाने की कोशिश की गई।
अब आप ज़रा गौर कीजिए कि नंबर पोर्टेब्लिटी का आवेदन करने के बाद भी कई दिनों तक कंपनी द्वारा उसे यूपीसी अर्थात् पोर्टेब्लिटी कोड नहीं भेजा गया। जबकि परिचित यह बताया गया था कि पोर्टिंग आवेदन के बाद कुछ ही क्षणों में आपको पहली कंपनी द्वारा कोड नंबर उपलब्ध करा दिया जाएगा। जाहिर है ऐसी कंपनियां  साधारण उपभोक्ताओं से जबरन पैसे भी ठग रही हैं और दूसरी कंपनी में जाने भी नहीं दे रही हैं। इसे आप सरेआम डाका डालना या राहज़नी करना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
इसी कंपनी के कुछ और ठगी के कारनामे सुनिए। हमारे मोबाईल फोन पर कई बार इस प्रकार के संदेश आए कि बताएं-करनाल कहां है, ए-हरियाणा में या बी-बंगाल में। इसी के साथ लिखा होता था कि उत्तर दें -ए-हरियाणा। और जीतिए सेंट्रो कार या जीतिए सोने का सिक्का। अब ज़रा उपरोक्त क्विज़ व उसके बारे में दिए जा रहे हिंट पर गौर कीजिए। कितना घटिया प्रश्र व कितना घटिया हिंट देने का तरीका और इनाम में 'कार'?

शिवरात्रि है तो भजनों की टोन इनसे लीजिए, वेलेन्टाईन डे पर आशिक़ी-माशूकी के तरीके इनसे पता कीजिए,टिप्स व गाने इनसे खरीदिए। ज्योतिषी यह लिए बैठे हैं, एक घंटे पुराने क्रिकेट स्कोर बताने के पैसे यह वसूलते हैं,उल्टे-सीधे सवाल-जवाब क्विज़ के बहाने यह पूछते हैं।  ऐसा लगता है कि इन कंपनियों ने अपभोक्ता के समक्ष लालच परोसने की दुकान सजा रखी हो। और अफसोस की बात तो यह है कि यदि कोई उपभोक्ता इनके द्वारा सुझाई गई स्कीम्स के झांसे में नहीं भी आता तो कंपनियां उपरोक्त परिचित  उपभोक्ता की तरह अपनी योजनाएं ग्राहक के गले स्वयं मढ़ देती हैं।

इसी प्रकार यदि आप दूसरे राज्यों में घूम रहे हैं तो दिन में दो-तीन बार आप के नंबर पर रोमिंग कॉल की चपत भी पड़ सकती है। यह कॉल आपके किसी मित्र, संबंधी या व्यवसाय से संबंधित नहीं बल्कि कंपनी की ओर से अलग-अलग नंबरों से की जाती है।

मोबाईल फोन रिसीव करते ही कभी आपको सुनने को मिलेगा कि हैलो,मैं राजू श्रीवास्तव बोल रहा हूं तो कभी कोई अन्य हीरो या हीरोईन की आवाज़ आपको सुनने को मिलेगी। भले ही इन की आवाज़ सुनकर आपकी व्यस्तताओं में विघ्र पड़ रहा हो। परंतु इन कंपनियों को तो अपनी रोमिंग के नाम पर की जाने वाली एक या दो रुपये की ठगी से ही वास्ता है।

कमोबेश आज सभी मोबाईल कंपनीज़ के तमाम उपभोक्ता अपनी-अपनी मोबाईल फ़ोन कंपनी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की नाजायज़ वसूली तथा लालच परोसने के तरीकों से अत्यंत दु:खी हैं। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी अर्थात् ट्राई को चाहिए कि वह ग्राहकों के साथ निजी मोबाईल कंपनियों द्वारा मचाई जाने वाली इस प्रकार की लूट-खसोट पर यथाशीघ्र अंकुश लगाए तथा पोर्टिंग के नियमों को सख्ती से लागू करने की व्यवस्था करे।

इसी के साथ-साथ ज़रूरत इस बात की भी है कि मोबाईल उपभोक्ताओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या तथा उनके साथ कंपनियों द्वारा ठगी के अपनाए जाने वाले नित नए तरीकों के चलते इस समस्या के समाधान हेतु प्रत्येक शहर में एक मोबाईल फोन उपभोक्ता अदालत का विशेष गठन भी किया जाए जहां उपभोक्ता को तत्काल राहत दिए जाने की व्यवस्था हो।



लेखिका सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखतीहैं,उनसे nirmalrani@gmail.कॉम  पर संपर्क किया जा सकता है.










साहित्य के मसखरों का मजावादी आयोजन


कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है,लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का सामने आना अभी बाकी है...

रंजीत वर्मा

रचनाकार की स्थानीयता तो पहले भी छोटी चीज मानी जाती थी,मगर अब तो यह पिछड़ेपन का प्रतीक बनकर रह गयी है। ऐसे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है कि पहले और अब के पिछड़ेपन के प्रतीक में कुछ अंतर आया है कि नहीं ?

अब स्थानीयता अपने रूप में विराटता लिए हुए दिखती है। भारी चमक-दमक के बीच देश-विदेश के अनेक लेखक, कवि, पत्रकार इकठ्ठे होते हैं, अनुवाद की आवाजाही तेजी से हो रही होती है। इसमें शामिल रचनाकारों को लगता भी है कि वे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रहे हैं। मगर यहां दुनियाभर में अपनी सत्ता और अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करते इंसान की अभिव्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होती।

यहां सबकुछ उत्सव के रंग में होता है। जाहिर है यह साहित्य का भूमंडलीकरण है, जिसके केंद्र में समस्या नहीं, बौद्धिकता का लिबास पहने मनोरंजन होता है। वहां भाषा पर बात की जाती है, बाजार पर बात की जाती है, लेकिन करवट लेते समय में इंसान की भूमिका पर कोई बात नहीं की जाती। अगर कोई करता है तो उसे हास्यास्पद करार दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर जयपुर साहित्य उत्सव पर एक नजर डाली जा सकती है जो अभी हाल में संपन्न हुआ है।

ठेके का काम करने वाली डीएससी कंपनी द्वारा यह आयोजन प्रायोजित किया जाता है। इस कंपनी का नाम अभी हाल में तब सुर्खियों में आया जब राष्ट्रमंडल खेलों में किये गए घपले की जांच कर रहे केंद्रीय सतर्कता आयोग ने पाया कि डीएससी लिमिटेड को 23 प्रतिशत से अधिक की दर से ठेके आवंटित किये गए थे। यहां यह बता देना जरूरी है कि घोटले में इस कंपनी का नाम पहले आ चुका था और जयपुर में साहित्य का आयोजन बाद में हुआ।


 जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और गुलजार:  मसखरी का सरोकार

और देखिए,सबकुछ जानते हुए भी इसमें शिरकत करने वाले कौन लोग थे। वहां संगीत कला अकादमी के अध्यक्ष थे। दिल्ली हिंदी अकादमी के अध्यक्ष भी वहां मसखरी करते लगातार उपस्थित थे। एक तरह से जवाबदेह सरकारी नुमाइंदे हैं ये लोग। उसी सरकार के जिसकी जांच एजेंसी ने डीएएसी कंपनी को घोटाले में लिप्त पाया है। और तो और वहां तो बतौर लेखक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री भी उपस्थित थीं। यह है साहित्य की भूमंडलीकृत छटा। विश्व दृष्टि की तो बात जाने दीजिए, यहां तो मामूली नैतिक दृष्टि का ढूंढ़ पाना भी मुश्किल है।

अगर यही एक कंपनी प्रायोजक होती तो कुछ हद तक क्षम्य भी था,लेकिन यहां तो शातिर कंपनियों की कतार थी। रियो टिंटो कंपनी भी इनमें से एक थी। खनन कंपनियों में इसका विश्व में तीसरा स्थान है। इस कंपनी का उसूल है दुनियाभर की फासीवादी और नस्लवादी सरकारों से गठजोड़ कर अपने धंधे को चमकाये रखना। इस पर दुनियाभर में मानवीय, पर्यावरण और श्रमिक अधिकारों के उल्लंघन के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।

एक तीसरी कंपनी भी थी। बड़ी नामी कंपनी है यह भी। ऊर्जा के क्षेत्र में इसका दुनिया में पहला स्थान है। नाम है शेल। इस पर संगीन आरोप है कि यह नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या के लिए जवाबदेह है। यानी कि लेखकों,कवियों की हत्यारी कंपनियां साहित्य उत्सव प्रायोजित कर रही हैं।

जयपुर साहित्य उत्सव खत्म होने के एक दिन बाद ही गाले साहित्य उत्सव शुरू हो गया। यह 26 से 30 जनवरी तक चला। श्रीलंका सरकार की सेंसर नीति और अभिव्यक्ति पर हिंसक तरीके से अंकुश लगाने के विरोध में कई लेखकों ने इसका बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वालों में आर्हेन पामुक भी थे,लेकिन वे जयपुर साहित्य उत्सव में शामिल थे। क्या उन्हें नहीं लगता कि जिस देश में पिछले पंद्रह सालों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है और जहां माओवाद के नाम पर सरकार आदिवासियों को सीधे अपने निशाने पर ले रही है,वह सरकार श्रीलंका की सरकार से बेहतर नहीं हो सकती।

इनके अलावा ऐसे भी कई लेखक थे जिन्होंने वहां शामिल होने के बाद फिर बहिष्कार का रास्ता पकड़ा;जैसे कि दक्षिण अफ्रीका के डैमन गालगट। गाले में उत्सव शुरू होने के दो दिन पहले 24 जनवरी को प्रगीथ एकनालिगोडा नामक पत्रकार जब अपने दफ््तर से घर लौट रहे थे तो रास्ते में ही उन्हें गायब कर दिया गया। वे श्रीलंका की युद्धनीति के कटु आलोचक थे।

ऐसा माना गया कि इसमें सरकार का हाथ है। सरकार भी इस मामले में चुप्पी साधे रही। 25 तारीख को पत्रकार की पत्नी और पुत्र गाले उत्सव में तख्ती लेकर सरकार के विरोध में बैठ गए और लोगों के बीच पर्चा बांटा। पर्चे में श्रीलंका सरकार की कारस्तानियों का ब्योरा था। यह सब देखकर गालगट ने उत्सव से हटने का ऐलान वहीं कर दिया। कनाडा के लेखक लावरेंस हिल ने भी मंच से घटना की भत्र्सना करते हुए कहा कि इस देश में साहित्य का उत्सव मनाना अनुचित है,क्योंकि कोलम्बो की सरकार प्रतिरोध के स्वर को निशाना बना रही है।

बहिष्कार करने वालों में जिन लेखकों के नाम सबसे पहले सामने आए,उनमें अरुंधती राय शामिल हैं। इन्होंने नॉम चोमस्की आदि के साथ श्रीलंका सरकार पर मानवाधिकार के हनन का आरोप लगाते हुए गाले उत्सव में शामिल होने से इंकार कर दिया था। एक अन्य भारतीय लेखिका अनिता देसाई ने भी उत्सव में शरीक होने से इंकार कर दिया था। ये दोनों भारतीय लेखिकाएं अंग्रेजी में लिखती हैं।

यह दुख की बात है कि ऐसा साहस हिंदी का कोई लेखक आज तक नहीं दिखा पाया है। कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है, लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का अभी सामने आना बाकी है।

ऐसा लगता है कोर्पोरेट जगत की साम्राज्यवादी नीतियों के सामने हिंदी के तमाम पुरोधा लेखक घुटने टेक चुके हैं। या फिर भारत सरकार की तरह यह मानने लगे हैं कि इसी में उनका कल्याण है। दो लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या इन्हें विचलित करने के लिए काफी नहीं है,न ही विकास के नाम पर हजारों गांवों का खाली करा दिया जाना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता।

हिंदी का लेखक होने का दम भरने वाली एक महिला ने जयपुर साहित्य उत्सव में कहा कि हिंदी वालों को अब अंग्रेजी का रोना बंद कर देना चाहिए। फिर वहां से लौटकर एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर उन्होंने लिखा कि भारत में 96 प्रतिशत बच्चे स्कूल जा रहे हैं और अंग्रेजी सीख रहे हैं। वो लेखिका अगले पैराग्राफ में लिखती हैं कि विगत में मुठ्ठीभर सवर्णों की भाषा कहलाने वाली संस्कृत ने पूरे देश को सांस्कृतिक रूप से बांधे रखा था और आज हम अंग्रेजी को भले ही कुलीनों की भाषा मानें, लेकिन क्या इसके बिना अहिंदीभाषी भारतीयों से हमारा सार्थक संवाद संभव है।

हालांकि यह लेखिका हिंदी की प्रतिनिधि लेखिका नहीं हैं,लेकिन अफसोस की बात यह है कि हिंदी साहित्य ऐसी ही सोच से जकड़ा हुआ है। यह गरीब का विरोध करता है, गरीबी का नहीं। कानून नहीं मानने वाले नागरिकों का विरोध करता है, कानून का नहीं। चाहे वह अन्यायपूर्ण ही क्यों न हो, वह अंग्रेजी का गुण तो गाता है लेकिन वैसी हिम्मत दिखाने की कभी सोच नहीं पाता जैसा दो भारतीय अंग्रेजी लेखिकाओं ने मुखर होकर विरोध जताया और उत्सव में शामिल होने से इंकार किया। यह साहित्य में व्याप्त पाखंड है जो उसे उत्सव की ओर ले जा रहा है और पाठकविहीन बना रहा है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि जयपुर साहित्य महोत्सव में जो भीड़ थी,वह पाठकों की ही तो थी। लेकिन उन्हें जानकर दुख होगा कि वे पाठक नहीं,बल्कि प्रशंसक थे। वे ‘तेरा क्या होगा कालिया‘ जैसी पंक्तियां लिखने वाले या ‘कजरारे कजरारे‘जैसे गीत लिखने वालों के प्रशंसक थे या फिर मजमाप्रेमी थे जो यूं ही तामझाम देखकर मन लगाने चले आए थे। वे उत्सवकर्ता के मनमिजाज के मुताबिक खुद को ढालते हुए वहां आए थे।

इसलिए खुद को गंभीर मानने वाले एकाध वैसे लेखक जो वहां पहुंच गए थे उन्हें लगा कि उनकी अवहेलना की जा रही है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा था। बात सिर्फ इतनी है कि जिन लेखकों-कवियों को महत्व दिया जा रहा था,वे उनसे भी ज्यादा विचारहीन थे। जैसे कि कभी इन लोगों ने अपनी विचारहीनता से विचारपरक रचनाकारों को दरकिनार करने का काम किया था।




विधि मामलों के टिप्पणीकार और लेखक.कविता को जनता के बीच ले जाने के प्रबल समर्थक और दिल्ली में शुरू हुई कविता यात्रा के संयोजक. उनसे    verma.ranjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है