दलितों में इतना परिवर्तन नहीं आया है कि वे सवर्णों की तरह खूंखार हो गए हों और वे होंगे भी नहीं क्योंकि उनके पुरखे—कबीर, रविदास और डा. आंबेडकर ने उन्हें भेड़िया बनने की शिक्षा नहीं दी है...
सहारनपुर के शब्बीरपुर घटना पर कँवल भारती की टिप्पणी
इस विषय पर मैं काफी लिख चुका हूँ. मैं अपने मत की पुष्टि में अभी की सहारनपुर की घटना लेता हूँ, जहाँ शब्बीरपुर गाँव में ठाकुरों ने 15 दलितों पर लोहे की राड और धारदार हथियारों से जानलेवा हमला किया है, उन्होंने 22 घरों पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी, जिससे उनके पशु, टीवी, मोटरसाइकिलें, बर्तन, बिस्तर, फर्नीचर सब जल कर राख हो गये.
उन्होंने पूरी जाटव बस्ती में दहशत मचाई, जाति-सूचक गलियां दीं, रविदास मंदिर में तोड़फोड़ व लूटमार की, और गांव में स्थापित रविदास की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया. कहा जाता है कि गांव में ठाकुर राणाप्रताप की झांकी निकाल रहे थे, दलितों ने लाउडस्पीकर बंद करने को कहा, और बंद न करने पर उन्होंने जुलुस पर पथराव कर दिया.
इससे भगदड़ मच गयी, एक ठाकुर की दम घुटने से मौत हो गयी, जिसका बदला लेने के लिए फोन करके आसपास के ठाकुरों को बुलाया गया. और सबने खूंखार तरीके से दलित बस्ती को घेर लिया. इस घटना ने देवली, साधुपुर, कफलटा, कुम्हेर, बाथे और खैरलांजी नरसंहार की याद ताजा कर दी है, जिनमें खूंखार सवर्णों ने दलितों के खून से होली खेली थी.
इन सभी घटनाओं की तरह इस कांड की भी एकपक्षीय जाँच होगी, और सभी अभियुक्त दोषमुक्त हो जायेंगे. पर कुछ बेगुनाह दलित जेल जरूर चले जायेंगे. प्रदेश में हिन्दूवादी ठाकुरों की सरकार है.
दलित कवि मलखान सिंह की एक कविता के अनुसार, ठाकुरों का राजा हाथी पर सवार होकर गाँव में आएगा, और दलितों को कुछ रियायतें बाँटकर चला जायेगा. यह भी हो सकता है कि राजा इसकी जरूरत भी न समझे. खैर, इस घटना को अंजाम देने में किसी भी दलित की कोई भूमिका नहीं है. इस सारे खूनी नाटक की पटकथा ठाकुरों के द्वारा ही लिखी गयी थी.
पिछले कुछ सालों में दलितों में इतना परिवर्तन तो आया है, कि वे अब जातीय अपमान का शाब्दिक जवाब देने लगे हैं, और कुछ पढ़लिख गए हैं. किन्तु, उनमें इतना परिवर्तन अभी नहीं आया है कि वे सवर्णों की तरह खूंखार हो गए हैं. लोगों के घरों में आग लगाने लगे हैं, घरों में घुसकर लोगों को गोलियों से भूनने लगे हैं, या गर्भवती महिला का पेट चीरकर शिशु को हवा में उछालकर गोली से उड़ाने लगे हैं.
जिस दिन दलित इतने खूंखार हो जायेंगे, तब शायद देश एक भीषण जातिसंघर्ष में बदल जाएगा, और शायद सवर्णों के छक्के भी छूट जाएँ. लेकिन दलित इतने खूंखार बनेंगे नहीं, क्योंकि उनके पुरखे—कबीर, रविदास, और डा. आंबेडकर ने उन्हें भेड़िया बनने की शिक्षा नहीं दी है. वे लोकतंत्र में विश्वास करने वाले लोग हैं, और भूखे-नंगे रहकर और फुटपाथों पर सोकर भी उन्होंने कभी हथियार नहीं उठाये. इसलिए इस आरोप पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ठाकुरों से लाउडस्पीकर बंद कराने की हिम्मत की होगी, और उनके जुलुस पर पत्थर फेंके होंगे.
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उस गांव के जाटव अपनी जीविका के लिए उन ठाकुरों पर ही आश्रित हैं. वे उनके खेतों में काम करते हैं. वे उन पर पत्थर कैसे फेंक सकते थे? जरूर, इसके पीछे ठाकुरों और दलितों के बीच कोई अन्य आर्थिक कारण होगा. हो सकता है कि खैरलांजी की तरह यहाँ भी कुछ दलित आर्थिक रहन—सहन में ठाकुरों की बराबरी करने लगे हों, और उन्हें जमीन पर लाने के लिए ही उनके घरों को जलाकर राख करके उन्हें सबक सिखाया गया हो.
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