अजय प्रकाश
चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलता है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है, का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है।
चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलता है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है, का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है।
माओवादियों पर सरकारी कार्रवाई की बौद्धिक स्वीकृति लेने जेएनयू गये चिदंबरम को 5मई की रात काफी तेज झटका लगा जब छात्रों ने सरकार विरोधी नारे लगाये और भाषण देकर जाते गृहमंत्री की सफेद गाड़ी पर काला झंडा फेंक असहमति को तिखाई से स्पष्ट कर दिया। सफेदी पहनने-ओढ़ने के आदी हमारे गृहमंत्री काले झंडे को देख ऐसे खुन्नस में आये कि अगले ही दिन आव देखा न ताव,देश के सजग नागरिकों पर आतंकी कानून लागू किये जाने का फतवा सुना दिया।
गौर से देखिये मिस्टर सी : यह बंदूकों वाले बच्चे कभी बीजापुर ब्लाक के आश्रम में पढ़ने वाले छात्र थे. फोटो- अजय प्रकाश |
बहरहाल,यह तो प्रोमो के दौरान का क्लाइमेक्स भर है। नहीं तो माओवाद प्रभावित राज्यों में लंबे समय से यही हालात बने हुए हैं। ऐसे राज्यों में वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, डॉक्टरों, ट्रेड यूनियन नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से लेकर जिला बदर किये जाने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। इससे जाहिर होता है कि सरकार बिना बोले ही संविधान के उन तमाम बुनियादी सिद्धांतों को लंगोटी बना चुकी है जो हमारे अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भारतीय कानून संहिता के उपबंधों में दर्ज हैं। इसलिए सरकार का नया शिकार क्षेत्र मेट्रो शहर हैं,जहां माओवाद का कोई असर तो नहीं है,मगर उसे जानने-समझने वालों की एक तादाद है। इस दृष्टि से गृह मंत्रालय का यह हालिया बयान एकदम से कहीं दूसरी ओर इशारा करता है जिसका अंदाजा लगाने में हम चूक रहे हैं।
कौन लाकर देगा बेटे- पति को |
इसे साजिश न कहा जाये तो और क्या है कि जाने-माने पत्रकार और पीयूडीआर से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा का नाम पहले दिल्ली से गिरफ्तार माओवादी नेता की चार्जशीट में दाखिल किया जाता है,फिर गृह मंत्रालय खबर देता है कि माओवादी क्षेत्रों में प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार जॉन म्रिडल के साथ 15दिनी दौरे पर बस्तर के रास्ते दंतेवाड़ा के जंगलों में गये गौतम नवलखा एक पत्रकार की हैसियत से नहीं,बल्कि विदेशी पत्रकार के कूरियर के तौर पर गये थे। अगर सरकार साबित करने में सफल होती है कि गौतम कूरियर बनकर गये थे,तो उन पर उसी आतंकी कानूनी दायरे में कार्यवाही होगी जो पोटा को हटाये जाने के बाद यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में बनाया था। दूसरी घटना लेखिका अरूंधति राय को लेकर हुई। आतंकवाद के खिलाफ छत्तीसगढ़ राज्य के बनाये गये कानून ‘छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम’के तहत राज्य ने प्रायोजित ढंग से छत्तीसगढ़ में अरूंधति पर मुकदमा दायर कराया। इसकी प्रतिक्रिया में अरूंधति ने कहा कि ‘वे हमें गिरफ्तार कर सकते हैं,लेकिन मैं देश छोड़कर नहीं जाऊंगी।’
जाहिर है सरकार की इन गीदड़ भभकियों का न सिर्फ अरूंधति,बल्कि माओवादियों को लेकर सरकार की सैन्य और रणनीतिक गलतियों पर बिना रुके लगातार लिखने वालों पर कोई असर नहीं होना है। लेकिन हमारी चिंता पत्रकारिता के व्यावसायिक दायरे पर चिदंबरम के सीधे शुरू किये गये निर्देशों को लेकर है। पत्रकारिता के व्यावसायिक मानदंडों को तार-तार करने वाली पुलिसिया दबिश का लगातार बढ़ता यह तरीका साफ कर देता है कि गृह मंत्रालय अब हमें एक व्यावसायिक पत्रकार भी नहीं बने रहने देना चाहता, जो कि चैथे स्तंभ का बुनियादी मूल्य है। बेलागली का ताजा मामला समझने के लिए काफी है कि इन प्रत्यक्ष-परोक्ष धमकियों के जरिये हमें भविष्य में मजबूर किया जायेगा कि माओवाद को लेकर गृह मंत्रालय से जारी सरकारी विज्ञप्तियों और बयानों से लेकर मंत्रालय के बाबुओं और अधिकारियों की कानाफूसी को ही हम पत्रकारिता मानें।
वैसे तो पहले से ही जनविरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ आलोचनात्मक रवैया रखने वाले पत्रकारों-लेखकों को पुलिस और खुफिया ने रडार पर लगा रखा है। मगर मुंह पर जाबी लगाने की हिदायत देता यह बयान तो अब उस व्यापक मीडिया दायरे को अपने चपेट में लेने की फिराक में है,जो सिर्फ अपनी रोटी के लिए खबरों को हासिल करता है। कौन नहीं जानता कि जो भी पत्रकार जिस पार्टी या मसले को कवर करता है वह उससे जुड़े लोगों से बेहतरीन खबरें पाने की चाह में (जो मूलतः व्यावसायिक तरीका है), थोड़ा नजदीक होता है। क्या चिदंबरम यह नहीं जानते कि जिस पार्टी से वह ताल्लुक रखते हैं, वहां जाने वाले कई पत्रकार आज कांग्रेस के नेता हो गये। इससे बड़ी तादात ऐसे पत्रकारों की है जो अघोषित कांग्रेसी हैं। कांग्रेस से उन पत्रकारों का रिश्ता बड़ा साफ है कि उसको माहौल बनाने के लिए अपने पत्रकार चाहिए और उन पत्रकारों को अपने संस्थान में जमे रहने के लिए मालिक और संपादक की निगाह में जरूरत।
माओवाद से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले ज्यादातर पत्रकारों का भी यही रवैया और नजरिया है। दूसरी तरफ मैं यह भी मानता हूं समाज में जो कुछ भी घट रहा है उसके बारे में लिखने, सोचने और करने के बारे में पत्रकार खुद ही सोचता है,जो उसकी वैयक्तिक आजादी भी है। रही बात लिखने और छपने के दौरान उसके माओवाद के प्रति झुकाव, लगाव या जुड़ाव की तो अगर उसे प्रतिबंधित करने की कोई सोच चिदंबरम रखते हैं तो इस मुगालते से बाहर आ जायें। फिर भी अगर सरकार इस मसले पर धमकियों, गिरफ्तारियों, फॉलोअप आदि के रास्ते डंडे के जोर पर निपट लेने के मूड में है, तो करके देख ले।
चिदंबरम साहब आपको बता दें कि हम इस देश की आजीवन जनता हैं और आप पांच साल के मंत्री। हमारे साहस और आपकी ताकत में यही बुनियादी फर्क है। आपको ताकत कॉरपोरेट घराने देते हैं और हमें साहस संघर्षों की उस लंबी परंपरा से मिलती है जहां अन्याय के खिलाफ विद्रोह न्यायसंगत है,का इस्तेमाल मुहावरे जैसा होता है। हमारे बाबा सुनाया करते थे-‘अपराधी से बड़ा गुनहगार अपराध देखने वाला,उससे बड़ा गुनहगार देखकर नजरें हटा लेने वाला और सबसे बड़ा गुनहगार देखकर चुप्पी साध लेने वाला होता है।’ गृहमंत्री, आप चुप्पी साधने के लिए कह रहे हैं जो हो नहीं सकता।
आपको पता नहीं,तब मैं छठवीं का छात्र था जब बाबरी मस्जिद ढहने के जश्न की खुशी को अपने गांव में देखा। पूरा गांव अयोध्या की मस्जिद से उखाड़कर लायी गयी एक ईंट के पीछे पागल हुआ जा रहा था और मैं कुछ न कर सका। उसके बाद जब विश्वविद्यालय आया तो गोधरा-गुजरात होते सुना और नहीं सह पाने की स्थिति में उन खबरों से नजरें हटा लीं। छठवीं में पूरी एक इमारत ढही,विश्वविद्यालय के दौरान पूरा एक समुदाय छिन्न-भिन्न हुआ और अब जबकि मैं समाज को समझने लगा हूं तो आप पूरा एक देश तबाह करने पर आमादा हैं और चाहते हैं कि हम बोलें भी नहीं। यह कैसे संभव हैं!
इससे भी महत्वपूर्ण यह कि आज आप मंत्री बने हैं,कल पता नहीं आपका क्या होगा। लेकिन संघर्षों की कथाएं सुनाने वाले,जीवन में यह बातें लागू कराने वाले लोग तो हमारे घर,स्कूल और समाज के हैं जहां मैंने उंगली थामकर ककहरा सीखा है और आपकी भी जमीन वहीं से देखी है। सच बताऊ गृहमंत्री, हम इन सब जीवन मूल्यों को अगर आपके बूटों-संगिनों के डर से छोड़ भी दें, तो भी नहीं जी पायेंगे। हम जिस समाज में रहते हैं वह इतनी समस्याओं और मजबूरियों से त्रस्त है कि हम किसी एक ऐसे व्यक्ति की बात मान ही नहीं सकते जिसे एक लोकसभा क्षेत्र जीतने के लिए दो बार गणना करानी पड़ती है और तबाही का फैसला देने में चंद सेकेंड।
yah kyo bhul jate hai ki....chidambaram ke bad isse bhi bada dhoort ayega...MNCs layengi aur taiyari chal rahi hai...
ReplyDeleteअजय जी!
ReplyDeleteबहुत अच्छी बातें लिखी हैं आपने। जब तक हमारे भारतीय समाज में आप जैसे निडर लोग हैं, पूंजीपतियों की यह सरकार जनता से डरती रहेगी। चाहे कितना ही दमन क्यों न करे, हमारी आवाज़ को बन्द करना आसान नहीं होगा। हम होंगे कामयाब एक दिन।
अनिल जनविजय
Sahi lika hai. Lekin ye kis kis ke khilaf karrwai karenge. Ek din sari jelen bhar jayengi. Chidambram sahab jane kis bhram me hain...
ReplyDeletebahut lajawab ajay ji bahut bahut achha likha khas tor par upar ka jo tim lin hain pura system ko linane ke liye kafi hain. ek bar aur bahut bahut badhai. Pura ka Pura blog main ahi tin line apko apki majil tak le ja sakti hain.
ReplyDeleteManoj K. Thakur
The Public Agenda
ये लोग बन्दूक के सहारे लोकतंत्र और भारतीय संविधान का समूल नाश कर माओवादी तानाशाही स्थापित करना चाहते हैं. इनके इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गरीब आदिवासी एक मोहरे मात्र हैं. माओवादी आदिवासियों के मित्र नहीं हैं. यह इस बात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि माओवादियों के बम के निशाने पर स्कूल, अस्पताल,सड़कें, पुल, पावर हाउसेज और स्वयं गरीब आदिवासी होते हैं. ये लोग नहीं चाहते कि आदिवासी विकास की मुख्यधारा में शामिल हों. आदिवासी अगर चिरकाल तक इन सुविधाओं से वंचित रहते हैं तो वे माओवादियों के बंधक बने रहेगे. इस प्रकार ये अबोध आदिवासी इनके घृणित उद्देश्य की पूर्ति के साधन बने रहेंगे. ऐसा भी नहीं है कि आदिवासी इन माओवादियों के साथ हैं. इनको हिंसा और आतंक के डर से बंधक बनाकर रखा गया है. माओवादियों की हिंसा की वीभत्सता का अंदाज़ लगता है, दांतेवाडा में 76 सुरक्षाकर्मियों के नरसंहार से, इन्स्पेक्टर फ्रैंसिस इन्दुवार जो न केवल आदिवासी थे बल्कि अल्पसंख्यक भी थे, का सिर जिस तरह से धड से अलग किया गया, वह इनके तालिबानी शैली में काम करने का पुख्ता सबूत है.
ReplyDeleteदुर्भाग्य की बात है कि कुछ तथाकथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवी तथा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक वर्ग ऐसे हिंसक लोगों के समर्थन में उठ खड़ा होता है. ये बुद्धिजीवी माओवादियों के लिए मुखौटा और मुखबिर का काम करते हैं. इनका कम है माओवादियों को सुरक्षाबलों और सरकार की रणनीति के बारे में पूर्व सूचना देना, माओवाद के समर्थन में कुतर्क गढ़ना, सुरक्षा एजेंसियों और सरकार को गुमराह करना और भटकाना, माओवादियों के विरुद्ध लड़ाई को कमज़ोर करना. मीडिया की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह माओवादियों का महिमामंडन न करे. जो लोग हिंसक माओवादियों से सहानुभूति रखते हैं, उनके साथ किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं हो सकती है. इस संघर्ष में आवश्यकतानुसार सेना का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकना चाहिए. नक्सलवाद के विरुद्ध लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक प्रभावित क्षेत्रों में शान्ति व्यवस्था कायम नहीं हो जाती. अन्यथा माओवादी इन क्षेत्रों में न अस्पताल, न स्कूल, न सड़क, न बिजली, न अन्य कोई विकास कार्य होने देंगे. गरीबी उन्मूलन की अन्य योजनाओं को भी ये क्रियान्वित नहीं होने देंगे. माओवादी हिंसक विचारधारा के विरुद्ध लड़ाई वैचारिक धरातल पर भी लड़नी पड़ेगी यह भी शान्ति व्यवस्था कायम होने के बाद ही संभव है बगैर शान्ति व्यवस्था कायम किये प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों का विश्वास नहीं जीता जा सकेगा. लोगों को समझाना पड़ेगा कि लोकतंत्र एक बेहतर व्यवस्था है. इसका कोई विकल्प नहीं है. विकल्प है तो केवल एक बेहतर, सुदृढ़, स्वक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था. देश संकट में है. यह लड़ाई हमें हर कीमत पर जीतनी ही होगी