कालकोठरी के पांच दिन और जहाँ मां बनना पाप है के बाद झारखण्ड से युवा पत्रकार मोनिका के आये लेख को देख लगता है कि स्त्रियों की नैसर्गिक जरूरतों के खिलाफ जो अपराध हो रहा है,उसको लेकर सभी धर्मों,पंथों और विचारों की सामूहिक चुप्पी है, एक मान्यता प्राप्त एकता है.
मोनिका
स्त्री के शरीर में हो रहे प्राकृतिक बदलावों को अपशकुन और प्रदूषणकारी भी माना जाता है,यह सुनकर आश्चर्य होता है और दुख भी। ईश्वर की सबसे सुंदर रचना और जननी के रूप में स्थापित स्त्री तभी पूजी जाती है जब वह देवी होती है। अन्यथा उसका शरीर ही उसके लिए अभिशाप होता है।
यह जानकर दुख होता है कि मासिक चक्र और प्रसव के दौरान स्त्रियों को तरह-तरह की परंपराओं के नाम पर कई अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ता है। इस संबंध में जब मैंने महीने भर पहले मां बनी एक आदिवासी युवती से बात की, तो उसकी बातें चौंकाने वाली थी। पढ़ी लिखी शहरों में रहने वाली महिलाएं फिर भी इन परंपराओं का शिकार कम ही बनती हो, लेकिन उनका क्या जो घर से एक कदम निकालने से पहले भी घरवालों की मर्जी पर निर्भर करती हो।
बसंती नाम की इस युवती को एक बेटी हुई है। घर-घर झाड़ू पोंछा करने वाली बसंती कहती है कि अब मेरी बेटी को भी वहीं सब झेलना पड़ेगा, जो मैंने झेला है। हमारे यहां जब किसी लड़की को मासिक चक्र शुरू होता है, तो उसे घर के किसी ऐसे कमरे में रखा जाता है, जहां लोगों का कम आना जाना होता है। घर और खेतों में श्रम संबंधी सभी काम महिलाएं कर सकती है। लेकिन रसोई में खाना नहीं बना सकती और ना ही पूजा सामग्री ही छू सकती है। और अगर महिला शादी-शुदा है तो उसे अपने पति के पास भी सोने की मनाही है। अतिरिक्त कमरा ना होने की स्थिति में तो पति के कमरे में ही नीचे एक चटाई और चादर दिया जाता है।
गर्म चाय, अचार, अंडे आदि खाने की मनाही होती है। अगर कोई महिला गर्भवती है तो आदिवासी समाज में खेती के काम काज करने की मनाही नहीं होती,लेकिन पूजा में शामिल होने नहीं दिया जाता। जब बच्चे का जन्म होता है तो अस्पताल की बजाय दाई के द्वारा ही प्रसव कराया जाता है। फिर चाहे स्थिति कितनी भी खराब क्यों ना हो। अधिकतर महिलाएं पांच छह दिन के अंदर ही काम करने लगती है, लेकिन 21 दिन तक उसे रसोई में जाने की इजाजत नहीं होती। तीन दिन बाद सिंदवार के पत्तों को पानी में डालकर नहलाया जाता है और घर के एक कमरे में 21दिन तक बाकी सभी सदस्यों से दूर रखा जाता है।
आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में तो मासिक धर्म की शुरुआत में लड़की को कमरे में कैद रखा जाता है। ऐसा करने के पीछे मान्यता है कि अगर रजस्वला लड़की या महिला की परछाई किसी पर पड़ जाये,तो उसे चेचक हो जाता है या फिर वह शारीरिक विकलांगता का शिकार हो सकती है। वहीँ मारवाड़ी समाज में महिलाओं को इस दौरान रसोई में प्रवेश करने नहीं दिया जाता, जमीन पर सोने की व्यवस्था होती है और पानी, अचार और पूजा सामग्री को छूने नहीं दिया जाता है।
आंध्र प्रदेश समेत कई इलाकों में प्रसव के दौरान महिला को आरामदायक बिस्तर की जगह ईटों से बनी संरचना पर बिठाया जाता है। पानी और शराब मिलाकर मंत्रोच्चार किया जाता है और प्रसव का काम दाई के द्वारा ही होता है। इसके लिए किसी अंधेरे कमरे को चुना जाता है। बच्चे के जन्म के बाद प्रसव के दौरान गर्भाशय के बाहर आने पर दाई द्वारा पैर से उसे अंदर की ओर धकेला जाता है, जिससे सबसे ज्यादा महिलाएं संक्रमण की शिकार होती है। स्त्री का खाना पीना भी मिट्टी के बर्तन में ही होता है और वह 41 दिन तक अछूत मानी जाती है।
किसी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम में उसका भाग लेना भी अपशकुन माना जाता है। यह सब केवल गांवों या अनपढ़ वातावरण वाले घर में ही नहीं होता,बल्कि शहरों में भी अधिकांश घरों में ऐसी परंपराएं अब भी देखने सुनने को मिलती है। जो कहीं ना कहीं इस बात का प्रमाण है कि हमारा समाज आज भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरीक समझता है. वह भी उसके जीवन को ताक पर रखकर।
मानवता को कर दिया दफ़न आदमी ने ,
ReplyDeleteउसूलो का बनाया कफ़न आदमी ने ,
सहयोग ,स्नेह और सोहार्द अब स्वार्थ के पर्याय है ,
खुद ही लूटा घरो का चमन आदमी ने ,
भ्रस्टाचार इस मुल्क में कोई मुद्दा नहीं रह गया ,
किया इस कदर गबन आदमी ने ,
फिक्र किसे सागर अपने अगले जन्म कि ,
हवस में डुबोया है तन - मन आदमी ने ,
जाने क्या देगा विरासत आदमी ,
जब बेआबरू कर दिया अमन आदमी ने !
monika ke report dekh laga ki hamen apne hone par sharm aani chahiye.yah sab kuch ho raha hai aur hum sirf padh rahe hain.
ReplyDeleteसिर्फ स्त्रियों के बीच में ही चर्चा होने वाले इस मुद्दे को सामने लाने के लिए धन्यवाद. आप सभी लेखिकाओं को बहुत बहुत बधाई. इस पहल से समाज जागेगा.
ReplyDeletein rapton ko padh kar ankhen bhar aati hain.har mahine yah hum sabhi ke gharon men hota hai, aur humen sharm bhi bahi aati.
ReplyDeleteदिल दहला देनेवाला आलेख है ये। इससे पहले मैदानी इलाकों में महिलाओं की दुर्गत पर रिपोर्ट पढ़ी थी, लेकिन मोनिका जी ने अपने आलेख में पूरे भारत की रूढ़ियों को सामने लाकर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हमारा देश आज भी चौदहवीं शताब्दी से आगे नहीं बढ़ पाया है? खैर, जो भी हो इन विषयों पर आप लोग लिख रहे हैं, रूढ़ियों को अपमानित कर रहे हैं, यही संघर्ष की स्वप्निल परिणति साबित होगा।
ReplyDeleteachha masla uthaya hai. sabhi lekhikaon ka aabhar is sach ko samne lane ke liye.
ReplyDeleteRiya prakash