असल में शाहबेरी का निवासी बनने को देश का वो क्लास उत्सुक है जो ब्लैकबेरी मोबाइल हाथ में लेकर घूमता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने ‘ब्लैकबेरी क्लास’ के सपनों के महल को चकनाचूर कर डाला है...
आशीष वशिष्ठ का विश्लेषण
राष्ट्रीय राजमार्ग यानी एनएच 58पर बसा गांव शाहबेरी देश के उन तमाम गांवों में से एक है जिसकी खेती योग्य जमीन विकास के नाम पर सरकार ने अधिग्रहित की थी। लेकिन शाहबेरी गांव के किसान भाग्यशाली निकले क्योंकि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को किसानों को उनकी जमीन वापिस करने का आदेश दिया है।
विकास के नाम पर अधिग्रहित की गई जमीन को सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को ऊंचे दामों में बेचकर कमीशन की मोटी मलाई काटी थी लेकिन शाहबेरी के किसानों ने इंसाफ की आस नहीं छोड़ी और अन्ततः सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैसला सुनाकर न्यायपालिका पर आम आदमी की आस्था को जिंदा रखा।
गौरतलब है कि पिछले एक दशक में ग्रेटर नोएडा में लगभग 85000 हजार एकड़ जमीन प्राधिकरण ने अधिग्रहित की है। वर्तमान में शाहबेरी गांव में सात बिल्डरों द्वारा तकरीबन पचास हजार फ्लैट बनाने का काम जोरों पर था। ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने किसानों को बाजार भाव से काफी कम मुआवजा दिया गया लेकिन वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को ऊंचे दामों पर बेची थी। शाहबेरी में बन रहे छोटे से छोटे फ्लैट की कीमत आधा करोड़ के करीब है।
असल में शाहबेरी का निवासी बनने को देश का वो क्लास उत्सुक है जो ब्लैकबेरी मोबाइल हाथ में लेकर घूमता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने ‘ब्लैकबेरी क्लास’के सपनों के महल को चकनाचूर कर डाला है। अदालत के सकारात्मक व खेती-किसानी के प्रति नरम और सहयोगी रवैये से ये उम्मीद जगी है कि शाहबेरी जैसे देश के अन्य हजारों गांव ब्लैकबेरी क्लास का ठिकाना बनने से बच जाएंगे।
किसी जमाने में मोटे तौर पर जमीन के दो ही उपयोग थे, एक घर बनाने और दूसरा खेती के लिए। लेकिन उदारीकरण की बयार में चांदी-सोने और षेयर बाजार की भांति जमीन भी निवेश का सौदा बन गयी। पिछले एक दषक मंे तेजी से उभरे नव धनाढय वर्ग ने दिल खोलकर जमीन में निवेष किया। विकास और उलूल-जलूल बहानों का सहारा लेकर लगभग हर सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को थाली में सजाकर जमीनों का तोहफा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पिछले दो दशक में रियल एस्टेट कारपोरेट के लिए मुनाफे का सौदा साबित हुआ है, कुकरमुत्ते की तरह देषभर में उग आयी रियल एस्टेट कंपनियों और बिल्डरों ने खेती योग्य हजारों एकड़ जमीन को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर डाला।
शेयर मार्केट से पिटे ओर घाटा खाए निवेशकों को जमीन में निवेश सुरक्षित और मुनाफे का सौदा लगने लगा है। परिणामस्वरूप देशभर में जमीन के रेट में जर्बदस्त उछाल तो आया ही है वहीं लगभग हर षहर के चारों ओर खेती की जमीन को खरीदने का जनून और पागलपन चरम पर है। सरकारी मशीनरी को घूस और कमीशन खाने से ही फुर्सत नहीं है। सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण को अगर जमीन हड़पना कहा जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। ग्रेटर नोएडा में सरकार ने हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण जिस उद्देश्य से किया था, उसे बिल्डरों के हाथों मंहगे दामों में बेचने और कमीशन की काली कमाई खाने के अलावा सरकार ने विकास के नाम पर कुछ खास नहीं किया।
देश की तेजी से बढ़ती आबादी और उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक मकान और अनाज की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। हरित क्रांतियों ने देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाया है लेकिन पिछले दो दशकों से किसानों का रूझान व्यवासायिक खेती की ओर होने से पारंपरिक खेती को बहुत नुकासान पहुंचा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दखलअंदाजी और सरकार की खेती विरोधी नीतियों और नीयत के कारण किसान आत्महत्याएं करने को विवष हुये हैं। असल में खेती किसानी का असली मुनाफा बिचौलिये और बड़ी कंपनियों द्वारा खा जाने के कारण खेती आज घाटे का सौदा साबित हो रही है। परिणामस्वरूप किसान खेती-किसानी से विमुख हो रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण के वर्तमन अपंग कानून के कारण सबसे अधिक अधिग्रहण खेती योग्य भूमि का ही हुआ है। जिस जमीन पर कभी हरे भरे-पूरे खेत और फसले लहलहाती थी आज वहीं मल्टीस्टोरी बिल्डिंग खड़ी हैं। देश में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल काफी तेजी से कम हो रहा है और दूसरी और दुगनी तेजी से कांक्रीट का जंगल फैल रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में बेतहाशा बढ़ती आबादी को बसाने के लिए सबसे अधिक खेती योग्य जमीन का अधिग्रहण पिछले दो दशकों में हुआ है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अर्थात एनसीआर की सीमा से सटे यूपी, हरियाणा के कई जिले एनसीआर का हिस्सा बन चुके हैं। बढ़ती आबादी को आशियाने और तमाम अन्य उत्तम सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए ही खेती वाली जमीन का अधिग्रहण धडल्ले से किया गया। असल में लाखों करोड़ों कमाने वाली जमात दिल्ली की भागदौड़ और भागमभाग भरी जिंदगी से उबकर दिल्ली के आस-पास के इलाकों में रिहाइश के ठिकाने में लगी। नोटों से भरी जेब,ऊंचे सपनो और पावर से लबरेज ब्लैकबेरी जमात ने जब भी दिल्ली से थोड़ा बाहर देखा किसी गरीब किसान को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा, शाहबेरी और तमाम दूसरे गांव इस जमात के ठिकाने बनने लगे और बेचारे किसान अपने हक के लिए लाठी और गोली खाते रहे।
उदारवाद ने देश में एक नयी जमात को जन्म दिया है। इस नव धनाढय जमात की महत्वकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति के वास्ते हर शहर में खेती योग्य जमीन की बलि दी जा रही है। संपूर्ण एनसीआर क्षेत्र में उद्योगपति, मल्टीनेशनल कंपनियों के एक्जिक्यूटिव और आफिस, तथाकथित नेता और बड़े ओहदे पर आसीन और सेवानिवृत्त महानुभावों का आधिपात्य और साम्राज्य है। भोले-भाले और अनपढ़ किसानों को मुआवजे और नेतागिरी के फेर में उलझाकर चालाक और भ्रष्ट नेता खेती वाली जमीन को मोटी कमीशन के खातिर हड़प रहे हैं।
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