साहित्यिक मसलों को लेकर सक्रिय रहने वाले अनिल जनविजय के वाल पर अभी थोड़ी देर पहले देखा कि उन्होंने युवा कवि प्रकाश की मौत के बारे में सूचना दी है। लिखा है कि प्रकाश ने नींद की गोलियां खा ली थींं, जिससे उनकी मौत हो गयी। आत्महत्या का कारण अबतक साफ नहीं हो सका है।
वह अक्षय उपाध्याय स्मृति शिखर सम्मान से सम्मानित थे और उनका एक कविता संग्रह 'होने की सुगन्ध' भी छप चुका था।
प्रकाश से मैं परिचित था और उनसे दिल्ली के मंडी हाउस, कॉफी हाउस और भगत सिंह पार्क पर कई दफा मुलाकात हुई थी। हम उन दिनों नई सांस्कृतिक मुहिम के पक्षधरों के साथ भगत सिंह पार्क में बैठते थे, जिसमें वह भी शरीक होने आते थे। उन्होंने कई मौकों पर अपनी कविताएं भी सुनाई थीं।
उनके साथी कवि और पत्रकार पंकज चौधरी ने हम सब से पहली बार उनसे भेंट कवि के रूप में ही कराई थी। वह अपनी उम्र से अधिक और गंभीर दिखते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वह भदेस बॉडी लैग्वेज के आदमी और दिल्ली उनकी कद्र नहीं कर पाएगी।
दिल्ली पहले चमक देखती है, फिर काबिलियत तौलती है। संभवत: इसीलिए कुछ समय बाद वह उत्तर प्रदेश के आगरा में हिंदी संस्थान से निकलने वाली पत्रिका से जुड़ गए। इस बीच उनका कई दफा दिल्ली आना हुआ और दो—चार बार सार्वजनिक जगहों पर हाय—हैल्लो भी हुई। बातचीत में उन्होंने बताया था कि शादी हो चुकी है।
मुझे नहीं मालुम कि वह कहां के थे, किस तरह से संघर्ष करते हुए दिल्ली तक आए थे। पर उनके आगरा चले जाने के बाद भी उनके मित्र पंकज चौधरी और अभिनेता राकेश उनकी जीवटता और संघर्ष के किस्से अक्सर सुनाते थे। उनकी बातों को याद करते हुए अब लग रहा है कि वह आदमी हमारे बीच का चार्ली चैप्लीन था जो मुस्कुराते हुए चला गया।
फ्रीलांसिंग, मामूली अखबारी लेखन, कम पैसे का अनुवाद और करीब—करीब मुफ्त की प्रूफरीडिंग के जरिए जीने वाले युवा साहित्यकारों की जिंदगी कितनी मुश्किलों भरी होती है, उसके वह जिंदा मिसाल थे। इतनी कठिनाइयां झेलने वाला आदमी क्या इससे भी बड़ी परेशानी में था और अकेला भी कि वह हमारे बीच से चला गया। सच में प्रकाश भाई, तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!
संघर्ष के दिनों में मकान मालिकों की भभकियां, होटल वालों की वार्निंग और दोस्तों की बकाएदारी हम सब के जीवन की दैनंदिन रही है और वह उनके जीवन की भी थी। उनके रूम पार्टनर रहे राकेश अक्सर एक किस्सा उनके बारे में सुनाते थे, जिसके बाद सभी लहालोट हो जाते थे।
वह काम की तलाश में एक बार दरियागंज स्थित किरण प्रकाशन के दफ्तर गए। प्रकाशक ने उन्हें प्रूफरीडिंग या संपादन का काम देने के लिए बुला रखा था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े हुए तो दिखा कि प्रकाशक देवता को अगरबत्ती दिखा रहा है। उन्हें काम की जरूरत इस कदर थी वह हर कीमत पर काम हथिया लेना चाहते थे।
यह सोचते हुए वह एक तरफ दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे थे और दूसरी तरफ प्रकाशक को इंप्रैस करनी की तरकीबें सोच रहे थे। तभी बिजली का तार उनके पैरो से लटपटाकर टूट गया, वह गिरने को हुए और बिजली चली गई।
कमरा अंधकार से भर गया। अगरबत्ती दिखा रहा प्रकाशक चिढ़ गया। उसने जल्दी से अगरबत्ती धूपदान में खोंसी और गुस्से में पूछा, 'कौन हो बावले।'
'सर मैं प्रकाश'।
कमरे में फैले अंधकार के बाद यह हमारे मित्र प्रकाश का जवाब था। इसके बाद हम सभी हंस पड़ते थे।
मैंने अबतक नौकरी के लिए श्रद्धांजलि लिखी है। मतलब पत्रकारिता के लिए। लेकिन आज एक परिचित का लिख रहा हूं जिसके साथ मैंने कुछ पल बिताएं हैं, कुछ यादें हैं, सार्वजनिक मुलाकातों की सही।
मन कह रहा है लोग शायद बुरा मानें। बुरा मानने वाले माफ करेंगे पर एक परिचित इंसान की श्रद्धांजलि देवताओं जैसी कैसे लिखी जा सकती है।