Oct 24, 2010

पड़ोसी की गुलामी में दिखती गिलानी की आज़ादी


राजा ने कहा कश्मीर भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान, हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है.उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गिलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है...


शेष नारायण सिंह

दिल्ली में मीडियाजीवियों का एक वर्ग है जो प्रचार के वास्ते कुछ भी कर सकता है.इसी जमात के कुछ लोग कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट सैय्यद अली शाह गिलानी को पकड़ कर ले आये और दिल्ली में मंच दिया.समझ में नहीं आता कि जो आदमी घोषित रूप से पाकिस्तानी तोड़फोड़ का समर्थक है,कश्मीर को पाकिस्तान की गुलामी में सौंपना चाहता है उसे भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत क्यों महिमामंडित किया जा रहा है.

दिल्ली में बहुत सारे धतेंगण घूम रहे हैं जो धार्मिक कठमुल्लापन की भी सारी हदें पार कर जाते हैं ,हिन्दू महासभा की राजनीति में गले तक डूबे रहते हैं,मंदिर मार्ग की हिन्द महासभा  की प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और और मौक़ा मिलते ही मुसलमानों और माओवादियों के शुभचिंतक बन जाते हैं .इस तरह के दिल्ली में करीब एक हज़ार लोग हैं जो हमेशा विवादों के रास्ते मीडिया में मौजूद पाए जाते हैं.

इसी प्रजाति के कुछ जीवों ने दिल्ली में गिलानी को मंच दे दिया.तुर्रा यह कि गिलानी जैसे पाकिस्तान के गुलाम आज़ादी की बात करते रहे और बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त लोग उसे सुनते रहे.दुर्भाग्य यह है कि अपने देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी अवाम की आज़ादी की भावना को समझता ही नहीं.


गिलानी : व्यापक जनाधार का नेता

एक बात अगर सबकी समझ में आ जाय तो कश्मीर संबंधी चिंतन का बहुत उपकार होगा और वह यह कि जब १९४७ में जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया तो कश्मीरी अवाम ने अपने आपको आज़ाद माना था.यानी भारत के साथ रहना कश्मीर वालों के लिए आज़ादी का दूसरा नाम है.शेख अब्दुल्ला ने राजा की हुकूमत को ख़त्म करके कश्मीरी अवाम की आज़ादी की बात की थी और जब राजा ने विलय की बात मान ली और कश्मीर भारत का  हिस्सा बन गया तो कश्मीर आज़ाद हो गया.

यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि राजा ने विलय के कागजों पर अक्टूबर १९४७ में दस्तखत किया था .दस्तखत करने की प्रक्रिया इसलिए भी तेज़ हो गयी थी कि कश्मीर पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने के उद्देश्य  से पाकिस्तानी फौज़ ने कबायलियों को साथ लेकर हमला कर दिया था और राजा ने कहा कि आज़ादी की बात तो दूर,पाकिस्तानी सरकार और उसके मुखिया मुहम्मद अली जिन्ना तो कश्मीर को फौज के बूटों तले रौंद कर गुलाम बनाना चाहते हैं.भारत के साथ विलय का फैसला पाकिस्तानी हमले के बाद हो गया था.

राजा ने कहा कि कश्मीर,भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है.उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गिलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है.हाँ यह भी सच है कि शेख अब्दुल्ला को परेशान करके भारत सरकार ने अपना एक बेहतरीन दोस्त खो दिया था लेकिन अब वह सब कुछ इतिहास की बातें हैं वरना अगर प्रजा परिषद् ने शेख साहेब से राजा का बदला लेने की गरज से तूफ़ान न मचाया होता तो कश्मीर की समस्या ही न पैदा होती.

कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी को समझने के लिए इतिहास के कुछ तथ्यों  पर नज़र डालनी ज़रूरी है .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था .उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था.और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना.इस बीच मुसलमानों,सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा,हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुई  उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.  शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.


पाकिस्तान समर्थित होने का आरोप

इस आन्दोलन को जिन्ना  ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए.इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था.वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे.उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया.और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.१ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है.

अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है .शेख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे.पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया.महात्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था.

इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे.इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी.उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी.

वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह दिल्ली से निकलने वाले उर्दू अख़बार 'शहाफत' से जुड़े हैं.उनसे sheshji@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है)

हस्तक्षेप.कॉम से साभार

2 comments:

  1. sahi likha, samrthan karne valon ko itihas bhi jananan hoga, nahin to aisa na ho ki ek chakki se nikalkar, dosari men pisaanaa pade.

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  2. शेष नारायण जी हो सकता है आपकी जानकारी सही हो, मगर यहाँ प्रश्न इतना भर नहीं है कि गिलानी कैसे नेता हैं, बल्कि वे जनता की नुमैन्दगी कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण है. सिर्फ पाकिस्तानी कहकर उन्हें इंकार करना एक सांप्रदायिक तरीका है.इससे भारतीयों की सहानुभूति वैसे ही आप जैसों की ओर हो जाती है जिसे आप भी समझाते हैं. आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग को आप कैसे नाजायज मानते हैं. यह तो वही वाली बात हो गयी कि दलितों को अधिकार न दो क्योंकि वह बिगड़ जायेंगे, उन्हें रहने की सभ्यता नहीं है, उससे सामाजिक संरचना बिगड़ जाएगी. क्या इतने वर्षों में यह बात न समझ में आयी कि वे अपने को हिन्दुस्तानी मानने को तैयार नहीं हैं, कुछ लालच के भरोसे फिर थोड़े समय के लिए चुप भले हो जाएँ.

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