बलजिंदर कोटभारा/अमनदीप हांस
मेरा अपमान कर दो
मैं कौनसा मान करता हुं
कि मैंने अंत तक सफ़र किया है
बल्कि मैं तो उन पैरों का मुज़रिम हुं
कि जिनका ‘भरोसा’ मेने
किसी
बेकदरी जगह पर गवां दिया
उपलब्धियों
का मौसम
आने से
पहले ही
मेरे रंग
को बदरंग कर दो
-पाश
पाश की इइस कविता के अक्षर-अक्षर को समझने वाले ही समझ सकते हैं पूर्णकालिक क्रन्तिकारी
कार्यकर्त्ता नवकरनण की मानसिक दशा को...
पूर्णकालिक
क्रन्तिकारी नौजवान कार्यकर्त्ता नवकरन की ओर से आत्महत्या समूचे क्रन्तिकारी
अन्दोलन को कितने ही सवालों के समक्ष खड़ा करती है। चाहे इस समय, किसानों, मज़दूरों
में आत्महत्या का दौर है पर एक क्रन्तिकारी, वह भी कोई मामुली क्रन्तिकारी नहीं
बल्कि बहु-अयामी और पूर्णकालिक की आत्महत्या कितने ही सवाल छोड़ जाती है। नवकरन की
आत्महत्या के कारणों की तफतीश करने से पहले उसके सुसाइड नोट को पढ़ना जरूरी है जो
उसकी डायरी में से मिला, उस ने लिखा,
“शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने
से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .
और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के
बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा। लेकिन अपने भीतर दो चीजों
को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ। जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी
अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। दोस्तो मुझे माफ कर देना
-अलविदा,
मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो ज़रा रियायत से”
मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो ज़रा रियायत से”
नवकरन के सुसाइड नोट को ध्यान से
पढ़ने से थोड़ी बहुत समझ रखने वाले को भी सपष्ट नज़र आता है, कि नवकरन के भीतर एक
अनावश्यक अपराधबोध घर कर गया था और धीरे-धीरे उसके ज़ेहन में इस हद्द तक फैल गया
था कि वह आत्महत्या कर गया। नवकरन के सुसाइड नोट में यह भी सपष्ट है कि उस में यह
‘अपराधबोध’ कोई एकदम पैदा नहीं हुआ, यह बहुत पहले से हो चुका था, सुसाइड नोट के
शुरू में वह लिखता हैं, “शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने
से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में
मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा”।
सधारण सा सवाल खड़ा हो गया है कि एक क्रन्तिकारी कार्यकर्ता जो
मेहनतकशों के जीने लायक ज़िन्दगी देने वाले बेहतर समाज के सृजन के लिए अपना सब कुछ
कुर्बान करके जूझ रहा है, वह अपने जीवन को जीना इतनी कायरता और बोझल क्यों समझने
लगा? उसको कब से यह पक्का और दृड़ भरोसा था कि आत्महत्या वाला आ गया? वह साफ़
लिखता है “जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़
भरोसा”।
नवकरन की जुझारू मानसिकता पर जीवन से आत्महत्या वाले पल की ज्यादा
अट्टलता क्यों हावी थी? और ज़िन्दगी की बजाय आत्महत्या पर पक्का और दृड़ भरोसा
क्यों था? वह अपने ज़ेहन पर ‘अपराध वाला यह बोझ’ यह बोझ कब से सहन कर
रहा था, जिसको सहन करते करते वह थक चुका था, जब वह लिखता है “ … लेकिन अपने भीतर दो
चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ….” नवकरन के सुसाइड नोट की सातवीं लाइन
है, “जिन लोगों के साथ
मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया”। उसके लिखे यह
शब्द, ‘मुझमें
उन जैसी अच्छाई नहीं’। इस से अच्छा और क्या था कि वह एक इमानदार, सच्चा-सुच्चा
पूर्णकालिक क्रन्तिकारी कार्यकर्त्ता था, पटियाला के नामवर थापर कालेज से अच्छी
डिग्री की, उसको अपना निज़ी जीवन बेहतर बनाने के लिए एक बेहतर नौकरी भी मिलने वाली
थी। वह दो बहनों का अकेला भाई था और उस के आगे अपने परिवार का सहारा बनने की
जिम्मेवारी भी थी। नवकरन को ‘श्रद्धाजली’ देते हुए ‘साथियों’ ने स्वय लिखा है कि
वह एक बहु-अयामी व्यक्तित्व था, जिस में गीत गाने, संगठन को प्रफुलित करने, जनता
में हर पक्ष से काम करने, अंग्रेजी से पंजाबी में बेहतर अनुवाद करने, बढ़िया टिप्पणीकार,
मैगज़ीन का खुशदिल प्रबन्धक आदि बहु-अयामी गुण थे, पर सवाल पैदा होता है कि ऐसा
कुछ होते हुए भी उसको अपनी जिन्दगी अपने हाथों से क्यों खत्म करनी पड़ी
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है, “जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें
उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया”।
सवाल पैदा होता है कि उसके ‘साथियों’ में ऐसी कौन-सी
अच्छाई थी जो उस में नहीं आ सकी और जिस के कारण वह उनका साथ नहीं दे सका।
कब से उस के मन के भीतर पनप रहा यह ‘अपराध बोध’
अंत तक इस हद्द तक हावी हो जाता है वह खुद को भगौड़ा करार देता है, वह सुसाइड वाले
पहले पन्ने के अंत में लिखता है, “...
मैं भगोड़ा हुं पर गद्दार नहीं....”.
इस से यह शंका पैदा होना स्वभाविक है कि हो सकता
है कि नवकरन को कभी ऐसा कठोर मेहना (harsh abusive) सुनना पड़ा हो
जिसके बोझ का उस को अंत में मौत को गले लगाते समय सपष्टीकरण देना पड़ रहा है और या
फिर यह भी हो सकता है कि उसने कभी अपने साथियों से गद्दार शब्द की गलत व्याख्या
सुन ली हो। हमारी यह आम सी समझ के मुताबिक गद्दार का मतलब होता है चल रहे युद्ध के
बीच भाग कर दुश्मनों के पाले में चले जाना, ऐसा पंजाब की धरती पर नहीं हो रहा है।
इससे आगे जो और
तफ़तीश करने वाली बात है जब वह लिखता है, “हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो जरा
रियायत से” इससे लगता है कि जैसे अपनी
क्रन्तिकारी कार्यकर्ता वाली जिन्दगी जीनें में रियायत तलाश रहा था जो उसकी दी ना
गई हो।
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में
अचेत नहीं बल्कि सचेत मन से कितने ही सवाल क्रन्तिकारी हल्कों के समक्ष खड़े किये
हैं जो पूरी इमानदारी से निरीक्षण की मांग करते हैं।
यह भी जिकर करना बनता है कि जितनी
हमारी जानकारी या समझ है इससे पहले चाहे शहीद भगत सिंह और उनके साथियों का
क्रन्तिकारी अन्दोलन था, भले ही गदरियों का, किसी भी क्रन्तिकारी कार्यकर्ता की
आत्महत्या की कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं, बेतहाशा प्रताड़ना करके झुठे पुलिस केस
मुकाबलों में क्रन्तिकारियों को खत्म किया जा रहा था उस समय भी किसी ने आत्महत्या
जैसा कदम नहीं उठाया।
नवकरन के मामले में उसकी
आत्महत्या से बड़ा दुःख यह है जब ‘साथी’ उसकी आत्महत्या वाले गंभीर मसले को सामने
लाने और उस पर विचार करने की बजाए लिखते हैं,
“ठन्डे समय की यह भी
एक त्रासदी होती है कि क्रांतिकारी लहर और संगठन के दुश्मन हर मौके का इस्तेमाल
पूरी लहर और संगठन को बदनाम करने, संगठन में काम करते
लोगों का मनोबल तोड़ने और क्रांतिकारी लहर के हमदर्दों को उलझाने के लिए करते हैं | ऐसे लोगों की तुलना लाशों में से सोने के दांत टटोलते
हुए नाज़ियों से की जा सकती है | पहले भी अनेकों
क्रांतिकारियों की मौत को ऐसी गिद्धों ने अपने निजी स्वार्थों, मानवद्रोही और क्रांति विरोधी इरादों के लिए इस्तेमाल
करने की कोशिश की है| साथी नवकरन की मौत
के बाद भी ऐसा होना कोई आकस्मिक बात नहीं होगी | नवकरन की मौत पर भी ऐसे कुछ पतित किस्म के
त्रात्स्कीपंथी और भगोड़े, साथी नवकरन की
स्मृति को अपमानित करने और पूरे आंदोलन पर कीचड़ उछालने की घटिया हरकतों में लगे
हुए हैं | साथी नवकरन के जीते हुए जिनका उससे या उसके
कामों से कोई वास्ता नहीं रहा, वही लोग आज 'जस्टिस फॉर नवकरन' के नाम पर 'व्हाट्स एप्प' और फेसबुक पर तरह-तरह का घटिया, झूठ प्रचार करने में लगे हुए हैं | लेकिन ऐसी तमाम घटिया कोशिशों के बावजूद भी क्रांति
का लाल परचम हमेशा लहराता रहा है और लहराता रहेगा |”
साथियों की यह घोषणा नवकरन की आत्महत्या से उठने
वाले जायज़ सवालों को “जर्मन नाज़ियों” के तुल्य करार देकर उनका मुंह बंद करने वाली है।
इसके पीछे मंशा यह काम करती है कि या तो हमारी तरह सोचो और ब्यान को सत्त बचन कह
कर कबूल करो नहीं तो वर्ग शत्रु होने का हमारा फतवा सुनने को तैयार रहो। अगर कोई
टिप्पणी करने की जुरअत करे तो क्या वह हिटलरवादी और क्रन्तिकारी अन्दोलन का गद्दार
होगा?
इस में गलतियों से सीखने और आत्मनिरिक्षण की
भावना कहां है? क्या इस तरह के फतवों से या सवालों से कन्नी काट कर यह कारण दूर हो
जायेंगे जिन्होंने नवकरन को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला? साथियों को यह जवाब
देने होंगे कि वह नवकरन की मनो-अवस्था को समझने के लिए और आत्महत्या की रूची को बूझने
में क्यों असफल रहे।
क्या नवकरन की आत्महत्या के कारणों को पहचानने की
बजाये हम भगौड़े नहीं हो रहे हैं? साथी इस आत्महत्या के बारे में संजिदा सवाल
उठाने वालों को और आत्महत्या को बहाना बना कर अपने मनपसंद ‘वाद’ को जायज़ ठहराने
वालों में निखेड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं? हम तो क्रांतिकारी हैं, बेहतर समाज
के सृजन के लिए जूझ रहे हैं, ऐसा समाज जहां ज़िन्दगी को हर कोई प्यार करे,
ज़िन्दगी से भगौड़ा न हो... कोई और जुझारू पूर्णकालिक कार्यकर्ता नवकरन के रास्ते
पर न चले, हम सब को अपने अन्दर झांकने की जरूरत है,,,
नवकरन को आत्महत्या की तरफ़ धकेलने वाले हालात पर
इसके लिए जिम्मेवार कारणों की तफ़तीश इमानदारी से करने की जरूरत है।
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