Jun 30, 2011

बच्चों के प्रति संवेदनहीनता की महान सांस्कृतिक विरासत !

बच्चों के प्रति संवेदनहीनता हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। साम्राज्यवाद की विरासत का सुख भोगने वाले बुद्धिजीवियों और उनके रहबरों ने बच्चों को एक नेता के जन्म-दिन पर याद करने की वस्तु से कुछ ज्यादा नहीं समझा है...

राजेश चन्द्र

बच्चों की दुनिया एकदम अलग होती है,जिज्ञासा और निश्छलता से भरी हुई। उनमें रचनात्मक कल्पनाशीलता सबसे ज्यादा होती है,पर उनकी संवेदनशीलता को प्रेरित कर पाना आसान नहीं होता। दुर्भाग्य से हमारे यहां बाल साहित्य बहुत ही कम उपलब्ध है और बच्चों के नाटक तो नहीं के बराबर।

हमारे प्रमुख साहित्यकारों ने बच्चों के लिए लेखन को बहुत कम महत्व दिया है,पर साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर यह शिकायत सुनने को मिल जाया करती है कि नई पीढ़ी को न तो साहित्य और उसकी विरासत की कोई जानकारी है, न उससे कोई लगाव। हमारे गंभीर साहित्यकार भी जब बाल साहित्य की रचना करते हैं तो वे उन बच्चों की उपेक्षा करते हैं जो सामने हैं। उनकी कल्पना में आदिम युग का कोई मोगली-नुमा बच्चा तैरता रहता है, जो शायद पहली बार मनुष्यों की दुनिया में आया है। उसकी आंखों में अचरज है, पर दिमाग खाली। इसलिए हमारे साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय 'एक था राजा एक थी रानी' या 'बंदर मामा पहन पाजामा' से आगे बढ़ते ही नहीं।

आज के बच्चों की मानसिकता अंतरराष्ट्रीय सीमाएं पार कर रही है। कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट ने उसके सामने सूचनाओं और मनोरंजन का ऐसा मायावी संसार खोलकर रख दिया है जिसमें उड़ने की ललक उन्हें असमय ही वयस्क बना रही है,पर हम उन्हें कुत्ता-बिल्ली या तोता-मैना के दोहे सुनाकर रोक लेना चाहते हैं। आज के शोरगुल और भागमभाग वाले दौर में बच्चे ऐसे दोराहों पर खड़े हैं, जहां आपसी संघर्ष है, होड़ है, परीक्षा का भय है, माता-पिता की महत्वाकांक्षाएं हैं, कुछ कर दिखाने का दबाव है। ढेरों अभिलाषाएं-इच्छाएं हैं और इनसे बनती-बिगड़ती प्रवृत्तियां-मनोवृत्तियां।

वे अपने अंतर्द्वंदों के साथ अकेले हैं,कोई नहीं है जो उन्हें समझे,उनकी समस्याओं का निराकरण करे। अहर्निश चलने वाले टीवी चैनलों ने बच्चों की तमाम संभावनाओं को निचोड़कर उन्हें विश्व बाजार के डरावने भीड़-भरे गलियारों में हत्यारी संभावनाओं के हवाले कर दिया है। लोरी सुनने की जिनकी उम्र है,ऐसे हजारों-हजार बच्चे चैनलों की गलाकाट प्रतियोगिता में नाच-गाकर दूसरों के लिए बसंत बुन रहे हैं और यह जानते हुए भी कि वे एक अंधी सुरंग में ढकेले जा रहे हैं,हम कुछ नहीं करते सिवाय तालियां बजाने के। ऐसे में साहित्य उनका दोस्त हो सकता था,जो उनके मनोविज्ञान को समझता और उनका मार्गदर्शन करता। पर वहां भी उनके नाम पर एक अबूझ सन्नाटा पसरा है।

वास्तव में बच्चों के प्रति संवेदनहीनता हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। साम्राज्यवाद की विरासत का सुख भोगने वाले संभ्रांत वर्गों,इन वर्गों से निकले बुद्धिजीवियों और उनके रहबरों ने बच्चों को एक नेता के जन्म-दिन पर याद करने की वस्तु से कुछ ज्यादा नहीं समझा है। दूसरों की सुख-सुविधा, मुनाफा और अय्याशी के लिए जिस देश के करोड़ों बच्चे जानवरों से भी ज्यादा बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हों, उस देश में यह उम्मीद करना कि यहां हर एक बच्चे को कभी-न-कभी रंगमंच से जुड़ने का मौका मिलेगा ताकि वह भाषा, साहित्य, सामाजिकता, सहयोग भावना, आत्मविश्वास और अनुशासन सीख सके और आगे चलकर एक बेहतर नागरिक बन सके-एक तरह की विलासिता ही लगती है।

 बाल रंगमंच गहरी कलात्मक संभावनाओं के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था के सर्जनात्मक रूपों से भी जुड़ा हुआ है। देश की सामान्य रंगमंचीय गतिविधि के लिए वह एक नई दिशा और नया आयाम प्रस्तुत करता है किंतु अभी वह अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है। यह सही है कि आज देश के कई महानगरों में बच्चों का नियमित रंगमंच मौजूद है और पिछले कुछ दशकों में बाल रंगमंच के महत्व को व्यापक स्वीकृति मिली है, पर आज भी वह हमारी शिक्षा का अंग नहीं बन पाया है।

बचपन में कोमल मन पर पड़े संस्कार जीवन भर हमारे भीतर बने रहते हैं और अपनी कारगर भूमिका निभाते हैं। बाल नाटकों और रंगमंच का बच्चों की प्रतिभा के विकास के लिहाज से महत्व समझने, आज के बच्चों के भय, उलझनों और छोटी-बड़ी मुश्किलों से सीधे जुड़ने तथा बाल रंगमंच के जरिए बच्चों को नया,खुशहाल समाज बनाने के सपने और नए विचारों से खेल-खेल में जोड़ने की सबसे पहले शुरुआत करने वाली रेखा जैन का समूचा जीवन ही बाल रंगमंच को समर्पित रहा।

बच्चों के लिए उमंग का सफ़र


वर्ष 1979 में उमंग की स्थापना कर बाल रंगमंच को एक राष्ट्रीय अभियान का स्वरूप देने वाली रेखा जैन ने अपने रंग-जीवन की शुरुआत 1942-43में इप्टा आंदोलन के जन्म के साथ की थी। वर्ष 1956 में दिल्ली आने तथा 'दिल्ली चिल्ड्रंस थिएटर' से जुड़कर उन्होंने बाल रंगमंच के सर्वांगीण विकास को अपना जीवन-ध्येय बना लिया। तब से लेकर अप्रैल 2010 में शरीर त्यागने तक बाल रंगमंच के क्षेत्र में 50 से भी अधिक वर्षों के उनके समग्र योगदान को समझने की कोशिश अभी भी उसी चरण में है, जिस चरण में बाल रंगमंच को एक गंभीर रंगकर्म के तौर पर स्वीकृति देने और अपनाने की मानसिकता है।

बाल रंगमंच के महत्व और उत्कृष्टता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से रेखा जैन ने वर्ष 2009 में उमंग बाल रंग सम्मान की स्थापना की थी। उनके निधन के बाद अब यह सम्मान रेखा जैन बाल रंग सम्मान के नाम से दिया जाता है। इस वर्ष यह सम्मान प्रख्यात लेखक और रंगकर्मी सतीश दवे को दिया गया है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे और बंसी कौल के बाद सतीश दवे यह सम्मान पाने वाले तीसरे रंगकर्मी हैं।

'उमंग' के वार्षिक बाल रंग शिविर के समापन समारोह के अवसर पर पिछले वर्ष 15 जून को कमानी सभागार में सम्मानित सतीश दवे बाल रंगमंच के जरिए तीस वर्षों से बच्चों की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के विकास में मौलिक और महत्वपूर्ण योगदान के लिए चर्चित रहे हैं। इस अवसर पर उमंग ने कर्नाटक के प्रसिद्ध रंगकर्मी के.जी.कृष्णमूर्ति के निर्देशन में वैदेही का लिखा नाटक ‘गोपू गणेश-झुमझुम हाथी‘ का भव्य मंचन भी किया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 1994 के स्नातक कृष्णमूर्ति ने 1990 में ‘किन्नर मेला‘ की स्थापना की और बाल रंगमंच को लोक और परंपरा से जोड़ते हुए उसे एक नई रंगभाषा दी। 'गोपू गणेश-झुमझुम हाथी' एक पौराणिक मिथक के माध्यम से बच्चों को खेल-खेल में पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाता है। नाटक में वन्य प्राणियों का सुंदर-सजीला संसार है, जिसे स्वार्थी मनुष्यों की लोलुपता लील जाना चाहती है। गोपू और झुमझुम हाथी की निष्कलंक मैत्री,गणेश और चांद की सदेह उपस्थिति तथा पुलिस की चिरपरिचित अकर्मण्यता प्रस्तुति को रोचक बनाती है। निर्देशक ने यक्षगान शैली और सुंदर गीतों के उपयोग से नाटक को अदभुत और आनंदकारी रूप दिया है।

आज के स्वकेंद्रित उपभोक्तावादी समाज में जहां बच्चे अंतर्मुखी, अकेले होकर अवसाद का शिकार हो रहे हैं, ऐसे रंग शिविरों की एक बड़ी भूमिका इस वजह से भी है कि बच्चे वहां स्वयं को अभिव्यक्त करना,दोस्त बनना-बनाना,परस्पर भागीदारी और समूह में जीने का आनंद लेना सीखते हैं। इस 'उमंग' पर हर बच्चे का हक होना चाहिए, पर काश यह बात हमारे नीति-निर्धारकों को समझ में आती।

 

स्वतंत्र पत्रकार और कला समीक्षक.





1 comment:

  1. bachchon ki tarf dhyan dene ke liye rajesh ji ka aabhar.

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