टॉर्च
मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाईट में होते हैं
हमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी.
एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दो
पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की जरूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस खामोश रहे देर तक.
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक.
apne blog ke pathkon ke liye manglesh ji ki ek achhi kavita lagane ke liye dhanyvad.
ReplyDeletekavita ka ek bharosemand pathak-
ReplyDeletejindagi aur jaroorat ko jodati ek sanvedansheel kavita.......badhai mangalesh da
अभी मैं स्थानीय अखबारों को पढ़ रहा था, तो राजनीतिक घटनाक्रमों से भरे अखबार झारखंड के रसातल में चले जाने की पुष्टि कर रहे थे। मैं सोच रहा था कि आखिर ऐसे (अ)राज्य की तुलना किससे करूं, यहां की राजनीति के अप्रासंगिक हो जाने की तुलना किससे की जा सकती है। फिर मंगलेश सर की यह कविता पढ़ी, तो एहसास हुआ कि झारखंड की राजनीति भी उसी टॉर्च की तरह हो गयी है, जो सिर्फ चमकदार रोशनी दे रही है। इसमें आग नहीं है। और केवल आग ही नहीं, झारखंड की राजनीति की जो टॉर्च है, उससे रोशनी भी केवल कुछ चुनिंदा लोगों के लिए निकलती है। बहुत बुरे हालात हैं यहां के। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस हालात के लिए हम खुद ही जिम्मेवार भी हैं। खैर, मंगलेश सर की कविता शाया करने के लिए आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteआम और खास के बीच पड़ी खाई को बहुत सुंदर तरीके से कविता की पंक्तियों में पिरोया गया है। इस सुंदर रचना के लिए मंगलेश सर का आभार।
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