आईआईएमसी एक बड़ा सर्प है जो आसपास के सभी जीवों को निगल जाता है। दिल्ली के तमाम संस्थानों में इनके लोग घुसे हुए हैं जो पत्रकारिता में सैटिंग कर अन्य संस्थानों और शहरों से आए लोगों को पत्रकारिता क्षेत्र में प्रवेश करने नहीं देते...
विष्णु शर्मा
भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC आईआईएमसी), दिल्ली के एक कार्यक्रम में बस्तर के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी के आने पर खूब हल्ला मचा। कई लोगों ने संस्थान के बदलते चरित्र पर चिंता व्यक्त की तो कई भले लोगों ने कल्लूरी के विरोध को गैरवाजिब बताया।
कल्लूरी के आने का संस्थान के उन पूर्व छात्रों और अध्यापको का विरोध करना कितना सही था जिनके पत्रकार बन जाने में कल्लूरी जैसे बड़े नामों का बड़ा योगदान है इस पर बात करने की बहुत जरूरत नहीं है।
आईआईएमसी एक सरकारी संस्थान है जो हर साल बड़ी तादाद में सरकारी कर्मचारी पैदा करता है। कुछ लोग पत्रकार भी बन जाते हैं लेकिन तभी जब अच्छा पैकेज मिलता है। एक सरकारी संस्थान से पत्रकारिता के मानकों की अपेक्षा करना खुद विरोध करने वाले इन भोले पत्रकारों की सोच पर सवाल खड़ा करता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि आईआईएमसी के चरित्र में कोई बड़ा बदलाव केन्द्र में एनडीए सरकार के आने से नहीं आया है। यह संस्थान पिछले 50 सालों से सरकारी पत्रकार पैदा करती रही हैं और आगे भी करती रहेगी। कल वाम सरकार बन जाए तो देख लीजिएगा इसका पूरा रूप लाल हो जाएगा।
हर साल इस संस्थान से हजारों नहीं तो सैकड़ों ‘पत्रकार’ निकलते हैं, जिनमें से 95 से 98 प्रतिशत देर—सबेर सरकारी कर्मचारी से ज्यादा कुछ नहीं बन पाते। देर—सबेर इसलिए कि शुरू में इनमें से बहुतेरे पत्रकारिता में नौकरी शुरू करते हैं, मगर वह लगातार इसी प्रयास में होते हैं कि कैसे शासन—सत्ता में सेटिंग कर सरकारी—गैरसरकारी नौकरी हथियाई जाए।
असल में आईआईएमसी एक प्लेसमैंट ऐजेंसी से ज्यादा कुछ है ही नहीं। इस संस्थान के संचालकों का पूरा जोर इस बात पर रहता है कि संस्थान के अधिक से अधिक विधार्थियों की सैटिंग कहीं हो जाए। अब इस सैटिंग के लिए क्या जरूरी है ये कोई बहुत बड़ा रहस्य नहीं है। ऐसे में राईट-लैफ्ट-सेन्टर के कल्लूरी साहब आते रहेंगे और ये इसके चलते रहने की जरूरी शर्त भी है।
अगर पत्रकार और पत्रकारिता के गिरते चरित्र को रोकना है तो ‘कल्लूरी’ के विरोध से अधिक जरूरी है आईआईएमसी को बंद कर देना। एक प्रयोग के तौर पर कम से कम इसे अगले 5 साल तक बंद कर देना चाहिए। इससे अन्य शहरों से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले लोगों को भी दिल्ली और अन्य बड़े शहरों के ‘राष्ट्रीय’ मीडिया में प्रवेश करने का मौका मिलेगा और इन लगभग मरणासन्न संस्थानों को नया रक्त और नई उर्जा मिलेगी।
आईआईएमसी एक बड़ा सर्प है जो आसपास के सभी जीवों को निगल जाता है। दिल्ली के तमाम संस्थानों में इनके लोग घुसे हुए हैं जो अन्य संस्थान और शहर के लोगों को पत्रकारिता क्षेत्र में प्रवेश करने नहीं देते। इस क्षेत्र की तमाम छोटी बड़ी नौकरियां इनके कब्जे में हैं। ये लोग लोगों का करियर बनाते और बिगाड़ते हैं।
इसी संस्थान के पास आउट बड़े बड़े चैनलों के मालिक बन गए है। ये ही लोग सरकारी नौकरियों में हैं। ये ही जनसम्पर्क अधिकारी हैं और ये ही प्रकाशन संस्थानों में भरे है। ये लोग बीबीसी हिन्दी, डॉयचे वेले, चाइना रेडियो इन्टरनेशनल और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में घुस गए हैं। यहां तक कि ये लोग पत्रकारिता की सारी स्कॉलरशिप और फैलोशिप खा जाते हैं। अनुवाद और प्रूफ रीडिंग का काम लोगों से छीन लेते है।
आज अगर आईआईएमसी कोई एक चीज पैदा नहीं कर पा रहा है तो वह है पत्रकार। पिछले दिनों पत्रकारिता को जिन लोगों ने सबसे अधिक बदनाम किया वे इसी संस्थान के पूर्व छात्र हैं। सारी फर्जी कहानियां आईआईएमसी के पूर्व छात्रों से आई हैं। जेएनयू में त्राही—त्राही मचाने वाले यही लोग हैं। दीपक चौरसिया हो, सुधीर चौधरी, या निधी राजदान आज की ‘पत्रकारिता’ के सभी मालिक के और आवाज आईआईएमसीएन ही हैं। पक्ष भी और विपक्ष भी।
इसके अलावा सामाजिक संजाल में भी इन्हीं का कब्जा है। ये ही लोगों को पत्रकारिता का सर्टिफिकेट बांटते हैं। फेसबुक और ट्वीटर में 20 हजार फोलोवर बताने वाले बडे़—बडे़ पत्रकार भी पत्रकारिता के नाम पर हर तरह से बदनाम राजनीति के प्रवक्ता बने हुए हैं। कोई द्वीज सरकार का प्रवक्ता है तो कोई गैर द्वीज सरकार का और कोई वाम सरकार का, लेकिन सारे के सारे आईआईएमसीएन हैं तो सरकारी प्रवक्ता ही।
ऐसे में बेचारे गैर आईआईएमसी पत्रकार कहां जाएं? छोटे शहरों के ये मासूम पत्रकार आज भी पढ़ रहे हैं कि पत्रकार को सरकार का नहीं बल्कि जनता का प्रवक्ता हो चाहिए। इनकी हालत तो भारतीय सेना के उन जवानों की तरह है जो 10 मिनिट में 2.4 किलोमीटर दौड़ कर भर्ती होते हैं लेकिन इनका अफसर हमेशा इण्डियन मिल्ट्री अकादमी का पास आउट की होता है।
तो ऐसे में कल्लूरी के आने पर इतना बवाल मचाने की क्या जरूरत है। कल्लूरी किसी दीपक चौरसिया या सुधीर चौधरी से बड़े तो नहीं हैं। उनके पास जन चेतना को प्रभावित करने की वैसी शक्ति नहीं है जो आईआईएमसी के पास आउट संचार माफियाओं के पास होती है।
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