हथियार बंद संघर्ष और हथियार बंद विकास की लड़ाई में आदिवासी संघर्षों का रास्ता आगे बढ़कर चुन रहे हैं। वे लड़ रहे हैं,इसलिए हमसे बेहतर जानते हैं कि जिंदगी संघर्षों के बीच कितनी दुर्गम होती है। आदिवासियों की भलाई को आतुर सरकार सलवा जुडूम शुरू होने के एक साल बाद ही दण्डकारण्य के जंगलों में रहने वालों के साथ क्या कर रही थी,माओवादियों के सफाये में लगे हजारों की संख्या में सुरक्षाबल किस तरह वहां की जनता के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना कर रहे थे,इन पहलुओं की पड़ताल करती- अजय प्रकाश की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुडूम’ अभियान, आदिवासियों की व्यथा और नक्सली जीवन के सच से बावास्ता होने, हम जब रायपुर में अपने मिलने की जगह पर पहुंचे तो पहली बार लाल मिट्टी पैरों में लगी थी और उसी मिट्टी का जन्मा एक लाल ‘लाल सलाम’ बोला था। उसी ने कहा रायपुर में लाल सलाम बोलने वाला हर आदमी नक्सली है या सरकार की नजर में नक्सलियों का एजेंट है। इसलिए जो उनके बारे में लिखेगा, उनसे मिलेगा, साक्षात्कार लेगा वह ‘जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत छत्तीसगढ़ सरकार के जेलखाने में होगा।
मगर हम डिगे नहीं। कलम की नोक को संगीनों से टकराने चल पड़े। एक ठिगने कद का गोंड नौजवान जो थोड़ी-बहुत हिंदी जानता था उससे हमें पता चला कि रायपुर से हमारी मंजिल काफी दूर है। ग्यारह घंटे के रास्ते में ड्राइवर ने वह ढेर सारी जानकारियां हमें दे दीं जो किसी क्षेत्र की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति को जानने-समझने की बुनियादी शर्त होती है। हमारा ड्राइवर एक बुजुर्ग सरदार था जो क्षेत्र का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया था। उसने बताया कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का कहते हैं - राज्य के 32 प्रतिशत थाने नक्सल प्रभावित हैं। फिर खुश होते हुए कहा -‘अपन लोगों को नक्सली कभी नहीं छेड़ते। वे तो बांस,तेंदूपत्ता के ठेकेदारों से वसूली करते हैं। मगर उनका एक काम गड़बड़ है,सड़क नहीं बनाने देते। बारूदी सुरंग से उड़ा देते हैं। पुलिस वालों से तो उनकी दुश्मनी जन्मजात है। अपन,जहां आप लोगों को छोड़ेगा वहां तो एक पुलिस वाला भी नहीं दिखता। सिर्फ सीआईएसएफ। वैसे सीआईएसएफ भी क्या कर लेती है। इसी साल फरवरी महीने में सीईएसएफ के बैलाडिला कैंप पर हमला कर नक्सलियों ने हथियार लूट लिये और कई टन विस्फोटक साथ ले गये।’ हमारी गाड़ी दंतेवाड़ा की तरफ बढ़ी तो बीच में गीदम पुलिस चौकी के पास हम चाय-पानी के लिए रुके. वहां ड्राइवर ने बताया कि दो महीने पहले इस थाने को नक्सलियों ने लूट लिया था।
अब रात के आठ बज रहे थे। बुजुर्ग सरदार हमें किरंदुल छोड़कर जा चुका था। किरंदुल जिसे बैलाडिला के नाम से भी लोग जानते हैं वहां हम एक रात और दिन रहे। रात में उतरने के साथ ही पहली निगाह छत्तीसगढ़ के समृधि का पर्याय कहे जाने वाले 'नेशनल मिनरल्स डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएमडीसी)'पर पड़ी जिसके बारे में कुछ बातें हमें सरदार ने भी बताईं थीं। जैसे यह कंपनी जापान सरकार के मदद से बनी है और भारत में इससे बड़ा कोई खदान नहीं है। यह पूरा क्षेत्र आदिवासी है लेकिन एनएमडीसी में आदिवासियों को काम पर नहीं रखा जाता । कंपनी के बाहर माल ढोने के लिए ठेकेदार इनका इस्तेमाल बस कूली के रूप में करते हैं। कंपनी के कामगार बाहर से आते हैं।
गहराती रात की तेज हवाएं,मौसम में अचानक बढ़ी ठंड,सड़कों पर घूम रहे कुत्ते और गश्त लगा रही सीआईएसएफ की गाड़ियां, ये सब मिलकर दहशतनुमा माहौल रच रहे थे। रात कटी, दिन गुजरा और फिर रात को हम चल पड़े। हम अपनी मंजिल के नजदीक पहुंच रहे थे। मगर अब अगल-बगल गाड़ियां,बिजली के पोल, इमारतें नहीं थीं। पहाड़,नदियां,जंगलों का असीम फैला मैदान ही अपना था और हम उनके लिए बेगाने। सहसा जंगलों के पास पहुंची हमारी टीम को देखकर गांव में अफरातफरी मच गयी। लोग घरों को छोड़ जंगलों में भागने लगे तो हमारे ‘कुरियर’ने गोंडी में चिल्लाकर बताया कि यह पुलिस- एसपीओ के लोग नहीं हैं, सलवा जुडूम की सच्चाई जानने-समझने आये हैं।
इतना सुनने के बाद परछाइयां हम लोगों की तरफ बढ़ती दिखायी दीं। उन्होंने आगे बढ़कर हाथ मिलाया,लाल सलाम बोला और राहत की सांस ली। टॉर्च की मद्धिम पड़ रही रोशनी में भी उनके चेहरे पर उभरा सुकून किसी बीते भय की तरफ इशारा कर रहा था। बहरहाल,हम लंबी दूरी तय करने चल पड़े। जहां हम पहुंचे वह पुरनगिल था और नजदीक ही कहीं नदी के बहने की आवाज आ रही थी। कुशल-क्षेम होने के बाद ग्रामीण लकमा ने बताया कि स्कूल-अस्पताल तो इस इलाके में एक भी नहीं हैं। दसियों गांवों के बीच सड़क की तरफ कहीं-कहीं स्कूल हैं,लेकिन जब से सलवा जुडूम अभियान शुरू हुआ है तब से कोई मास्टर नहीं आया है। जुडूम वालों ने सुकलु नाम के एक शिक्षक की भी हत्या कर दी, जिसके बाद मास्टर आने से डरते हैं। हां, गंगकोट की तरफ एक आश्रम जरूर है जहां पांचवी कक्षा तक बच्चे पढ़ते हैं। दवा भी कभी-कभार सड़क की तरफ मिल जाती थी, लेकिन सालभर से वह भी बंद है। गंगलूर प्रखंड के पालनार गांव का नौजवान लक्खु 2001 से गांव में 4-14 वर्ष तक के बच्चों को पांचवीं कक्षा की शिक्षा दिया करता था,परंतु सलवा जुडूम गुंडों ने उसे इस कदर पीटा कि वह दुबारा बच्चों को पढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। दूसरा पढ़ने का विकल्प तोरका गांव का आश्रम था जिसे सलवा जुडूम ने तहस-नहस कर दिया।
रात के लगभग दस बजे हमें पता चला कि पत्रकारों की एक और टीम आयी है और थोड़ी दूरी पर ठहरी हुई है। हमारी टीम को इस बात की खुशी हुई कि चलो इस बियावान में अपनी बात समझने वाले कुछ लोग और आ गये हैं। थोड़ी देर की बातचीत के बाद हमें दाल-चावल खाने को मिला और जमीन पर झिल्लियों का बिस्तर बिछा दिया गया। गद्दों पर नींद लेने के आदी हम ‘शहरी मानुष’ सोने का प्रयास ही कर रहे थे कि कुत्ते तेज आवाज में भौंकने लगे। सामने से चार-पांच टॉर्च लाइटें आगे बढ़ती दिखीं। जब वे लोग झोपड़ियों के नजदीक पहुंचे तो कुत्ते दुम हिलाने लगे। उन्होंने हम सबको लाल सलाम किया। पांचों के कंधों पर बंदूकें लटकी हुई थीं। आते ही उन्होंने हमें एक चिट्ठी थमायी जो राज्य सचिव गणेश की थी। उस पत्र में कामरेड गणेश ने हमारा दण्डकारण्य के विशाल वन क्षेत्र में आने का स्वागत किया था और आगे लिखा था कि हम लोगों से उनकी मुलाकात अगले दिन संभव होगी। चिट्ठी लेकर आये चारों नौजवानों की बातचीत से पता चला कि वे दलम के सदस्य हैं। दलम यानी पार्टी का पूर्णकालिक हथियारबंद दस्ता, जिसे गुरिल्ला आर्मी के रूप में भी जाना जाता है। दलम ने बताया कि वे हमें अगली सुबह पांच बजे एक दूसरी जगह पर ले जायेंगे। हम लोगों को इन्हीं की सुरक्षा में चलना पड़ेगा।
हमें पहाड़ों और जंगलों में चलने की आदत नहीं थी। इससे भी बढ़कर ये कि पैदल चलना सबसे अधिक भारी पड़ रहा था। हम पुरनगिल पांच घंटे पैदल चलकर पहुंचे थे। जब हमें यह पता चला कि पांच घंटे और चलकर मुख्य स्थान पर पहुंचना है तो हम पत्रकारों के पैरों की थकावट और बढ़ गयी। जहां हम पहुंचे वह क्षेत्र नक्सली आंदोलन के मुख्य आधार वाले इलाकों में से एक था। बावजूद उसके गुरिल्ले बेहद सतर्क थे और हथियारबंद जनमिलीशिया को पहरे पर लगा दिया गया था। बताया गया कि हर डेढ़ घंटे में ड्यूटी बदलती रहती है। सोमलु,जिसके घर पर हम रात को ठहरे उसने बताया कि यह सुरक्षा हम पुलिस से निपटने के लिए करते हैं। दूसरा यह कि आप लोग हमारे मेहमान हैं और उन चंद पत्रकारों में से हैं जिन्होंने तमाम खतरों को मोल लेते हुए यहां तक की दूरी तय की। इसलिए भी हमें सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना पड़ रहा है। भौगोलिक तौर पर समझने के लिए बताया गया कि बस्तर का यह दक्षिणी क्षेत्र है। बस्तर को उनकी पार्टी ने आधार इलाके खड़ा करने की दृष्टि से दो और इलाकों उत्तरी और पश्चिमी बस्तर में विभाजित किया है। खासकर 2001में संपन्न तत्कालीन पीडब्ल्यूजी की नौंवी कांग्रेस में दण्डकारण्य को आधार इलाके में तब्दील करने का कार्यभार अपनाये जाने के बाद से आंदोलन की रफ्तार और बढ़ गयी।
सुबह उठने में हम लोगों ने थोड़ी हिला-हवाली की। गुरिल्ले पांच बजे से पहले उठकर नित्य कर्म से निवृत हो हमें उठाने लगे। हम लोग भी साढ़े पांच बजे तक अपना-अपना किट लेकर चल पड़े। पुरनगिल गांव के ठीक पीछे कोटरी नदी मिली जो हमारे लिए अद्भुत थी। सुबह के शांत माहौल में उसकी ध्वनि किसी हरकारे जैसी थी। दलम सदस्य शुकु ने बताया कि यह नदी छह महीने गेरूए रंग की रहती है और छह महीने इसका पानी स्वच्छ रहता है, मगर ऐसा पिछले सात-आठ सालों से ही हो रहा है। ऐसा किस कंपनी की वजह से हो रहा है वह यह तो नहीं जानते, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि यह नदी बैलाडिला के पहाड़ों की तरफ से आती है।
हमने पहली चलायी में तीन छोटी नदियां पार कीं और चार घंटे में एकाध हाल्ट लेकर पीरिया गांव पहुंचे। दलम ने बताया -'यह गांव पांच किलोमीटर में फैला हुआ है । पहले यह नक्सलियों का सुरक्षित इलाका नहीं था। सलवा जुडूम अभियान के बाद यहाँ आधार बना है।' साथ चलने वालों से पता चला कि रास्ते में पड़ने वाले सभी टोले और घर पीरिया गांव के तहत आते हैं। इस गांव के सरपंच को माओवादी पार्टी की जन अदालत ने गोली मारने का फैसला दिया था। गांव के ही मंगु ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में बताया कि वह सरपंच एसपीओ हो गया था और पुलिस की मुखबिरी करता था। उसने यह भी बताया कि सरपंच को पार्टी ने गलतियां सुधारने के तीन मौके दिये,मगर वह अपने आदतों से बाज नहीं आया और थोड़े से पैसे के लालच में तेरह घरों को जलवा दिया। उस घटना के बाद गांव के लोगों ने तय किया कि उसे गोली मार दी जाये। एसपीओ माने स्पेशन पुलिस अफसर। एसपीओ की खास बात यह है कि इनकी भर्ती आदिवासियों के ही बीच से होती है। इस समुदाय का मानना है कि यदि एसपीओ नहीं होते तो सीआरपीएफ और नगा बटालियन जंगलों के अंदर नहीं घुस पाते। सरकार ने सलवा जुडूम को सफल बनाने के लिए 3500लोगों को एसपीओ बनाया जिसके बदले उन्हें 1500 रुपये महीने दिये जाते हैं।
इसी गांव के दसवीं पास बुद्धराम के अनुसार पैसे का लालच आदिवासियों को एक दूसरे के खिलाफ भड़का रहा है। यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’जैसा है। जब सरकार को अपने तमाम प्रयासों से साफ हो गया कि वह नक्सली आधार को नेस्तनाबूद नहीं कर पायेगी तो छत्तीसगढ़ सरकार ने इजरायली सरकार की तर्ज पर ‘सलवा जुडूम’ का गठन किया। छत्तीगढ़ के बस्तर इलाके में सलवा जुडूम अभियान का नेतृत्व कर रहे कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा ने इस तरह के जन जागरण अभियान पहले भी चलाये हैं। वर्ष 1991 और 1997 में जन जागरण के नाम पर चलाये गये इन अभियानों को कोई खास सफलता नहीं मिल पायी थी। सफलता तो इस बार भी हाथ नहीं लगी है,मगर इस बार के जन जागरण अभियान में जो बर्बरता आदिवासियों पर ढायी गयी वह ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है। ‘आपरेशन रक्षक’ और ‘आपरेशन ग्रीन हंट’के नाम से दमन अभियान चलाये गये। इसके साथ ही गांवों में ‘ग्राम सुरक्षा समिति’का निर्माण कर सरकार की ओर हथियार देने की भी घोषणा की गयी। दरअसल,एसपीओ का प्रयोग कश्मीर की तर्ज पर किया गया और दंतेवाड़ा में इसकी ट्रेनिंग भी दी गयी।
ये तमाम बातें करते हुए वे लोग हम लोगों को एक खुले मैदान में ले गये जहां एक साफ-सुथरी झोपड़ी में तीन-चार चारपाइयां बिछी हुई थीं। इस समय घड़ी ने दिन के ग्यारह बजा दिया था। वहां आधे दर्जन महिला दलम ने हमारा स्वागत किया। हमें विशेष व्यवस्था के तहत दूध की चाय पिलायी गयी। विशेष व्यवस्था इसलिए कि वे लोग लाल चाय ही पीते हैं। चाय पीने या खाना खाने के दौरान गिलासों और थालियों की समस्या को वे पत्तों के दोने से दूर करते थे। गांव वालों को छोड़ सबके लिए एक चीज समान थी,वह था गर्म पानी। चूंकि दलम सदस्य हमेशा क्षे़त्रों का भ्रमण करते,जन समस्याओं को निपटाते,पार्टी मीटिंगें करते हुए आगे बढ़ते रहते इसलिए उनके किट का अहम हिस्सा,गर्म पानी था। सभी दलम कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के पास फौजी किट मौजूद रहती है। किट में कुछ दवाएं, घड़ी, टॉर्च, एक खाली पाउच, दो बाई दो मीटर की एक पॉलीथीन और इन सबसे बढ़कर एक हथियार हमेशा साथ रहता है।
साये के माफिक संगीनें इन गुरिल्लों के साथ लगी रहती हैं,फिर चाहे गुरिल्ला सो रहा हो या नित्य कर्म से निवृत ही क्यों न हो रहा हो। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सहज-स्वाभाविक जिंदगी बसर करने वाले इन आदिवासियों के बीच बीस से तीस हजार के आसपास गुरिल्ले हैं जिनकी सुबह और रात संगीनों के साये के बीच होती है।वैसेतोभारतीयकम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी),दण्डकारण्य इकाई आदिवासी मजदूर किसान संगठन,आदिवासी महिला संगठन,दण्डकारण्य आदिवासी बाल संगठन,संघम आदि संगठनों के माध्यम से आम जनता के बीच व्यापक पैठ रखती है,लेकिन पार्टी को मजबूत बनाने और दीर्घकालिक लोकयुद्ध को जारी रखने में मिलीशिया, जनमिलीशिया और दलम का महत्वपूर्ण योगदान है। जहां डीकेएमएस,केएएमएस,बलल (बाल संगठन)जनता के बीच काम करने वाले जनसंगठन हैं,वहीं दलम जैसी शाखाएं पार्टी संगठन हैं। यह जानकारी हमें बुन्नू ने दी जो तीन साल पहले दलम से जुड़ा है। इसी बीच लक्की नाम की एक महिला कामरेड आकर बताती है कि दोपहर का भोजन तैयार हो चुका है। खाने पर जाते हुए महिला कामरेड बद्री से बातचीत के दौरान पता चला कि पीपुल्स वार का नाम बदल चुका है और भाकपा (माओवादी) हो गया है। पार्टी का नाम परिवर्तन 2004 के सितंबर माह में हुआ था जब पीपुल्स वार की एकता माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसीआई) से हुई थी।
इस एकता को सरकार ने नक्सलियों की सफलता के रूप में स्वीकारा था। हमारी बातचीत और आगे बढ़ पाती कि उसी वक्त सामने से गुरिल्ला का एक दल आता दिखायी दिया। उस दल में से दो लोगों के पास लाइट मशीनगन और एसएलआर थी। बंदूकों की चर्चा इसलिए कि हमने बंदूकों को ही देखकर नेता का अंदाजा लगाया। दल के बाकी लोग‘लाल सलाम’बोलकर हमसे अलग हो गये। सिर्फ वही दो लोग हम लोगों की तरफ बढ़े। उनमें एक पुरुष था जो ठिगने कद का दुबला-पतला गोरा गोंड आदिवासी था। वह भाकपा (माओवादी) का स्टेट सेक्रेटरी गणेश था, जिस पर सरकार ने पांच लाख का इनाम रखा है। दूसरी दलम सदस्य एक महिला थी जिसका परिचय डिवीजनल संयोजक के रूप में हुआ। उसके बाद गणेश से जो सवाल-जवाब का दौर शुरू हुआ वह रात के नौ बजे खत्म हो पाया। पार्टी की गतिविधियों की सामान्य चर्चा के बाद स्टेट सेक्रेटरी ने अपनी पूरी बातचीत ‘सलवा जुडूम’ अभियान जिसे वे सरकारी गुंडों का जुल्म नाम देते हैं,पर केंद्रित की। सलवा जुडूम शब्द का गोंडी भाषा में संधि विच्छेद कर सचिव ने बताया कि इसका अर्थ ‘ठंडा शिकार’ होता है।
सेक्रेटरी की नजर में यह नक्सलियों के खिलाफ चलाया गया पहला सरकारी अभियान नहीं है। गणेश बताते हैं कि माओवादी संगठनों के पचीस साल के राजनीतिक सफर में (एकता से पहले भी)अलग-अलग सरकारों ने केंद्र सरकार की मदद से दर्जनों बार दमन अभियान चलाये हैं। नीजि सेनाओं का गठन,जनता के एक तबके को राज्य प्रायोजित हिंसा से जुड़ने के लिए बाध्य करना,माओवादियों के खिलाफ खड़ा कर देना और एक बड़ा झूठ गढ़ना कि आदिवासी खुद ही माओवादियों के खिलाफ खड़े हो गये हैं जैसे कई अभियान हमें उखाड़ फेंकने के लिए सरकार ने सिलसिलेवार सत्ता ने प्रायोजित किये। दण्डकारण्य में ‘जन जागरण’ अथवा ‘सलवा जुडूम’ के नाम से, झारखण्ड में ‘संदेश’ कहकर, महाराष्ट्र में ‘गांवबंदी’ का नाम देकर, उड़ीसा में ‘शांति सेना’ के नाम पर नक्सली दमन की योजना अमल में लायी गयी। इतना ही नहीं, आंध्र प्रदेश में ‘कोबरा’ तथा ‘टाइगर्स’ के नाम से निजी हथियारबंद गिरोहों का भी गठन किया गया है।
सेक्रेटरी के मुताबिक सरकार ने दण्डकारण्य में जो जुल्मी अभियान छेड़ा है उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव तथा स्थानीय सामंती ताकतों की पैरोकारी रही है। मई 2005में हुई मुख्यमंत्री रमन सिंह की कनाडा और अमेरिका यात्रा के मद्देनजर भी समझा जा सकता है क्योंकि ‘सलवा जुडूम’ने अपना पहला निशाना पांच जून और दूसरा 18जून को साधा। इसके बाद जो तांडव भैरमगढ़, बीजापुर, उसर वमेत कई और विकासखंडों में हुआ वह अभूतपूर्व था। ‘सलवा जुडूम’के शुरू होने के बाद से बस्तर में हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला जारी है। इसने सैकड़ों गांवों के हजारों लोगों को उनके रैन-बसेरों से उजाड़कर सड़क पर पटक दिया है। जिन गांवों की तरफ नगा बटालियन और सीआरपीएफ के जवान जाते,उन रास्तों में पड़ने वाले सारे गांव जनविहीन हो जाते,लेकिन जिन गांवों पर चोरी से हमला बोल दिया जाता है वे लोग बलि का बकरा बन जाते हैं। 28अगस्त को नगा बटालियन ने अरियल (चेरली)गांव में हमला बोल दस लोगों को खड़ा कर गोली मार दी जिसमें दस साल का एक बच्चा भी शामिल था।
हमारे सफर का अगला पड़ाव गांव मूकाबेल्ली था। इस गांव में दो महिलाओं का बलात्कार किया गया और एक गर्भवती के पेट को चीर डाला। गंगलुर क्षेत्र के सीपीआई (माओवादी)एरिया कमांडर संतोष ने बताया कि सरकारी गुंडों ने महिलाओं पर अत्याचार और बच्चों की हत्या को अपने अभियान का प्रमुख हिस्सा बनाया है। इसी क्षेत्र के कर्रेमाका गांव में आदिवासी महिला संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता सरिता के साथ 15अगस्त 2005 को नगा पुलिस और सलवा जुडूम के गुंडों ने सामूहिक बलात्कार किया। इसके बाद खून से लथपथ सरिता को भैरमगढ़ थाने ले गये और यातनायें देते रहे। ऐसी घटनाओं की पूरी फेहरिस्त है जो दिल दहला देने वाली है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले एक वर्ष में कम से कम डेढ़ सौ महिलाओं के साथ सलवा जुडूम अभियान से जुड़े लोगों ने बलात्कार किया। औरतों पर ढाये गये जुल्मों की सबसे अधिक शिकार आदिवासी महिला संगठन की कार्यकर्ता हुईं।
मगर दिलचस्प तथ्य यह है कि नक्सलियों को जड़मूल से समाप्त करने के लिए आयी फौजें उनके मात्र दो दलम कार्यकर्ताओं को मार पायीं। डिवीजनल संयोजक निर्मला बेहिचक स्वीकार करती हैं कि माओवादी पार्टी को इस जुल्मी अभियान से कुछ खास नुकसान नहीं हुआ है। बड़ा नुकसान जनता का हुआ है जो जंगलों की ओर भागकर खूंखार जानवरों के बीच रहने के लिए मजबूर है। निर्मला कहती है कि सलवा जुडूम अभियान से हमारी ताकत दुगुनी से ज्यादा बढ़ी है,जबकि इस तथाकथित जनजागरण अभियान से आतंकित हो 600 गांवों के 50 हजार आदिवासी अपने आशियानों को छोड़कर भागने के लिए मजबूर हुए। अभी भी लगभग एक हजार आदिवासी राज्य की विभिन्न जेलों में बंद हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि एक भी पुलिसिया जवान के खिलाफ किसी भी थाने में मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है। जो आदिवासी कुछ महीनों तक हमारे प्रति उदासीन रहते थे अब उनमें से हजारों की तादाद में हमारे तमाम जनसंगठनों में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। जहां अभी हम प्लाटून बना रहे थे,वहीं सलवा जुडूम के बाद हमने अब मिलिट्री कंपनियां खड़ी कर ली हैं। स्थानीय युवक सुराजा ने बताया कि जब से पार्टी (नक्सली) आयी है तब से कोई न तो भूखा मरता है और न ही किसी लड़की की इच्छा के बगैर शादी होती है। यह दो बातें आदिवासी जनता के लिए विशेष महत्व की हैं। कबीलाई सभ्यता से धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे आदिवासियों में पटेल,सरपंच जमींदारों जैसी स्थिति में हैं। लेकिन जिन इलाकों में माओवादी हैं वहां उन्होंने जमीनों का वितरण पारिवारिक जरूरत और परिवार में मौजूद सदस्यों के आधार पर कर दिया है।
इस पूरे मामले में एक और महत्वपूर्ण चीज है,कैंपों की जिंदगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कैंपों में पैंतालीस हजार शरणार्थी रह रहे हैं। हालाँकि भैरमगढ़ इलाके के माओवादी एरिया कमांडर हरेराम मानते हैं कि अब सिर्फ शिविरों में चार हजार लोग बचे हैं। उसमें बड़ी संख्या उनकी है जो पुलिस के मुखबिर हैं या जनविरोधी लोग। हिंसा के शुरूरुआती महीनों में पुलिस बल जबर्दस्ती लोगों को शिविरों में ले गये और लोगों को बंदियों के माफिक रखा। कारण कि वहां से मीडिया को बताना था कि यह जनता माओवादियों के जुल्मों से तंग आकर शिविरों में रह रही है। इसका फायदा सरकारों को मिला भी। मीडिया ने मौका मुआयना किये बगैर ही सरकारी जानकारी को छापा। अब तक हजारों लोग कैंप से भागकर वापस गांवों में आ गये हैं। इतना ही नहीं,कुल एसपीओ में से 50अपने गांवों में वापस आ गये हैं। भैरमगढ़ ब्लॉक के एक राहत शिविर से भागकर आयी सुबकी ने बताया कि उसकी वहां जबरन ‘शादी कर दी गयी और कई दिनों तक उसके तथाकथित पति ने बलात्कार किया।
सावनार,पालनार गांवों के सैकड़ों लोग जो कि अपनी आपबीती सुनाने के लिए आये थे,उनके अनुभवों से स्पष्ट हो गया कि राहत शिविरों की जिंदगी बदतर है। वहीं जो सरपंच,पटेल या पार्टियों के नेता शिविरों का नेतृत्व कर रहे हैं, मालामाल हुए हैं।गुदमा,जांगला,भाटवाड़ा, बैरंगढ़, बादेली, पिंडकोंडा, मिप्तुल, करडेली, वंगा आदि गांवों में राहत शिविर बनाये गये हैं। बैरंगढ़ कैंप से भागकर आये लच्छु ने बताया कि एसपीओ ने गांव में घोषणा की है कि जो आदिवासी अपना गांव छोड़ शिविरों में नहीं आयेगा उनके घर जला दिये जायेंगे।
माओवादी कार्यकर्ता बुद्धराम के मुताबिक जनता को राहत शिविरों में रख सरकार ने हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। बाकायदा धमकी दी गयी कि यदि माओवादी फौजों पर हमला करेंगे तो फौजें शिविरों में रह रहे लोगों को भून डालेंगी।
('द संडे पोस्ट' में प्रकाशित रिपोर्ट का संपादित अंश)
nice
ReplyDeleteअजय जी,पूरे मामले पर तथ्यों से नजदीक का परिचय कराने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteआपकी रपट महत्वपूर्ण है। साथ ही साहसिक भी। मैंने इसे अपने ब्लाग पर लगाया है जिससे यह और अधिक लोगों तक पहुंच सके।
ReplyDeleteप्रिय ,
ReplyDeleteअजय जी आपको इस सहस भरी रिपोर्ट के लीये बहुत बहुत साधुवाद और धन्यावद ,
आपका ये काम सराहनीय है इसे हमने और लोगो को भी सनद किया है ताकि वो भी इस हकीकत से
वाकिफ हो सके .....
anurag shukla
ReplyDeletebahut bhadiya hakeekat se roobru karane ke alawa behtreen bhasa me
report kiya hai .
कमाल का काम है आपका अजय जी. बहुत ही बढ़िया. सच कहूं तो थोड़ी सी जलन भी हुई की आप सचमुच वो कर पा रहे हैं जो हसरत होती है करने की. इस पोस्ट को लगातार फॉरवर्ड कर रही हूँ लोगों को की सच्चाई से रु ब रु हो सकें बाकी लोग भी...
ReplyDeleteसंडेपोस्ट हो या कि आउटलुक हो..ये पत्रिकायें पत्रकारिता के नाम पर जो कूडा छापती हैं उसी नें इस पेशे को धंधा बना दिया है। झूठ को संसेशनलाईज किया जा रहा है। दस दिन बस्तर घूम लिये और आतंकवादियों से मिल कर उनके दृश्टिकोण की रिपोर्टिंग कर ली और मसाला तैयार..कफन खसोंट सही शब्द है इन जैसे लाशों पर पत्रकारिता करने वाले लोगों के लिये। इन्हे मरने वाले आदिवासी नहीं दिखते? नक्सलियों द्वारा बलात्कार की जाती आदिम औरते नहीं दिखती? दिखती है तो इनकी अपनी फंतासी और ये लिखते हैं तो सफेद झूठ।
ReplyDeleteajayji ek achhe lekh ke liye dhanywad. aap ek sachha patrkar hone ka farz nibha rahe hain.baki sach dekh-sunkar kuchh farzi logon ke pet me dard ho to usse kya fark padta hai.aap apna paksh damkhan ke sath rakhne ka sahas karte hain yahi badi bat hai. kuchh log to apne naam se virodh ka bhi naitik sahas nahi kar pate.
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