Jul 28, 2010

आंदोलनों को बाज़ार बनने से रोकें


दस्तावेज क्रांतिकारी आंदोलन की जरूरत होते हैं किसी छापेखाने की नहीं। किसी प्रकाशन संस्थान से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाये।

हल्द्वानी से सुधीर कुमार

मौजूदा बहस ने इस सवाल को मौजू बना दिया है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्ट  लीग (भारत)एक क्रांतिकारी पार्टी संगठन है या नहीं?ज्यों ही हम इस सवाल का जवाब ढुंढ   लेते हैं कई गुत्थियां सुलझ जाती हैं। तब इस दल के ‘नेताओं‘का व्यवहार सहज व स्वाभाविक लगने लगता है।

हमारे सभी सवाल और आलोचनाओं की जमीन ही है कि हम ‘शशि प्रकाश एंड संस‘से कहीं न कहीं क्रांतिकारी व्यवहार की उम्मीद करते हैं। वैसे व्यवहार की जो उन्होंने खुद के लिए तय ही नहीं किया है या फिर यूं कहें कि छोड़ दिया है। अपने क्रांतिकारी अतीत को त्यागे बिना शशि प्रकाश वह सब कुछ कर ही नहीं सकते जो वह कर रहे हैं। तब उनके द्वारा मुनाफा कमाने के लिए कई अन्य हथकंडों के साथ-साथ विचारधारा एवं युगपुरुषों के इस्तेमाल पर भी हमें वैसी हैरानी-परेशानी नहीं होगी जैसी कि पढ़ने में आ रही हैं।

ये बचाने की गुहार करते हैं: इनसे बचाने की  गुहार कहाँ करें?
निहित स्वार्थों के लिए समाजवाद का बहुआयामी इस्तेमाल कोई नयी व अनोखी बात नहीं है। इसी देश में वामपंथ के नाम पर कमाने-खाने वालों और सत्ता सुख भोगने वालों की कोई भी कमी नहीं है। कई प्रकाशन संस्थानों की दुकानों में कर्मठ,ईमानदार व संकल्पबद्ध कार्यकर्ता अपनी जवानी कुर्बान करते दिखायी देते हैं। फिर शशि प्रकाश से ही शिकायत क्यों?

क्रांतिकारी कम्युनिस्ट  लीग(भारत) सी. एल. आई.की पैतृक बीमारियों से ग्रस्त एक ऐसा धड़ा है जो लाइलाज हो चुका है। यह संगठन क्रांति की तैयारी की बात करते हुए लम्बे समय से जिन गतिविधियों में लगा रहा है उसमें इसका यहां तक पहुंचना हैरान करने वाला नहीं है। शशि प्रकाश दस्तावेज नहीं लिखते हैं क्योंकि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं है। दस्तावेज क्रांतिकारी आंदोलन की जरूरत होते हैं किसी छापेखाने की नहीं। किसी प्रकाशन संस्थान से इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाये।

श्रमिकों को दी जाने वाली कम तनख्वाह भी जाना पहचाना रिवाज है। ऐसा खुलेआम किया जाय या श्रमिकों को विचारधारा या धर्म का झांसा देकर कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां आकर आशा राम और शशि प्रकाश एक जमीन पर खडे़ हो जाते हैं। उनसे उम्मीद करना कि वह अपना क्रांतिकारी लबादा उतार फेकेंगे बेकार है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि कोई मुनाफाखोर अपने मुनाफे में खुद ही कटौती कर ले।

जरूरत है क्रांतिकारी आंदोलनों को बाजार बनने से रोकने की ठोस नीति बनाने की। कारण कि बदलाव के विचारों को सिक्कों में ढालने से सिर्फ हमारी सदिच्छाएं नहीं रोक सकतीं।


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