सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन,सरकारी धन के दुरुपयोग,भ्रष्टाचार,रिश्वत मांगने आदि मामलों में विभागीय जाँच कराकर अनुशासनिक कार्यवाही का बहाना खोज लिया जाता है, जबकि इसी प्रकार के अपराध में आम व्यक्ति को जेल की हवा खानी पडती है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने एक निर्णय सुनाया,जिसमें न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग तथा एमसी गर्ग की खण्डपीठ ने रक्षा मंत्रालय से वरिष्ठ लेखा अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हो चुके एचएल गुलाटी की आधी पेंशन काटे जाने की बात कही गयी। गुलाटी ने अपनी नौकरी के दौरान 36 झूठे दावों के लिए भुगतान को मंजूरी देकर सरकारी खजाने को 42लाख रुपये से भी अधिक की चपत लगायी थी। हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर भी गुलाटी को जेल भेजने की बात पर विचार तक नहीं किया और 50 फीसदी पेंशन काटे जाने की सजा सुना दी।
इस निर्णय को तथाकथित राष्ट्रीय कहलाने वाले समाचार-पत्रों और चैनलों ने अफसरों के लिये कोर्ट का कड़ा सन्देश कहकर प्रचारित किया.मेरा मानना है कि एक सिद्ध हो चूके दोषी के खिलाफ हाईकोर्ट का इससे नरम रुख और क्या हो सकता था?मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि हाईकोर्ट के इस निर्णय से भ्रष्टाचार पर लगाम लगने के बजाय बढ़ावा ही मिलेगा.
दूसरा प्रश्न है कि 42लाख रुपये का गलत भुगतान करवाने वाले भ्रष्टाचारी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत मामला दर्ज करके दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की गयी?केवल विभागीय जाँच करके विभागीय नियमों के तहत की जाने वाली अनुशासनिक कार्यवाही की औपचरिकता पूर्ण करके मामले की फाइल बन्द क्यों कर दी गयी,जबकि कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकसेवकों द्वारा किये जाने वाले अपराधों के लिये अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये।मगर ऐसा नहीं हो पाता.
कार्रवाई न हो पाने वाले 99फीसदी मामलों के जिम्मेदार नौकरशाह हैं. इसलिए जरूरी है कि विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही और ऐसा नहीं करने पर जिम्मेदार उच्च लोकसेवक या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी कार्यवाही का प्रावधान हो.लेकिन यह प्रावधान अब तक नहीं हो सका ?जवाब बहुत साफ है.चूँकि कानून बनाने वाले वही लोग हैं जिनको ऐसा प्रावधान लागू करना होता है,ऐसे में कौन अपने गले में फांसी का फन्दा बनाकर डालना चाहेगा?
कहने को तो भारत में लोकतन्त्र है और जनता द्वारा निर्वाचित सांसद जो संसद में मिल-बैठकर कानून बनाते हैं, लेकिन-संसद के समक्ष पेश किये जाने वाले कानूनों की संरचना भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्पाद(आइएएस) महामानवों द्वारा की जाती हैं,जो स्वयं ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश की 99 फीसदी समस्याओं के मूल कारण हैं।
विचारणीय विषय है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से गाली-गलौज और मारपीट करता है तो आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत अपराध बनता है और ऐसे आरोपी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने पर पुलिस जाँच करती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष खुली अदालत में मामले पर विचार होता है और अपराध सिद्ध होने पर कारावास की सजा होती है। इसके विपरीत एक अधिकारी अपने कार्यालय के किसी सहकर्मी के साथ ऐसा कुछ करता है तो उच्च पदस्थ अधिकारी या विभागाध्यक्ष ऐसे आरोपी के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज न करवाकर स्वयं ही अपने विभाग के अनुशासनिक नियमों के तहत कार्यवाही करते हैं। जिसके तहत आमतौर पर चेतावनी,उसके कृत्य की भर्त्सना (निंदा)किये जाने आदि का दण्ड दिया जाता है और मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है।
इस प्रकार के प्रकरणों में प्रताड़ित या व्यथित व्यक्ति (पक्षकार)की कमी के कारण भी अपराधी लोक सेवक कानूनी सजा से बच जाता है,क्योंकि व्यथित व्यक्ति स्वयं भी चाहे तो मुकदमा दायर कर सकता है,लेकिन अपनी नौकरी को खतरा होने की सम्भावना के चलते वह ऐसा नहीं करता है। लेकिन यदि विभागाध्यक्ष द्वारा मुकदमा दायर करवाया जाये तो उसकी नौकरी को तो किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता,लेकिन विभागाध्यक्ष द्वारा पुलिस में प्रकरण दर्ज नहीं करवाया जाता है। जिसकी भी वजह होती है-स्वयं विभागाध्यक्ष का इस प्रकार के अपराधों में अधीनस्थों पर तानाशाही गांठना. जिसके चलते मनमानीपूर्ण व्यवस्था संचालित होती है,जो कानूनों के विरद्ध काम करवाकर भ्रष्टाचार को अंजाम देने के लिये जरूरी होता है।
सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन, सरकारी धन के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, रिश्वत मांगने आदि मामलों में भी इसी प्रकार की अनुशासनिक कार्यवाही होती है। जबकि इसी प्रकार के अपराध आम व्यक्ति द्वारा किये जाने पर उसे जेल की हवा खानी पडती है। ऐसे में यह साफ तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि जनता की सेवा करने के लिये जनता के धन से उसके नौकर के रूप में नियुक्त सरकारी अधिकारी -कर्मचारी नौकरी लगते ही जनता और कानून से उच्च हो जाते हैं। उन्हें आम जनता की तरह सजा न देकर विभागीय जाँच के नाम पर सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया दिया जाता है।
विधि के इतिहास में निष्पक्षतापूर्वक देखें तो विभागीय जाँच की अवधारणा केवल उन मामलों के लिये स्वीकार की गयी थी,जिनमें ओफिसियल कार्य को अंजाम देने के दौरान लापरवाही बरतने, बार-बार गलतियाँ करने और कार्य को समय पर निष्पादित नहीं करने जैसे दुराचरण के जिम्मेदार लो सेवकों को छोटी-मोटी शास्ती देकर सुधारा जा सके। बाद में लोकसेवकों के सभी प्रकार के कुकृत्यों को केवल दुराचरण मानकर विभागीय जाँच का नाटक करके उन्हें बचाने की व्यवस्था लागू कर दी गयी। इसकी ओट में सजा देने का केवल नाटक भर किया जाता है। विभागीय जाँच का असली मकसद अपराधी को बचाना होता है.
इस बात को साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझता है कि देश के खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति देशद्रोही से कम अपराधी नहीं हो सकता और उसके विरुद्ध कानून में किसी भी प्रकार के रहम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, लेकिन जिन्दगीभर भ्रष्टाचार के जरिये करोडों का धन अर्जित करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद यदि 1/2 पेंशन रोक कर सजा देना ही न्याय है तो फिर इसे तो कोई भी सरकारी अफसर खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगा.
दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय से 42लाख रुपये के गलत भुगतान का अपराधी सिद्ध होने पर भी गुलाटी न तो चुनाव लडने या मतदान करने से वंचित होगा और न ही वह कानून के अनुसार अपराधी सिद्ध हो सका है। उसे केवल दुराचरण का दोषी ठहराया गया है, जबकि ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४०९ के अनुसार आपराधिक न्यासभंग का मामला बनता है। जिसमें अपराध सिद्ध होने पर आजीवन कारावास तक की सजा का कडा प्रावधान किया गया है।
मेरा तो स्पष्ट मानना है कि जैसे ही कोर्ट के समक्ष ऐसे प्रकरण आयें,कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर अपराधी के साथ-साथ सक्षम उच्च अधिकारी या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश देने चाहिये,जिससे ऐसे मामलों में खुद-ब-खुद प्रारम्भिक स्तर पर ही पुलिस में मामले दर्ज होने शुरू हो जायें और अपराधी विभागीय जाँच की आड में सजा से बचकर न निकल सके। इसके लिये आमजन को आगे आना होगा और संसद को भी इस प्रकार का कानून बनाने के लिये बाध्य करना होगा। अन्यथा गुलाटी जैसे भ्रष्टाचारी जनता के धन को इसी तरह से लूटते रहेंगे और सरेआम बचकर इसी भांति निकलते भी रहेंगे।
सारगर्भित लेख और बेहद जरूरी सुझाव. अगर हमारी संसद आपके इस सुझाव पर कानून बनाये तो शायद भ्रष्टाचार में कोई कमी आये.
ReplyDeleteजो सवाल डॉक्टर जी ने उठाये हैं इस दृष्टि से कम ही लोग सोचते हैं.lekin sochane se hota kya hai, sirf tippanyan kee ja sakti hain.
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