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Mar 14, 2011

आवाम के शायर हबीब जालिब की याद में


हबीब जालिब पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’ लिखी...


सचिन  श्रीवास्तव  


यह पोस्ट कल डाली जानी थी,लेकिन वक्त की कमी और अखबारी मसरूफियत की वजह से यह हो न सका। कल हबीब जालिब की पुण्यतिथि थी। 12 मार्च 1993 को वे हमारे बीच नहीं रहे थे, लेकिन वे ऐसे शायर हैं,जिन्हें याद करने के लिए तारीखों की जरूरत नहीं।

हबीब : अवाम की आवाज
हबीब उन चंद नामों में से हैं कि कोई पूछे कि एक शायर, कवि, साहित्यिक या इंसान को कैसा होना चाहिए, तो हम बिना दिमाग पर जोर डाले जिन नामों को जवाब की शक्ल में उछाल सकते हैं,उनमें से एक नाम इस आवाम के शायर का भी है। जिन लोगों ने हबीब को पढा-सुना है वे मेरी बात से सहमत होंगे। हालांकि ऐसे लोग कम ही होंगे,जिन्होंने हबीब जालिब को नहीं पढा। फिर भी उन बदकिस्मत लोगों के लिए अफसोस के अलावा चंद बातें और कुछ नज्में।

पाकिस्तान में 24मार्च 1928 को पैदा हुए जालिब उम्र भर अपनी कविताओं के माध्यम से पाकिस्तान के सैनिक कानून, तानाशाही और राज्य की हिंसा के खिलाफ लिखते, बोलते और तकरीरें करते रहे। उम्र भर सत्ता की आंख में चुभते रहे जालिब की कविताएं पाकिस्तान की सीमा पर कर दुनिया के हर संघर्ष और सत्ता की खिलाफत करने वाले इंसान की आवाज बन गई हैं।

अंग्रेजी राज में पैदा हुए जालिब का शुरुआती नाम हबीब अहमद था। बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान का रुख कर गए और कराची से निकलने वाले डेली इमरोज में प्रूफरीडर हो गए। प्रगतिशीलता के पक्षधर जालिब ने इसी दौरान कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद किया, जिनसे वे पाठकों की नजरों में आए। उस दौर के स्थापित नामों से अलग शैली अपनाते हुए उन्हें सपाट बयानी और पाठक को संबोधित करने वाली भाषा की बुनावट में जुल्म,ज्यादती,मुफलिसी और गैर बराबरी को अपनी कविताओं का हिस्सा बनाया। अपने समय की राजनीति पर लयबद्ध कविताओं के जरिए चोट करने वाले जालिब जल्द ही आवाम के शायर हो गए थे।
पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे जालिब मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे और अपनी कविताओं के विषय कम्यूनिज्म की बारीकियों से ही चुनते थे। पाकिस्तान में जब कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया था और इसके सदस्य राष्ट्रीय आवामी पार्टी के बैनर तले काम कर रहे थे, तब हबीब जालिब भी एनएपी के साथ जुड़ गए। इस दौरान भी हबीब जालिब के तेवर तीखे ही रहे और इसी कारण उन्हें अपना ज्यादातर समय जेल में बिताना पड़ा।

वे पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’लिखी। 1962 में जब अय्यूब खान के संविधान को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी मुहम्मद अली ने लायलपुर के क्लॉक टॉवर से सराहा,तो हबीब ने इसके जवाब में नज्म ‘मैं नहीं मानता’लिखी। शासन के विरुध अपने तीखे तेवरों के कारण उस दौर के सरकारी मीडिया में जालिब को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन वे झुके नहीं और अन्य मोर्चों पर निरंकुश शासन की खिलाफत करते रहे।
फातिमा जिन्ना ने जब अय्यूब खान के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी की,तो तमाम लोकतांत्रिक ताकतें उनके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गईं  और सरकारी प्रतिबंध के बावजूद जालिब ने पूरी पाकिस्तानी आवाम के दर्द को अपनी लेखनी में उतारते हुए बड़े जनसमूहों को उस दौर में अपनी शायरी के जरिए संबोधित किया। उस दौर में उन्होंने ‘मां के पांव तले जन्नत है,इधर आ जाओ’ जैसी कविताएं भी लिखीं,जो उनकी भावुकता का चरम मानी जाती है। यूं भी जालिब को अपनी कविताएं पूरी भावुकता के साथ पढ़ने के लिए भी याद किया जाता है।

घटनाएं जालिब को शायरी के लिए किस कदर प्रभावित करती थीं, इसका एक और बड़ा उदाहरण है। यह घटना पाकिस्तान की प्रतिरोधी संस्कृति की लोकगाथाओं में भी शुमार की जाती है। हुआ यूं कि एक बार पश्चिमी पाकिस्तान (तब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था और मूल पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान कहा जाता था)के गर्वनर से मिलने ईरान के शाह रेजा पहलवी आए। उनके मनोरंजन के लिए गवर्नर ने फिल्म कलाकार नीलू को डांस करने के लिए बुलाया। नीलू ने इससे इंकार कर दिया,तो उसे लेने के लिए पुलिस भेजी गई। जिस पर नीलू ने आत्महत्या का प्रयास किया। इस घटना पर हबीब जालिब ने कविता लिखी,जो बाद में नीलू के पति रियाज शाहिद ने अपनी फिल्म ‘जर्का’ में इस्तेमाल की। ये कविता थी- ‘तू क्या नावाकिफ-ए-आदाब-ए-गुलामी है अभी/ रक्स जंजीर पहन कर भी किया जाता है।’

जब जुल्फिकार अली भुट्टो के शासन 1972 में आने के बाद जालिब के कई साहित्यिक और राजनीतिक साथी सत्ता का लुत्फ लेने लगे और भुट्टो के साथ हो लिए। जालिब ने इस दौरान विपक्ष की भूमिका को ही पसंद किया। बताया जाता है कि एक बार जालिब भुट्टो से मिलने उनके घर पहुंचे। भुट्टो ने अपनी पार्टी में आने का न्यौता देते हुए जालिब से पूछा-‘कब शामिल हो रहे हो?’ जिस पर जालिब ने जवाब दिया-‘क्या कभी समुंदर भी नदियों में गिरा करते हैं?’तब भुट्टो ने जवाब दिया- ‘कभी-कभी समुद्र नदियों की तरफ जाते हैं, लेकिन नदियां ही उन्हें पीछे धकेल देती हैं’। अपनी शासन विरोधी कार्रवाइयों के कारण जालिब को एक बार पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, तब जुल्फिकार भुट्टो ने ही उन्हें रिहा करने का आदेश दिया था।



पत्रकार हसन अली के साथ हबीब जालिब  
 इसके बाद जनरल जिया उल हक की तानाशाही के दौरान जालिब ने लोकतांत्रिक आंदोलन में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने अपनी मशहूर कविता ‘क्या लिखना’ लिखी। जिया का अर्थ होता है, प्रकाश और जालिब इसीलिए पूछते हैं, ‘जुल्मत को जिया क्या लिखना’। जिया उल हक के शासन में ज्यादातर वक्त जालिब जेल में रहे।

1988 में जनरल जिया उल हक की हवाई दुर्घटना में मौत के बाद हुए आम चुनाव जीतकर बेनजीर भुट्टो शासन में आर्इं,उन्होंने हबीब जालिब को जेल से रिहा कराया। तानाशाही के बाद आए लोकतंत्र में कुछ लोगों को राहत मिली,लेकिन आवाम के तरफदारों के लिए यह मुसीबत का दौर था। निरंकुश तानाशाही के बाद लोकतंत्र की बयार में पाकिस्तान के कई लेखकों-शायरों के लिए वैचारिक संकट था।

अगर वे बेनजीर के लोकतंत्र की खिलाफत करते थे,तो उन्हें तानाशाही की याद दिलाई जाती थी, कि उस दौर से तो यह दौर बेहतर है। ऐसे में एक बार जालिब से पूछा गया कि वे इस लोकतंत्र में क्या बदलाव चाहते हें,तो उन्होंने अपनी एक नज्म के जरिए मुल्क पर चढ़े कर्ज और औरतों के हालात का जिक्र करते हुए जवाब दिया-हाल अब तक वही हैं गरीबों के,दिन फिरे हैं फकत वजीरों के हर ‘बिलावल’ है देश का मकरोज पांव नंगे हैं ‘बेनजीरों’ के

जालिब की कविता में उनके दर्शन और जिंदगी की करीबी सच्चाइयों को साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। वे कभी अपने रास्ते से नहीं डिगे। वे इंसान से प्यार करते थे,मजलूमों के लिए उनके दिल में हमदर्दी थी और यह उनके हर एक लिखे,बोले हर्फ में दिखाई देती है। हबीब अपने समय के उन दुर्लभ कवियों में शामिल हैं,जिनका अन्याय और क्रूरता के खिलाफ गुस्सा ताजिंदगी रचनात्मक ऊर्जा के साथ एक राजनीतिक हस्तक्षेप भी मुहैया कराता रहा। जालिम हमारे दौर के क्रूर सामाजिक ढांचे के भुक्तभोगी भी हैं। उन्हें कई बार ऐसे अपराधों में फंसाकर जेल भेजा गया, जो उन्होंने किए ही नहीं थे।

अपने आखिरी वक्त तक जालिब पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। उनकी मौत के बाद 1994 में कम्यूनिस्ट पार्टी का मजदूर किसान पार्टी में विलय हो गया, अब इसे कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के नाम से जाना जाता है। कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के दो सदस्यों शहराम अजहर और तैमूर रहमान ने उनकी याद में एक म्यूजिक वीडियो लांच किया था। जालिब के संघर्ष के रूपक को इस्तेमाल करते पाकिस्तान बैंड ‘लाल’ ने भी काफी काम किया है। 2009 में इस बैंड ने ‘उम्मीद ए सहर’ नाम से भी एक अलबम निकाला। 2009 में 23 मार्च को पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने हबीब जालिब को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया।

जालिब के बारे में लिखने-पढ़ने-कहने-सुनने को इतना कुछ है कि उसे एक बार में याद नहीं किया जा सकता। फिलवक्त उनकी चंद नज्मों,गजलों का लुत्फ उठाएं। और इजाजत दें। फिर वक्त मिला तो किसी और फनकार के साथ हाजिर होउंगा। शब्बा खैर।




मेरठ से प्रकाशित दैनिक जनवाणी में फीचर संभाल रहे सचिन पत्रकारिता के साथ साहित्य में दखल रखते हैं. उनसे   chefromindia@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.