पाठकों,वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवोल्यूशनरी)के सचिव की तानाशाह वाली कार्यशैली और संगठन में पारदर्शिता के अभाव के बारे में अब तक आपने पढ़ा,वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर,सांगठनिक क्रूरता ने अरविंद की जान और जनचेतना के मजदूर,बेगार करें भरपूर अब इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अपने अनुभव साझा कर रहे हैं पार्टी की ओर से मज़दूरों के लिए निकाले जाने वाले अख़बार ‘बिगुल’ के प्रकाशक, संपादक और मुद्रक डॉक्टर दूधनाथ।
डॉक्टर दूधनाथ, संपादक 'बिगुल'
काफी समय से हम लोग विचित्र मानसिक स्थिति में थे और पार्टी नेतृत्व का अरहाया (आदेशित)गया काम भार महसूस हो रहा था। पिछले 20वर्षोंसे हम देख रहें हैं कि बड़े जोर-शोर से कोई काम शुरू होता है और अचानक बंद कर दिया जाता है। फिर कोई नया अभियान या काम शुरू होता है और फिर ठप्प हो जाता है।
दूसरी तरफ बेहद बेशकीमती साथी संगठन से समय-समय पर बाहर होते रहे। इस वजह से स्थानीय कार्यकर्ता भी निराश होकर,एकके बाद एक बैठते रहे। लेकिन शशि प्रकाश के नेतृत्व वाले इस संगठन में या कहें पार्टी में तकनीकी जवाब ही हमेशा मिला,कभी कोई राजनीतिक कारण स्पष्ट नहीं हुआ। यह स्थिति हम सबके लिए तकलीफ देह बनी रही।
इस मसले पर जब भी संगठन के नेतृत्वकारी साथी से चर्चा की जाती थी और समझने का हमलोग प्रयास करते थे,तो कभी दूसरी कमेटी का हवाला देकर या निकले या निकाले गये साथियों को भगोड़ा कह कर बात खत्म कर दी जाती थी। अन्त में परेशान होकर हमलोगों ने संगठन के सचिव शशि प्रकाश को प़त्र भेजा। मगर हम जैसे संगठन के पुराने लोगों को भी, जो कि मजदूर, भूमिहीन और सर्वहारा हैं, पार्टी सचिव ने बात करना या जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। इसके उलट गोरखपुर से भेजे गये प्रतिनिधी और स्थानीय संगठनकर्ता तपीश ने कूतर्क करते हुए प्रश्नों को दबा दिया। हमारे सवालों के जवाब में तपीश ने अतिजनवाद की अराजकता कहकर मुंह बंद कराना चाहा।
ऐसी स्थिति में हमें मजबूरन आप सब साथियों,जनपक्षधर बुद्धिजीवियों और सहोदर संगठनों से अपने सवालों को साझा करना पड़ रहा है।
सचीव को भेजे गये पत्र में हम लोंगो ने संगठन में जनवाद की कमी,नेतृत्व की तानाशाह कार्यपद्धति,दो लाइनों का संघर्ष, संगठनिक ढांचा और कमेटी गठन समेत कुछ और सवाल उठाये थे। हमने कहा कि पिछले 20 वर्षों में इनमें से कोई सवाल हल नहीं हुआ, बल्कि चीजें और बुरी स्थिति में गईं।
हमरा दूसरा प्रश्न साथियों को निकाले जाने को लेकर था। पिछले 20 वर्षों में संगठन से एक के बाद एक साथी निकाले तो जाते रहे (जिनकी संख्या पार्टी में मौजूद तादाद से बहुत ज्यादा है),लेकिन उन्हें बाकी सदस्यों के बीच अपनी बात रखने और कतारों को निर्णय लेने का अवसर कभी क्यों नहीं दिया गया?
तीसरे सवाल के तौर हमने रखा कि नेतृत्व यानी शशिप्रकाश और उनके परिवार को बाकी संगठन सदस्यों पर निगरानी रखने का अधिकार है लेकिन सदस्यों को नेतृत्व पर निगरानी का कोई तरीका क्यों नही है? खासकर वैसे में जबकि संगठन सदस्यों के बीच नेतृत्व भूमिगत है और व्यवस्था के लिए पूरी तरह खुला है।
अन्त में हम लोंगो ने यह मांग की थी कि निकले और निकाले गए सभी महत्वपूर्ण साथियों को बुलाकर कार्यकर्ता सम्मेलन करके प्रश्नों को हल किया जाए,नहीं तो हम लोंगो का संगठन में काम करना संभव नहीं है।
इस बीच हम लोंगो को पता चला कि दिल्ली में काम कर रहे दो साथी मानसिक पीड़ा झेल रहे हैं और उनका संगठन से ढेरों सवाल हैं। जब हमने यह सवाल भी उठाया तो शशि प्रकाश के भेजे गये प्रतिनिधि तपीश ने मउ के मर्यादपुर में हमारे साथ एक बैठक की। तपीश ने हमारे प्रश्नों पर टालू रवैया अख्तियार किया और शान्त कराने की कोशिश की। तपीश और नेतृत्व के रवैये से असंतुष्ट हो संगठन के बहुत पुराने मजदूर साथी हरिहर भाई ने तपीश के उत्तर से जब असन्तुष्टता जाहिर की और सोचने का समय मांगा, तो उन्हें संगठन से निकाल दिया गया।
हरिहर भाई का निकाले जाने की प्रक्रिया हमारे लिए आश्चर्यजनक थी। उस समय हमसे थोड़ी दूरी बनाकर तपीश ने सीधे शशि प्रकाश से मोबाइल से बाती की थी और वहां मिले आदेश के आधार पर हरिहर भाई को संगठन से निकाल दिया गया। बुर्जुआ नेताओं की कार्यशैली से दो कदम आगे बढ़कर मालिक और मजदूर की तरह हरिहर भाई के साथ किया गया यह व्यवहार हमारे कई प्रश्नों का जवाब दे रहा था।
अब बारी थी संगठन से दिल्ली में दो असंतुष्ट साथियों जनार्दन और समीक्षा की। मैं और तपीश मर्यादपुर से साथ आए और सत्यम वर्मा के यहां मीटिंग की। सचिव शशि प्रकाश यहां भी गायब रहे। सत्यम और तपीश ने यह मीटिंग ली। यह एक भयावह मीटिंग थी। मीटिंग में जनार्दन और समीक्षा ने जैसे ही अपने सवाल रखे तो यहां भी सवालों को दबाते हुए सत्यम वर्मा ने उनका ही चरित्र चित्रण शुरू कर दिया।
मीटिंग में जनार्दन और समीक्षा ने बताया कि वे काफी दिनों से अपने छोटे बच्चे के साथ आर्थिक, मानसिक व शारिरिक रूप से परेशान चल रहे हैं। कई बार हमने अपनी तरह से इत्तला भी किया मगर संगठन ने कोई खोज खबर नहीं ली। वहीं संगठन के भीतर एक ऐसा पारिवारिक रिश्ता (शशि प्रकाश, कात्यायनी, अभिनव, अभिनव की पत्नी और उसका बेटा) भी है जहां के लोंगो को छींक भी आ जाये तो पूरा संगठन लगा दिया जाता है।
जनार्दन ने दूसरे सवाल के तौर पर सीधे कहा कि आखिर क्यों है कि वामपंथी आंदोलन के ज्यादातर संगठन,हमारी पार्टी और संगठनों को अपराधी और क्रान्ति के नाम धन्धेबाज मानते हैं ?क्या यह सच नहीं है कि संगठन के कार्यकर्ताओं का ज्यादे समय लांक्षित, अपमानित होते हुए चन्दा मांगने में खर्च होता है। संगठन किताबें छापने, बेचने, मकान-दुकान खड़ा करने, ट्रªस्ट-सोसाइटी बनाने में लगा रहता है। यह कैसी माया है कि कोई वेतन भोगी (लेबी पाने वाला) कार्यकर्ता न होने और लाखों का चंदा इक्कठा होने के बावजूद संगठन की संस्थाएं हमेशा घाटे में रहती हैं?
जनार्दन ने इस मसले पर बात रखी कि संगठन में नेतृत्व यानी शशि प्रकाश और उसके कुनबे की परिवरिश तो शाही अन्दाज में होती है,लेकिन कार्यकर्ताओं को वेज तक नहीं दिया जाता और सर्वहाराकरण के नाम पर अमानवीय हालत में जीने को मजबूर कर दिया जाता है?इसे विडंबना कहकर टाल दिया जाता है और कहा जाता है कि समाज में वर्ग हैं तो पार्टी उससे अछूती तो नहीं रहेगी।
क्या कारण है कि संगठन बीस साल में दो पेज का दस्तावेज भी नहीं लिख पाया, जबकि इस बीच सचिव शशि प्रकाश पत्नी को पोथन्ना लिखवाने और पुस्तकों की भूमिका लिखने में व्यस्त रहे। संगठन गोपनीय और अदृश्य कामों में कितना व्यस्त रहता है इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है। 2005में तराई क्षेत्र के होंडा मजदूर आन्दोलन में चार साथी सात दिन तक जेल में सामूहिक भूख हड़ताल पर रहे और संगठन का कोई जिम्मेदार साथी उनसे मिलने तक नहीं गया।
इन सवालों के साथ ही दोनों असन्तुष्ट साथियों ने ढेरों उदाहरण देकर यह बात रखी कि कैसे संगठन की जिम्मेदार साथी मीनाक्षी फुटपाथ की चोरी और साथियों की जासूसी करना सीखाती हैं। निकृष्ट हरकत करने वाली इस संगठनकर्ता साथी को महज इसलिये मान मर्यादा मिलती है क्योंकि वे संगठन के सबसे अधिक धन-कमाऊ पूत हैं(मीनाक्षी का गोरखपुर से लेकर दिल्ली तक में सबसे ज्यादा चंदा इकठ्ठा करने का रिकॉर्ड है।) कई वरिष्ठ साथी (कात्यायनी बहनों के अलावा कोई और नहीं है), नये कार्यकर्ताओं से नौकरानी जैसा व्यवहार करती हैं।
यह भी सवाल रखा कि क्यों सारी गलतियों का ठिकरा केवल संगठनकर्ताओं के सर पर ही फोड़ा जाता है और क्या 20 साल में सारे संगठनकर्ता फिसड्डी साबित हुए तो सचिव शशि प्रकाश की रत्ती भर इसमें कोई गड़बड़ी नहीं है? बीस साल में संगठन ऐसा दहन पात्र क्यों नहीं बना सका जिसमें ढलकर इस्पाती कार्यकर्ता पैदा हो सकें? क्यों बार-बार लंबे समय तक काम करने के बाद संगठन पर सवाल उठाने वाले साथी भगोड़े करार दिए जाते रहे? क्या कारण है कि पार्टी कमेटी से लेकर ट्रस्ट सोसाइटी तक रक्त संबंधियों की ही बहुलता है?
साथियों,हमारे एक वरिष्ठ कार्यकर्ता साथी अरविंद सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। अब हमारा संगठन उनके नाम पर एक और ट्रस्ट बनाने जा रहा है। मौत के बाद इतनी तत्परता जबकि साथी छहः महीने से बीमार था,डेढ़ महीने से बहुत तकलीफ के साथ बीमारी में समय बीता रहा था,और लड़ भी रहा था जिसके हम स्थानीय साथी गवाह हैं जबकि शीर्ष नेतृत्व को इसकी जानकारी मौत के बाद होती है, क्या यह नेतृत्व की संवेदनहीनता और कर्तव्यविहिनता नहीं है?
दोनों बैठकों में इनमें से किसी भी सवाल का कोई सही जवाब तो नहीं मिला। उल्टे गाली-गलौज और धमकियां देने का पुराना सिलसिला यहां भी दुहराया जाता रहा। स्थानीय इकाई के सवालों को भी दरकिनार कर दिया गया। सचिव शशि प्रकाश ने हम लोगों से बात करने की जगह स्थानीय इकाई के पास मौजूद किताबों की पैकिंग कर वापसी का फरमान जारी करवा दिया। अन्ततः हमारे पास संगठन से अलग होने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।
आज हम लोग काफी सोच विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि हमारा संगठन क्रान्तिकारी नहीं रह गया। बल्कि धन उगाही का केंद्र बन गया है। विचारधारा और संगठन महज आवरण बन कर रह गए हैं। यही कारण है कि जो भी साथी थोड़ा पुराना होता है और जब उसे ये बाते समझ में आने लगती हैं व उसके मन में सवाल उठते हैं और जैसे ही उस पर (संगठन) सवाल खड़ा करता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। जैसा कि हम लोग के साथ हुआ। लेकिन तबतक संगठन पुराने साथियों की काफी ऊर्जा निचोड़ चुका होता है और उसके लिए नए युवा साथी क्रान्ति के नाम पर जुगाड़ लिए जाते हैं।
साथियों सोचिए हमारे नेता कब तक इंकलाब से मुंह मोड़ कर नई जनता चुनते रहेंगे।
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
पूर्वी उत्तर प्रदेश की इकाई और राजधानी क्षेत्र के असंतुष्ट साथियों की ओर से
डॉ दूधनाथ, जनार्दन, इन्द्रदेव, समीक्षा, हरिहर, अशोक कुमार
Is lekh ko padhne ke baad "BHAI SAHAB" ko punjivaadi kehne ki apeksha doosron ki chamdi se jute pehnne wala kehna zyada theek rahega. amaanviyata ki intaha hai....
ReplyDeleteये जो गोरखपुर के साथियों को अचानक इतना ज्ञान प्राप्त हो गया है उन्हें अपनी कमजोरियों को भी रखना चाहिए। क्या बात है कि उन्होंने अपने इस्तीफे में अपनी आत्मलोचना नहीं रखी...क्या कारण रहा कि शशिप्रकाश को सालों साल ढोते रहे और यहां तक संगठन में कोई बहस चलाने तक कि हिम्मत नहीं बटोर पाए। शशिप्रकाश अगर लाख गुना बुरा है तो इस तरह पिछाड़ी फायर करने वाले उससे ज्यादा घातक हैं...और फिर यह बात सार्वजनिक मंच पर कही जाने वाली तो नहीं है...इस किस्म का प्रचार कर आंदोलनों से भरोसा ही खत्म होगा...इस लेख के बाद अभी कई बुद्धिजीवी तौबा तौबा करने वाले अंदाज में अपना शुद्धिपत्र लिखेंगे...जिनकी इतनी समझ भी नहीं है कि संगठन बनता कैसे है और विचारधारा क्या है...
ReplyDeleteबेनामी बाबू
ReplyDeleteआप सिखाइएगा कि संगठन कैसे बनता है और विचारधारा क्या है? बहुत बातें छोड़िए और कैसा संगठन आप लोगों ने खड़ा किया है और उसकी विचारधारा क्या है, यही बात दीजिए तो हम मान लेंगे कि दूधनाथ तथा बाकी के साथी जो बातें कह रहे हैं, वे गलत हैं. आपके संगठनों के तो लोग नाम तक नहीं जानते हैं, हां दुकानों और प्रकाशनों के नाम सब जानते हैं. दुकान चलाना और प्रकाशन चलाना क्रांति करना है क्या? और क्या यही संगठन है? यही विचारधारा है? अगर यही है तो आपको शर्म से मर जाना चाहिए (जो आप करेंगे नहीं क्योंकि इतने गैरतमंद तो आप और आपके दुलरुआ शशि प्रकाश हैं नहीं).
आप कहते हैं कि गोरखपुर के साथियों के अपनी आत्मालोचना रखनी चाहिए. भाई, आपको थोड़ी बहुत बुद्धि है कि नहीं (या शशि एंड कंपनी की फैक्टरी में एसी दुर्बुद्धियां ही पैदा की जाती हैं?)कि दूधनाथ और दूसरे लोग पार्टी की मीटिंग में नहीं बोल रहे हैं कि अपनी आत्मालोचना और बाकी बातें रखें. यह सार्वजनिक मंच है और ठीक इसीलिए वे उन मुद्दों को रख रहे हैं, जो सार्वजनिक महत्व की हैं. दूधनाथ की गलतियां एक कार्यकर्ता की गलतियां हो सकती हैं और उनका महत्व एक संगठन के लिए है, उनका बहुत सार्वजनिक महत्व नहीं है. आप कहते हैं कि संगठन के बारे में बातें सार्वजनिक रूप से नहीं कहनी चाहिए. लेकिन आपने उनका लिखा पढ़ा है तो उन्होंने खुद लिखा है कि जब-जब उन लोगों ने संगठन में इन चीजों पर बात करने की कोशिश की उनकी बातें टाल दी गईं, चुप करा दिया गया. हार कर वे ये बातें यहां कह रहे हैं. आप चाहते हैं कि वे चुप रहें. गनीमत है कि ये बातें पहले ही और सबके सामने आ गईं वरना आपलोगं उन्हें भी गद्दार करार देकर हाथ पांव तोड़ चुके होते. अब भी शायद एसा ही करें, पर अब आप पर जनता भरोसा नहीं करेगी.
क्रांति का छद्म बहुत हो चुका भाई. अगर दुकान चलानी है तो खुल्लमखुल्ला चलाओ. कोई मना थोड़े करेगा. सब चला रहे हैं. लेकिन क्रांति का पाखंड छोड़ दो.