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May 12, 2016

शादियों में सबके अपने कोने होते हैं

शादियों में सबके अपने कोने होते हैं और हर कोई अपने परिचितों—दोस्तों के साथ किसी न किसी टॉपिक पर लगा रहता है। मुझे भी एक कोने में जगह मिली और कुछ लोग वहां एक हॉट सामाजिक सवाल पर लगे हुए थे। सवाल बिल्कुल समय से था और वास्ता उसका सबसे था।
टॉपिक था मोबाइल में पासवर्ड डालना सही है या गलत, नैतिक है या अनैतिक। और क्या जो लोग अपनी मोबाइल में पासवर्ड डालते हैं उन्हें संदेहास्पद माना जाए, अनैतिक कहा जाए। क्या मोबाइल पासवर्ड को डिजिटल चरित्र प्रमाण पत्र के तौर पर लिया जाए!
देर तक इस मसले पर बहस होती रही। सबने अपने अनुभव और समझदारी की बातें कीं। बहस कर रहे लोगों ने एक स्वर में माना भी कि जो पासवर्ड डालते हैं, वह संदेहास्पद होते हैं।
बहस कर रहे ये लोग ईमानदार किस्म के थे कि इन्होंने उदाहरण के तौर पर खुद को भी शामिल करने से गुरेज नहीं किया। माना कि वे सभी खुद भी पासवर्ड डालते हैं और सबको भाई, बाप, दोस्त , पति , पत्नी, प्रेमी, प्रेमिका से कुछ न कुछ छुपाना होता है। एक ने तो यह भी कहा कि वह इसलिए पासवर्ड डालता है क्योंकि उसका बॉस इधर—उधर टहलते हुए किसी का फोन उठाकर देखने लगता है।
हमारी सरकार और पार्टियां भले ही जनता को किसी और सामाजिक मसले की ओर खींचकर ले जाएं लेकिन आप भी मानेंगे कि आजकल मोबाइल में पासवर्ड का सवाल एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक विमर्श का विषय बना हुआ है। कोई ऐसी सार्वजनिक जगह नहीं जहां युवा आपको ऐसी बातें करते न दिख जाएं।
लेकिन आप इस सवाल पर सोचें और कुछ राय दें उससे पहले बात यह कि पासवर्ड डालना ही क्यों है? यह समस्या बनी ही क्यों? किसी और कि मोबाइल, कोई और छूता ही क्यों है, किस नैतिक साहस के साथ देखता है, उसे चेक करता है। थोड़ी भी शर्म नहीं आती ऐसे लोगों को। फिर वह क्यों रहते हैं एक साथ, एक छत के नीचे या क्यों खाते हैं कसमें एक—दूसरे के संग होने की, जीने की। इतना न्यूनतम विश्वास एक दूसरे के लिए हमारे में नहीं बचा है फिर हम बराबरी और भरोेसे का समाज बना कैसे सकते हैं।
पर इन सबके बीच सबसे घातक तो यह है कि जिसकी मोबाइल चेक हो रही है वह भी और जो चेक कर रहा है वह भी, इस घटिया हरकत को महान भारतीय परंपरा की मान रहा है। वह प्राइवेसी जैसे किसी मानवाधिकार या अधिकार को समझता ही नहीं है। वह इस खेल में खुद को भागीदार बना रहा है पर इस वाहियात हरकत पर नफरत या विरोध में दो शब्द नहीं दर्ज करा पा रहा। हालत यह है कि जब जिसको मौका मिलता है, वह चेक कर लेता है। इस मामले में सभी आरोपी हैं और सभी पीड़ित। कभी जो आरोपी है वह पीड़ित बन जाता है और कभी पीड़ित, आरोपी।
हमारे भीतर इतनी जनतांत्रिक चेतना और भरोसा का बोध नहीं है कि हम बुलंद हो बोल सकें कि प्राइवेसी भी कोई चीज होती है भाई।
मैं डिजिटल होते समाज का इसे एक बड़ा सवाल मानता हूं क्योंकि इससे समाज तकनीकी से तो आधुनिक हो रहा है पर चेतना के स्तर पर हमारी समझ पुरानी, दकियानूस और डिक्टेट करने वाली बनी हुई है। इस समझदारी के रहते चाहे हम इंसान ही डिजिटल क्यों न बना लें पर हम अपने देश और समाज को बराबरी, सहजता और सम्मान वाला कभी न बना पाएंगे। ‪#‎hamtobolenge‬

मर्दो का बहुमत औरतों के बारे में जनमत कैसे बनाता है...

मर्दो का बहुमत औरतों के बारे में जनमत कैसे बनाता है, उसका एक मजमून देखिए।

दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर यात्रियों के चढ़ने के साथ चटाक की आवाज आई। साफ था कि किसी के गाल पर जोर का तमाचा लगा है। देखा तो पता चला कि तमाचा एक लड़की ने एक लड़के के गाल पर मारा है। तमाचा मारने वाली लड़की, लड़के को डांट रही थी। बदतमीज और बेशर्म बोल रही थी। लड़का भौचक था जबकि भीड़ तत्पर निगाहों से दोनों को देख रही थी।

लड़का अकबकाते हुए बोला, 'मैंने क्या किया, मैंने क्या किया। इतनी भीड़ में धक्का लग गया तो मैं क्या करूं।'
लड़की, 'धक्का लगा है। बताउं मैं तुम्हें। एक और जोर की लगाउंगी तो सब याद आ जाएगा।'

भीड़ और भी तत्परता से कभी लड़के की तरफ तो कभी लड़की ओर ताके जा रही थी। लड़का वहीं गेट पर खड़ा रहा और गुस्से में तमतमाई लड़की दूसरे बोगी की ओर बढ़ गयी। थोड़ी देर में लड़का भी दूसरी ओर खिसक लिया।

तबतक ट्रेन मंडी हाउस से आगे बढ़ चुकी थी और मौन भीड़ विमर्श की मुद्रा में आ चुकी थी। विमर्श की शुरुआत करते हुए एक दक्षिण भारतीय हिंदी बोलने वाले सज्जन ने कहा, 'मैंने देखा नहीं कि लड़के ने क्या किया, लेकिन जब इतनी परेशानी रहती तो इन लोगों को लेडिज बोगी में जाना चाहिए। बताइए, मारने का क्या? पलट कर वह भी मार दे फिर हम ही लोग कहेंगे कि लेडिज पर हाथ उठाता है।'

बात को आगे बढ़ाते हुए एक दूसरे अधेड़ ने कहा, 'मैंने भी नहीं देखा कि लड़के ने क्या किया पर इन लड़कियों के साथ अपराध इसीलिए हो रहे हैं कि मर्दों का यह कोर्इ् वैल्यू ही नहीं समझतीं। जब कोई लड़की ऐसे सरेआम मर्द को बेइज्जत करेगी तो क्या होगा। अगर वह लड़का अपने पर आ जाए और कुछ कर दे तो। वैसे भी तेजाब फेंकने की कितनी घटना होने लगी हैं आजकल।'

तीसरी राय एक नौजवान की ओर से आई, 'ऐसी लड़कियों के ही बलात्कार होते हैं। कैसे ठुमक के चली गयी। अरे क्या किया होगा लड़के ने। भीड़ में धक्का ही लगा होगा न। क्यों चलती है मेट्रो से। इतने ही नखरे हैं तो गाड़ी से चला करे, बोल दे बाप को।'

चौथी राय उस आदमी की ओर से आई जिसके गले में मिनिस्ट्री आॅफ होम अफेयर्स का आईकार्ड गले में लटका था। उनके विचार में, 'पता नहीं लड़के ने लड़की के साथ किया क्या पर इसमें मैं लड़की से ज्यादा मां—बाप को दोषी मानता हूं। वह बेटियों को पारिवारिक मूल्य सिखा नहीं रहे। मेरी भी बेटियां हैं, हमलोग भी परिवार वाले हैं, कभी कोई संस्कारी लड़की ऐसा करेगी नहीं। वह सह लेगी चुपचाप। आखिर क्या मिला उस लड़की को। जो बात छुपी हुई थी वह सबके बीच आ गई, क्या इज्जत रह गयी।'

ऐसी घटनाओं के एकाध किस्से आपके पास भी होंगे। पर इस घटना में आपने गौर किया होगा कि राय बनाने वालों में से किसी को पता नहीं कि लड़के ने लड़की के साथ क्या किया, किस रूप में छेड़खानी की, क्योें लड़की ने चाटा मारा। पर राय बना ली, अगल—बगल वालों को प्रभावित किया। इतना ही नहीं राय बनाने वाले ये लोग जहां काम करते होंगे, पढ़ते होंगे या रहते होंगे, वहां भी कल को औरतों—लड़कियों की बात आने पर आंखों देखी इस साक्ष्य को कुर्सी पर मुक्का मारकर दावे के साथ पेश करेंगे।

पर आप सब जोकि इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं है, सिर्फ इस वाकये के एक पाठक भर हैं, क्या प्रत्यक्षदर्शियों के जनमत बनाने की इस प्रक्रिया के साथ आप खड़े होना जायज मानते हैं। नहीं न। फिर इसे रोकिए, चुप मत बैठिए क्योंकि बहुमत द्वारा जनमत बनाने का यह तरीका बहुत ही खतरनाक है। सिर्फ औरतों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए, एक सक्षम मुल्क के लिए।' ‪#‎metrodairy‬