अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष नाम तीसरी दुनिया के देशों पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं...
अंजनी कुमार
डॉमिनिक स्ट्रॉस केन यानी डीएसके पर अमेरीका के न्यूयार्क में बलात्कार के आरोप, गिरफ़्तारी व कोर्ट में पेशी की खबर अंतर्राष्ट्रीय वित्त व राजनीतिक संस्थानों के लिए एक बड़ी खबर थी। खबर इसलिए बड़ी थी कि इससे डीएसके का जाना तय हो गया था। खबर के शेष हिस्से में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे इस खबर का बाजार मूल्य इसे अखबारों के मुखपृष्ठ तक ले आता।
डीएसके के ऊपर पैसा व पॉवर का प्रयोग कर महिलाओं को गिरफ्त में लेने व उत्पीड़न करने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। न्यूयार्क शहर वित्तिय संस्थानों का शहर माना जाता है। मंहगे होटल, विलासिता व अपराध वहां के जीवन का हिस्सा है। न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार जिस तीन हजार डॉलर प्रति रात सूइट वाले होटल में डीएसके ने महिला उत्पीड़न किया वहां इस तरह की घटनाएं आम हैं। डीएसके की इस घटना को चटपटी और सनसनीखेज बनाकर छापा गया। जिससे कि डीएसके का जाना तय हो गया। न्यूयार्क टाइम्स ने संस्थान के अध्यक्ष को हथकड़ी लगाकर पेश करने की अमेरीकी कार्यवाई को इस कारण से आलोचना रखी कि इससे वित्तिय संस्थानों व उनके कर्मचारियों के कार्य व्यवहार पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा।
न्यूयार्क की चिंता होटल व्यवसाय और वित्तिय संस्थान के पदाधिकारीयों के विलाषितापूर्ण जीवन को बचाए रखने की ही मुख्य है। द इकोनॉमिस्ट ने इसे ‘यूरोपीय मर्दाना व्यवहार’ बताकर अमेरीकी लोगों की गैरवाजिब ‘नैतिकता पर जोर’ बताकर इसके पीछे की कटु सच्चाई को मसालेदार बनाकर पेष किया। दरअसल यह अमेरीका की यूरोपीय हितों के मामले में एक गंभीर हस्तक्षेप है। मुद्रा कोष के कर्मचारी इस बात से वाकिफ हैं। उन्होंने जब तय किया कि डीएसके के बाद किसी मर्द के बजाय महिला को ही इसका अध्यक्ष बनाया जाय तो उनका इशारा फ़्रांसिसी वित्त मंत्री क्रिस्टीना लेगार्द की ओर था।
आमतौर पर मुद्रा कोष का नाम तीसरी दुनिया के देशों पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं। ये तीसरी दुनिया के प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री तक का चुनाव और उनके कार्यव्यहार तक को तय करते हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो यहां का गृहमंत्री, प्रधानमंत्रीए वित्त मंत्री और योजना आयोग के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष इसी कोष की पैदाइश हैं। वित्तिय नौकरषाहों की फौज का आयात अलग से किया गया है जिनकी घुसपैठ देष के हरेक संस्थान में है। चाहे वह शिक्षा विभाग हो या टट्टी की साफ सफाई हो।
जो काम सेना नहीं कर पाती है उसे यहां के हिटमैन करते हैं और किसी भी देश के संरचनागत बदलाव को अंजाम देकर उसे धीरे धीरे गुलामी व मौत के मुंह में ढ़केल देते हैं। लेकिन यूरोपीय व अमेरीकी मामले में इनका रूख एकदम भिन्न होता है। जरूरत पड़ने पर ये अपने हितों के लिए कोष की जेब तक पलट सकते हैं। डीएसके इसी मुद्रा कोष के अध्यक्ष थे और अपना कार्यकाल समाप्त कर फ़्रांस के अगले चुनाव में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने वाले था। डीएसके का नाम पिछले दिनों मुद्रा कोष में काम करने वाली एक अर्थशास्त्री पीरोस्का नैगी ने भी डीएसके पर उत्पीड़न करने का आरोप लगाया था।
डीएसके ने नैगी की प्रस्तावित योजना को काफी तवज्जो दी और उसके साथ मिलकर यूरोप के चार देषों पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बेलआउट देने की एक बड़ी योजना पर अमल करना तय किया। अकेले पुर्तगाल को 110 बिलियन डालर देने की योजना बनाई गई जिसमें से 36.8 बिलियन डालर का बेलआउट तत्काल मंजूर कर लिया गया। ग्रीस को यूरोपीय यूनियन व मुद्रा कोष ने लगभग 145 बिलियन डालर का बेलआउट देना तय किया। इस मद का आधा हिस्सा दिया जा चुका है। खबर है कि मुद्रा कोष इसकी आगामी किस्त रोक देने की फिराक में है। यूरोप में मंदी का जोर काफी है और वहां वित्तिय संकट लगातार बना हुआ है जिसके चलते वहां आंदोलनों का जोर बढ़ता जा रहा है और सरकारें किसी तरह राहत हासिल करने की फिराक में हैं।
पिछले दिनों पूरे यूरोप में काम के घंटे, पेंषन, वेतन और रोजगार को लेकर बड़े बड़े प्रदर्शन हुए है। ग्रीस के युवाओं का 40 प्रतिशत हिस्सा बेरोजगार है और बिमार होने का अर्थ है नौकरी खो देना। स्पेन में युवाओं 45 प्र्रतिषत हिस्सा बेरोजगार है। वहां के हालात मिस्र जैसा विस्फोटक है। स्थानीय निकाय चुनाव में 13 में से 11 सीट हार जाने के बाद सत्तासीन सोशलिस्ट पार्टी ने लोगों के इकठ्ठा होने की पाबंदी लगा दिया जिसके खिलाफत में देश के 50 शहरों के सरकारी केंद्रों पर लोगों ने प्रतीकात्मक कब्जेदारी कर इस आदेष का खुलकर माखौल उड़ाया गया। जर्मनी व इटली में मजदूर आंदोलन का जोर पिछले दो सालों से काफी बढ़ गया है।
खुद फ़्रांस इन हालातों का षिकार है जहां डीएसके राष्ट्रपति बनने की उम्मीदवारी तय कर रखा था। पिछले साल के सितंबर- अक्टूबर में 60 लाख मजदूर सड़क पर उतर आए थे। अमेरीकी व यूरोप में मंदी से निपटने के तरीकों में सहमती नहीं है। खुद अमेरीका पर ऋण भार 14.3 tri लियन डालर हो चुका है। जिसके चलते बेघर व बेरोजगारों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। यूरोप में कम्युनिस्ट व समाजवादी आंदोलनों के चलते वहां की सरकारों पर सामुदायिक खर्च की जिम्मेदारी का दबाव है। इसमें कटौती करने का अर्थ राजनीतिक सामाजिक दबावों व आंदोलनों का सामना करना है। इसका दूसरा असर यूरोपीय समाज में फासिस्ट प्रवृत्तियों का उभार भी है। यूरोपीय वित्तीय गुट इस संकट से निकलने की छटपटाहट में हैं। और वे अमेरीका के सामुदायिक मदों पर खर्च के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बजाय मुद्रा कोष जैसे वित्तीय संस्थानों से बेलआउट के आधार पर मंदी से उबर आने पर जोर लगाए हुए हैं।
यूरोपीय गुट की मुद्रा कोष की सांगठनिक संरचना पर पकड़ भी है। जाहिर सी बात है कि अमेरीका यूरोप से वैसे ही नहीं निपट सकता जैसा वह तीसरी दुनिया के देशों के साथ निपटता रहता है। वह फिलहाल तो पैसा ताकत व सेक्स के इस बाजार में नैतिकता पर जोर देकर ही डीएसके को बाहर जाने का दरवाजा दिखा सकता था। मगर अगले अध्यक्ष के चुनाव में अब भी यूरोपीय नाम ही प्रमुखता से उभरकर आया है। फ़्रांस की वित्त मंत्री क्रिस्टीना देगार्द डीएसके की तरह ही दक्षिणपंथी है। शायद यह नाम अमेरीका को रास आए। पर तीसरी दुनिया के देशों को यह नाम नहीं रूच रहा है।
देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूस, चीन, ब्राजील व अन्य देशों के साथ मिलकर यह सवाल उठा रहे हैं कि हर बार मुद्रा कोष का अध्यक्ष यूरोप से क्यों हो? साथ ही यह बयान देकर रास्ते को खुला छोड़ दिया कि इसकी सांगठिन संरचना में बदलाव एक बार में नहीं हो सकता फिर भी तीसरी दुनिया के देशों के हितों व दावों का ध्यान रखा जाय। इस कमजारे व लिजलिजे तर्क का निहितार्थ यही है कि देगार्द को अध्यक्ष बनने दिया जाय। क्रिस्टीना देगार्द जी-20 की अध्यक्ष रहीं हैं। साम्राज्यवादियों के इस मंच से उन्होंने वैष्विक मंदी से निपटने के लिए तीसरी दुनिया, खासकर भारत, ब्राजील व चीन के बाजार की ओर रूख करने की नीति पर जोर दिया था। प्रणव मुखर्जी व वाणिज्य और उद्योगमंत्री आनंद शर्मा ने फ़्रांस के इस उम्मीदवार को अनौपचारिक स्वीकृति दे दी है। क्रिस्टीना देगार्द फ़्रांस में दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री मानी जाती हैं। जब फ़्रांस आर्थिक तंगी से गुजर रहा था और मजदूरों व कर्मचारियों पर पूरा भार डालकर मंदी से उबरने के प्रयास चल रहे थे उस समय उन्होंने एक व्यापारी बनार्ड तेइपी को 285 मिलियन यूरो एक बैंक से उठाकर दे दिया। जिसका मामला वहां की कोर्ट में है।
सारकोजी व उनकी सरकार अपने दक्षिणपंथी रूख के लिए जानी जाती है। देगार्द का नाम न केवल यूरोपीय देशों बल्कि अमेरीका को भी रास आ जाएगा। और उनके हितों के लिए वह बढ़िया हिटमैन साबित होगी। पैसा पॉवर व सेक्स के इस बाजार व संस्थान का खामियाजा आमजन व तीसरी दुनिया के देषों को ही उठाना है। लूट के इन विष्व संस्थानों में हिटमैनों की उठापटक हाथियों की धमाचौकड़ी ही है। फिर भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि वहां विष्व मंदी से निपटने के लिए कितनी मारामारी मची हुई है। बहरहाल, डीएसके को ढ़ाई लाख डालर व अन्य मिलने वाली सुविधाओं के साथ मुद्रा कोष से विदाई हो चुकी है। साथ ही महिला उत्पीड़न का मामला भी खात्मे की ओर बढ़ चुका है। साम्राज्यवादी लूट का नया चेहरा उन्हें मंदी से किस हद तक उबारेगा, यह देखना बाकी रहेगा। इस चेहरे का नाम जो भी हो हम इस देश के लोग लूट के विद्रूप चेहरे को रोज ही देख रहे हैं।
स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता.फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.
अंजनी आपने डीएसके के इस पूरे मामले का शानदार विश्लेषण किया है.ब्रिक देशों के नाम से भारत भी इस अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की राजनीति में अपना उम्मीदवार खड़ा करने की फिराक में है.अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यकारी निदेशक अरविंद विरमानी इसके लिए सक्रिय हैं. इसमें विशेष बात देखने वाली यह होगी कि अमरीका अपनी मंदी से निपटने के लिए क्या क्या हथकंडे अपनाता है. क्या फिर ग्रेट डिप्रेशन....?
ReplyDeleteaccha aur vishleshnatmak lekh.
ReplyDelete