Feb 6, 2016

कितने ही सवाल उठा गयी नवकरण की आत्महत्या

बलजिंदर कोटभारा/अमनदीप हांस


मेरा अपमान कर दो
मैं कौनसा मान करता हुं
कि मैंने अंत तक सफ़र किया है
बल्कि मैं तो उन पैरों का मुज़रिम हुं
कि जिनका भरोसा’ मेने
किसी बेकदरी जगह पर गवां दिया
उपलब्धियों का मौसम
आने से पहले ही
मेरे रंग को बदरंग कर दो
-पाश
पाश की इस कविता के अक्षर-अक्षर को समझने वाले ही समझ सकते हैं पूर्णकालिक क्रन्तिकारी कार्यकर्त्ता नवकरनण की मानसिक दशा को...
पूर्णकालिक क्रन्तिकारी नौजवान कार्यकर्त्ता नवकरन की ओर से आत्महत्या समूचे क्रन्तिकारी अन्दोलन को कितने ही सवालों के समक्ष खड़ा करती है। चाहे इस समय, किसानों, मज़दूरों में आत्महत्या का दौर है पर एक क्रन्तिकारी, वह भी कोई मामुली क्रन्तिकारी नहीं बल्कि बहु-अयामी और पूर्णकालिक की आत्महत्या कितने ही सवाल छोड़ जाती है। नवकरन की आत्महत्या के कारणों की तफतीश करने से पहले उसके सुसाइड नोट को पढ़ना जरूरी है जो उसकी डायरी में से मिला, उस ने लिखा,
शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .
और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा। लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ। जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। दोस्तो मुझे माफ कर देना
-अलविदा,
मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो ज़रा रियायत से
नवकरन के सुसाइड नोट को ध्यान से पढ़ने से थोड़ी बहुत समझ रखने वाले को भी सपष्ट नज़र आता है, कि नवकरन के भीतर एक अनावश्यक अपराधबोध घर कर गया था और धीरे-धीरे उसके ज़ेहन में इस हद्द तक फैल गया था कि वह आत्महत्या कर गया। नवकरन के सुसाइड नोट में यह भी सपष्ट है कि उस में यह ‘अपराधबोध’ कोई एकदम पैदा नहीं हुआ, यह बहुत पहले से हो चुका था, सुसाइड नोट के शुरू में वह लिखता हैं, शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा
सधारण सा सवाल खड़ा हो गया है कि एक क्रन्तिकारी कार्यकर्ता जो मेहनतकशों के जीने लायक ज़िन्दगी देने वाले बेहतर समाज के सृजन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करके जूझ रहा है, वह अपने जीवन को जीना इतनी कायरता और बोझल क्यों समझने लगा? उसको कब से यह पक्का और दृड़ भरोसा था कि आत्महत्या वाला आ गया? वह साफ़ लिखता है जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा
नवकरन की जुझारू मानसिकता पर जीवन से आत्महत्या वाले पल की ज्यादा अट्टलता क्यों हावी थी? और ज़िन्दगी की बजाय आत्महत्या पर पक्का और दृड़ भरोसा क्यों था? वह अपने ज़ेहन पर ‘अपराध वाला यह बोझ’ यह बोझ कब से सहन कर रहा था, जिसको सहन करते करते वह थक चुका था, जब वह लिखता है लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ…. नवकरन के सुसाइड नोट की सातवीं लाइन है, जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। उसके लिखे यह शब्द, मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं’। इस से अच्छा और क्या था कि वह एक इमानदार, सच्चा-सुच्चा पूर्णकालिक क्रन्तिकारी कार्यकर्त्ता था, पटियाला के नामवर थापर कालेज से अच्छी डिग्री की, उसको अपना निज़ी जीवन बेहतर बनाने के लिए एक बेहतर नौकरी भी मिलने वाली थी। वह दो बहनों का अकेला भाई था और उस के आगे अपने परिवार का सहारा बनने की जिम्मेवारी भी थी। नवकरन को ‘श्रद्धाजली’ देते हुए ‘साथियों’ ने स्वय लिखा है कि वह एक बहु-अयामी व्यक्तित्व था, जिस में गीत गाने, संगठन को प्रफुलित करने, जनता में हर पक्ष से काम करने, अंग्रेजी से पंजाबी में बेहतर अनुवाद करने, बढ़िया टिप्पणीकार, मैगज़ीन का खुशदिल प्रबन्धक आदि बहु-अयामी गुण थे, पर सवाल पैदा होता है कि ऐसा कुछ होते हुए भी उसको अपनी जिन्दगी अपने हाथों से क्यों खत्म करनी पड़ी
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है, जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया
सवाल पैदा होता है कि उसके ‘साथियों’ में ऐसी कौन-सी अच्छाई थी जो उस में नहीं आ सकी और जिस के कारण वह उनका साथ नहीं दे सका।
कब से उस के मन के भीतर पनप रहा यह ‘अपराध बोध’ अंत तक इस हद्द तक हावी हो जाता है वह खुद को भगौड़ा करार देता है, वह सुसाइड वाले पहले पन्ने के अंत में लिखता है, ... मैं भगोड़ा हुं पर गद्दार नहीं.....
इस से यह शंका पैदा होना स्वभाविक है कि हो सकता है कि नवकरन को कभी ऐसा कठोर मेहना (harsh abusive)  सुनना पड़ा हो जिसके बोझ का उस को अंत में मौत को गले लगाते समय सपष्टीकरण देना पड़ रहा है और या फिर यह भी हो सकता है कि उसने कभी अपने साथियों से गद्दार शब्द की गलत व्याख्या सुन ली हो। हमारी यह आम सी समझ के मुताबिक गद्दार का मतलब होता है चल रहे युद्ध के बीच भाग कर दुश्मनों के पाले में चले जाना, ऐसा पंजाब की धरती पर नहीं हो रहा है।

इससे आगे जो और तफ़तीश करने वाली बात है जब वह लिखता है, हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो जरा रियायत से इससे लगता है कि जैसे अपनी क्रन्तिकारी कार्यकर्ता वाली जिन्दगी जीनें में रियायत तलाश रहा था जो उसकी दी ना गई हो।
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में अचेत नहीं बल्कि सचेत मन से कितने ही सवाल क्रन्तिकारी हल्कों के समक्ष खड़े किये हैं जो पूरी इमानदारी से निरीक्षण की मांग करते हैं।
यह भी जिकर करना बनता है कि जितनी हमारी जानकारी या समझ है इससे पहले चाहे शहीद भगत सिंह और उनके साथियों का क्रन्तिकारी अन्दोलन था, भले ही गदरियों का, किसी भी क्रन्तिकारी कार्यकर्ता की आत्महत्या की कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं, बेतहाशा प्रताड़ना करके झुठे पुलिस केस मुकाबलों में क्रन्तिकारियों को खत्म किया जा रहा था उस समय भी किसी ने आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाया।
नवकरन के मामले में उसकी आत्महत्या से बड़ा दुःख यह है जब ‘साथी’ उसकी आत्महत्या वाले गंभीर मसले को सामने लाने और उस पर विचार करने की बजाए लिखते हैं,
ठन्डे समय की यह भी एक त्रासदी होती है कि क्रांतिकारी लहर और संगठन के दुश्मन हर मौके का इस्तेमाल पूरी लहर और संगठन को बदनाम करने, संगठन में काम करते लोगों का मनोबल तोड़ने और क्रांतिकारी लहर के हमदर्दों को उलझाने के लिए करते हैं | ऐसे लोगों की तुलना लाशों में से सोने के दांत टटोलते हुए नाज़ियों से की जा सकती है | पहले भी अनेकों क्रांतिकारियों की मौत को ऐसी गिद्धों ने अपने निजी स्वार्थों, मानवद्रोही और क्रांति विरोधी इरादों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है| साथी नवकरन की मौत के बाद भी ऐसा होना कोई आकस्मिक बात नहीं होगी | नवकरन की मौत पर भी ऐसे कुछ पतित किस्म के त्रात्स्कीपंथी और भगोड़े, साथी नवकरन की स्मृति को अपमानित करने और पूरे आंदोलन पर कीचड़ उछालने की घटिया हरकतों में लगे हुए हैं | साथी नवकरन के जीते हुए जिनका उससे या उसके कामों से कोई वास्ता नहीं रहा, वही लोग आज 'जस्टिस फॉर नवकरन' के नाम पर 'व्हाट्स एप्प' और फेसबुक पर तरह-तरह का घटिया, झूठ प्रचार करने में लगे हुए हैं | लेकिन ऐसी तमाम घटिया कोशिशों के बावजूद भी क्रांति का लाल परचम हमेशा लहराता रहा है और लहराता रहेगा |

साथियों की यह घोषणा नवकरन की आत्महत्या से उठने वाले जायज़ सवालों को जर्मन नाज़ियों के तुल्य करार देकर उनका मुंह बंद करने वाली है। इसके पीछे मंशा यह काम करती है कि या तो हमारी तरह सोचो और ब्यान को सत्त बचन कह कर कबूल करो नहीं तो वर्ग शत्रु होने का हमारा फतवा सुनने को तैयार रहो। अगर कोई टिप्पणी करने की जुरअत करे तो क्या वह हिटलरवादी और क्रन्तिकारी अन्दोलन का गद्दार होगा?
इस में गलतियों से सीखने और आत्मनिरिक्षण की भावना कहां है? क्या इस तरह के फतवों से या सवालों से कन्नी काट कर यह कारण दूर हो जायेंगे जिन्होंने नवकरन को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला? साथियों को यह जवाब देने होंगे कि वह नवकरन की मनो-अवस्था को समझने के लिए और आत्महत्या की रूची को बूझने में क्यों असफल रहे।
क्या नवकरन की आत्महत्या के कारणों को पहचानने की बजाये हम भगौड़े नहीं हो रहे हैं? साथी इस आत्महत्या के बारे में संजिदा सवाल उठाने वालों को और आत्महत्या को बहाना बना कर अपने मनपसंद ‘वाद’ को जायज़ ठहराने वालों में निखेड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं? हम तो क्रांतिकारी हैं, बेहतर समाज के सृजन के लिए जूझ रहे हैं, ऐसा समाज जहां ज़िन्दगी को हर कोई प्यार करे, ज़िन्दगी से भगौड़ा न हो... कोई और जुझारू पूर्णकालिक कार्यकर्ता नवकरन के रास्ते पर न चले, हम सब को अपने अन्दर झांकने की जरूरत है,,,
नवकरन को आत्महत्या की तरफ़ धकेलने वाले हालात पर इसके लिए जिम्मेवार कारणों की तफ़तीश इमानदारी से करने की जरूरत है।   
सबंधित लिंक http://www.panjabilok.net/page.php?pg=newsview&n_id=12339&c_id=43

'आलोचना के नाम पर गालियां दी जाती हैं आरसीएलआई में'

वामपंथ के नाम पर ठगी, शोषण और मुनाफे का धंधा चलाने वाले शशिप्रकाश और उनकी पत्नी कात्यायिनी के परिवार के मालिकाने वाले कम्यूनिस्ट संगठन आरसीएलआई की धंधेबाजी के खिलाफ उठी  आवाज पर मौन साधने वालों में तीन तरह के लोग अव्वल हैं। पहले हैं कात्यायिनी के स्वजातीय बुद्धिजीवी,  दूसरे हैं उनके यहां क्रांति के भ्रम में फंसे युवा और तीसरे हैं शशिप्रकाश के परिवार से जुड़े समाजवादी खेमे के दो कम्यूनिस्ट संगठन। हां, चुप रहने वालों में उन वामपंथियों की भी एक संख्या है जो खुद के संगठनों की सड़ाध को ढांपे रखना चाहते हैं। पर इसके मुकाबले सच को उजागर करने वालों की तादाद इतनी बड़ी, व्यापक और साहसी है कि इनकी हर जनविरोधी कार्रवाई को हर कीमत पर समाज में सरेआम करती है। इनकी गालियों, तोहमतों और धमकियों के मुकाबले तनकर खड़ी होती है और डंके की चोट पर इनके ठगी और शोषण को तथ्यजनक रूप से सबके सामने लाती है।

इसी कड़ी में पंजाब  से मनप्रीत मीत का पत्र

साथियो, मैं इस पत्र को अपने आखिरी स्‍टेटमेंट के तौर पर रख रही हूं, इसके बाद मैं इस पर और कुछ नहीं कहूंगी। ध्‍यान रहे, आपकी चुप्‍पी भविष्‍य में अन्‍याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को निकलने से पहले ही रोक देगी, क्‍योंकि जब जन-पक्षधर लोग ही चुप लगाकर ऐसी बातें होते हुए देखेंगे, तो भला अन्‍याय का प्रतिकार करने वाले लोग कहां जाएंगे?

सभी इंसाफपसंद नागरिकों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम खुला पत्र

मेरा सरोकार इतना ही है कि नव करण के साथ और ऐसे तमाम युवाओं के साथ इंसाफ हो, जो RCLI की पतित व घृणित राजनीति के दुष्‍चक्र में फंसे हुए हैं।

साथियो, कामरेड नव करण की आत्‍महत्‍या के बाद, पिछले तीन-चार दिन में जो हालात हुए हैं उनकी वजह से मैं यह खुला पत्र लिखने को मजबूर हो रही हूं।

सबसे पहले, मैं यह स्‍पष्‍ट कर दूं कि Revolutionary Communist League of India (RCLI) को छोड़ने के बाद मेरा किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है। मैंने उस समय के बाद से कभी RCLI पर कोई टिप्‍पणी नहीं की है। निजी जीवन की परेशानियों व खराब तबियत के कारण मैं आंदोलन में सक्रिय भागीदारी नहीं कर सकी, लेकिन जितना भी हो सका, आंदोलन के जनपक्षधर मामलों का समर्थन करने का प्रयास करती हूं।

मैं किसी मार्क्‍सवादी,स्‍तालिनवादी या त्रात्‍सकीवादी संगठन से नहीं जुड़ी हूं। ऐसे किसी भी संगठन द्वारा किसी भी मार्क्‍सवादी शिक्षक पर की गई छींटाकशी का मैं हिस्‍सा नहीं हूं। मेरा सरोकार इतना ही है कि नव करण के साथ और ऐसे तमाम युवाओं के साथ इंसाफ हो, जो RCLI की पतित व घृणित राजनीति के दुष्‍चक्र में फंसे हुए हैं। साथी नव करण ही आत्‍महत्‍या ने ही यह बेचैनी भी पैदा की कि युवा इस संगठन की सच्‍चाई को जानने का प्रयास करें, आंख बंद करके ज्ञानपूर्ण प्रवचनों के भ्रमजाल में न फंसे और अपनी क्रांतिकारी ऊर्जा को सही दिशा में लगाएं। कोई इंसान सक्रिय क्रांतिकर्म में नहीं लगा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वह अपने आस-पास हो रहे अन्‍याय के बारे में बोलना भी बंद कर दे।

मैं 2010 में RCLI से जुड़ी और पंजाब के नेताओं के बेहद खराब व्‍यवहार के बावजूद लंबे वक्‍त तक यह सोचकर आंदोलन में सक्रिय रही कि क्रांति के बड़े लक्ष्‍यों के सामने मुझे अपने कष्‍टों की अनदेखी करनी चाहिए। मैं अपना घर-परिवार छोड़कर आंदोलन में शामिल हुई थी और सक्रिय रहने के दौरान ही डॉक्‍टर अमृत पाल से मेरी शादी हुई थी। RCLI में अपने सक्रिय दिनों के दौरान, मुझ पर लगातार ताने कसे जाते थे, बीमार हालत में अकेले छोड़ दिया जाता था और अमृत पाल को मेरे खिलाफ भड़काया जाता था।

आलोचना के नाम पर गालियां दी जाती थी। मैं इस सबको अपनी कमजोरी मानकर, चुपचाप किताब बेचने, ट्रेन व बस अभियान में पैसे जमा करने, कार्यालयों की साफ-सफाई करने जैसे काम में लग जाती थी। खैर, इस बारे में अपने कटु अनुभवों का ब्‍योरा फिर कभी। जब मामला हद से गुजर गया, तो अंतत: मैंने RCLI छोड़ दी। संगठन के उकसावे और अपने ढुलमुनपन के कारण अमृत पाल ने तलाक की पेशकश रखी और मैंने इंकार नहीं किया। लेकिन तलाक होने के बाद भी लंबे वक्‍त तक अमृत पाल चंडीगढ़ में मेरे पास आकर रुका करता था।

मैंने उसे कई बार संजीदगी से अपने व्‍यवहार पर सोचने को कहा। मेरे पास आकर वह भी संगठन के नकारात्‍मक पक्षों पर मौन सहमति तो जताता था, पर कुछ ठोस करने से मुकर जाता था। आखिर, मैंने उसे अंतिम विदा कह ही दिया। इसके बावजूद वह लगातार फोन करता था, पर धीरे-धीरे उसे समझ आ गया कि अब मुझे बहलाना संभव नहीं है। संक्षेप में यह बातें इसलिए, ताकि सनद रहे कि मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की हाल की हरकतें निराधार हैं और बदले की कार्रवाई हैं।

साथी नव करण की आत्‍महत्‍या की खबर मुझे 26 जनवरी को हुई, लेकिन पूरी जानकारी के इंतजार में मैंने इस बारे में कोई टिप्‍पणी नहीं की। इस बारे में मैंने पहली बार 30 जनवरी को लिखा और वह भी नव करण की आत्‍महत्‍या के कारणों और RCLI के नेताओं की षडयंत्रकारी चुप्‍पी से मामले को रफा-दफा कर दिए जाने की कोशिश के बाद। याद रहे कि इस बारे में संगठन का बयान भी इसी के बाद आया और तब तक संगठन चुप्‍पी साधे रहा था। यह भी ध्‍यान रहे कि इस पर सामान्‍य तर्कसंगत सवाल उठाने पर साथी अभिषेक श्रीवास्‍तव पर भी कुत्‍सा-प्रचार करने का आरोप लगा दिया गया।

मैंने और दूसरे लोगों ने सिर्फ इतना पूछा था कि आखिर नव करण ने आत्‍महत्‍या क्‍यों की? वह पूरावक्‍ती कार्यकर्ता था और जैसा कि RCLI ने नव करण की श्रद्धांजलि में भी कहा, वह बेहद संवेदनशील और प्रतिभावन कार्यकर्ता था। आखिर ऐसे कार्यकर्ता को अपने सुसाइड नोट में यह क्‍यों लिखना पड़ा कि वह भगोड़ा है, पर गद्दार नहीं और मुझमें उन जैसी अच्‍छाई नहीं और मेरे बारे में रियायत के साथ सोचना? आखिर क्‍यों आत्‍महत्‍या के एक सप्‍ताह बाद तक कोई बयान नहीं आया आखिर क्‍यों 30 जनवरी को साथी नव करण की आत्‍महत्‍या के बाद पूछे सवालों पर तब तक चुप्‍पी रही जब तक कि 31 जनवरी को नौजवान भारत सभा ने देर रात गये एक संवेदनहीन और खोखला स्‍पष्‍टीकरण नहीं दे दिया गया?

इसके बाद, संगठन के नेताओं (कविता, सत्‍यम, कात्‍यायनी आदि) ने जो पोस्‍टें डालीं उनमें तीन तरह की बातें थी : पहली, खोखली श्रद्धांजलि (उसमें भी धैर्य नहीं बरत पाये और सवाल उठाने वालों को कुत्‍सा प्रचार करने वाला कहा गया)। दूसरी, कुछ उद्धरण जिनके जरिए सवाल उठाने वालों को मुर्दाखोर गिद्ध समेत ढेरों उपाधियों से नवाजा गया। तीसरी, विपयर्य का दौर और क्रांतिकारी आंदोलन में होने वाली इस तरह घटनाओं पर झूठी हमदर्दी बटोरने वाली बातें।

इस दौरान, कार्यकर्ताओं को खुला छोड़ दिया गया कि वे सवाल उठाने वालों की सामाजिक हैसियत देखकर, उन्‍हें खुले आम गाली दें (अशोक पांडे को मुत्‍तन पांडे और भगोड़ा-गद्दार कहना, राजेश त्‍यागी व राजिन्‍दर को पतित त्रात्‍सकीपंथी कहना, अभिषेक श्रीवास्‍तव को तनिक नजाकत के साथ कुत्‍सा-प्रचार करने वाला कहना, और प्रदीप और मुझे खुले आम गाली देना, चरित्रहीन कहना)। इसमें मार-पीट की धमकी देना शामिल है।

साथियो, मैं इस पत्र को अपने आखिरी स्‍टेटमेंट के तौर पर रख रही हूं, इसके बाद मैं इस पर और कुछ नहीं कहूंगी। ध्‍यान रहे, आपकी चुप्‍पी भविष्‍य में अन्‍याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को निकलने से पहले ही रोक देगी, क्‍योंकि जब जन-पक्षधर लोग ही चुप लगाकर ऐसी बातें होते हुए देखेंगे, तो भला अन्‍याय का प्रतिकार करने वाले लोग कहां जाएंगे?

इस अंधेरे दौर में, लोग अंधेरे के खिलाफ कैसे उठ खड़े होंगे जबकि अंधेरे के खिलाफ बोलने वाले लोग ही इंसाफ की लड़ाई में चुप्‍पी लगाकर बैठे रहेंगे? क्‍या मार्क्‍सवाद हमें सवाल उठाने या शंका करने से रोकता है? क्‍या मार्क्‍सवादी सवाल उठाने वाले व्‍यक्ति को दक्षिणपंथियों की तरह गालियां देंगे (वे लोगों को पाकिस्‍तान भेजने और मार डालने की धमकी देते हैं, और ये यहीं मारपीट करने, गालियां देने और चरित्रहनन करने जैसी बातें करते हैं)?

साथियो, जब कोई ''वामपंथी'' भगत बन जाता है, तो वह समूचे आंदोलन को कीचड़ में धकेल देता है और लोगों का क्रांतिकारी आंदोलन से ही भरोसा उठ जाता है। दुनिया भर के क्रांतिकारी आंदोलन में लोग नेताओं पर, संगठनों के गलत फैसलों पर, कठमुल्‍लावाद पर, लाइन पर सवाल उठाते रहे हैं, और दुनिया भर में ''सवाल उठाने वालों को किनारे लगा दिए जाने'' की ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती। यह शर्मनाक है। मैं इस आखिरी बात के साथ अपनी बात खत्‍म करती हूं कि आप अगर इस समय अपना पक्ष और राय नहीं देते, तो याद रहे कि भविष्‍य में किसी भी अन्‍याय के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं बचेगा। (फेसबुक वाल से साभार)

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
मनप्रीत मीत

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