Jul 3, 2011

...फिर से वृक्षारोपण


आज वृक्ष लगाना सोशल वर्क की श्रेणी में सबसे नवीनतम फैशन का रूप धारण कर चुका है। विदेशी वीआईपी से लेकर देश का हर बड़ा आदमी अपने आपको पर्यावरण प्रेमी दिखाने की होड़ और दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हो या फिर कोई लोकल वीआईपी, सभी पेड़ लगाकर सुर्खियां बटोरने का अवसर कभी छोड़ते नहीं हैं... 


डॉ.  आशीष वशिष्ठ 

 अब के बरस सावन में... गीत के बोल रिमझिम फुहार और प्यार की बौछार की बरबस ही याद दिलाते हैं। ऐसा नहीं है कि सावन के महीने की प्रतीक्षा केवल प्रेमी-प्रेमिका ही करते हैं, बल्कि वन विभाग और एनजीओ भी इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं। मानसून आते ही केन्द्र और राज्यों में वन विभाग और पर्यावरण से जुड़ी अनेक संस्थाएं एक साथ सक्रिय हो जाती हैं। सरकारी अमले के अलावा स्वयं सेवी संस्थाएं (एनजीओ) भी सुप्तावस्था से निकलकर ‘एक्टिव’ भूमिका में दिखाई देने लगती हैं।

सावन के महीने में पूरे देश में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर वृक्षारोपण का जो उफान दिखाई देता है, सावन खत्म होने के साथ ही वो सारी सक्रियता ऐसे गायब हो जाती है जैसे गधे के सिर से सींग। समस्या इस बात को लेकर नहीं है कि हर साल सावन में वृक्षारोपण की रस्म अदा की जाती है, नाराजगी का कारण यह है कि एक बार पौधा लगाने के बाद उसी देखरेख और उसको संभालने की जिम्मेदारी उठाता कोई नजर नहीं आता।

सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा देशभर में लाखों वृक्षों को लगाया तो जाता है, लेकिन तस्वीर का काला पक्ष यह है कि अगला सावन तो क्या एक-दो महीनों में ही लगभग अस्सी से नब्बे फीसदी तक पौधे मुरझाकर खत्म हो जाते हैं। बेशर्मी का आलम यह है कि पर्यावरण संरक्षण और धरती को हरा-भरा बनाने की कवायद में जुटे तथाकथित नेता, पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और संस्थाएं अगले सावन में पुनः पुरानी जगह पर नया पौधा लगाकर अपनी फोटो खिंचवाते और अखबार में लंबी-चौड़ी खबरें छपवाते हैं। सरकारी स्तर पर प्रत्येक वर्ष वृक्षारोपण के लिए जितना बजट पास होता है अगर ईमानदारी से उसका दस फीसदी भी खर्च किया जाये तो देश में हरियाली का संकट आने वाले दो-तीन सालों में लगभग खत्म हो जाएगा।

वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ही दिन में प्रदेशभर में 1 करोड़ पौधे लगाकर गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करवाया था। आज लगभग चार सालों के बाद उन एक करोड़ पौधों में से बामुश्किल एक लाख पौधे भी शायद ही जीवित हों। हमारे देश में पर्यावरण और उससे जुड़ी समस्याओं को न तो सरकार और न ही नागरिक गंभीरता से लेते हैं। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण और सुधारने के लिए जो भी कवायद की जाती है वो महज ‘पब्लिसिटी स्टंट’ और ‘कागजी कार्रवाई’ तक सिमट जाती है। और फिर हर साल सावन आने पर कुकरमुत्ते की भांति सैंकड़ों सामाजिक संस्थाएं और बरसाती मेंढक रूपी सरकारी तंत्र देश की गली-गली में वृक्षारोपण के गीत टर्राने लगते हैं।

देश के हर छोटे-बड़े राज्य में वन विभाग हर साल बरसात के मौसम में वृक्षारोपण के लिए भारी-भरकम बजट की व्यवस्था करता है और जिलेवार सभी वन अधिकारियों और कर्मचारियों को वृक्षारोपण का ‘टारगेट’ दिया जाता है। असली खेल यहीं से शुरू हो जाता है। पौध खरीदने से लेकर वृक्ष रोपने और ट्री-गार्ड लगाने तक सरकारी मशीनरी लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा कर चुकी होती है। हड्डी पर बचा-खुचा मांस एनजीओ और पर्यावरण को समर्पित संस्थाएं नोंच लेती हैं।

वृक्षारोपण की आड़ में जो काली कमाई की कहानी है उसमें बड़े-बड़े सफेदपोश शामिल हैं। हरियाणा में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत वन विभाग ने करोड़ों के बजट से वृक्षारोपण पिछले दो-तीन सालों में करवाया, लेकिन जब एक ईमानदार वन अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने विभाग के  कारनामों का कच्चा-चिट्ठा खोलना शुरू किया तो वन मंत्री से लेकर आला अधिकारी तक इस ईमानदार अधिकारी के पीछे हाथ धोकर पड़ गए। इसी का नतीजा है कि पांच साल की नौकरी में नौ बार तबादला और अन्ततः निलबंन की मार संजीव को झेलनी पड़ी।

 हर साल की भांति इस मानसून में भी करोड़ों पौधे रोंपे जाएंगे, लेकिन सावन बीत जाने के बाद अगर तथाकथित जिम्मेदार संस्थाओं और सरकारी मशीनरी से जिंदा पौधों का हिसाब मांगा जाए तो ऐसे-ऐसे बहाने बनाए जाएंगे कि आप चौंक जाएंगे। कहने को तो चाहे कोई कितनी लंबी चौड़ी बातें करे या बयानबाजी करे लेकिन जब जिम्मेदारी लेने का समया आता है तो स्वयं को जिम्मेदार बताने वाले दूसरों के कंधों पर जिम्मेदारी का टोकरा डालने की कोशिश करते नजर आते हैं।

 धरती पर दिखाई दे रहे हैं। कुदरत ने वनों के विस्तार का अपना ही सिस्टम बना रखा है। जीव-जंतु, वनों में विचरनेवृक्षारोपण और धरती को हरा-भरा बनाने के पीछे चंद ईमानदार और निःस्वार्थी प्रयासों की बदौलत ही बचे-खुचे पौधे वाले प्राणी, पषु-पक्षी, बरसात और वन का अंदरूनी तंत्र स्वयं वनों का विस्तार करता रहता है। अगर कोई सरकार या संस्था ये दावा करती है कि उसने वनों को बनाया और लगाया है तो वो सरासर झूठ बोलती है। हां, थोड़े-बहुत क्षेत्र को वन क्षेत्र के रूप में मानव प्रयासों से विकसित किया जाता है, लेकिन दुनियाभर के जितने भी छोटे-बड़े और घने जंगल हैं उन्हें स्वयं कुदरत ने ही सजाया और संवारा है।

देश के महानगरों और नगरों में सड़कें चौड़ी करने के नाम पर हर साल लाखों वृक्षों की बलि ली जाती है। पिछले एक दशक में विकास के नाम पर करोड़ों वृक्ष देशभर में काटे गये हैं। लखनऊ में लगभग सभी प्रमुख मार्गों के विस्तार और चौड़ीकरण के नाम पर सौ-सौ साल पुराने इमली, पीपल, बरगद, गूलर आदि के हजारों पेड़ों को बेरहमी से काट डाल गया। लखनऊ शहर की जो सड़कें किसी जमाने में ‘ठण्डी सड़क’ के नाम से जानी जाती थी आज उन्हीं सड़कों पर गर्मी और तपिश के कारण आम आदमी का चलना दुश्वार हो चुका है।

पिछले साल दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के नाम पर न जाने कितनेवृक्षों की बेरहम कटाई की गई। लखनऊ और दिल्ली की तर्ज पर देश के हर छोटे-बड़े कस्बे से लेकर महानगर तक विकास का पहला ठीकरा पर्यावरण पर ही फूटता है। अनियोजित विकास की जो रूपरेखा बड़ी तेजी से खींची जा रही है उसने पर्यावरण के हालात असामान्य बना दिये हैं। लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई, मद्रास, बंगलुरू, कोलकाता, चंडीगढ, पटना, रांची में स्लम एरिया बढ़ता जा रहा है। अनियत्रिंत आबादी और शहरीकरण का बढ़ता विस्तार  पर्यावरण के लिए अत्यधिक जहरीले तत्व साबित हो रहे हैं। 

ऐसा  भी नहीं है कि केवल सावन के मौसम में ही देश में वृक्षारोपण किया जाता है। आज वृक्ष लगाना सोशल वर्क की श्रेणी में सबसे नवीनतम फैशन का रूप धारण कर चुका है। विदेशी वीआईपी से लेकर देश का हर बड़ा आदमी अपने आपको पर्यावरण प्रेमी दिखाने की होड़ और दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हो या फिर कोई लोकल वीआईपी, सभी पेड़ लगाकर सुर्खियां बटोरने का अवसर कभी छोड़ते नहीं हैं।

 पुराने जमाने में पेड़-पौधे लोगों की जिन्दगी का एक अहम हिस्सा थे। जन साधारण प्रकृति प्रदत्त इस अनमोल विरासत को सहेजकर रखने में विश्वास करते थे। अनेक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में वृक्षों की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी। घरों में तुलसी एवं पीपल का पौधा लगाना वृक्षों की उपयोगिता का प्रमाण था। विवाह मंडप को केले के पत्तों से सजाना, नवजात शिशु के जन्म पर घर के मुख्य द्वार पर नीम की टहनियाँ लगाना, हवन में आम की लकड़ियों का प्रयोग आदि ढेरो ऐसे उदाहरण हैं जिनसे तत्कालीन समाज में वृक्षों की उपयोगिता का बखूबी पता चलता है।

मगर आज स्थिति इसके ठीक विपरीत है। घरों में वृक्ष लगाने का चलन लगभग दम ही तोड़ चुका है और सरकार एवं एनजीओ द्वारा हर साल सावन के मौसम में वृक्षारोपण की जो खानापूर्ति और भ्रष्टाचार का खुला खेल होता है वो लगातार पर्यावरण की सेहत को बिगाड़ रहा है। जरूरत इस बात की है कि  हम सच्चे मन और कर्म से  लाखों-करोड़ों पौधे के स्थान पर चाहे एक ही पौधा लगाएं, लेकिन उसकी तब तक देखभाल करें, जब तक वो अपनी जड़ों पर स्वयं खड़ा न हो जाये, क्योंकि यहां सवाल धरती को हरा-भरा बनाने का है न कि गिनती गिनाने का।

देश के आम आदमी से लेकर राष्ट्रपति तक से जुड़ी पर्यावरण, प्रदूषण और उससे जुड़ी अनेक दूसरी समस्याओं को महज खानापूर्ति  न समझकर हमें पूरी संजीदगी से हर दिन और हर अवसर पर अपने आस-पास एक पौधा लगाने का पवित्र संकल्प लेना चाहिए, तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए हरी-भरी धरती का उपहार दे पाएंगे।

स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .





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