Dec 7, 2010

हम खो गए कहां?

मुकुल सरल



हमने भी जां गंवाई है इस मुल्क की ख़ातिर
हमने भी सौ सितम सहे इस देश के लिए


ये बात अलग हम किसी वर्दी में नहीं थे
कुर्ते में नहीं थे, किसी कुर्सी पे नहीं थे


सड़कें बिछाईं हमने, ये पुल बनाए हैं
नदियों को खींचकर तेरे आंगन में लाए हैं


खेतों में हमारे ही पसीने की महक है
शहरों में हमारी ही मेहनत की चमक है


भट्टी में हम जले, हमीं चक्की में पिसे हैं
पटरी से हम बिछे, हमीं तारों में खिंचे हैं


हमने ही आदमी को खींचा है सड़क पर
बेघर रहे हैं हम, मगर सुंदर बनाए घर


हर एक इमारत में हम ही तो खड़े हैं
इस देश की बुनियाद में हम भी तो गड़े हैं


रौशन किया है ख़ून-पसीने से ये जहां
क्या हमको कभी ढूंढा, हम खो गए कहां?


हमको तो रोने कोई भी आया न एक बार
दुश्मन ने नहीं, अपनों ने मारा है बार-बार


हम भी तो जिये हैं सुनो इस मुल्क की ख़ातिर
हम भी तो रात-दिन मरे इस देश के लिए...
 
 
 
  कवि  और  पत्रकार मुकुल सरल जनसरोकारों के  प्रतिबद्ध रचनाकारों में हैं. उनसे mukulsaral@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है. उनकी एक दूसरी नज़्म पढ़ने के लिए 'तीस सितंबर' पर क्लिक करें.

2 comments:

  1. samaj ke rachnakaron par acchi kavita

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  2. 'हर एक इमारत में हम ही तो खड़े हैं
    इस देश की बुनियाद में हम भी तो गड़े हैं' dil ko chune vali panktiyan.

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