आज गणेश चतुर्थी है। पुत्र की आस में महिलाएं यह व्रत रखती हैं। हिंदू धर्म अनुयाईयों मुताबिक गणेश चतुर्थी का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। प्रबलता का ही असर है कि व्रत का रेंज दिल्ली से दौलताबाद तक है और व्रत रखने वाली महिलाओं में अनपढ़, पढ़, सूपढ़ से लेकर सामंती, प्रगतिशील, डिजायनर तक शामिल हैं। संयोग से इससे मेरा घर भी अछूता नहीं है।
व्रत के पीछे एक लोक कथा है। शाम को कुछ खाने से पहले इस लोक कथा को महिलाएं सामूहिक रूप से सुनती—सुनाती हैं। पर उससे भी पहले वह गणेश भगवान के लिए भोजन का एक मामूली हिस्सा निकालकर अलग रख देती हैं। मान्यता है कि रात में गणेश भगवान आकर खायेंगे।
हालांकि महानगरी पुरोहितों के एक सर्वे में पाया गया है कि कथा को सुनने—सुनाने की परंपरा का शहरों में तेजी से लोप हो रहा है। पर उन्हें एक दूसरी बात से संतोष है। सुनने—सुनाने की परंपरा के लोप से व्रत वाली महिलाओं में ज्यादा कमी नहीं दर्ज की जा रही है। सर्वे में इसका कारण धर्म के प्रति कम होती आस्था को नहीं बल्कि अलगाववादी—आधुनिक और महानगरी संस्कृति माना गया है। वहीं गांवों में इस परंपरा के अक्षुण्य बने रहने पर हर्ष भी जताया गया है।
कथा के मुताबिक एक ही गांव में दो बहनों की शादी हुई। एक बहन संपन्न थी और दूसरी विपन्न। विपन्न यानी गरीब बहन दिन—प्रतिदिन एक—एक सामान के लिए मोहताज होती जा रही थी। थोड़े ही दिनों उसकी स्थिति भूखों मरने की आ गई।
मरने से बचने का कोई और रास्ता न देख उसने संपन्न बहन के यहां कामवाली बाई का काम शुरू कर दिया। अब वह सुबह से शाम तक झाड़ू—पोछा, बर्तन—बासन काम करने लगी। लेकिन संपन्न बहन निहायत घमंडी और कंजूस थी। वह अपनी गरीब बहन को काम के बदले धान की भूसी और चावल का झाड़न यानी खुद्दी देती थी।
वह बेचारी उसी भूसी और चावल को फेटकर रोटी बनाती और किसी साग के साथ खा लेती। इस तरह उसका जीवन जैसे—तैसे चल रहा था। उधर उसकी बहन दिनों—रात संपन्नता की सीढ़ियां चढ़ रही थी।
समय बीता गणेश चतुर्थी आई। उसने भी व्रत रखा। पर उस दिन भी उसकी बहन ने उसे धान की भूसी और चावल का झाड़न ही दिया। उसने रोटी और साग बनाया, थोड़ा गणेश जी के लिए रख दिया और बाकी खाकर सो गइे।
देर रात गणेश जी आए। पूछे, 'मेरे लिए क्या रखी हो। मैं बहुत भूखा हूं।'
उसने कहा, 'मेरे पास क्या है। पड़ी है आधी रोटी और साग, जाओ खा लो।'
भगवान को भक्त के यहां ही खाना था इसलिए खा लिए गणेश जी, लेकिन 56 भोग खाने वाले गणेश को भूसी कहां पचती। सो, उनको झाड़ा लग गया। मतलब ट्वायलेट यानी टट्टी।
पेट में गुड़गुड़ से बेचैन गणेश ने उस औरत से पूछा कहां जाउं।
उसने कहा, 'क्या रखा है इस घर में, यहीं कर लो टट्टी, किसी भी कोने में।'
गणेश जी कूद—कूद कर चारों कोनों में हगे। हगने के बाद पिछवाड़ा धोने का पानी भी नहीं था घर में, सो गरीब भक्त के सिर पर पोंछ गए।
सुबह हुई। उसकी संपन्न बहन आई। गरीब बहन के घर में सोना ही सोना था। यहां तक उसकी मांग और सिर पर भी। गणेश जी बिष्टा नहीं सोना हगे थे। वह गरीब के घर में खाद नहीं सोना छिड़क गए थे।
संपन्न बहन पूछने लगी कि रातों—रात यह सब कैसे हुआ।
गरीब बहन जो अब गरीब नहीं रह गई थी, उसने पूरी रात की कथा सुनाई।
लालची बहन के कलेजे पर सांप लोट गया। वह और धन इकट्ठा करने के लिए मचलने लगी। पर संकट था कि गणेश चतुर्थी साल में एक ही दिन आता है। ऐसे में उसके पास कोई चारा नहीं था और वह इस दिन का इंतजार करने लगी।
साल का वह दिन आया। बड़ी तैयारी के साथ संपन्न बहन ने अपने का उसी रूप में पेश किया जैसी माली हालत में गणेश जी ने उसकी गरीब बहन को पाया था।
वह एक खाली झोपड़ी में भूसी की रोटी और साग खाकर लेटी थी। गणेश जी आए। उसने वही जवाब दिया जो उसकी बहन ने दिया था।
फिर क्या था, अबकी भी गणेश जी चारों कोनों पर हग दिए और पिछवाड़ा उसके सिर पर पोंछ गए।
उसका घर बदबू से भर गया था। इस बार गणेश हगने में सोना नहीं बिष्टा दे गए थे। एक लालची के यहां, एक घमंडी और कंजूस के यहां।
उपसंहार — पर आज भी करोड़ों हिंदू धर्मावलंबी महिलाएं गणेश जी के सोना हगने की उम्मीद में व्रत रखे जा रही हैं और मर्द रखवाए जा रहे हैं।
चुनौती — यह देखना होगा कि अबतक गणेश जी ने कितने महिलाओं की मांग में गूह लपेटा है और कितनों में सोना।
सवाल — भारत में बढ़ते मल कचरे के पीछे कहीं सीधे गणेश जी तो जिम्मेदार नहीं हैं।
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