Aug 18, 2010

संदेशा शशिप्रकाश का 'वे कम्युनिस्ट नहीं "मउगा" हैं ?'


कोई सच्‍चा कम्‍युनिस्‍ट कभी भी कठिन हालात,अकेलापन,जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्‍कार से त्रस्‍त नहीं होता। जो इन चीजों से त्रस्‍त होते हैं उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट नहीं मउगा कहा जाता है- कात्यायिनी और सत्यम वर्मा की पार्टी रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत ) की ओर से अधिकृत प्रवक्ता जय सिंह के विचार.


कुछ महीने पहले जनज्वार ने ‘ठगी का एक सामाजिक अभियान’लेख प्रकाशित किया था कि कैसे एनजीओ वाले पीड़ितों के उत्थान के नाम पर फरेब रचते हैं। यह लेख हिंदी की प्रमुख वेबसाइट रविवार समेत कुछ अन्य भी वेब माध्यमों पर प्रमुखता से छपा था। सच पढ़ एनजीओ के कर्ताधर्ता ने जवाब में पहली ही लाइन में दर्ज किया कि ‘आप जैसे लोग दारू और सिगरेट पीकर सामाजिक बात करते है!’बहरहाल इन पंक्तियों को पढ़ हम चकित नहीं हुए क्योंकि हमारा मानना है कि इनका सेवन करने वाला भी सामाजिक परिवर्तन की बात कर सकता है। बहरहाल इत्मिनान से हम पूरा लेख इस उम्मीद से पढ़ गये कि चलो कहीं तो कोई बात कही गयी होगी जो हमारे सवालों के बरक्स होगी।



पर ऐसा नहीं हुआ। रविवार के संपादक समेत वेब माध्यमों के ज्यादातर जनपक्षधर पाठक परिचित हैं कि एनजीओ के कर्ताधर्ता महोदय ने दर्जनों लेख तो भेजे मगर किसी एक लेख में भी वह नहीं बता पाये कि जो सवाल जनज्वार ने उठाये थे वो कहां गये। तब हमने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि ‘वह चाहता था कि हम सुचिता में फंसकर कुछ उलुल-जुलूल-जैसे कि हम नहीं पीते हैं,तुम्हारे पास क्या सबूत है,यह व्यक्तिगत आरोप है आदि कहें और बात मूल सवाल से कोसो दूर वहां अटक जाये कि लोग कहें ‘आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।’



कुछ ऐसा ही प्रपंच शशिप्रकाश का कुनबा यहाँ भी रच रहा है.सवालों को भटकाने के मकसद से यहाँ भी  क्रांति के दुकानदारों के  मेंठ  का पेट जब  हिजड़ा कहने से नहीं भरा तो उन्होंने हमें मऊगा कहा कि हम हिजड़ा और  मऊगा न होने का प्रमाण देनें में लग जाएँ. बहरहाल हम उनके दोनों आरोपों को तहेदिल से जगह देते हैं और मानते हैं कि हिजड़ा और मऊगा यानी गे लोगों को भी सवाल उठाने का बराबर का ही अधिकार है और उनके हकों के लिए जनज्वार हमेशा आगे रहेगा.रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत ) के प्रवक्ता जय सिंह इतने अधीर हो जाते हैं कि खुद के ब्लॉग अपने ही नाम से कमेन्ट कर बताते हैं कि वह तो मऊगा  है.

शशिप्रकाश के चलन के मुताबिक अब विरोधियों से निपटने के लिए मारपीट कर चुप कराने की कोशिश होगी जो हर बार इनका अंतिम रास्ता रहा है.गार्गी प्रकाशन से जुड़े दिगंबर,पत्रकार देवेन्द्र और भी ऐसे कई लोग इसके जीवित उदहारण हैं जबकि बिगुल के संपादक की बेटी उन तमाम गवाहों में से एक है और प्रमाण नोएडा के सेक्टर २४ में आज भी सुरक्षित है. बस हरबार की तरह चालाकी यह बरती गयी कि कुनबे का कोई नहीं हो.

बगैर किसी काट-छांट के  रिवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत )के प्रवक्ता और अरविन्द सिंह न्यास के सदस्य जय सिंह के विचार और पार्टी कार्यकर्ताओं की ओर जारी एक पत्र...

जवाब भाग- २  'जनज्वार' की कुत्‍सा-प्रचार मुहिम के पीछे का सच...

हिन्दी के एक ब्लॉग पर पिछले दिनों क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़े एक संगठन और उससे जुड़े कुछ व्यक्तियों तथा संस्थाओं के खिलाफ घिनौने कुत्सा-प्रचार की एक मुहिम छेड़ दी गयी थी। 'जनज्वार' नाम के इस ब्लॉग पर 22 से 28 जुलाई तक प्रकाशित इन पोस्टों और उन पर डाली/डलवायी गयी टिप्पणियों को पढ़कर कोई भी संजीदा व्यक्ति यह समझ सकता है कि इनका मकसद किन्हीं राजनीतिक-सामाजिक सवालों को उठाना नहीं है, जैसाकि कुछ पोस्टों में दिखाने की कोशिश की गयी है। इनका एकमात्र मकसद है कुछ लोगों, संस्थाओं, विचारों पर कीचड़ उछालना और इसके लिए घटिया से घटिया झूठे आरोपों,फर्जी मनगढ़न्त किस्सों और अनर्गल व्यक्तिगत आक्षेपों का धुआँ छोड़ने और अपनी कुण्ठाओं का विषवमन करने में वे सारी सीमाओं को पार कर गये हैं।

सत्यम वर्मा : कुछ तो बोलो, मुंह तो खोलो
दरअसल,पिछले दो दशकों के दौरान आन्दोलन से भागे या संगठनों से निकाले गये लोगों की यह प्रतिशोधी जमात पिछले चार साल से कुत्सा-प्रचार की इस मुहिम में लगी हुई है। देशभर में तमाम व्यक्तियों-संगठनों को पत्रों के पुलिन्दे भेजने से लेकर पुस्तिका छपाकर बाँटने और छद्म नामों से सरकारी तंत्र के पास शिकायतनामे भेजकर जनसंगठनों के दफ्तरों पर छापे-तलाशी करवाने जैसी गलीज़ हरकतों के बाद अब बौखलाहट में इन्होंने अपना सारा बदबूदार कचरा ब्लॉग पर सार्वजनिक कर दिया है। हम लोगों ने कभी इस गन्दे अभियान का जवाब देने की कोशिश नहीं की क्योंकि एक तो हम ऐसी नीचता का जवाब देना किसी भी क्रान्तिकारी सामाजिक कार्यकर्ता की शान के खिलाफ समझते हैं, दूसरे,हमें बुद्धिजीवियों के विवेक पर भरोसा था। ब्लॉग पर इस मुहिम के शुरू होने पर भी हम इस पर ध्यान दिये बिना दूसरी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के आयोजन में लगे रहे क्योंकि हमें लगा कि बुद्धिजीवी समुदाय में से कोई तो इसका प्रतिवाद करेगा। मगर अन्ततः हमें जवाब देने का फैसला करना पड़ा क्योंकि ये लोग केवल कुछ व्यक्तियों या संगठनों को ही नहीं बल्कि कम्युनिस्ट आदर्शों को, क्रान्तिकारी विचारों और तौर-तरीकों को, सामाजिक परिवर्तन के लक्ष्य के लिए समर्पण और कुर्बानी के जज़्बे को ही बदनाम करने में लगे हैं।

इसकी शुरुआत गोरखपुर से बिगुल मज़दूर दस्ता, दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के युवा कार्यकर्ताओं की टीम द्वारा भेजे पत्र से की जा रही है।

का. अरविंद की स्‍मृति को लांछित-कलंकित करने वालों की असलियत पहचानिए...

जुलाई के अंतिम सप्‍ताह में जिस वक्‍त हम लोग अपने प्‍यारे कामरेड अरविंद की याद में दूसरी अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी के आयोजन की तैयारियों में व्‍यस्‍त थे तभी हमें पता चला कि कई साल से संगठन को गरियाते घूम रहे लोगों ने अब अपना गाली पुराण ब्‍लॉग पर फैला दिया है। स्‍पष्‍ट था कि ऐन संगोष्‍ठी के पहले शुरू की गई इस कार्रवाई का मकसद इस आयोजन में विघ्‍न डालना है। बाद में हमें पता चला कि इन लोगों ने तो बाकायदा संगोष्‍ठी के बहिष्‍कार का नारा दे रखा था। बहरहाल,इनके मुंह पर तमाचा जड़ते हुए संगोष्‍ठी शानदार तरीके से संपन्‍न हुई। तीन दिनों के पांच सत्रों में 'इक्कीसवीं सदी में भारत का मजदूर आन्दोलनः निरन्तरता और परिवर्तन, दिशा और सम्भावनाएँ,समस्याएँ और चुनौतियाँ'विषय पर चार विस्‍तृत आलेख पढ़े गए जिन पर गंभीर और विचारोत्तेजक बातचीत हुई। प्रथम सत्र में अरविंद स्‍मृति न्‍यास और अरविंद मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान की स्‍थापना और इनके जरिए किए जाने वाले कामों पर विचार किया गया। बाहर से आए और स्‍थानीय लोगों को मिलाकर कुल करीब 500 लोगों ने आयोजन में शिरकत की जिनमें अच्‍छी-खासी संख्‍या गोरखपुर में विभिन्‍न उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की थी। पिछले एक साल के दौरान चले मजदूर आंदोलन के क्रम में राजनीतिक रूप से शिक्षित-दीक्षित इन अगुआ मजदूरों ने न सिर्फ संगोष्‍ठी में बहुत दिलचस्‍पी से हिस्‍सा लिया बल्कि कुछ ने बहस में भी हस्‍तक्षेप किया।

जो लोग न जानते हों उन्‍हें हम बताना चाहते हैं कि दशकों बाद गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुई मजदूर आंदोलन की इस नई शुरुआत की नींव कामरेड अरविंद ने ही रखी थी और उन्‍हीं के नेतृत्‍व में काम करते हुए हम युवा कार्यकर्ताओं ने विचारधारा,संगठन और आंदोलन की बुनियादी शिक्षा-दीक्षा पायी थी। हम उन्‍हीं के शुरू किए हुए काम को आगे बढ़ा रहे हैं और हम खुद को का.अरविंद का मानसपुत्र मानते हैं। ऐसे साथी के जीवन और व्‍यक्तित्‍व पर कीचड़ उछालने और कलंकित करने की कोशिश ने हमें गहरे क्षोभ और ऐसा करने वालों के प्रति घृणा से भर दिया है। ये वे लोग हैं जो जीते जी का.अरविंद के पीठ पीछे कुत्‍साप्रचार करते रहे और फिर उनकी मृत्‍यु को भी अपनी गंदी मुहिम के लिए इस्‍तेमाल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। का.अरविंद के हमदर्द बनने का पाखंड कर रहे इन लोगों को तो ये भी मालूम नहीं कि उनका निधन कैसे हुआ,ब्‍लॉग में लिख मारा कि उनकी मृत्‍यु अल्‍सर से हुई। ये ऐसे लोग हैं जिन्‍होंने उसी रात से अपना घिनौना प्रचार शुरू कर दिया था जिस रात उनका निधन हुआ। हम लोग जो आखिरी सांस तक उनके साथ रहे, गोरखपुर में का. अरविंद के राजनीतिक और सामाजिक मित्र और संगठन के साथी अच्‍छी तरह जानते हैं कि लंबे समय से स्‍वास्‍थ्‍य की परेशानियों के बावजूद वे लगातार कामों में लगे हुए थे और एक बार लगकर पूरा इलाज कराने के लिए साथियों के दबाव को ''कुछ ज़रूरी काम पूरे करने तक'' टालते रहते थे। फिर भी किसी को ये उम्‍मीद नहीं थी कि अचानक ऐसा कुछ अप्रत्‍याशित घट जाएगा। 24 जुलाई की उस काली रात से करीब एक महीने पहले भूमि अधिग्रहण के विरोध में कुशीनगर में हुए सम्‍मेलन में जाने के लिए हमारी टोली की करीब 55किलोमीटर की साइकिल यात्रा का उन्‍होंने नेतृत्‍व किया था। गोरखपुर में सफाई कर्मचारियों के जुझारू आंदोलन में वे अगुआ भूमिका निभा रहे थे और जब एक उद्दंड प्रशासनिक अधिकारी ने वार्ता के दौरान कह दिया कि आप लोग मजदूरों को भड़काकर अनशन करवा रहे हो, आप खुद क्‍यों नहीं अनशन पर बैठ जाते, तो का. अरविंद हम लोगों के विरोध के बावजूद तत्‍काल भूख हड़ताल पर बैठ गए। निश्चित तौर पर इसने भी उनके शरीर को और कमजोर किया लेकिन उस वक्‍त तो आंदोलन को एक नई ताकत मिल गई थी। इन कुत्‍साप्रचारकों की नीयत तो हमारे सामने शुरू से साफ रही है लेकिन हम यह नहीं समझ पाते कि पिछले दो साल के दौरान इनकी बातें सुनकर जो बुद्धिजीवी यहां-वहां जुमलेबाजियां करते रहे हैं उनमें से किसी ने भी कभी भी हमसे संपर्क करने और सच जानने की कोशिश क्‍यों नहीं की।

बजा बिगुल तू अब तो जाग
आज का.अरविंद के शुभचिंतक बन रहे इनमें से अधिकांश लोग वे हैं जिन्‍हें खुद का. अरविंद ने चारित्रिक पतन से लेकर संगठन के लक्ष्‍यों के खिलाफ आचरण करने जैसी हरकतों के कारण निष्‍कासित किया था या निलंबित किया था जिसके बाद वे लौटकर ही नहीं आए। इस तथ्‍य से सामना होते ही ये फट से कह देते हैं कि अरविंद तो संगठन के नेतृत्‍व के कहने पर लोगों को निकाल देते थे। मानो का. अरविंद एक दब्‍बू, विवेकहीन, रीढ़विहीन व्‍यक्ति थे जो नेतृत्‍व के कहने पर कुछ भी करने को तैयार रहते थे। का. अरविंद के जीते-जी भी ये छिछोरे उनके खिलाफ घटिया आरोप लगाते रहे और उनके जाने के बाद भी उन्‍हें लांछित करने में लगे हुए हैं। अपने को दिशा छात्र संगठन का पूर्व संयोजक बताने वाला अरुण कुमार यादव दरअसल गोरखपुर में दिशा की विश्‍वविद्यालय इकाई का कुछ समय के लिए संयोजक बनाया गया था और उसमें भी महीनों तक तो वह छुट्टी पर था और राजनीतिक जीवन की कठिनाइयों से थका-हारा जिंदगी की गोटी सेट करने की तिकड़मों में लगा था। इस शख्स में अगर जरा भी नैतिक साहस है तो वह बताए कि उसे का.अरविंद ने किस नैतिक घटियाई के कारण संगठन से बाहर किया था।

और 'जनज्‍वार' चलाने वाले अजय प्रकाश को यह बताना चाहिए कि उसे, घनश्‍याम और प्रदीप को नोएडा की टीम से अरविंद ने किस कारण से 3महीने के लिए सस्‍पेंड किया था जिसके बाद ये तीनों अपने को बदलने के बजाय चुपचाप किनारे हो गए।

एक शख्‍स है सतेंद्र कुमार जिसने ब्‍लॉग पर अपना परिचय परिकल्‍पना प्रकाशन और जनचेतना वैन के ''मालिक'' के रूप में दे रखा है। इसी के दिए परिचय से हमें पता चला कि यह सूदखोर का बेटा है। पूछने पर मालूम हुआ कि किसी ऐसे-वैसे सूदखोर का नहीं, ये तो नक्‍सलबाड़ी के इलाके के गरीब किसानों का कई पीढ़ी तक खून चूसने वाले सूदखोर खानदान से आता है। कई साल संगठन में रहने के बाद भी इसकी मानसिकता यही है कि ये लिखता है ''जनचेतना के मजदूर, बेगार करें भरपूर''। बेशक, हम जनचेतना के मजदूर हैं, क्रांतिकारी आंदोलन के मजदूर हैं, हम अपने को मजदूरों के प्रतिनिधि मानते हैं और इस देश के आम मजदूरों की ही तरह अपने लक्ष्‍य के लिए 12-14 घंटे काम करते हैं। और हमें इस पर गर्व है। लेकिन मालिक की मानसिकता से ग्रस्‍त इस व्‍यक्ति को क्रांतिकारी विचारों का प्रचार-प्रसार ''बेगारी'' लगता है और मजदूर शब्‍द को ये गाली की तरह इस्‍तेमाल करता है।

हिंदी कवि   कात्यायिनी  : जवाब प्रवक्ता ही देगा
हमें इस बात पर नाज है कि हम अपने तमाम कामों के लिए किसी तरह की संस्‍थागत,सशर्त मदद लिए बिना केवल और केवल जनता से जुटाए गए संसाधनों पर भरोसा करते हैं,और इसके लिए नियमित रूप से लोगों के बीच सहयोग जुटाने जाते हैं। इसे ये लोग ''भीख मांगना'' कहते हैं तो सिर्फ हमें नहीं इस देश के उन तमाम जनसंगठनों को गाली देते हैं जो एनजीओ या सरकारी अनुदानों के बजाय अपने कामों के लिए जनता से संसाधन इकट्ठा करते हैं।

गोरखपुर में मई दिवस 2010 को मजदूरों की रैली

इनकी बदनीयती और बेईमानी तो इसी बात से जाहिर हो जाती है कि ये अपने मनगढ़त आरोपों का पहाड़ खड़ा करने के लिए सिर्फ साहित्‍य के प्रकाशन और उसे लोगों के बीच ले जाने की बात करते हैं जो हमारे कामों का बेहद अहम मगर केवल एक हिस्‍सा है। ये कभी भी इस बात की चर्चा नहीं करते कि गोरखपुर जैसे सांप्रदायिक ताकतों के गढ़ में धमकियों-हमलों-साजिशों का मुकाबला करते हुए किस तरह हम लोग लगातार उन्‍हें चुनौती देते रहे हैं। ये भयंकर शोषण और बर्बर उत्‍पीड़न में जी रहे गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों को संगठित करने के हमारे कामों की कभी चर्चा नहीं करते। ये गोरखपुर के जुझारू मजदूर आंदोलन की,योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व में गोरखपुर के उद्योगपतियों द्वारा हमें ''आतंकवादी'' साबित करने की मुहिम, उनके खिलाफ महीनों चले आंदोलन, हमारे साथियों की गिरफ्तारी और फर्जी एनकांउटर में मारने की साजिश, और पहली बार गोरखपुर में योगी, उद्योगपतियों और प्रशासन के गंठजोड़ को मिली शिकस्‍त की कोई चर्चा नहीं करते। ये दिल्‍ली के करावल नगर में 25,000 असंगठित बादाम मजदूरों के बीच वर्षों से जारी हमारे काम की और बादाम मजदूरों की 16दिन चली जबर्दस्‍त हड़ताल का कभी जिक्र नहीं करते। ये दिल्‍ली मेट्रो में ठेके पर काम करने वाले हजारों सफाई कर्मचारियों, कामगारों और मेट्रो फीडर बस सेवा के कर्मचारियों को संगठित करने के हमारे प्रयासों और आंदोलनों की कभी बात नहीं करते, लुधियाना में मजदूरों के बीच हमारे कामों और संघर्षों की कभी चर्चा नहीं करते। करें भी कैसे। ऐसा करते ही झूठों की बुनियाद पर खड़ा उनका सारा प्रचार अभियान भरभराकर ध्‍वस्‍त नहीं हो जाएगा। हम तो ये जानते हैं और मार्क्‍सवाद यही सिखाता है कि अगर किसी की जीवनशैली गलत है तो उसकी राजनीति और विचार को भ्रष्‍ट होते देर नहीं लगती। सिर्फ कार्यकर्ताओं से पैसे इकट्ठा करवाने और उसपर ऐश करने वाला नेतृत्‍व एक कायर और काहिल संगठन ही खड़ा कर सकता है,साहस के साथ जनता को संगठित और आंदोलित करने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के जुझारू दस्‍ते नहीं। दरअसल, खुद इन भगोड़ों की सोच इनकी जीवनशैली से निकली है। ये सब के सब आज कहीं भी जमीनी कामों में नहीं लगे हैं, कई तो एनजीओ की चाकरी कर रहे हैं, कुछ ''बुद्धिजीवी'' बनने की लालसा में छुटभैये पत्रकार बने फिर रहे हैं, तो कुछ को कोई काम करने की जरूरत ही नहीं है, उड़ाने के लिए बहुत कुछ पड़ा हुआ है जिसके दम पर घूम-घूम कर वे अपना कचड़ा फैलाने और कम्‍युनिज्‍म को बदनाम करने में जुटे हैं।
गांव में कहा जाता है कि जब सांप का अंडा खराब हो जाता है तो उसमें से लरछुत नाम का घिनौना, चिपकू कीड़ा पैदा होता है। ऐसे तत्‍व दरअसल कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के लरछुत ही हैं।

-- प्रशांत, प्रमोद, अवधेश, अपूर्व, राजू, बबलू, बीरेश, समर

बिगुल मजदूर दस्‍ता, दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा, गोरखपुर के कार्यकर्ता

प्रस्तुतकर्ता बेबाक-बेलौस पर जय सिंह. ६:०३ पूर्वाह्न इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें 2 टिप्पणियाँ:

JAI SINGH ने कहा…  

जनज्‍वार पर टिप्‍पणी करने वालों का स्‍टैंडर्ड क्‍या है यह उन्‍हीं के शब्‍दों में देखिए।

एक कोई डा.विवेक कुमार है जिसकी आत्‍मा की तरह लेखनी ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। का. अरविंद के बारे में वह लिखता है कि वे 'कठिन हालात, अकेलापन, जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्कार से त्रस्त'थे। अब इस छिछोरे को कौन बताए कि कोई सच्‍चा कम्‍युनिस्‍ट कभी भी कठिन हालात,अकेलापन, जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्‍कार से त्रस्‍त नहीं होता। जो इन चीजों से त्रस्‍त होते हैं उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट नहीं मउगा कहा जाता है जैसा कि डा.विवेक कुमार पर एकदम फिट बैठता है।

August 16, 2010 12:07 PM

GP ने कहा…
I agree with the content of the text. It is important that all attempts to slander is timely and suitably replied.




6 comments:

  1. ‘गांव में कहा जाता है कि जब सांप का अंडा खराब हो जाता है तो उसमें से लरछुत नाम का घिनौना, चिपकू कीड़ा पैदा होता है। ऐसे तत्वत दरअसल कम्युरनिस्ट आंदोलन के लरछुत ही हैं।‘
    गंवई कहावतों और वैज्ञानिकता पर अलग से बात हो सकती है. क्या ‘अंडे’ को खराबी से बचाने का कोई उपाय नहीं है? मार्के की बात है कि सिर्फ कुछ अंडे (जिनकी सोशल प्रोफाइलिंग की ज़रूरत है) चमकदार सांप/अजगर बनेंगे बाकी घिनौने लरछुत रहेंगे.. लरछुत बनाया आपने !

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  2. शशिप्रकाश थोड़ी शर्म करो...दूसरे के कंधे पर बन्दूक रख चलाना बंद करो... हिम्मत हो तो सामने आओ, पत्नी कात्यायिनी से कहो कि वह शब्द बाण लेकर सामने आयें... बेटे अभिनव को बंकर सजाने का आदेश दो, जो तुमने लखनऊ निराला नगर में ब्लैक बोर्ड पर बनाकर दिखाया था. साहित्य समाज आपके सम्मान के रक्षा नहीं कर पाया उस बारे में तो आप लताड़ ही चुके हैं हिंदी के साहित्यकारों कों, अब दो चार हाथ भी लगा दें...क्योंकि जिस लालच में आपने उनकी किताबें छापी थीं वह तो काम ना आया.

    मुझे याद है शशिप्रकाश के अधीन चलने वाले "जनचेतना" के लखनऊ के निरालानगर में शशिप्रकाश ऑफिस में वह बैठे हुए थे. उनको चाहने वाले एक साहित्यकार ने कहा कि यूएनआई के पत्रकार कुमार विमल की किताब आप क्यों प्रकाशित कर रहे हैं, वही हिंदी अच्छे कवियों में हैं क्या. तब शशिप्रकाश ने अपनी खरखराती आवाज में कहा था 'यार साहित्यकारों कि तो हालात है कि एक भी छपने लायक नहीं हैं, मगर समर्थक भी तो पैदा करने हैं जो बुरे वक्त में काम आ सके.

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  3. क्या चरित्र सिर्फ टांगों के बीच की विषय वस्तु है और नैतिकता का पैमाना सिर्फ लंगोट की कसावट?? यह सच है कि समाज में काम करते समय यौन व्यवहार भी मर्यादित रखने कि ज़रूरत पड़ती है. लेकिन क्या कम्युनिस्ट क्रांतिकारिता और आर्यसमाजी ब्रह्मचारिता में कोई फर्क नहीं है?

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  4. bigul ka ek pathakWednesday, August 18, 2010

    aapke pass vivek kumar ka cirtificate nahi hoga, isliye do peace cheking ke liye bhej dijiye jisase aap agli post men bata saken ki vah htro sexual hai...praman ke taur par vah khadi hoga..hogi jaise aapne devendra vale mamle men ek ladki ko khada kiya tha.

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  5. katyayini ki company ke brand ambessodar abhinav abhi bil se bahar nahin aaye .... kahan hain, unhe to koi aavaz de ki aao ab gaddi se pahle morcha sambhalo

    janjwarion ek dhakka aur do inki asaliyat sab samne aa jayegi aur ye nange hokar sadak par chillayenge...

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  6. इधर जनज्वार को निरंतर पढ़ रहा हूं । कहीं न कहीं गड़बड़ी तो है ही . आप के विचारों को नकारना आसान नहीं लगता । भोजपुरी गायक सुनिल कुमार का पता या नम्बर दें ।

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