प्रेमा नेगी
मैदानी जिसे धरती का स्वर्ग कहते हैं,संयोग से मैं उस धरती के स्वर्ग पर जन्मी। मैं उन्हीं पहाड़ों में पढ़ी-लिखी और बड़ी हुई। बहुतेरी मान्यताओं और अंधविश्वासों को मुझे भी झेलना पड़ा और कुछ को मानने के लिए परिवार वालों ने मजबूर भी किया। मगर बच्चे को जन्म देने वाली माओं को अमानवीयता की इस स्थिति से गुजरना पड़ता होगा,यह मेरी जानकारी में भी नहीं था।
हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड की चोटियों को देख सैलानियों को लगता है कि यहां धरती का स्वर्ग बसता होगा। लेकिन पहाड़ की महिलाओं का जीवन पहाड़ से भी ज्यादा कठिन होता है,इसे हम उत्तराखंडी बखूबी जानते हैं। बच्चे को जन्म देने के दौरान एक महिला को नया जीवन मिला होता है और वह अपने शरीर को हिलाने में सक्षम नहीं होती। उस अवस्था में उत्तराखण्ड के ग्रामीण इलाकों में उस महिला को नवजात बच्चे के साथ पेट से निकली गंदगी और उसके सफाई में लगे कपड़े-बिछावन को खुद उठाकर घर से दूर फेंकने जाना पड़ता है।
परंपरा के नाम पर जच्चा को दी जाने वाली इस शारीरिक और मानसिक सजा के बाद वह कैसा महसूस करती होगी, इसे समझना संवेदनशील समाज के लिए बहुत मुश्किल नहीं है। वहां की महिलाओं से यह पूछने पर कि उस गंदगी को दाई क्यों नहीं फेंकती तो कई ने लगभग एक जैसा ही जवाब दिया कि किसी के पेट की गंदगी को कोई क्यों हाथ लगायेगा?जिसकी गंदगी है, उसे वही दूर फेंककर आये तो अच्छा होता है। यह सुनकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है, पर ये सच है।
बच्चे को जन्म देना किसी भी महिला के लिए जीवन की सबसे कठिन घड़ी होती है। बाकियों को भले ही इसका आभास न हो, मगर सच है कि बच्चे को जन्मने के दौरान वो जीवन और मौत के बीच से गुजरती है। और मौत की दहलीज से वापस लौटने के बाद उसे जो करना पड़ता है,वह वाकई चौंकाने वाला है। मगर यहां के समाज में इस अमानवीयता को परंपरा कहते हैं और मां बनने के बाद सजायाफ्ता हुई औरत जितनी ज्यादा इस नवटंकी को निभाती है,वह उतनी कद्रदां होती है। हमने अपनी ताई, भोजी (भाभी) और मां से पूछा, कहा भी कि वह कुल देवता कितना पापी होगा जो एक मां को यह सजा मुकर्रर करता होगा। लेकिन सभी इस अंतहीन तकलीफ पर हंस पड़े मानो कि इस दुनियादारी को समझने की मेरी उम्र ही न हुई।
उत्तराखण्ड के आर्थिकी की रीढ़ कही जाने वाली महिलायें पुरानी रुढ़ियों की शिकार हैं। राज्य के ग्रामीण इलाकों में महिलायें माहवारी की तरह ही बच्चा जनने के दौरान भी घर से अलग-थलग रहती हैं। मासिक धर्म के दौरान जैसे उस महिला को तीन दिन तक कोई छू नहीं सकता वैसे ही जच्चा को नामकरण संस्कार से पहले तक कोई छू नहीं सकता। अगर जच्चा से बच्चे को कोई अपने पास लेता है तो वह गोमूत्र छिड़ककर शुद्धीकरण करने के पश्चात् बच्चे को छूता है।
हालांकि नामकरण के बाद भी एक विषेश समयावधि (जन्म से बाईस दिन) तक जच्चा घर की रसोई और मंदिर वाले कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती है। सामाजिक रूढ़ियों और मान्यताओं के मुताबिक अगर कोई भी जच्चा को छूने के बाद बिना गोमूत्र छिड़के घर के अंदर प्रवेश करता है तो छूत लग जाती है। इसके पीछे वहां के लोग तर्क देते हैं कि अगर किसी ने इसे नहीं माना तो कुलदेवता नाराज हो जाते हैं जिससे किसी की तबीयत तक खराब हो सकती है। यानी कि आधुनिकता का लिबास पहने तथाकथित सभ्य समाज की कई ऐसी सच्चाइयां हैं जिन पर आज सहज विश्वास करना मुश्किल है।
सामाजिक रूतबे के हिसाब से तो उत्तराखण्ड की महिलाएं वहां की आर्थिकी की रीढ़ हैं बावजूद इसके पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता और पुरानी रूढ़ियां यहां के समाज में कूट-कूटकर भरी हैं। मासिक धर्म के दौरान भी जो मासिक चक्र उस महिला विषेश तक ही सीमित होना चाहिए उसको वहां हौवा बना दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे कि कोई अपषकुन हो गया हो। इस बात का पता घर के सदस्यों से लेकर आस-पड़ोस के लोगों को तक चल जाता है। ऐसा महसूस होता है जैसे स्त्रियों का अपना कोई निजत्व ही नहीं है।
उन दिनों में जबकि वह औरत शारीरिक कष्ट झेल रही होती है उसे अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक आराम की जरूरत होती है वह ओढ़ने-बिछाने के लिए तक पर्याप्त बिस्तर नहीं ले सकती है। उसे एक कंबल या गुदड़ी के सहारे ठंडी रातें गुजारनी पड़ती हैं। ठंड के दिनों में तो महिलाएं अतिरिक्त कष्ट सहती हैं। ऐसा नहीं है कि माहवारी के दौरान वह महिला कोई काम नहीं करती है। खेतीबाड़ी से लेकर जंगल से घास-लकड़ी लाने का काम रोजाना की तरह करती है। शुरुवाती दो-तीन दिनों तक तो उस महिला को दूध या दूध से बनी चाय तक नहीं दी जाती है। इसके पीछे भी सारगर्भित तर्क पेश किया जाता है। समाज के ठेकेदार दावा ठोककर कहते हैं कि जिस दुधारू के दूध से चाय बनेगी, वह बीमार पड़ जायेगी नहीं तो उसे छूत लग जायेगी और वह दूध देना बंद कर देगी।
मेरे गांव में एक एक बच्चे के जन्म होने के ग्यारहवें दिन यानी नामकरण के दिन उसकी मौत हो गयी। इसके लिए वहां के लोगों ने उस बच्चे की माँ को ही जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। कहा गया कि इसने बच्चे के जन्म के तुरंत बाद ही नमक-मिर्च और मसाले वाला खाना खाना शुरू कर दिया था, जिसका असर बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ा और बच्चा जिंदा नहीं रह सका। लोग मानते हैं नमक तो बच्चे के लिए जहर का काम करता है।
गौरतलब है कि बच्चे के जन्म के बाद कई दिनों तक जच्चा को बिना नमक या न के बराबर नमक दिया जाता है। जब उसे बहुत अच्छे यानी स्वास्थ्यवर्धक भोजन की जरूरत होती है तब लगभग ग्यारह दिनों तक अधिकांश महिलाओं को दूध भी नहीं दिया जाता। कहा जाता है कि जिस भैंस या गाय का दूध उस जच्चा को दिया जायेगा वह बिगड़ जायेगी, मतलब दूध देना बंद कर देगी या उसे कोई और दिक्कत होगी। लोग बाकायदा उदाहरणों के माध्यम से इन बातों को समझाते हैं। हालांकि अब कुछ समझदार यानी पढ़े-लिखे लोग डेयरी से खरीदकर जच्चा को दूध देने लगे हैं,पर अधिकांश जगह यह संभव नहीं है।
जिन औरतों के पति रोजी-रोटी के चलते पहाड़ से पलायन कर चुके हैं और बच्चे बहुत छोटे हैं,घर में बड़ा-बुजुर्ग कोई नहीं है या किसी कारणवश महिला संयुक्त परिवार में नहीं रहती है तो उसको माहवारी या फिर बच्चे के जन्म के दौरान और भी ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बच्चों और खुद के भोजन के लिए आसपास के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। चूंकि पुरानी मूल्य-मान्यताओं और अंधविष्वास के चलते वह तय मानदंडों का पूरी तरह निर्वहन करती है इसलिए घर में प्रवेश नहीं करती है।
आखिर माहवारी और बच्चे के जन्म के दौरान महिला में ऐसे कौन से परिवर्तन आ जाते हैं जो इसे लेकर इस तरह की रूढ़ियां हैं। क्यों हैं इसे लेकर इतनी भ्रांतियां? मजेदार बात तो ये है कि यह मासिक धर्म को लेकर जो सामाजिक मान्यताएं हैं वह सिर्फ विवाहितों पर लागू होती हैं। कुंवारी लड़कियों पर कोई नियम लागू नहीं होता।
मन में ख्याल आता है क्या विवाहित स्त्रियों की माहवारी के दौरान या बच्चा जन्मने के बाद विश स्रावित होने लगता है!ऐसी महिलाओं के षरीर से स्पर्ष के बाद उसका अपना बच्चा भी अगर बिना गोमूत्र छिड़के घर के अंदर प्रवेष कर जाता है और यह बात बड़े-बुजुर्गों को पता चल जाती है तो उस घर में बखेड़ा खड़ा हो जाता है। उनमें छुआछूत को लेकर तमाम तरह के विकार दिखने शुरू हो जाते हैं। उनके मुताबिक देवताओं के नाम की बभूति लगाने के बाद ही उसकी छूत उतरती है।
देखा जाये तो ऐसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने में औरतें खुद भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि ये कहें कि उन्हीं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है तो यह गलत नहीं होगा। जो सास इन सड़ी-गली मूल्य-मान्यताओं को ढोती चली आ रही है वह चाहती है कि उसकी बहू भी उन रूढ़ियों को निभायें। इसी तरह इसने एक परंपरा का रूप लिया होगा जो आज भी जारी है। पढ़ी-लिखी और जागरूक महिलाएं भी इसकी गिरफ्त से पूरी तरह नहीं छूटी हैं। वे एक तरह से इन्हें निभाकर बढ़ावा ही देती हैं। हालांकि नई पीढ़ी ने इन रूढ़ियों का कुछ हद तक विरोध करना शुरू किया है, मगर विरोध करने वालों में अभी भी खासकर स्त्रियों की उपस्थिति नाममात्र की ही है।
ek dam se nayi jankari dene ke liye prema ji ko badhai. saval hai sarkar kya kar rahi hai.
ReplyDeletena chahte hue bhi ye parampara aadat bankar mere swabhav mein aa gayi...lekin yeh akele uttrakhand ki ladkiyon ki dikkat nahi...pahar ke aage bhi in paramparon ka anusaran kiya jata hai...
ReplyDeletegeeta kainthola
Ye Diniya ka Dastur kabi - kabhi to samajh se pare ho jata hai ,Aakhir kyo Aadmiyo ke liye kuch aur Mahilao ke liye Saitan Ban jata hai so Stop this social crime for our Maa & women
ReplyDeleteयह केवल उत्तराखंड की ही बात नहीं। पूरे देश के कई गांवों में इस तरह की खोखली परंपराएं आज भी मजबूती से स्थापित है और गांव ही क्यों, शहरों में भी कई घरों में महिलाओं के साथ उन दिनों में ऐसा व्यवहार ही किया जाता है। पढ़े लिखे घरों की महिलाओं को भी परंपरा के नाम पर ऐसा करना ही पड़ता है। हां, समृद्ध घरों में एक अंतर यह होता है कि जब महिलाएं माहवारी के दौर से गुजरती है, तब उन्हें अपनी ही रसोई में भोजन पकाने की इजाजत तो नहीं होती। उनके घर वाले होटलों से घर में खाना लाकर खाते है। प्रसव के बाद ग्यारह दिन तक महिलाओं को पूजा और रसोई घर से दूर रखने का प्रचलन आज भी उत्तराखंड के अलावा कई गांवों और यहां तक कि शहरों में भी कई घरों में जारी है। इन ढकोसली परंपराओं के निर्वहन का सारा जिम्मा सभी समाज में केवल महिलाओं को ही सौंप दिया गया है। जिन्हें अनिष्ट का भय दिखाकर-दिखाकर चाहे अनचाहे करवाया जाता है। अफसोस होता है ऐसे समाज पर जहां महिलाओं के लिए अलग और पुरूषों के लिए अलग नियम बनाये जाते है।
ReplyDeleteVery true. It is happening since decades. And only a woman can do anything about it by raising her voice against it. So b ready and stop all this nonsense...
ReplyDeleteis par to samaj men tehelka ho jana chahiye. itna asamvedansheel samaj bhi hota hai kahin.jaroori hai ki yah baat uthe.
ReplyDeleteप्रेमा जी आपने पहाड की महिलाओं के जीवन के बारे कडवे सच से रूबरू कराया पर आप यह भी जानती होगी इन सभी रूढिवादियों में वह महिला भी उतनी दोषी है जितना समाज अज्ञान व निरक्षता भी जिम्मेदार है इन सभी के पीछे, पर तकलीफ तब होती है जब पढे लिखे भी इन परम्पराओं का पालन करते है । उत्तरांचल की महिलाओं की इन समस्याओं को शिक्षा ज्ञान व जागरूकता से दूर करना होगा इसके लिए उन्हे सर्कींण मनोवृत्ति को दूर करना होगा।
ReplyDeleteSunita Sharma Khatri
freelancer journalist
my blog Ganga ke Kareeb http://sunitakhatri.blogspot.com
इससे पता चलता है की महिलाओं के लिए बनी अजीबोगरीब पीड़ादायक परम्पराओं से उत्तराखंड भी अछूता नहीं ...
ReplyDeleteAisa lagta hai pure bharat ke grameen kshetron main mahilaon ka yahi haal hoga. han ye baat alag hai ki ye sachchai koi swikarna nahi chahta.bilkul theek likha hai. isi bahane kam se kam grameen bharat ki aurton ke baare main jayada se jayada janne ko mil raha hai. ek achhi bahas ke liye ajayji ka shukriya.
ReplyDeletewaise main Uttar pradesh ke Banaras ki rahne wali hoon. halanki waha rahi nahi jyada, par waha ki mahilaon ko bhi mahwari aur ma banne par kuchh achhi condition ka samna nahi karna padata hai. mahwari ke dinon main to mahilaon ko dekha hai, agar alag-alag states ke patrkar sathi waha ke baare main likhange to jo sach samne aayega wo lagbhag ek jaisa hoga.
Riya Prakash
ek kadve sach ko samne lane ke liye bahut badhai. me uttarakhand ki mahilaon ke baare me net me article khoj raha tha tabhi ye article mila. janjwar bhi pahli baar dekha. laga ye to bilkul anchhuva pahloo uthya gaya hai jispar log baat karna hi pasand nahi karte. prema ji thanks for this article.
ReplyDeleteaasha hai ki aage bhi janjwar par aisi reports aati rahengi, ab janjwar dekhna jaroori lag raha hai.
Ritesh Mishra