दिल्ली में आयोजित एक सेमीनार में भाग लेने आये नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के उपाध्यक्ष बाबूराम भट्टराई से अजय प्रकाश की बातचीत...
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)ने नये संविधान निर्माण का जो लक्ष्य तय किया था वह अब तक क्यों नहीं पूरा हो सका?
पार्टी के लिए भी यही सवाल इस समय केंद्रीय बना हुआ है कि आखिर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर वह कौन सी गलतियां हैं, जिनकी वजह से हम लोग देश की जनता की उम्मीदों को अब तक पूरा नहीं कर सके। पार्टी में बहुतायत की राय बनी है कि हम लोग सिद्धांत और व्यवहार के तालमेल में असफल रहे। पार्टी ने जनयुद्ध के जरिये क्रांति की ओर कदम बढ़ाते हुए दो महत्वपूर्ण सफलताएं दर्ज की थी। पहली पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और दूसरा आधार क्षेत्र। हमें मौजूदा समय में लग रहा है कि पार्टी आधार क्षेत्रों में अपनी ताकत बरकरार रखने में सफल नहीं रह पायी है।
पार्टी में जिस तरह के विरोध के स्वर उठ रहे हैं, वैसे में कहीं ऐसा तो नहीं कि पार्टी टूट जाये?
अभी-अभी 7हजार पार्टी कार्यकर्ताओं का प्लेनम हुआ है। इस प्लेनम के बाद हम दोटूक कह सकते हैं कि पार्टी में नेतृत्व के स्तर पर ऐसा कोई अंतरविरोध नहीं है जिससे पार्टी के टूटने की कोई बात हो। हो सकता है पहले की तरह एकाध नेता निकलें, मगर पूरी पार्टी अब नयी चुनौतियों के साथ और मजबूत हुई है। भारतीय अखबारों में जो खबरें आती हैं वह अविश्वनीय और अधकचरी दोनों हैं,जिससे यहां भ्रम फैलता है। हालांकि भारतीय शासक वर्ग की चाहत भी यही है। पार्टी में फिलहाल बहस इस बात पर है कि अभी क्या किया जाये। दूसरी बहस प्रधान अंतरविरोध को लेकर भी है। पार्टी बहुमत का मत है कि 2005 में हुए बारह सूत्रीय समझौते को बातचीत के रास्ते आगे बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय स्तर पर अपने को मजबूत किया जाये।
कहीं समस्या बारह सूत्रीय समझौते में तो नहीं है?
हमें ऐसा नहीं लगता। मौजूदा विश्व परिस्थिति और नेपाल में पार्टी की स्थिति के मद्देनजर ही माओवादी नेतृत्व ने निर्णय लिया था। हमारा कतई नहीं मानना है कि बारह सूत्रीय समझौते का निर्णय किसी जल्दबाजी या दबाव में लिया गया था। पार्टी ने एक लंबे अनुभव और बहसों की प्रक्रिया को पूरी करने के बाद ही यह तय किया था कि अब हमें संविधान निर्माण की प्रक्रिया को इसी रास्ते पूरा करना है।
भारत सरकार के नुमाइन्दों से आपकी क्या बात हुई?
भारत सरकार संभवतः समझना चाहती है कि आखिर कहां गलती हुई, जो सोलह बार सरकार बनाने के लिए हुए प्रयासों के बावजूद नेपाल में कोई स्थिर सरकार नहीं बन सकी। हालांकि यह मेरा अनुमान है। पूर्व विदेश मंत्री और मौजूदा वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी नेपाल की अस्थिरता को लेकर गंभीर दिखे। भारत सरकार को इसी गंभीरता से नेपाल में ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते नेकपा (माओवादी) को संविधान निर्माण का मौका मिले।
मगर अब तो नये संविधान के निर्माण के लिए पांच वर्षों में से सिर्फ चार महीने ही शेष रह गये हैं, आपको लगता है कि आप लोग इस काम को पूरा कर पायेंगे?
बेशक हमारे लिए यह एक चुनौती होगी,जिसमें पार्टी कामयाब होने में अपनी पूरी ताकत झोंक देगी। गांवों में हमारा अभी भी व्यापक जनाधार है। अगर हम लोग गांवों में अपने समर्थकों के बीच फिर एक बार व्यापक एकता कायम करते हुए बढ़ें तो शहरों में जनता स्वतः नये संविधान निर्माण की प्रक्रिया के समर्थन में संगठित हो जायेगी। पार्टी मानती है कि हमें जितनी तैयारी करनी चाहिए थी, उसमें कमी रह गयी।
कहीं ऐसा तो नहीं कि यह रास्ता ही गलत रहा हो?
मैं पहले भी कह चुका हूं और फिर एक बार कह रहा हूँ कि जनयुद्ध के रास्ते से आगे बढ़कर नेकपा (माओवादी) का संघर्ष के इस रास्ते को चुनना कोई भूल नहीं है। बेशक इन पांच वर्षों के लिए पार्टी ने जो सैद्धांतिक निर्णय लिये थे, उनको हम लोग ठीक ढंग से अमल कराने में असफल रहे, जिसे हम स्वीकार करते हैं। बीते पांच वर्षों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति के पक्ष में जो माहौल बनाना था, उसमें भी पार्टी कुछ ज्यादा नहीं कर सकी।
मगर बीते पांच वर्षों में सरकार बनाने-बिगाड़ने को लेकर समझौते और बातचीत तो खूब हुई। आपको नहीं लगता कि माओवादी पार्टी की बड़ी ताकत इसी में उलझी रही?
यह बात भी सही है। मगर दूसरी तरफ देखें तो ऐसा स्वाभाविक तौर पर भी हुआ, क्योंकि 2005 में चुनाव जीतकर आने के बाद से पार्टी का मुख्य कार्यभार नेपाल में नया संविधान निर्माण था। जाहिर तौर पर नया संविधान निर्माण बहुमत की बदौलत ही होना है। इस कारण हम लोगों की बड़ी क्षमता इसी काम में लगी रही कि कैसे भी करके देश में एक जनतांत्रिक संविधान का निर्माण हो। चूंकि देश को एक सच्चे लोकतंत्र बनाने की चिंता और सोच बुनियादी रूप से माओवादी पार्टी की ही है, इसलिए मुश्किलें और भी गंभीर होती चली गयीं।
कुछ लोगों का मानना है कि जनयुद्ध के बाद माओवादी बुर्जुआ पार्टियों के गठबंधन के चक्रव्यूह में उलझ गये?
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि माओवादियों को छोड़ देश की दूसरी सभी पार्टियां इस खेल में माहिर थीं। मगर एक फर्क लक्ष्य का भी था। पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल की एमाले पार्टी हो या फिर स्वर्गीय गिरिजा प्रसाद कोइराला की नेपाली कांग्रेस, सभी सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन कर रहे थे, जबकि माओवादी उन सहायक शक्तियों से एका कर रहे थे जो नये नेपाल को बना सकें, देश को नया संविधान दे सकें।
कैंपों में रह रहे माओवादी पार्टी की जनसेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए)के जवानों की मानसिक तैयारी कैसी है, क्या वे अभी भी पार्टी के आहवान पर उसी तरह संघर्ष करने को तैयार हो पायेंगे, जैसा उनका इतिहास रहा है?
उम्मीद तो पार्टी यही करती है। हालांकि कैंपों में इतने वर्ष बिताने के बाद पीएलए की संघर्ष के लिए मानसिक तैयारी को मिला-जुला कहना, सच के ज्यादा करीब होगा। मिलिट्री के स्तर पर देखें तो राज्य की सेना के मुकाबले हम कमजोर हैं और अब मुश्किलें और बढ़ गयी हैं। भारतीय सेना वहां के जवानों को प्रशिक्षित कर रही है और भारत हथियार भी नेपाल को दे रहा है। इसलिए हमें लगता है कि फिलहाल तो बातचीत से ही रास्ता निकालने की कोशिश होनी चाहिए।
अगर दूसरी पार्टियां बातचीत के जरिये नये संविधान निर्माण को लेकर सहमत नहीं होती हैं और मई तक की समयसीमा समाप्त हो जाती है, वैसे में आपकी पार्टी क्या करेगी?
फिर से हम नये सिरे से कोशिश करेंगे,क्योंकि संविधान निर्माण तक पार्टी का यही मुख्य कार्यभार है। वैसे तो देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते यह मौका माओवादी पार्टी को मिलना चाहिए। बहरहाल देखिये क्या होता है।
नेपाल में संविधान सभा के चुनाव की समयसीमा समाप्त होने के बाद क्या सेना माओवादियों का दमन करेगी ?
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से हम लोग फिर से अपने आधार इलाकों को पुनर्गठित करने की जोरदार प्रक्रिया शुरू कर रहे हैं। चूंकि हम सैन्य मामलों में नेपाली सेना से बराबरी नहीं कर सकते इसलिए ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिए जनांदोलनों का रास्ता अपनाया जाये।
क्या माओवादी पार्टी फिर से जनयुद्ध के रास्ते पर लौट सकती है?
बहुत ज्यादा दमन की स्थिति में थोडे़ दिनों के लिए पार्टी बचाव में ऐसा कर सकती है, मगर पहले की तरह 10-12 साल के लिए जनयुद्ध के रास्ते पर अब नेपाली माओवादी नहीं लौटेंगे। हमारे पास 2003के पास कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे साफ हो गया था कि हम लोग सैन्य मामलों में नेपाली सेना को मात नहीं दे सकते।
भारतीय माओवादियों की नेपाली माओवादियों के बारे में जो आलोचना है कि बुर्जुआ राजनीति में भागीदारी विचलन है, इस बारे में आप क्या कहते हैं?
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यह आलोचना सही लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर भारत और नेपाल की राजनीतिक स्थितियां अलग हैं। हम अभी नेपाल में राजशाही का अंत कर एक गणतांत्रिक देश बनने की प्रक्रिया में हैं, जबकि भारत इस दौर से गुजर रहा है। इसलिए नेपाल की विशेष परिस्थितियों में अभी देश में बुर्जुआ संविधान निर्माण ही क्रांति की पहली मंजिल है।
भारतीय माओवादियों से आपके किस तरह के संबंध है?
एक कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते हमारा उनसे बिरादराना संबंध है, इससे इतर कुछ भी नहीं।
(पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' से साभार)
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