Mar 10, 2011

साहित्य के मसखरों का मजावादी आयोजन


कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है,लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का सामने आना अभी बाकी है...

रंजीत वर्मा

रचनाकार की स्थानीयता तो पहले भी छोटी चीज मानी जाती थी,मगर अब तो यह पिछड़ेपन का प्रतीक बनकर रह गयी है। ऐसे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है कि पहले और अब के पिछड़ेपन के प्रतीक में कुछ अंतर आया है कि नहीं ?

अब स्थानीयता अपने रूप में विराटता लिए हुए दिखती है। भारी चमक-दमक के बीच देश-विदेश के अनेक लेखक, कवि, पत्रकार इकठ्ठे होते हैं, अनुवाद की आवाजाही तेजी से हो रही होती है। इसमें शामिल रचनाकारों को लगता भी है कि वे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रहे हैं। मगर यहां दुनियाभर में अपनी सत्ता और अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करते इंसान की अभिव्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होती।

यहां सबकुछ उत्सव के रंग में होता है। जाहिर है यह साहित्य का भूमंडलीकरण है, जिसके केंद्र में समस्या नहीं, बौद्धिकता का लिबास पहने मनोरंजन होता है। वहां भाषा पर बात की जाती है, बाजार पर बात की जाती है, लेकिन करवट लेते समय में इंसान की भूमिका पर कोई बात नहीं की जाती। अगर कोई करता है तो उसे हास्यास्पद करार दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर जयपुर साहित्य उत्सव पर एक नजर डाली जा सकती है जो अभी हाल में संपन्न हुआ है।

ठेके का काम करने वाली डीएससी कंपनी द्वारा यह आयोजन प्रायोजित किया जाता है। इस कंपनी का नाम अभी हाल में तब सुर्खियों में आया जब राष्ट्रमंडल खेलों में किये गए घपले की जांच कर रहे केंद्रीय सतर्कता आयोग ने पाया कि डीएससी लिमिटेड को 23 प्रतिशत से अधिक की दर से ठेके आवंटित किये गए थे। यहां यह बता देना जरूरी है कि घोटले में इस कंपनी का नाम पहले आ चुका था और जयपुर में साहित्य का आयोजन बाद में हुआ।


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और देखिए,सबकुछ जानते हुए भी इसमें शिरकत करने वाले कौन लोग थे। वहां संगीत कला अकादमी के अध्यक्ष थे। दिल्ली हिंदी अकादमी के अध्यक्ष भी वहां मसखरी करते लगातार उपस्थित थे। एक तरह से जवाबदेह सरकारी नुमाइंदे हैं ये लोग। उसी सरकार के जिसकी जांच एजेंसी ने डीएएसी कंपनी को घोटाले में लिप्त पाया है। और तो और वहां तो बतौर लेखक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री भी उपस्थित थीं। यह है साहित्य की भूमंडलीकृत छटा। विश्व दृष्टि की तो बात जाने दीजिए, यहां तो मामूली नैतिक दृष्टि का ढूंढ़ पाना भी मुश्किल है।

अगर यही एक कंपनी प्रायोजक होती तो कुछ हद तक क्षम्य भी था,लेकिन यहां तो शातिर कंपनियों की कतार थी। रियो टिंटो कंपनी भी इनमें से एक थी। खनन कंपनियों में इसका विश्व में तीसरा स्थान है। इस कंपनी का उसूल है दुनियाभर की फासीवादी और नस्लवादी सरकारों से गठजोड़ कर अपने धंधे को चमकाये रखना। इस पर दुनियाभर में मानवीय, पर्यावरण और श्रमिक अधिकारों के उल्लंघन के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।

एक तीसरी कंपनी भी थी। बड़ी नामी कंपनी है यह भी। ऊर्जा के क्षेत्र में इसका दुनिया में पहला स्थान है। नाम है शेल। इस पर संगीन आरोप है कि यह नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या के लिए जवाबदेह है। यानी कि लेखकों,कवियों की हत्यारी कंपनियां साहित्य उत्सव प्रायोजित कर रही हैं।

जयपुर साहित्य उत्सव खत्म होने के एक दिन बाद ही गाले साहित्य उत्सव शुरू हो गया। यह 26 से 30 जनवरी तक चला। श्रीलंका सरकार की सेंसर नीति और अभिव्यक्ति पर हिंसक तरीके से अंकुश लगाने के विरोध में कई लेखकों ने इसका बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वालों में आर्हेन पामुक भी थे,लेकिन वे जयपुर साहित्य उत्सव में शामिल थे। क्या उन्हें नहीं लगता कि जिस देश में पिछले पंद्रह सालों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है और जहां माओवाद के नाम पर सरकार आदिवासियों को सीधे अपने निशाने पर ले रही है,वह सरकार श्रीलंका की सरकार से बेहतर नहीं हो सकती।

इनके अलावा ऐसे भी कई लेखक थे जिन्होंने वहां शामिल होने के बाद फिर बहिष्कार का रास्ता पकड़ा;जैसे कि दक्षिण अफ्रीका के डैमन गालगट। गाले में उत्सव शुरू होने के दो दिन पहले 24 जनवरी को प्रगीथ एकनालिगोडा नामक पत्रकार जब अपने दफ््तर से घर लौट रहे थे तो रास्ते में ही उन्हें गायब कर दिया गया। वे श्रीलंका की युद्धनीति के कटु आलोचक थे।

ऐसा माना गया कि इसमें सरकार का हाथ है। सरकार भी इस मामले में चुप्पी साधे रही। 25 तारीख को पत्रकार की पत्नी और पुत्र गाले उत्सव में तख्ती लेकर सरकार के विरोध में बैठ गए और लोगों के बीच पर्चा बांटा। पर्चे में श्रीलंका सरकार की कारस्तानियों का ब्योरा था। यह सब देखकर गालगट ने उत्सव से हटने का ऐलान वहीं कर दिया। कनाडा के लेखक लावरेंस हिल ने भी मंच से घटना की भत्र्सना करते हुए कहा कि इस देश में साहित्य का उत्सव मनाना अनुचित है,क्योंकि कोलम्बो की सरकार प्रतिरोध के स्वर को निशाना बना रही है।

बहिष्कार करने वालों में जिन लेखकों के नाम सबसे पहले सामने आए,उनमें अरुंधती राय शामिल हैं। इन्होंने नॉम चोमस्की आदि के साथ श्रीलंका सरकार पर मानवाधिकार के हनन का आरोप लगाते हुए गाले उत्सव में शामिल होने से इंकार कर दिया था। एक अन्य भारतीय लेखिका अनिता देसाई ने भी उत्सव में शरीक होने से इंकार कर दिया था। ये दोनों भारतीय लेखिकाएं अंग्रेजी में लिखती हैं।

यह दुख की बात है कि ऐसा साहस हिंदी का कोई लेखक आज तक नहीं दिखा पाया है। कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है, लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का अभी सामने आना बाकी है।

ऐसा लगता है कोर्पोरेट जगत की साम्राज्यवादी नीतियों के सामने हिंदी के तमाम पुरोधा लेखक घुटने टेक चुके हैं। या फिर भारत सरकार की तरह यह मानने लगे हैं कि इसी में उनका कल्याण है। दो लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या इन्हें विचलित करने के लिए काफी नहीं है,न ही विकास के नाम पर हजारों गांवों का खाली करा दिया जाना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता।

हिंदी का लेखक होने का दम भरने वाली एक महिला ने जयपुर साहित्य उत्सव में कहा कि हिंदी वालों को अब अंग्रेजी का रोना बंद कर देना चाहिए। फिर वहां से लौटकर एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर उन्होंने लिखा कि भारत में 96 प्रतिशत बच्चे स्कूल जा रहे हैं और अंग्रेजी सीख रहे हैं। वो लेखिका अगले पैराग्राफ में लिखती हैं कि विगत में मुठ्ठीभर सवर्णों की भाषा कहलाने वाली संस्कृत ने पूरे देश को सांस्कृतिक रूप से बांधे रखा था और आज हम अंग्रेजी को भले ही कुलीनों की भाषा मानें, लेकिन क्या इसके बिना अहिंदीभाषी भारतीयों से हमारा सार्थक संवाद संभव है।

हालांकि यह लेखिका हिंदी की प्रतिनिधि लेखिका नहीं हैं,लेकिन अफसोस की बात यह है कि हिंदी साहित्य ऐसी ही सोच से जकड़ा हुआ है। यह गरीब का विरोध करता है, गरीबी का नहीं। कानून नहीं मानने वाले नागरिकों का विरोध करता है, कानून का नहीं। चाहे वह अन्यायपूर्ण ही क्यों न हो, वह अंग्रेजी का गुण तो गाता है लेकिन वैसी हिम्मत दिखाने की कभी सोच नहीं पाता जैसा दो भारतीय अंग्रेजी लेखिकाओं ने मुखर होकर विरोध जताया और उत्सव में शामिल होने से इंकार किया। यह साहित्य में व्याप्त पाखंड है जो उसे उत्सव की ओर ले जा रहा है और पाठकविहीन बना रहा है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि जयपुर साहित्य महोत्सव में जो भीड़ थी,वह पाठकों की ही तो थी। लेकिन उन्हें जानकर दुख होगा कि वे पाठक नहीं,बल्कि प्रशंसक थे। वे ‘तेरा क्या होगा कालिया‘ जैसी पंक्तियां लिखने वाले या ‘कजरारे कजरारे‘जैसे गीत लिखने वालों के प्रशंसक थे या फिर मजमाप्रेमी थे जो यूं ही तामझाम देखकर मन लगाने चले आए थे। वे उत्सवकर्ता के मनमिजाज के मुताबिक खुद को ढालते हुए वहां आए थे।

इसलिए खुद को गंभीर मानने वाले एकाध वैसे लेखक जो वहां पहुंच गए थे उन्हें लगा कि उनकी अवहेलना की जा रही है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा था। बात सिर्फ इतनी है कि जिन लेखकों-कवियों को महत्व दिया जा रहा था,वे उनसे भी ज्यादा विचारहीन थे। जैसे कि कभी इन लोगों ने अपनी विचारहीनता से विचारपरक रचनाकारों को दरकिनार करने का काम किया था।




विधि मामलों के टिप्पणीकार और लेखक.कविता को जनता के बीच ले जाने के प्रबल समर्थक और दिल्ली में शुरू हुई कविता यात्रा के संयोजक. उनसे    verma.ranjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है





4 comments:

  1. कौन देगा इन सवालों का जवाब. तक़रीबन जितने भी साहित्यिक कार्यक्रम हैं कोई ऐसा नहीं है जिसमें जनता की भागीदारी हो. पैसे वाले में तो थोड़े वो लोग भी आते हैं जो गुट और गिरोह के नहीं होते मगर रंजीत जी जिस आप जनवादी कार्यक्रम कहते हैं उसमें तो गुट- गिरोह की ही जय होती रहती है. इसलिए सही किसे कहा जाये. जयपुर जैसे साहित्यिक आयोजनों में वे लोग आते हैं जो पैसा बना चूके हैं और गांधी शांति प्रतिष्ठान में वे लोग आते हैं जिन्हें अभी पैसा बनाना होता है. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो बड़े दिनों तक जनवाद रागते रहे और जैसे ही पैसा बनाने लगे तो वे जनवाद को चुतियापे की एक भ्रामक परिणति करार देकर किसी सेंटर या क्लब के हो गए.

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  2. शेखर कुमार शाह, वर्धमान, पश्चिम बंगालThursday, March 10, 2011

    एक दर्शक बकवास कर रहे हैं. सरोकार के साहित्य की बात कर रहे हैं रंजीत जी. देर से मगर अच्छा और सारगर्भित लेख. बधाई

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  3. I agree what ranjeet has said. But the larger question is that the so called 'left and democratic minded' writers are no different in their character as well. They are sitting in their comfort zone and enjoying all the 'maja' of both the world.

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  4. किरण शाहीन से सहमत और सबसे एक सवाल- जो किसी भ्रष्ट, सांप्रदायिक, मुनाफाखोर, दलाल से पुरस्कार लेता है वह बड़ा जनद्रोही है या वह जो उनके वहां नौकरी करता है. हिंदी के सिद्धस्थ कृपया सविस्तार जवाब दें.

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