प्रेम जो कुछ भी हो,लेकिन उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है.फिर भी यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि,लेखक,प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं...
निशांत मिश्रा
प्रेम यह एक ऐसा शब्द है जो चिर प्राचीन, मगर चिर नवीन है. यह जादुई आकर्षण से अपनी ओर खींचता है.कहते हैं कि प्रेम दो आत्माओं का मिलन है,इसलिए जहाँ दैहिक आकर्षण होता है वहां कभी सच्चा प्रेम नहीं हो सकता. अगर यह बात सही है तो फिर 'मिलन' का अर्थ क्या है? दूसरा क्या आत्मा और शरीर के मिलन में कोई फर्क है?
वास्तव में देखा जाए तो दैहिक मिलन भी प्रेम का ही एक रूप है.जिस तरह शरीर और मन दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,बिल्कुल उसी तरह प्रेम और उसमें होने वाला दैहिक स्पर्श भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान के अनुसार 'काम'एक प्रकार की ऊर्जा है जिसका सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों और शरीर से होता है और यही ऊर्जा जब प्रेम का रूप लेती है तो दैहिक आनंद का सृजन होता है.सभी की इच्छा होती है कि कोई उससे प्रेम करे. आखिर प्रेम क्या है? क्या प्रेम सिर्फ दिमाग की उपज है? वास्तव में प्रेम या भोग की भावनाएँ दिमाग से ही निकलती हैं और इन्द्रियों के माध्यम से शरीर व आत्मा को इसकी अनुभूति कराती हैं.
ओशो की माने तो प्रेम जो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि वह कोई विचार नहीं है. प्रेम तो अनुभूति है. उसमें डूबा जा सकता है पर उसे जाना नहीं जा सकता.प्रेम पर विचार मत करो.विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो. उस शांति में जो अनुभव करोगे वही प्रेम है.मनोविज्ञानियों की माने तो प्रेम कुछ और नहीं मात्र आकर्षण है जो अपोजिट जेंडर के प्रति सदैव आकर्षित करता है,लेकिन इसमें भी सभी मनोविज्ञानी एक मत नहीं हैं.
चार्ल्स रुथ का मानना है कि किशोर अवस्था में प्रवेश करते ही जिस तरह लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं उसका कारण सिर्फ अपोजिट जेंडर नहीं है,बल्कि किशोर अवस्था में आने के साथ ही सेक्स हार्मोंस का संचार उनकी इन्द्रियों और शरीर में तेजी से होने लगता है.यही कारण है कि जहाँ लड़कियां खुद को सुन्दर और आकर्षक बनाने में जुटी रहती हैं वहीं लड़के अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने में लगे रहते हैं.लड़के और लड़कियां सज-धज इसीलिए करते हैं कि कोई उनकी ओर भी आकर्षित हो.सेक्स के प्रति उनकी जिज्ञासा भी इसी उम्र में जागती है. तभी तो उन्हें काल्पनिक कहानियाँ और फिल्मों के हीरो-हीरोइन अच्छे लगते हैं. उनके व्यहवार में परिवर्तन आ जाता है. वह ऐसा क्यों करते हैं? कारण सीधा सा है क्योंकि यह भी एक तरह से यौन इच्छा का संचार है.
अगर बात आकर्षण की करें तो हर किसी का प्रयास होता है कि सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो.इसी आकर्षण से उपजता है प्रेम और इसी प्रेम का परिणाम है दैहिक सुख.इसके लिए इन्सान कुछ न कुछ ऐसा करने को तत्पर रहता है जिस पर सबका ध्यान जाए.यह मनोवृत्ति है जिससे लड़के और लड़कियां भी अछूते नहीं.यही बात प्रेम करने वालों पर भी लागू होती है.जब तक दोनों के बीच आकर्षण रहेगा तब तक प्रेम भी रहेगा.आकर्षण खत्म होते ही प्रेम उड़न छू. फिर प्रेम कैसा?
आकर्षण प्रेम संबंधों को प्रगाढ़ करता है.प्रेम संबंधों के बीच पनपे यौन सम्बन्ध को वासना का नाम देना अनुचित ही होगा.जब दो जने स्वेच्छा से अपने शारीरिक और आत्मिक सुख व आनंद की प्राप्ति के लिए एकाकार होते हैं तो वह अनुचित कैसे हो सकता है,लेकिन हमारी सामाजिक धारणाएं इसे अनुचित और नाजायज़ मानती हैं.हाँ,प्रेम संबंधों के अतिरिक्त मात्र दैहिक सुख के लिए बनाये जाने वाले सम्बन्ध को जरुर वासनापूर्ति की श्रेणी में रखा जा सकता है. हम प्रेम और दैहिक आनंद की व्याख्या कुछ इस तरह से भी कर सकते हैं कि शरीर और आत्मा क्या है? दोनों को ही किसी भी प्रकार की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से ही होती है.
शरीर और आत्मा हमेशा आनंद पाने को लालायित रहते हैं इसीलिए वह हमेशा अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षित होते हैं और इस आनंद की अनुभूति तब होती है जब प्रेम और भोग के दौरान इन्द्रियां संतुष्टि का अहसास कराती हैं.प्रेम और दैहिक आनंद सभी सुखों से बढ़कर एक ऐसा वास्तविक सुख है जिसका कोई अंत नहीं.शरीर और आत्मा दोनों ही सदैव इस सुख को भोगने के लिए तत्पर रहते हैं. यह शाश्वत और अटल सत्य है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता. यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि, लेखक, प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं होंगे.
दैहिक आनंद और प्रेम को लेकर बहुत भ्रांतियां हैं,लोग दोनों को अलग अलग करके देखते हैं.जबकि वात्सायन के कामसूत्र और उसी को आधार मान कर लिखे गए अन्य ग्रंथों या किताबों का अध्ययन करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि धर्म,सांसारिक संपत्ति और आत्मा की मुक्ति की तरह ही प्रेम और दैहिक आनंद का भी इन्सान के लिए समान महत्व हैं. जीवन की इन प्रमुख गतिविधियों में से किसी एक का अभाव मानव जीवन अधूरा बना देता है.जैसे इनका होना जीवन में आवश्यक है वैसे ही दैहिक सुख का.अगर इस पर ध्यान नहीं दिया जाये तो इन्सान का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.
दैहिक सुख को हिन्दू शास्त्रों में तीन अन्य व्यवसाय की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है और इसका उल्लेख वृहदरन्यका उपनिषेद में विस्तृत रूप से किया गया है.कुल मिलाकर प्रेम एक ऐसा जादूई अनुभव या अनुभूति है जिसे हम अलग अलग समय पर,बचपन,जवानी,वृद्धावस्था में अलग अलग तरीके से अनुभव करते हैं.
दैहिक सुख को हिन्दू शास्त्रों में तीन अन्य व्यवसाय की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है और इसका उल्लेख वृहदरन्यका उपनिषेद में विस्तृत रूप से किया गया है.कुल मिलाकर प्रेम एक ऐसा जादूई अनुभव या अनुभूति है जिसे हम अलग अलग समय पर,बचपन,जवानी,वृद्धावस्था में अलग अलग तरीके से अनुभव करते हैं.
पत्रकार निशांत मिश्रा पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर के पूर्व उपाध्यक्ष हैं, उनसे journalistnishant26@gmail.com संपर्क किया जा सकता है.
करीब-करीब सही कहा. बहस बहुत पुरानी है मगर जो आत्मा की बात करते हैं वह भी शरीर के रस्ते ही आत्मा में उतरते हैं. यह ढोंगियों का तर्क है कि आत्मा से प्रेम करो शारीर से नहीं. आपको यह विषय उठाने के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteबहुत सही कहा निशांत जी, प्रेम एक ऐसा शब्द है जिसे शब्दों के जरिये व्यक्त नहीं किया जा सकता, यह तो एक अहसास है, इसमें जितना डूबेंगे उतना ही आनंद प्राप्त होगा. मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती की जहाँ देहिक आकर्षण हो वहां सच्चा प्रेम नहीं हो सकता. पति-पत्नी में देहिक आकर्षण भी होता है और प्रेम भी. आपने सिक्के के दोनों पहलुओं का बेहद सुन्दर और बेबाक तरीके से चित्रण किया है. बेहतरीन रचना के लिए बधाइयाँ.
ReplyDeleteआपने बहुत सही कहा है निशान्त जी. मुझे याद आ रहा है, मैं कभी वात्स्यायन को पढ़ रहा था. वात्स्यायन ने इस विषय पर एक लम्बी चर्चा की है. वह कहता है कि प्रेम तबतक स्थायी नहीं हो सकता जबतक कि शारीरिक संबंध विकसित ना हो. इस संबंध में मेरा कोई पर्सनल विचार तो अबतक बन नहीं पाया है लेकिन मैं इसमें आपकी तरह ही ओशो के विचार से सहमत हूँ कि प्रेम और सेक्स दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं और इन्हें अलगाकर देखने से ही बहुत सारी कुंठाओं का जन्म होता है. ओशो की तरह ही मैं भी इस विचार का पोषक हूँ कि सेक्स परमानन्द को प्राप्त करने का एक माध्यम है जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक 'संभोग से समाधि की ओर ..' में लिखा है. आपको एक विचारपरक लेख के लिए बधाई.......
ReplyDelete.....अनुज, कहानीकार, दिल्ली.
lekh acha hai but mere kuch sawal hai aapke pure lekh ke kander me opposite sex attaraction hai to kya aap gay-lasbian relation ko kis trah dekhte hain.
ReplyDeleteअनुभूति क्या विचार नहीं है ..विचार के बिना अनुभूति ...जरा सोचिये ..सब गड्ड- मड्ड हो जायेगा .
ReplyDeleteसम्मानीय सुधीर जी, खुशबू जी, अनुज जी, चंदू जी, अशोक जी......आप सभी को धन्यवाद एवं आभार. चंदू जी आपने गे और लेस्बियन रिश्ते को लेकर जो सवाल किया उस पर यहाँ कोई टिप्पणी करना उचित नहीं. उनकी अपनी दुनिया और मानसिकता होती है और प्रेम, आकर्षण व देहिक सुख का तरीका भी असामान्य...जो हमारी संस्कृति और सामाजिक धारणाओं के विपरीत माना जाता है. उनका आनंद उसी रूप में है. वैसे यह एक लम्बी और सार्थक बहस का विषय भी है जिस पर हम सही समय पर विस्तृत चर्चा अवश्य करेंगे. भाई अशोक जी यहाँ मेरे विचार आपसे जुदा हैं. अनुभूति अहसास है विचार नहीं. विचारों से होने वाली अनुभूति और प्रेम, आकर्षण व देहिक स्पर्श से होने वाली अनुभूति में काफी अंतर है. फिर हर किसी का अपना नजरिया होता है. आप सभी इसी तरह अपनी टिप्पणियों के जरिये मेरा मार्गदर्शन करते रहें.
ReplyDeleteसादर,
निशांत मिश्रा
प्रेम वास्तव में एक जादुई आकर्षण ही तो है जिसके सम्मोहन में न तन की सुध रहती है, न मन की. जब तक प्रेम में तन और मन एकाकार न हों आत्मा प्रेम की अनुभूति कर ही नहीं सकती. परमानन्द की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग प्रेम ही है और कुछ नहीं. फिर शरीर तो वैसे भी नश्वर और भोग की वस्तु है. उन्मुक्त प्रेम ही आत्मिक सुख है. चिर परिचित, लेकिन गंभीर विषय पर लेखन के लिए साधुवाद.
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