डीएवीपी की नई पॉलिसी से सैकड़ों मीडियाकर्मी होंगे बेरोजगार
डीएवीपी की नयी नीति के कारण डीएनए के एडिटोरियल विभाग में करीब 60 लोग आगामी 30 जून को सड़क पर आ जाएंगे। इसके अलावा डीएनए के विज्ञापन, प्रसार और अन्य कई लोग बेरोजगार हो जाएंगे...
जनज्वार लखनऊ। मोदी सरकार की नयी डीएवीपी नीति का जमीनी असर अब दिखने लगा है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ सहित इलाहाबाद, कानपुर, फैजाबाद, वाराणसी से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट के बंद होने की खबर आ रही है। शनिवार 17 जून को अखबार के सर्वासर्वा डाॅ निशीथ राय, प्रबंधक डी0के0 पाण्डेय और सम्पादक अरविंद चतुर्वेदी ने मीटिंग कर स्टाफ को आगामी 30 जून के बाद अपना बंदोबस्त करने का फरमान सुनाया है।
इस खबर के बाद से डीएनए कर्मियों में हड़कम्प मचा है। अखबार से जुड़े सूत्रों के अनुसार आने वाले दिनों अखबार में चार-पांच का स्टाफ दिखाई देगा, जो अखबार की फाइल काॅपी छापेगा। रविवार 18 जून को भी अखबार प्रबंधन की मीटिंग अखबार प्रमुख डाॅ निशीथ राय की अध्यक्षता में हुई। मतलब साफ है कि प्रबंधन अखबार बंद करने की दिशा में तेजी से काम कर रहा है।
मोदी सरकार की नयी डीएवीपी (विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय) नीति के लागू होने के बाद से ही इस बात का इल्हाम हो गया था कि आने वाले दिन लखनऊ के पत्रकारों के लिये बुरी खबर लेकर आने वाला है। नयी पाॅलिसी की वजह से लखनऊ में सैंकड़ों छोटे-बड़े समाचार पत्र बंद अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं। नयी पाॅलिसी के चलते अखबार प्रबंधन प्रकाशन बंद करने में ही भलाई समझ रहे हैं।
अखबार बंद होने से सैकड़ों अखबार कर्मी सड़क पर आ गये हैं। जानकारी के अनुसार अकेले डीएनए के एडिटोरियल विभाग में करीब 60 लोग आगामी 30 जून को सड़क पर आ जाएंगे। इसके अलावा डीएनए के विज्ञापन, प्रसार और अन्य कई लोग बेरोजगार हो जाएंगे। इस खबर के बाद से डीएनए कर्मी सदमे में हैं और उनके सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट पैदा हो गया है।
लखनऊ में पिछले एक साल में कई अखबार बंद हुये। इनमें श्रीटाइम्स, कैनविज टाइम्स, कल्पतरू एक्सप्रेस, पत्रकार सत्ता आदि प्रमुख हैं। इन संस्थानों के नौकरी गंवाने वाले पत्रकार व अन्य कर्मियों को किसी दूसरे संस्थान में समायोजन नहीं हो पाया है। नयी नीति के चलते चंद दो-चार बड़े अखबार छोड़कर अधिकतर अखबार एक ही नाव पर सवार हैं।
सबसे हैरानी के बात यह है कि लखनऊ में कोई बड़ा पत्रकार संगठन बेरोजगार पत्रकार साथियों की आवाज उठाने की बजाय निजी स्वार्थ साधने और योगी सरकार से सेटिंग करने में व्यस्त हैं। एक दो छोटे पत्रकार संगठनों ने नयी नीति के खिलाफ आवाज उठाई भी, लेकिन वो नक्कारखाने की तूती बनकर रह गयी। लखनऊ में चंद बड़े अखबारों के अलावा अधिकतर अखबारों में पत्रकारों को वेतन के नाम पर दिहाड़ीदार मजदूर से कम वेतन मिल रहा है।
गौरतलब है कि डीएवीपी की नयी नीति के तहत लगातार अखबारों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। लखनऊ में छोटे व मझोले अखबार के मालिक अपने-अपने स्तर से नयी पाॅलिसी का विरोध कर रहे हैं। लेकिन एकता के अभाव में सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है। असल में सोची समझी रणनीति व षडयंत्र के तहत मोदी सरकार की नई विज्ञापन नीति की गाज छोटे-मध्यम अखबारों पर गिरनी शुरू हो चुकी है।
देश के इतिहास में पहली बार हुआ है जब लगभग 269,556 समाचार पत्रों के टाइटल कैंसिल किये गये हैं और तकरीबन दो हजार के अखबारों को डीएवीपी ने अपनी विज्ञापन सूची से बाहर निकाल दिया है। इस कदम से छोटे और मझोली अखबार संचालकों में हड़कम्प मच गया है।
वर्तमान में लखनऊ समेत वर्तमान में 90 फीसदी छोटे अखबार डीएवीपी की शर्तों को पूरा नहीं कर सकते। नई नीति के लागू होने से बड़े राष्ट्रीय और प्रादेशिक अखबारों को ही अब केंद्र एवं राज्य सरकारों के विज्ञापन जारी हो सकेंगे। जिसके चलते छोटे व मझोले अखबारों के दरवाजों पर ताला लग रहा है, और हजारों मीडियाकर्मी बेरोजगार हो रहे हैं। सरकार इन अखबारों की आवाज सुनने को तैयार नहीं है।
चूंकि सरकार इन अखबारों की आवाज नहीं सुन रही है इसलिये इनका बंद होना तय है। नतीजतन स्थानीय-सामाजिक मुद्दे उठाने वाले इन अखबारों के दफ्तरों पर ताला जड़ जाएगा और इस कारोबार से जुड़े लाखों लोग बेरोजगारी की दहलीज पर आ जाएंगे। लखनऊ में इस व्यापक असर दिखने लगा है।
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